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भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निर्बंधन के आधार | freedom of speech and expression and reasonable restrictions in hindi

भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निर्बंधन के आधार 

परिचय:-

हमारे पास भारत की नागरिकों के रूप में कुछ मूल अधिकार है जो भाग- 3 के तहत भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार निहित है |ये मूल अधिकार मौलिक अधिकार है जो हमें जन्म से ही प्राप्‍त होते हैं| कोई भी व्‍यक्‍ति या राज्‍य इन्‍हे हमसे दूर नहीं कर सकता है भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत के संविधान अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत परिभाषित की गई है जिसमें कहां गया है कि भारत के सभी नागरिकों को वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है।

इस अनुछेद के पीछे दर्शन भारत के संविधान की प्रस्तावना मे निहित है जहॉ एक दृढ संकल्‍प अपने सभी नागरिकों उनके विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सुरक्षित किया जाता है हालांकि इस अधिकार का प्रयोग भारत के संविधान के अनुच्छेद (19) (2) के तहत किये जा रहे कुछ उद्देश्‍यों के लिए प्रतिबंधों के अधीन है। 

भाषण औार अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता की उत्‍पत्ति:-

अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता का विचार बहुत पहले उत्‍पन्‍न हो गया था | यह पहली बार यूनानियों द्वारा पेश किया गया था और पैरेशिया शब्‍द का इस्‍तेमाल किया जिसका अर्थ हैं ‘मुक्‍त भाषण’ या ‘खुलकर बोलना’ था। यह शब्‍द पहली बार ईसा पूर्व पांचवी शताब्‍दी के देशों जैसे- इंग्‍लैण्‍ड और फ्रांस में दिखाई दिया, इस स्‍वतंत्रता को अधिकार के रूप में अपनाने में बहुत समय लगा।

अंग्रेजी बिल ऑफ राइटस 1689-

संवैधानिक अधिकार के रूप में अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता को अपनाया और अभी भी प्रभाव में है।

फ्रांसीसी क्रांति 1789-

फ्रांसीसी ने मानव अधिकारों और नागरिकों के अधिकारों की घोषणा को अपनाया। संयुक्‍त राष्‍ट्र महासभा ने अनुच्‍छेद 19 के तहत 10 दिसंबर 1948 को मानव अधिकारो की सार्वभोमिक घोषणा को अपनाया जिसने भाषण और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतन्‍त्रता को मानव अधिकारों में से एक के रूप में मान्‍यता दी।

मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्‍छेद 19 में प्रावधान किया गया है कि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को अभिमत ओर अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का अधिकार है। इस अधिकार के अतंर्गत हस्‍तक्षेप बिना अभिमत रखने और किसी भी संचार माध्‍यम से और सीमाओं का विचार किये बिना जानकारी मॉंगने, प्राप्‍त करने और देने की स्‍वतंत्रता भी है।

सिविल और राजनैतिक अधिकारों की अतंराष्‍ट्रीय प्रसंविदा:-

अनुच्‍छेद 19(1) में कहा गया है कि “प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को किसी हस्‍तक्षेप के बिना अभिमत रखने का अधिकार होगा,”अनुच्छेद 19 (2) में घोषणा की गई है कि “प्रत्येक व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्‍वतंत्रता का अधिकार होगा| इस अधिकार के  अतर्गत सीमाओं का विचार किए बिना या तो मौखिक रूप से, लिखित या मुद्रित, कला के रूप में या अपनी रूचि के किसी अन्‍य संचार माध्‍यम से जानकारी मांगने, प्राप्‍त करने और देने की स्‍वतंत्रता भी होगी।

भाषण और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का उद्देश्‍य-

बोलने और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता न केवल लोगो को अपनी भावनाओं, विचारों और विचारों को दूसरों के साथ संवाद करने की अनुमति देती है। बल्‍कि, यह एक व्‍यापक उद्देश्‍य भी प्रदान करती है। इन उद्देश्‍यों को चार में वर्गीकृत किया जा सकता है –

केस:- इण्डियन एक्‍सप्रेस न्‍यूज पेपर्स बनाम भारत संघ (ए.आई.आर1985)एस.सी.सी . 641) 

  1. यह एक व्‍यक्‍ति को आत्‍मपूर्ति प्राप्‍त करने में मदद करता है।
  2. यह सत्‍य की खोज में सहायता करता है।
  3. यह निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेने के लिए किसी व्‍यक्‍त‍ि की क्षमता को मजबूत करता है।
  4. यह एक तंत्र प्रदान करता है। जिसके द्वारा स्‍थिरता और समाजिक परिवर्तन के बीच एक उचित संतुलन स्‍थापित करना संभव होगा।

