भारत का उच्चतम न्यायालय
सिविल अपीलीय अधिकारिता
सिविल अपील संख्या 619 / 2023
विशेष अनुमति याचिका संख्या 15635 / 2016
गैस पॉइंट पेट्रोलियम इंडिया लिमिटेड.. अपीलार्थी (गण)
विरुद्ध
राजेंद्र मरोठी व अन्य प्रत्यर्थी (गण)
निर्णय
एम. आर. शाह न्यायमूर्ति
1. वर्तमान अपील मूल प्रत्यर्थी सं. 1- निष्पादन न्यायालय के समक्ष आक्षेपकर्ता द्वारा मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय मुख्यपीठ जबलपुर द्वारा रिट याचिका संख्या 3342 / 2015 में दिनांक 29.04.2016 को पारित आक्षेपित निर्णय और आदेश से व्यथित और असंतुष्ट होकर जिसके द्वारा उच्च न्यायालय ने यहां प्रत्यर्थी सं. 1 द्वारा प्रस्तुत उक्त रिट याचिका को स्वीकार किया और अधीनस्थ अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया और प्रश्नगत संपत्ति के संबंध में निष्पादन न्यायालय द्वारा पारित आदेश को बहाल किया है।
2. वर्तमान अपील से सम्बंधित तथ्य संक्षेप में इस प्रकार हैं-
2.1 नेशनल गिन्नी एंटरप्राइजेज और श्रीमती गायत्री अग्रवाल के बीच एल.पी.जी. गैस करार सम्बन्धी विवाद था। श्रीमती गायत्री अग्रवाल द्वारा एक सिविल प्रकरण क्रमांक 07-ए/ 98 नेशनल गिन्नी एंटरप्राइजेज के विरुद्ध संस्थित किया गया था। विद्वान विचारण न्यायालय ने निर्णीत ऋणी (नेशनल गिन्नी एंटरप्राइजेज) को करार की शर्तों के अनुसार गैस प्रदान करने का निर्देश देते हुए एक डिक्री पारित की डिक्री में उपबंध था कि यदि प्रतिवादीगण उक्त आदेश का पालन करने में असमर्थ हों, तो 1 वैकल्पिक रूप से यह निर्देश दिया गया कि वादी क्रमशः गैस सिलेंडरों और रेगुलेटरों की लागत से संबंधित राशि रुपये 2,38,450 /- रुपये 23,500 / – ( एवमेव) प्राप्त करने का हकदार था। निर्णीत ऋणी ने आदेश के प्रथम भाग को पूरा नहीं किया और गैस सिलेंडरों और रेगुलेटरों की आपूर्ति नहीं की। इसलिए डिक्रीदार ने निष्पादन न्यायालय के समक्ष निष्पादन- याचिका प्रस्तुत की। निर्णीत ऋणी की संपत्ति बेचने का निर्णय लिया गया। तदनुसार, घोषणा की गई और संपत्ति की नीलामी की गई और यहां प्रत्यर्थी सं. 1 के पक्ष में दिनांक 03.11.2011 को सम्पति विक्रय की गयी। अपीलकर्ता यहां मूल प्रत्यर्थी सं. 1 ने निष्पादन न्यायालय के समक्ष, अन्य बातों के साथ-साथ, यह कहते हुए आपत्ति प्रस्तुत की कि संपत्ति दिनांक 31.08.1999 को निर्णीत ऋणी से उसके द्वारा खरीदी गई थी और उक्त भूमि पर उनका कब्जा है। सीपीसी के आदेश 21 नियम 90 सहपठित धारा 151 के तहत एक आवेदन प्रस्तुत किया गया था। विद्वान निष्पादन न्यायालय ने आदेश दिनांक 23.01.2013 द्वारा आदेश 21 नियम 90 के तहत आपत्तियों को नामजूर कर आवेदन खारिज कर दिया। अपीलकर्ता ने अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, दमोह के न्यायालय के समक्ष विविध दीवानी अपील प्रस्तुत की, जो विविध सिविल अपील संख्या 12 / 2013 है। अधीनस्थ अपीलीय न्यायालय ने उक्त अपील को स्वीकार किया और निष्पादन न्यायालय के दिनांक 23.01.2013 के आदेश को अपास्त कर दिया और पक्षकारों को फिर से सुनने और सभी तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखने के बाद विधि अनुरूप एक नया आदेश पारित