बलराम सिंह बनाम केलो देवी [2022]
भारत का उच्चतम न्यायालय
सिविल अपीलीय अधिकारिता
सिविल याचिका सं 6733/2022
बलराम सिंह ………..अपीलकर्ता
बनाम
केलो देवी ………….प्रत्यर्थी
निर्णय
माननीय न्यायमूर्ति एम. आर. शाह ।
1. द्वितीय अपील संख्या 330/2001 में दिनांक 10.12.2019 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा पारित आक्षेपित निर्णय और आदेश से दुःखी और असंतुष्ट मूल प्रत्यर्थी ने वर्तमान अपील दायर किया है, जिसके द्वारा उच्च न्यायालय ने द्वितीय अपील को खारिज कर दिया है और विद्वान विचारण न्यायालय द्वारा वाद को खारिज करने के निर्णय और डिक्री को पलटते हुए प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित निर्णय और डिक्री की पुष्टि की है।
2.संक्षेप में वर्तमान अपील के तथ्य निम्नानुसार हैं:
यह कि प्रत्यर्थी मूल वादी ( एतस्मिनपश्चात मूल वादी) ने केवल स्थायी व्यादेश के लिए विद्वान विचारण न्यायालय के समक्ष मूल वाद संख्या 696/1997 संस्थित किया था। उक्त बाद दिनांक 23.03.1996 को अपंजीकृत करार के आधार पर दायर किया गया था।
मूल वादी ने प्रतिवादी को वाद संपत्ति में उसके कब्जे में छेड़छाड़ करने से रोकने के लिए स्थायी निषेधाज्ञा की मांग की थी।
2.1 उक्त वाद में, अपीलकर्ता मूल प्रतिप्रतिवादी ने कब्जा की डिक्री की मांग करते हुए एक प्रति दावा दायर किया था.
2. 2 विद्वान विचारण न्यायालय ने मूल वादी द्वारा दायर वाद को खारिज कर स्थायी व्यादेश मंजूर करने से इनकार कर दिया था और प्रतिवादी के प्रतिदावे को इस आधार पर मंजूर कर दिया था कि मूल वादी ने दिनांक 23.03.1996 के विक्रय के करार को साबित नहीं कर सका और मूल वादी का दिनांक 08.07.1997 से वाद संपत्ति पर अनधिकृत कब्जा है। विद्वान विचारण न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया कि मूल अभियोक्ता रु. 14,000/- के विक्रय प्रतिफल के लिए विक्रय के करार को साबित नहीं कर सकी और यह भी साबित नहीं कर सकी कि 23.03.1996 उसे को वाद संपत्ति कब्जा दिया गया था।
2. 3 मूल वादी के वाद को खारिज करने और प्रतिवादी के प्रति दावे को मंजूरी देने वाले विद्वान विचारण न्यायालय द्वारा पारित निर्णय और डिक्री से व्यथित और असंतुष्ट मूल वादी ने प्रथम अपीलीय न्यायालय के समक्ष अपील की। विद्वान प्रथम अपीलीय न्यायालय ने उक्त अपील को स्वीकार कर विद्वान विचारण न्यायालय द्वारा पारित निर्णय और डिक्री को अपास्त कर दिया और परिणामस्वरूप प्रतिवादी के विरूद्ध स्थायी व्यादेश के लिए वाद पर डिक्री पारित किया। विद्वान प्रथम अपीलीय न्यायालय ने भी प्रतिवादी के प्रतिदावे को खारिज कर दिया।
2.4 प्रथम अपील न्यायालय द्वारा पारित निर्णय और डिक्री की उच्च न्यायालय द्वारा द्वितीय अपील सं. 330/2001 में पारित आक्षेपित निर्णय और आदेश द्वारा पुष्टि की गई है।
2.5 उच्च न्यायालय द्वारा द्वितीय अपील को खारिज करने तथा विद्वान प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित निर्णय एवं डिक्री की पुष्टि करने के आक्षेपित निर्णय एवं आदेश से क्षुब्ध एवं असंतुष्ट मूल प्रतिवादी ने वर्तमान अपील दायर किया है जिसमें स्थायी निषेधाज्ञा के वाद पर डिक्री पारित कर प्रतिदावे को खारिज कर दिया गया है।
