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भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका की अवधारणा | Concept of independent judiciary in India in Hindi

भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका की अवधारणा

भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका

प्रस्तावना :-

एक जीवंत लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्वतंत्र न्यायपालिका एक अनिवार्य शर्त है। केवल एक निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायपालिका ही व्यक्तियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक कवच के रूप में खड़ी हो सकती है और बिना किसी भय या पक्षपात के न्याय भी कर सकती है।

न्यायपालिका संविधान की रक्षक है और इस तरह, उसे केंद्र और राज्यों के कार्यकारी, प्रशासनिक और विधायी कृत्यों को रद्द करना पड़ सकता है। कानून का शासन कायम रहने के लिए, न्यायिक स्वतंत्रता प्रमुख आवश्यकता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता आमतौर पर संविधान के माध्यम से सुनिश्चित की जाती है, लेकिन इसे कानूनों, सम्मेलनों और अन्य उपयुक्त मानदंडों और प्रथाओं के माध्यम से भी सुनिश्चित किया जा सकता है। 

न्यायिक स्वतंत्रता की आवश्यकता :-

किसी भी समाज में, व्यक्तियों के बीच, समूहों के बीच और व्यक्तियों या समूहों और सरकार के बीच विवाद उत्पन्न होना लाज़िमी है ऐसे सभी विवादों को कानून के शासन के सिद्धांत के अनुसार एक स्वतंत्र निकाय द्वारा सुलझाया जाना चाहिए। न्यायपालिका की प्रमुख भूमिका कानून के शासन की रक्षा करना और कानून की सर्वोच्चता सुनिश्चित करना है।

कानून के अनुसार विवादों का निपटारा करता है और यह सुनिश्चित करता है कि लोकतंत्र व्यक्ति या समूह की तानाशाही को रास्ता न दें। यह सब करने में सक्षम होने के लिए यह आवश्यक है कि न्यायपालिका किसी भी राजनीतिक दबाव से स्वतंत्र हो|

एक स्वतंत्र न्यायपालिका के विचार को प्रतिपादित करने वाले पहले राजनीतिक दार्शनिक मांंटेस्क्यु  भी ‘सरकार के 3 अंग – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत में विश्वास करते थे।’

लोकतांत्रिक देशों में न्यायपालिका को बहुत महत्व दिया जाता है। इसकी परिकल्पना नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान के तहत गारंटीकृत अंग के रूप में की गई थी।

न्यायालय की स्वतंत्रता :-

एक लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था में, राज्य की सर्वोच्च शक्ति तीन प्रमुख अंगों के बीच साझा की जाती है। न्यायपालिका को सौंपा गया संवैधानिक कार्य किसी भी तरह से अन्य पदाधिकारियों, विधायिका और कार्यपालिका से कम नहीं है।

एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका ही न्यायाधीशों के और नागरिकों के अधिकारों की संरक्षिका हो सकती है तथा बिना भय और पक्षपात के सबको समान न्याय प्रदान कर सकती है। इसके लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि उच्चतम न्यायालय अपने कर्तव्यों के पालन में पूर्ण रुप से स्वतंत्र और सभी प्रकार के राजनीतिक दबावों से मुक्त हो।

संवैधानिक प्रावधान :-

अनुच्छेद 124 से 147 भाग -5 के अध्याय -4 में संघ न्यायपालिका के बारे में तथा अनुच्छेद 214 से 231 में राज्य न्यायपालिका (उच्च न्यायालय) से संबंधित है अनुच्छेद 233 से 237 में अधीनस्थ न्यायपालिका से संबंधित है।

न्यायिक नियुक्तियां – अनु. 124(2) राष्ट्रपति द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति कोलेजियम की सलाह पर की जाती है। कोलेजियम में भारत के मुख्य न्यायाधीश व 4 अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं। अनु. 217 (1) में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति का प्रावधान।

योग्यता – अनु 124 (3) एक व्यक्ति उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए निम्न योग्यता चाहिए:-

  1. भारत का नागरिक हो;
  2. कम से कम 5 साल तक H.C. के न्यायाधीश या उत्तराधिकार में दो या दो से अधिक ऐसे न्यायालयों का न्यायाधीश रहा हो;
  3. कम से कम 10 वर्षों तक किसी H.C. का दो या दों से अधिक ऐसे न्यायालयों का  लगातार अधिवक्ता रहा हो, या
  4. राष्ट्रपति की राय में एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता है।

217(2) में H.C. के न्यायाधीश की योग्यता निर्धारित की गई है।

वेतन और भत्ते – अनु. 125- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन भत्ते भारत के संचित निधि से दिया जाता है। गंभीर वित्तीय आपातकाल की स्थिति को छोड़कर उनकी परिलब्धियों को उनके नुकसान (अनु.125(2)) में नहीं बदला जा सकता है।

उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को राज्य के निधि से दिया जाता है। 

न्यायाधीशों को हटाना :- अनु. 124 (4) महाभियोग प्रक्रिया द्वारा ही हटाया जा सकता है साबित कदाचार या अक्षमता के आधार पर ही। अतः इनके कार्यकाल और हटाने की विभिन्न प्रक्रिया भी उनके स्वतंत्र कार्य के अनुरूप है।

अवमानना के लिए दंड देने की शक्ति :- न्यायालय के अवमानना करने पर दंड देने की शक्ति है अनु. 129, 215

अनु. 50- कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण।

अनु. 32, 133, 134- संसद सुप्रीम कोर्ट की शक्ति और अधिकारिता को बढ़ा सकती है, किंतु कम नहीं कर सकती ।

न्यायाधीशों के अपने कर्तव्य पालन में किए गए आचरण पर संसद में चर्चा पर रोक।

महत्वपूर्ण वाद :

केस:- लोकनाथ तोलाराम वनाम B. N. रंगमानी (AIR 1975) S.C.

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को संविधान का आधारभूत ढांचा माना है| 

केस :-उच्चतम न्यायालय अभिलेख अधिवक्ता V. भारत संघ (AIR 2015 )S.C.

इस वाद में सुप्रीम कोर्ट. ने 99 वें संविधान संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर दिया और कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम पद्धति पर ही होगी।

केस :-एस.पी. गुप्ता V. भारत संघ (AIR 1982) S.C.

इस बाद में न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों को निडर होना चाहिए और कानून के शासन के सिद्धांत को बनाए रखना चाहिए, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता की अवधारणा है।

केस :- इंदिरा नेहरू गांधी V. राजनारायण (AIR 1980) S.C.

और

मिनर्वा मिल्स लि. V. भारत संघ (AIR 1980) S.C.

इन दोनों वादों में कहा गया है कि न्यायिक समीक्षा की शक्ति संविधान का आधारभूत ढांचा है और इसे न्यायालयों से छीना नहीं जा सकता क्योंकि, न्यायालय न्यायिक समीक्षा के आधार पर ही सरकार के मनमानी विधायी, कार्यकारी और प्रशासनिक कार्यों की जांच कर उस पर रोक लगाता है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आक्षेप :-

न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर विभिन्न पहलू देखने को मिलता है जिससे उसकी स्वतंत्रता संदेहास्पद प्रतीत लगने लगती है।

जजों की सेवानिवृत्ति के उपरांत विभिन्न लाभकारी पद – भारत के C.J.I. रंजन गोगोई को सेवानिवृत्ति के बाद राज्यसभा का सदस्य बना दिया गया। 1991 में भी C.J.I. रंगनाथ मिश्र को सेवानिवृत्ति के बाद National human rights commission का अध्यक्ष बना दिया गया। 1970 में  C.J.I. एम. हिदायतुल्ला को भी सेवानिवृत्ति के बाद उपराष्ट्रपति बना दिया गया।

कोविड-19 के दौरान सारे न्यायालय बंद हो गये थे और सभी सुनवाई इलेक्ट्रॉनिक रूप में ही हो रही थी। जिसमें न्यायालय सिर्फ महत्वपूर्ण निर्णय की ही सुनवाई कर रही थी अतः एक महत्वपूर्ण वाद आया –

केस :-जगदीप चोक्कर V. भारत संघ 2020

इस मामले में लॉकडाउन में असहाय प्रवासी मजदूरों के घर वापसी के लिए याचिका दी गई, जिसकी सुनवाई में न्यायालय ने समय लिया जबकि अर्नव गोस्वामी V. भारत संघ 2020 के वाद की सुनवाई अगले ही दिन हो गई, इस प्रकार के विवादित वाद को कोर्ट ने महत्वपूर्ण माना।

इसी प्रकार आगे भी जम्मू कश्मीर में इंटरनेट 6 माह तक बंद रहा, इस मुद्दे की सुनवाई में भी न्यायालय ने काफी समय लिया। ऐसे विभिन्न मामले जिसको देखने से प्रतीत होता है कि न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं है।

C.B.I. आलोक वर्मा वाद –

इस वाद में सीबीआई के डायरेक्टर आलोक वर्मा पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा था, पहले इस मामले की सुनवाई न्यायालय कर रही थी, लेकिन बाद में इस को एक कमेटी बनाकर उसको दिया गया।इस वाद में भी न्यायपालिका की स्वतंत्रता का हनन होते दिखाई देता है।