करने के लिए मामले को निष्पादन न्यायालय के पास वापस भेज दिया। अधीनस्थ अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित आदेश उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान रिट याचिका की विषय-वस्तु था। आक्षेपित निर्णय और आदेश द्वारा उच्च न्यायालय ने कथित रिट याचिका को स्वीकार किया है और इसने अधीनस्थ अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित आदेश को यह देखते हुए रद्द कर दिया है कि यहा अपीलकर्ता मूल प्रत्यर्थी सं. 1. विक्रय में की गई अनियमितता या धोखाधड़ी की प्रकृति अभिवाचित और सिद्ध करने में विफल रहा है और इसलिए निष्पादन न्यायालय के आदेश में कोई दोष नहीं पाया जाता।
2.2 उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय और आदेश से व्यथित और असंतुष्ट होकर, मूल प्रत्यर्थी सं. 1 ने वर्तमान अपील प्रस्तुत की है।
3. अपीलकर्ता की ओर से विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रवींद्र श्रीवास्तव और प्रत्यर्थी सं. 1 की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री संजय के. अग्रवाल, उपस्थित हुए।
4. अपीलकर्ता की ओर से उपस्थित विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रवींद्र श्रीवास्तव ने जोर देकर निवेदन किया कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में उच्च न्यायालय ने रिट याचिका को स्वीकार कर और अधीनस्थ अपीलीय न्यायालय के तर्कपूर्ण आदेश को रद्द और अपारत करके गंभीर त्रुटि की है।
4.1 यह निवेदन किया गया कि वर्तमान मामले में सीपीसी के आदेश 21 नियम 64 और आदेश 21 नियम 84 / 85 का उल्लंघन किया गया था और इसलिए उपरोक्त प्रावधानों का अनुपालन न करने के कारण विक्रय दूषित हो गया है।
4.2 यह निवेदन किया गया कि वर्तमान प्रकरण में प्रश्नगत संपत्ति की दिनांक 18.10.2011 को नीलामी की गयी थी और इसलिए नीलामी क्रेता द्वारा विक्रय राशि का 25 प्रतिशत तत्काल जमा किया जाना अपेक्षित था। यह निवेदन किया गया कि वर्तमान प्रकरण में नीलामी क्रेता ने 03.11.2011 को राशि का 25 प्रतिशत जमा किया। यह निवेदन किया गया कि इसलिए सीपीसी के आदेश 21 नियम 84 का अनुपालन नहीं किया गया है आगे यह और निवेदन किया गया कि नीलामी की तारीख से पंद्रह (15) दिनों की अवधि के भीतर नीलामी क्रेता द्वारा विक्रय शेष प्रतिफल ( 75 प्रतिशत ) जमा करना आवश्यक था। यह निवेदन किया गया कि वर्तमान मामले में नीलामी क्रेता द्वारा विक्रय प्रतिफल का शेष 75 प्रतिशत दिनांक 04.11.2011 को जमा किया गया था यह निवेदन किया गया कि इसलिए यह सीपीसी के आदेश 21 नियम 85 का भी उल्लंघन हुआ है। आदेश 21 नियम 64, 84, 85 एवं 86 के आधार पर तथा मणिलाल मोहनलाल शाह व अन्य बनाम सरदार सैयद अहमद सैयद महमद व अन्य (1955) 1 एस. सी. आर. 108 और रोसाली वी. बनाम टैंको बैंक व अन्य (2009) 17 एस. सी.सी. 690, के प्रकरणों में दिए गए इस न्यायालय के निर्णयों के आधार पर वर्तमान अपील स्वीकार करने की प्रार्थना की जाती है।