3. अपीलकर्ता – मूल प्रतिवादी की ओर से पेश विद्वान वकील ने पुरजोर निवेदन है कि मूल वादी ने स्थायी व्यादेश के लिए केवल इस आधार पर वाद दायर किया कि दिनांक 23.03.1996 का विक्रय का करार अपंजीकृत था ।
3. 1. यह निवेदन किया जाता है कि ऐसा अपंजीकृत विक्रय का करार साक्ष्य में ग्राह्य नहीं है। यह निवेदन किया जाता है कि इसलिए विद्वान प्रथम अपील न्यायालय और उच्च न्यायालय दोनों ने स्थायी व्यादेश के लिए डिक्री पारित करने और प्रतिदावे को खारिज करने में एक गंभीर त्रुटि कारित किया है।
3. 2 आगे यह निवेदन किया जाता है कि विद्वान प्रथम अपील न्यायालय और उच्च न्यायालय दोनों ने इस तथ्य का उचित रूप से मूल्यांकन नहीं किया है कि मूल वादी द्वारा दायर बाद केवल स्थायी व्यादेश के लिए था और उसने चतुराई से वाद पत्र तैयार कर विक्रय के करार के विनिर्दिष्ट पालन के लिए अनुतोष की मांग नहीं की क्योंकि वह अच्छी तरह से अवगत थीं कि वह विक्रय के लिए अपंजीकृत करार के आधार पर विनिर्दिष्ट प्रदर्शन के मुकदमा में सफल नहीं होगी। यह निवेदन किया किया जाता है कि जब मूल अभियोक्ता 23.03.1996 दिनांकित बिक्री के लिए अपंजीकृत करार के विनिर्दिष्ट पालन की मौलिक अनुतोष प्राप्त नहीं कर सकता है, वह ऐसे अपंजीकृत दस्तावेज के आधार पर स्थायी व्यादेश के लिए डिक्री की हकदार नहीं होगी।
3. 3 उपर्युक्त निवेदन करते हुए यह प्रार्थना की जाती है कि वर्तमान अपील को मंजूर करने की कृपा करें। प्रत्यर्थी मूल वादी की ओर से पेश विद्वान वकील द्वारा वर्तमान अपील का पुरजोर विरोध किया गया है।
4. 1 यह निवेदन किया जाता है कि निर्धारित विधिक प्रस्थापना के अनुसार, अपंजीकृत दस्तावेज का उपयोग संपार्श्विक प्रयोजन के लिए किया जा सकता है और इसलिए प्रथम अपीलीय न्यायालय और उच्च न्यायालय दोनों ने स्थायी व्यादेश की मंजूरी प्रदान करने के लिए प्रतिवादी को उसके कब्जे में हस्तक्षेप करने से रोकने के लिए स्थायी व्यादेश के लिए जो डिक्री पारित की गई है, वह उचित है|
4. 2. उपर्युक्त निवेदन करते हुए, यह प्रार्थना की जाती है कि वर्तमान अपील को खारिज कर दिया जाए।
5. हमने संबंधित पक्षकारों के विद्वान वकील को विस्तार से सुना शुरुआत में, इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि मूल वादी ने केवल स्थायी व्यादेश की डिक्री के लिए प्रार्थना करते हुए बाद संस्थित किया है जिसमें दिनांक 23.03.1996 के विक्रय के करार के आधार पर दावा किया गया था। हालांकि, इस पर विचार करना आवश्यक है कि दिनांक 23.03.1996 का विक्रय का करार दस रुपये के स्टाम्प पेपर पर एक अपंजीकृत दस्तावेज / विक्रय का करार था।
इसलिए, इस तरह का अपंजीकृत दस्तावेज / विक्रय का करार साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य नहीं होगा।
6. इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि वादी विक्रय के लिए इस तरह के करार के विशिष्ट पालन से अनुतोष प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकता है क्योंकि करार अपंजीकृत था, वादी ने केवल स्थायी निषेधाज्ञा के लिए वाद दायर किया था। हो सकता है यह सच हो कि प्रस्तुत मामले में, अपंजीकृत दस्तावेज का • उपयोग किया जा सकता है और / या संपार्श्विक उद्देश्य के लिए विचार किया जा सकता है। हालांकि, उसी समय, वादी अप्रत्यक्ष रूप से अनुतोष नहीं प्राप्त कर सकता है जो अन्यथा वह किसी वाद में वास्तविक अनुतोष प्राप्त नहीं कर सकता है, अर्थात्, वर्तमान मामले में विशिर्दिष्ट पालन के लिए अनुतोष ।
