सीआरपीसी की धारा 464 — आरोप विरचित न करने या उसके अभाव या उसमें गलती का प्रभाव —
(1) किसी सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय का कोई निष्कर्ष, दण्डादेश या आदेश केवल इस आधार पर कि कोई आरोप विरचित नहीं किया गया अथवा इस आधार पर कि आरोप में कोई गलती, लोप या अनियमितता थी, जिसके अन्तर्गत आरोपों का कुसंयोजन भी है, उस दशा में ही अविधिमान्य समझा जाएगा जब अपील, पुष्टीकरण या पुनरीक्षण न्यायालय की राय में उसके कारण वस्तुतः न्याय नहीं हो पाया है।
(2) यदि अपील, पुष्टीकरण या पुनरीक्षण न्यायालय की यह राय है कि वस्तुतः न्याय नहीं हो पाया है तो वह–
(क) आरोप विरचित न किए जाने वाली दशा में यह आदेश कर सकता है कि आरोप विरचित किया जाए और आरोप की विरचना के ठीक पश्चात् से विचारण पुनः प्रारंभ किया जाए
(ख) आरोप में किसी गलती, लोप या अनियमितता वाली दशा में यह निदेश दे सकता है कि किसी ऐसी रीति से, जिसे वह ठीक समझे, विरचित आरोप पर नया विचारण किया जाए :
परन्तु यदि न्यायालय की यह राय है कि मामले के तथ्य ऐसे हैं कि साबित तथ्यों की बाबत् अभियुक्त के विरुद्ध कोई विधिमान्य आरोप नहीं लगाया जा सकता तो वह दोषसिद्धि को अभिखण्डित कर देगा।
Section 464 CrPC — Effect of omission to frame, or absence of, or error in charge –
(1) No finding, sentence or order by a Court of competent jurisdiction shall be deemed invalid merely on the ground that no charge was framed or on the ground of any error, omission or irregularity in the charge including any misjoinder of charges, unless, in the opinion of the Court of appeal, confirmation or revision, a failure of justice has in fact been occasioned thereby.
(2) If the Court of appeal, confirmation or revision is of opinion that a failure of justice has in fact been occasioned, it may
(a) in the case of an omission to frame a charge, order that a charge be framed and that the trial be recommenced from the point immediately after the framing of the charge;
(b) in the case of an error, omission or irregularity in the charge, direct a new trial to be had upon a charge framed in whatever manner it thinks fit : सीआरपीसी की धारा 464
Provided that if the Court is of opinion that the facts of the case are such that no valid charge could be preferred against the accused in respect of the facts proved, it shall quash the conviction.