4.3. अपीलकर्ता की ओर से उपस्थित विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता द्वारा यह भी निवेदन किया गया है कि अन्यथा भी उच्च न्यायालय ने इस तथ्य का उचित मूल्यांकन नहीं किया है कि प्रश्नगत संपत्ति अपीलकर्ता द्वारा 31.08.1999 को निर्णीत ऋणी से खरीदी गई थी और उस समय प्रश्नगत संपत्ति सिविल वाद का विषय नहीं था यह निवेदन किया गया कि एल.पी.जी. गॅस करार के विनिर्दिष्ट अनुपालन के लिए सिविल वाद प्रस्तुत किया गया था यह निवेदन किया गया कि यहां तक कि दिनांक 18.05.1999 का व्यादेश भी प्रश्नगत संपत्ति का विषय नहीं था यह निवेदन किया गया कि जब प्रश्नगत संपत्ति को निष्पादन न्यायालय द्वारा 18.10.2011/03.11.2011 को नीलाम किया गया, उससे बहुत पहले अर्थात 31.081999 को संपत्ति अपीलकर्ता ने खरीदी थी। यह निवेदन किया गया कि इसलिए जिस समय संपत्ति की नीलामी की गई थी उस समय निर्णीत ऋणी प्रश्नगत संपत्ति, जिसे अपीलकर्ता द्वारा 31.08.1999 को पंजीकृत विक्रय विलेख द्वारा खरीदा गया था, का मालिक नहीं था। यह निवेदन किया गया कि इसलिए उच्च न्यायालय ने यह प्रेक्षित करने में बहुत गंभीर त्रुटि की है कि अपीलकर्ता ने विचारण न्यायालय द्वारा दिनांक 18.05.1999 को दिए गए व्यादेश के होते हुए संपत्ति खरीदी थी और यह कि अपीलकर्ता को आपत्ति उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि अपीलकर्ता ने व्यादेश के होते हुए संपत्ति खरीदी।
4.4 उपरोक्त निवेदन करते हुए और उपरोक्त निर्णयों का अवलंब लेते हुए वर्तमान अपील को स्वीकार करने की प्रार्थना जाती है।
5. प्रत्यर्थी सं. 1 नीलामी क्रेता की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री संजय अग्रवाल द्वारा अपील का पुरजोर विरोध किया गया।
5.1 प्रत्यर्थी सं. 1 की ओर से उपस्थित विद्वान अधिवक्ता द्वारा यह निवेदन किया गया कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों में उच्च न्यायालय द्वारा विद्वान निष्पादन न्यायालय द्वारा पारित आदेश को बहाल करने और अपीलकर्ता यहाँ आपत्तिकर्ता द्वारा उठाई गई आपत्तियों को खारिज करने में कोई त्रुटि नहीं की गई है।
5.2 यह निवेदन किया गया कि आदेश 21 नियम 90 की उचित व्याख्या कर उच्च न्यायालय ने आदेश 21 नियम 64 और आदेश 21 नियम 84 / 85 के कथित उल्लंघन के आधार पर पर विक्रय को अपास्त करने से ठीक ही इनकार किया है। यह निवेदन किया गया कि अपीलकर्ता ने दाद के लंबित रहने के दौरान प्रश्नगत संपत्ति क्रय की थी और दिनांक 18.05.1999 का व्यादेश प्रभावी था। यह निवेदन किया गया कि इसलिए अपीलकर्ता को इसके बाद कोई आपत्ति उठाने और विक्रय को इस आधार पर अपास्त करने की प्रार्थना करने का हक नहीं होगा कि प्रश्नगत संपत्ति उसके द्वारा खरीदी गई थी। यह निवेदन किया गया कि इसलिए उच्च न्यायालय ने ठीक ही पाया है कि चूंकि सिविल वाद में विचारण न्यायालय द्वारा दिनांक 18.05.1999 को एक अस्थायी व्यादेश दिया गया था और उस समय तक संपत्ति यहा – अपीलकर्ता द्वारा क्रय नहीं गई थी इसलिए अपीलकर्ता को सूचना का कोई प्रश्न ही नहीं था।
5.3 अग्रेतर यह निवेदन किया गया कि यद्यपि आदेश 21 नियम 64 आदेश 21 नियम 84 और 85 का कथित अननुपालन किया जाना निष्पादन न्यायालय के समक्ष नहीं उठाया गया था और इसलिए, उच्च न्यायालय ने ठीक ही निर्धारित किया कि इसको पश्चातवर्ती प्रक्रम पर नहीं उठाया जा सकता।