5. इसलिए, वादी को ऐसे अपंजीकृत दस्तावेज / विक्रय के करार के आधार पर स्थायी व्यादेश के लिए भी अनुतोष नहीं मिल सकता है, विशेष रूप से तब जब प्रतिवादी ने विशेष रूप से कब्जा वापस पाने के लिए प्रतिदावा दायर किया था जिसे विद्वान विचारण न्यायालय द्वारा अनुज्ञात कर दिया था। वादी ने चतुराई से केवल स्थायी व्यादेश के अनुतोष के लिए प्रार्थना किया था और विक्रय के करार के विनिर्दिष्ट पालन की मौलिक अनुतोष प्रदान करने की मांग नहीं किया था क्योंकि विक्रय का करार एक अपंजीकृत दस्तावेज था और इसलिए विक्रय के लिए ऐसे अपंजीकृत दस्तावेज / करार पर, विनिर्दिष्ट पालन के लिए कोई डिक्री पारित नहीं की जा सकती थी । वादी चतुराई से वादपत्र तैयार कर के अनुतोष नहीं प्राप्त कर सकता है।
उपरोक्त उल्लिखित कारणों के दृष्टिगत विद्वत प्रथम अपीलीय न्यायालय और उच्च न्यायालय दोनों ने प्रतिवादी के विरुद्ध वादी के पक्ष में स्थायी व्यादेश के लिए डिक्री पारित करने और मूल प्रतिवादी द्वारा दायर प्रतिदावे को खारिज करने में गंभीर त्रुटि कारित की है। उच्च न्यायालय द्वारा पारित आक्षेपित निर्णय और आदेश जिसमें उन्होंने प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित निर्णय और डिक्री की पुष्टि करते हुए स्थायी व्यादेश के बाद पर डिक्री पारित कर दिया है और प्रतिवादी के प्रतिदावे को खारिज कर दिया है, यह विधि में पोषणीय नहीं है और इसको खारिज कर अपास्त कर दिया जाना चाहिए और विद्वान विचारण न्यायालय विचारण न्यायलय द्वारा पारित निर्णय एवं डिक्री जिसमें स्थायी व्यादेश के लिए वादी द्वारा दायर वाद को खारिज कर प्रतिवादी के दावे को अनुज्ञात कर दिया गया हैं, बहाल किया जाना चाहिए।
तदनुसार, वर्तमान अपील को अनुज्ञात किया जाता है। उच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय एवं आदेश दिनांकित 10.12.2019 जिसमें द्वितीय अपील संख्या 330 / 2001 को खारिज कर प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित निर्णय और डिक्री की पुष्टि की गई है और प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित निर्णय एवं डिक्री दिनांकित 29.01.2001 जिसमें मूल वादी के पक्ष में स्थायी व्यादेश की डिक्री पारित की गई है और प्रतिवादी के प्रति दावे को खारिज कर दिया गया है, एतद्वारा खारिज कर अपास्त किया जाता है। परिणामस्वरूप, मूल वादी द्वारा विक्रय हेतु अपंजीकृत करार के आधार पर स्थायी व्यादेश प्राप्त करने के लिए संस्थित वाद एतद्द्वारा खारिज कर दिया जाता है और मूल प्रतिवादी द्वारा दायर प्रतिदावे को अनुज्ञात किया जाता है। विद्वान विचारण न्यायालय द्वारा पारित निर्णय एवं आदेश एतद्वारा बहाल किया जाता है जिसमें वाद को खारिज कर प्रतिदावे को अनुज्ञात किया गया है।
खर्चे की बाबत कोई आदेश नहीं होगा।
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न्यायमूर्ति एम. आर. शाह
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न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी
नई दिल्ली
23 सितंबर, 20221