पिछले कुछ दशकों में उच्चतर न्यायिक प्रणाली में भ्रष्टाचार, ईमानदार, व्यवहार की कमी आदि जैसे कई सारे मामले सामने आए हैं जिसने लोगों के विश्वास को हिला कर रख दिया है 1993 में संसद ने चंडीगढ़ H.C. के जज वी. रामास्वामी के खिलाफ कार्यवाही शुरू की, उन पर आरोप था कि यह फंड का व्यक्तिगत लाभ के लिए गलत उपयोग किए।

2011 में P. दिनकर और सौमित्र सेन ने भ्रष्ट आचरण का आरोप लगने के कारण इस्तीफा दे दिया। न्यायाधीश कर्णंनन को 6 माह का जेल हुआ जिन पर आरोप था कि ये हाई कोर्ट के जजों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाए थे। 2017 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज S.N. शुक्ला पर भ्रष्टाचार के आरोप पर चार्ज फाइल किया गया 2018 में सुप्रीम कोर्ट के 3 जज एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में C.J.I. दीपक मिश्रा पर वादों के अनुचित आवंट का आरोप लगाए थे। 2019 में C.J.I. रंजन गोगोई पर कोर्ट के महिला कर्मचारी द्वारा उन पर लैंगिक उत्पीड़न का आरोप लगाया गया था।

ये सारे मामले भारतीय न्यायपालिका के जो सदस्य हैं उनके सत्यनिष्ठा पर एक प्रश्न चिन्ह लगाते हैं जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर एक गंभीर प्रभाव पड़ता है| न्यायाधीशों के वेतन आदि का प्रावधान संविधान में है लेकिन उन में वृद्धि करने की शक्ति संसद को है जो कि स्वतंत्रता पर प्रभाव डालते है।

अनुच्छेद 145, 146 के तहत सुप्रीम कोर्ट समय- समय पर न्यायालय की प्रक्रिया के लिए नियम बना सकती है किंतु यह शक्ति संसद द्वारा बनाई गई नियमों के अधीन होती है।

अतः ये सब देखने से प्रतीत होता है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर ये सब बुरा प्रभाव डालते हैं।

निष्कर्ष :-

संविधान में स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रावधान है। निष्पक्ष न्याय के उद्देश्य से न्यायपालिका की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है। न्यायपालिका की कार्यवाही में विधायिका या कार्यपालिका का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए ताकि वह उचित रूप से उचित प्रतीत होने वाला निर्णय पारित कर सके। हस्तक्षेप होने पर, निष्पक्ष निर्णय लेने में न्यायाधीशों की तरफ से पक्षपात हो सकता है अतः इसलिए न्यायालयों ने हमेशा न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने की कोशिश की है और हमेशा कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान की एक बुनियादी विशेषता है। क्योंकि कानून के शासन पर आधारित एक लोकतांत्रिक समाज की प्राप्ति के लिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है।

संदर्भ सूची:-

यह आर्टिकल Aryesha Anand के द्वारा लिखा गया है जो की  Banaras Hindu University LL.M. की छात्रा है

FAQ

स्वतंत्र न्यायपालिका का सिद्धांत सर्वप्रथम किसने दिया?

स्वतंत्र न्यायपालिका का सिद्धांत सर्वप्रथम राजनीतिक दार्शनिक मांंटेस्क्यु ने दिया |

न्यायिक स्वतंत्रता की आवश्यकता क्यों है ?

न्यायपालिका संविधान की रक्षक है और इस तरह, उसे केंद्र और राज्यों के कार्यकारी, प्रशासनिक और विधायी कृत्यों को रद्द करना पड़ सकता है। कानून का शासन कायम रहने के लिए, न्यायिक स्वतंत्रता प्रमुख आवश्यकता है।

स्वतंत्र न्यायपालिका से संबंधित प्रावधान संविधान में कहाँ दिये गये है ?

स्वतंत्र न्यायपालिका से संबंधित प्रावधान संविधान में अनुच्छेद 124 से 147 दिये गये है |

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति होने के लिए क्या योग्यता होनी चाहिए?

संविधान के अनुच्छेद 124 (3) के अनुसार उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए निम्न योग्यता चाहिए-
1. भारत का नागरिक हो;
2. कम से कम 5 साल तक H.C. के न्यायाधीश या उत्तराधिकार में दो या दो से अधिक ऐसे न्यायालयों का न्यायाधीश रहा हो;
3. कम से कम 10 वर्षों तक किसी H.C. का दो या दों से अधिक ऐसे न्यायालयों का  लगातार अधिवक्ता रहा हो, या
4. राष्ट्रपति की राय में एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता है।