5.4 उपरोक्त निवेदन करते हुए अपील को निरस्त करने की प्रार्थना की गयी
6. हमने संबंधित पक्षकारों के अधिवक्ताओं को विस्तार से सुना
7. संबंधित पक्षकारों की ओर से किये गए अभिकथनों का मूल्याकन करते हुए कालानुक्रमिक तिथियों और घटनाओं पर विचार करने की आवश्यकता है, जो निम्नानुसार है-
7.1 वर्ष 1998 में डिक्रीदार ने एल.पी.जी. गैस करार के विनिर्दिष्ट पालन के लिए एक बाद संस्थित किया:
7.2 सिविल वाद प्रश्नगत संपत्ति के संबंध में नहीं था मूल वादी द्वारा अंतरिम व्यादेश हेतु एक आवेदन प्रस्तुत किया गया था यह आशंका थी कि प्रतिवादी अपनी फर्म को अर्थात् नेशनल गिनी एंटरप्राइजेज, किसी अन्य व्यक्ति को बेच और अंतरित कर दमोह शहर छोड़ने की कोशिश कर रहे थे। साथ-साथ स्थायी व्यादेश के लिए आवेदन सीपीसी के आदेश 38 के प्रस्तुत किया गया था। दिनांक 18.05.1999 के आदेश द्वारा विद्वान विचारण न्यायालय ने यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया। विद्वान विचारण न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि यदि प्रतिवादी अपनी फर्म गिन्नी एंटरप्राइजेज को किसी अन्य व्यक्ति को अंतरित करता है तो ऐसा अंतरण वादी के हित के विरुद्ध नहीं करेंगे। यह कि इसके बाद 30.09.1999 को डिक्री पारित की गई जिसमें प्रतिवादियों निर्णीत ऋणी गिन्नी एंटरप्राइजेज को एल.पी.जी. गैस की आपूर्ति करने और वैकल्पिक रूप से रुपये 2,38.450/- + रुपये 23,500 / – ( एवमेव) का भुगतान करने का निर्देश दिया गया। चूंकि डिक्री निष्पादित नहीं की गई थी. डिकीदार निष्पादन कार्यवाही हेतु आवेदन किया। निष्पादन कार्यवाही में प्रश्नगत संपत्ति को रुपये 2,38,450/- + रुपये 23.500 / – ( एवमेव ) की वसूली के लिए नीलामी के लिए रखा गया था। दिनांक 18.10.2011 संपत्ति की नीलामी की गयी । यहा नीलामी क्रेता प्रतिवादी सं.1 ने 03.11.2011 को राशि का 25 प्रतिशत जमा की और 04.11.2011 को शेष राशि का 75 प्रतिशत जमा किया। उपरोक्त तथ्यात्मक परिदृश्य के आलोक में संबंधित पक्षों की ओर से अभिकथनों विशेष रूप से अपीलकर्ता की ओर से आदेश 21 नियम 64, 84 और 85 के गैर-अनुपालन सम्बन्धी अभिकथनें, पर विचार करने की आवश्यकता है।
7.3 सीपीसी के सुसंगत प्रावधानों के अनुपालन के संबंध में वर्तमान अपील में विवाचक पर विचार करते हुए सीपीसी के सुसंगत प्रावधानों को संदर्भित करना अपेक्षित है, यथा आदेश 21 नियम 64,84,85 और 86, जो निम्नानुसार है :-
“आदेश 21- डिकियों और आदेशों का निष्पादन
नियम 64, कुर्क की गई संपत्ति के विक्रय किए जाने और उसके आगम हकदार व्यक्ति को दिए जाने के लिए आदेश करने की शक्ति –
डिकी का निष्पादन करने वाला कोई भी न्यायालय आदेश कर सकेगा कि उसके द्वारा कुर्क की गई और विक्रय के दायित्व के अधीन किसी भी सम्पत्ति या उसके ऐसे भाग को जो डिकी की तुष्टि के लिए आवश्यक प्रतीत हो, विक्रय किया जाए और ऐसे विक्रयके आगम या उनका पर्याप्त भाग उस पक्षकार को दे दिया जाए जो डिकी के अधीन उन्हें पाने का हकदार हैं।
नियम 84, क्रेता द्वारा निपेक्ष और उसके व्यतिक्रम पर पुनर्विक्रय-
1- स्थावर संपत्ति के हर विक्रय पर हर व्यक्ति जिसका क्रेता होना घोषित किया गया है, अपने क्रयधन की रकम के 25 प्रतिशत का निक्षेप विक्रय का संचालन करने वाले अधिकारी या अन्य व्यक्ति को ऐसी घोषणा के तुरन्त पश्चात देगा और ऐसा निक्षेप करने में व्यतिक्रम होन पर उस संपत्ति का तत्क्षण फिर विक्रय किया जाएगा।
2 – जहां डिकीदार क्रेता है और कयधान को नियम 72 के अधीन मुजरा करने का हकदार है वहां न्यायालय इस नियम की अपेक्षाओं से अभियुक्ति दे सकेगा।
नियम 85, क्रयधान के पूरे संदाय के लिए समय–
कयधन की संदेय पूरी रकम को क्रेता इसके पूर्व की सम्पत्ति के विक्रयसे पन्द्रहवे दिन न्यायालय बन्द हो, न्यायालय में जमा कर देगा परन्तु न्यायालय में ऐसी जमा की जाने वाली रकम की गणना करने में क्रेता किसी भी ऐसे मुजरा का फायदा उठा सकेगा जिसका वह नियम 72 के अधीन हकदार हो ।
नियम 86, सदाय में व्यतिक्रम होने पर प्रक्रिया–
अंतिम पूर्ववर्ती नियम में वर्णित अवधि के भीतर संदाय करने में व्यतिक्रम होने पर निक्षेप, यदि न्यायालय ठीक समझे तो विक्रय के व्ययों को काटने के पश्चात सरकार को समपहृत किया जा सकेगा और सम्पत्ति का फिर से विक्रय किया जायेगा और उस सम्पत्ति पर या जिस राशि के लिये उसका तत्पश्चात विक्रयकिया जाये उसके किसी भाग पर व्यतिक्रम करने वाले क्रेता के सभी दावे समपहृत हो जायेंगे।
7.4 आदेश 21 नियम 84 के अनुसार स्थावर सम्पत्ति के हर विक्रयपर वह व्यक्ति जिसका क्रेता होना घोषित किया गया है, अपने क्रयधन की रकम के 25 प्रतिशत का निक्षेप ऐसी घोषणा के तुरन्त पश्चात देगा और ऐसा निक्षेप करने में व्यतिक्रम होन पर उस सम्पत्ति का तत्क्षण फिर विक्रयकिया जाएगा।
7.5 आदेश 21 नियम 85 के अनुसार कयधन की संदेय पूरी रकम को क्रेता इसके पूर्व की सम्पत्ति के विक्रय से पन्द्रहवे दिन न्यायालय बन्द हो, न्यायालय में जमा कर देगा। इस प्रकार उपरोक्त प्रावधानों के अनुसार, क्रेता को विक्रयधन की रकम का 25 प्रतिशत का निक्षेप क्रेता घोषित करना होता है और क्रेता द्वारा क्रयधन की सम्पूर्ण राशि, इसके पूर्व की सम्पत्ति के विक्रय से पन्द्रहवे दिन न्यायालय बन्द हो, न्यायालय में जमा किया जाना होगा।
7.6 वर्तमान मामले में स्वीकृत तौर पर क्रेता – प्रत्यार्थी सं. 1 ने 03.11.2011 को राशि का 25 प्रतिशत जमा किया है और आदेश 21 नियम 84 के तहत अपेक्षित राशि का 25 प्रतिशत तत्काल जमा नहीं किया नीलामी द्वारा क्रेता को उस दिन जिस दिन उसे क्रेता घोषित किया गया था अर्थात दिनांक 03.11.2011 को 25 प्रतिशत राशि जमा करने थी। यहाँ तक की आदेश 21 के नियम 85 के तहत अपेक्षित शेष 75 प्रतिशत राशि भी जमा नहीं की गई है। वर्तमान मामले में कयधन की पूरी राशि 04.11. 2011 को अर्थात आदेश 21 के नियम 85 के तहत विहित / उपबंधित के बाद जमा की गई है। अतः सीपीसी आदेश 21 के नियम 84 और नियम 85 का अनुपालन नहीं किया गया।
8. पूर्व तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आदेश 21 के नियम 84 और नियम 85 पर इस न्यायालय के कुछ निर्णयों को संदर्भित करने और उन पर विचार करने की आवश्यकता है।
8.1 मणिलाल मोहनलाल शाह (उपरोक्त ) के मामले में यह देखा और अभिनिर्धारित किया गया कि क्रेता, डिकीधारी से भिन्न द्वारा राशि का 25 प्रतिशत जमा करने के संबंध में प्रावधान अनिवार्य है और क्रयधन की सम्पूर्ण राशि का भुगतान विक्रय की तारीख से 15 दिनों की भीतर जमा किया जाना चाहिए आगे यह देखा और अभिनिर्धारित किया गया कि यदि भुगतान 15 दिनों की अवधि के भीतर नहीं किया जाता है तो न्यायालय को निक्षेप को सम्पहृत करने का विवेकाधिकार है, और यहाँ विवेकाधिकार समाप्त हो जाता है, किन्तु सम्पत्ति को पुनः बेचने की न्यायालय की बाध्यता अनिवार्य है। निर्णय के पैरा 8 में नियमानुसार यह पाया गया और अभिनिर्धारित किया गया :-
“8, जैसा कि नियम की भाषा से स्पष्ट है, डिकीधारी से भिन्न क्रेता द्वारा 25 प्रतिशत राशि जमा करने के संबंध में प्रावधान अनिवार्य है क्रयधन की सम्पूर्ण राशि का भुगतान विक्रयकी तारीख से 15 दिनों के भीतर किया जाना चाहिए, परन्तु क्रेता किसी मुजरा (समायोजन) का फायदा लेने का अधिकारी है। हालांकि भुगतान का प्रावधान अनिवार्य है ….. (नियम 85 ) । यदि भुगतान 15 दिनों की अवधि के भीतर नहीं किया जाता है तो न्यायालय को निक्षेप जब्त करने का विवेकाधिकार होता है, और यहाँ विवेकाधिकार समाप्त हो जाता है, किन्तु सम्पत्ति को पुनः बेचने की न्यायालय की बाध्यता अनिवार्य है। भुगतान न करने का एक और परिणाम यह है कि व्यतिक्रम करने वाले क्रेता के सभी दावे समपहृत हो जात है ……( नियम 86 ) ।”
8.2 इस न्यायालय द्वारा मणिलाल मोहनलाल शाह (उपरोक्त ) मामले में दिया गया निर्णय, उत्तरवर्ती रोसाली विरूद्ध (उपरोक्त ) के मामले के निर्णय में इस न्यायालय के समक्ष विचारणार्थ आया। उक्त निर्णय में इस न्यायालय में आदेश 21 नियम 84 में प्रयुक्त “तत्काल” शब्द का निर्वाचन किया। उक्त निर्णय के पैरा 20 में इस न्यायालय ने मणिलाल मोहनलाल शाह (उपरोक्त ) के मामले के निर्णय के पैरा 11 में निम्नानुसार व्यक्त :
“20. इस न्यायालय के समक्ष “तत्काल” शब्द का क्या अर्थ होगा विचारार्थ करने के लिये मणिलाल मोहनलाल शाह | एआईआर 1954 एससी 349] जैसे कि उपर देखा गया है के मामले में आया जिसमें यह अभिनिर्धारित किया गया था (एआईआर पीपी. 35152 पैरा 11 ) :-
” 11 इस विषय से संबंधित सुसंगत नियमों की भाषा और न्यायिक निर्णयों की जाँच करने के बाद हमारी राय है कि नियमों के प्रावधानों के अनुसार किसी व्यक्ति को क्रेता घोषित किये जाने और बिक्री के 15 दिनों के भीतर शेष राशि का भुगतान करने के लिए क्रयधन का 25 प्रतिशत तत्काल जमा करना अनिवार्य है और इन प्रावधानों का अनुपालन न किये जाने पर कोई विक्रय नहीं होगा। नियमों में उपबंधित नहीं हैं कि क्रयधन का 25 प्रतिशत प्रथम बार और शेष 15 दिनों के भीतर जमा किये बिना कता के पक्ष में विक्रयहोगा। जब नियमों की अवधारणा के अधीन कोई विक्रय नहीं होता, तो विक्रयके संचालन में तात्विक अनियमितता को कोई प्रश्न ही नहीं हो सकता। व्यतिक्रमी क्रेता की ओर से मूल्य का भुगतान न करने पर विक्रयकी कार्यवाही पूरी तरह शून्य हो जाती है। यह तथ्य की न्यायालय व्यतिक्रम की स्थिति में सम्पत्ति को पुनः बेचने के लिए आबद्ध है, दर्शाता है कि विक्रय की पूर्व कार्यवाहियां पूरी तरह समाप्त हो जाती है मानों वे विधि की दृष्टि से विघमान न हो इसलिये हम जानते हैं कि वर्तमान मामले की परिस्थितियों में कोई विक्रयनहीं हुआ था और क्रयकर्ता ने कोई अधिकार प्राप्त नहीं किये थे।”
8.3 पूर्वोक्त निर्णयों में इस न्यायालय द्वारा पारित विधि वर्तमान मामले के तथ्यों पर लागू करने पर, यह स्पष्ट है कि आदेश 21 के नियम 84 और आदेश 21 के नियम 85 के अनिवार्य प्रावधानों का अनुपालन नहीं हुआ है और इसलिये विक्रय दूषित था।
9. अन्यथा भी, यह भी उल्लेख किया जाना आवश्यक हैं कि यहां अपीलकर्ता ने प्रश्नगत संपत्ति नीलामी की तारीख से बहुत पहले अर्थात 31.08.1999 को खरीदा था सुसंगत समय पर प्रश्नगत संपत्ति वाद की विषय-वस्तु नहीं थी। जैस कि उपर देखा गया है, वाद की विषय वस्तु एल.पी.जी. गैस करार का विनिर्दिष्ट पालन था, और यहां तक कि दिनांक 18.05.1999 का अंतरिम व्यादेश भी फर्म गिन्नी एंटरप्राइजेज का किसी अन्य व्यक्ति को हस्तांतरण के विरुद्ध था और प्रतिवादियों को अपनी फर्म गिन्नी एंटरप्राइजेज के संबंध में यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया गया था। इसलिये जब 18.10.2011 को प्रश्नगत सम्पत्ति की नीलामी की गई थी, अपीलार्थी ने उससे बहुत पहले अर्थात् 31.08.1999 को खरीद लिया था क्योंकि उक्त सम्पत्ति के संबंध में तब कोई व्यादेश नहीं थी, जबकि दिनांक 18.05. 1999 का अंतरिम व्यादेश और प्रश्नगत सम्पत्ति, जैसा कि उपर देखा गया है. बाद की विषयवस्तु नहीं थी और डिकी दिनांक 30.09.1999 को पारित की गई और वर्ष 2011 में सम्पत्ति की नीलामी राशि रुपये 2,38,450 /- रुपये 23.500/- ( एवमेव ) की वसूली के लिए की गई थी। दिनांक 18.05.1999 के अंतरिम व्यादेश को अपीलार्थी पर लागू नहीं किया जा सकता। इसलिये उच्च न्यायालय ने दिनांक 18.05.1999 के अंतरिम व्यादेश को अपीलार्थी के विरूद्ध मानकर त्रुटि की है। इसलिए 18.10.2011 को संपत्ति की नीलामी की गई थी, उस समय निर्णीतऋणी उसका मालिक नहीं था और इसलिये उसकी नीलामी नहीं की जा सकती थी। इन परिस्थितियों में विद्वान निष्पादन न्यायालय ने संपत्ति की नीलीमी / विक्रय, जिसे अपीलार्थी ने नीलामी की तारीख से बहुत पहले अर्थात 31.08.1999 को खरीदा था के विरूद्ध अपीलार्थी द्वारा उठाए गये आक्षेपों को नामंजूर करके त्रुटि की ।
10. उपरोक्त को ध्यान में रखते हुए और उपरोक्त बताए गये कारणों से उच्च न्यायालय द्वारा पारित आपेक्षित निर्णय और आदेश खारिज और अपास्त किये जाने योग्य है और तदनुसार खारिज एवं अपास्त किया जाता है और परिणामतः अपीलकर्ता द्वारा उठाई गई आपत्तियों का निष्पादन न्यायालय द्वारा खारिजी का आदेश, खारिज एवं अपास्त किये जाने योग्य है और तदनुसार खारिज एवं अपास्त किया जाता है। अधीनस्थ अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित आदेश एतद द्वारा बहाल किया जाता है। प्रत्यार्थी क. 1 निष्पादन न्यायालय के पास जमा की गई राशि को वापस प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र होगा। तदनुसार प्रस्तुत अपील स्वीकार की जाती है। मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए खर्चों के संबंध में कोई आदेश नहीं।
न्यायमूर्ति एम.आर. शाह
न्यायमूर्ति सी. टी. रविकुमार
नई दिल्ली,