भारत में भाषण और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता- 

जॉन मिल्‍टन के अनुसार “मुझे आजादी देने के लिए स्‍वतंत्र रूप से बहस करने के लिए,और विवेक के अनुसार सभी स्‍वतंत्रताओं से उपर उठने की स्‍वतंत्रता दें।”

जॉन‍ मिल्‍टन द्वारा उपरोक्‍त वाक्‍य स्‍पष्‍ट रूप से अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का सार प्रदर्शित करता है। उन्‍होनें तर्क दिया कि मानव स्‍वतंत्रता के बिना विज्ञान, कानून या किसी अन्‍य क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं होगी। उनके अनुसार मानव स्‍वतंत्रता का अर्थ है विचार और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता चर्चा और स्‍वतंत्रता।

जस्‍टिस लुईस Brandies के मामले में अमेरिकी संविधान के संदर्भ में अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता पर एक क्‍लासिक बयान दिया था। 

फिटनी वी कैलिफोर्निया

‘’जिन्‍होंने हमारी स्‍वतन्‍त्रता जीत ली, उनका मानना था कि साहस स्‍वतंत्रता का रहस्‍य है स्‍वतंत्रता खुशी का रहस्‍य है। इन लोगों का मानना था कि विचार करने की आजादी, बोलने की आजादी ओर चर्चा के लिए इच्‍छाशक्‍ति को इकट्ठा करने की आजादी निरर्थक है और इसका कोई फायदा नहीं है। लेकिन सार्वजनिक चर्चा एक राजनैतिक कर्तव्‍य है और यह अमेरिका की सरकार का मूल सिद्धांत होना चाहिए। इस अधिकार का महत्‍व यह कि यह हमें आत्‍मपूर्णता प्राप्‍त करने और सत्‍य की खोज में मदद करता है।‘’ 

केस- रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्‍य(AIR 1950)S.C. 124 

वाक् और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता प्रजातांत्रिक शासन व्‍यवस्‍था की आधारशिला है। प्रत्‍येक प्रजातान्‍त्रिक सरकार इस स्‍वतंत्रता को बड़ा महत्‍व देती है। इसके बिना जनता की तार्किक एवं आलोचनात्‍मक शक्‍ति को जो प्रजातांत्रिक सरकार के समुचित संचालन के लिए आवश्‍यक है विकसित करना संभव नहीं।

वाक् और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का अर्थ एवं विस्‍तार-

वाक् और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का अर्थ है- शब्‍दों, लेखों, मुद्रणों, चिन्‍हों या किसी अन्‍य प्रकार से अपने विचारों को व्‍यक्‍त करना। अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता में किसी माध्‍यम से अभिव्‍यक्‍त करना सम्‍मिलित है। जिससे वह दूसरों तक अन्‍हें संप्रेषित कर सके। इस प्रकार इनमें सकेतो, अंकों, चिन्‍हों तथा ऐसी अन्‍य क्रियाओं द्वारा किसी व्‍यक्‍ति के विचारों की अभिव्‍यक्‍ति सम्‍मिलित है। (लावेल बनाम ग्रिफिन (1938 )) 

अनुच्‍छेद- 19 में अभिव्‍यक्‍ति शब्‍द इसके क्षेत्र को बहुत विस्‍तृत करता है। विचारों को व्‍यक्‍त करने के जितने माध्‍यम है वे अभिव्‍यक्‍ति, पदावली  के अन्‍तर्गत आ जाते है। इस प्रकार अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता में प्रेस की स्‍वतंत्रता भी सम्‍मिलित है। विचारों का स्‍वतंत्र प्रसारण ही इस स्‍वतंत्रता का मुख्‍य उद्देश्‍य है। यह भाषण द्वारा या समाचार पत्रों द्वारा किया जा सकता है।

भारतीय संविधान का अनुच्‍छेद 19(1)(क)

भारत में भाषण और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 19(1)(क) द्वारा दी गई है जो केवल भारत के नागरिकों के लिए उपलब्ध है और विदेशी नागरिकों के लिए नहीं |

अनुच्‍छेद 19(1)(क) के तहत बोलने की स्‍वतंत्रता में किसी भी माध्‍यम से किसी के विचारों को व्‍यक्‍त करने का अधिकार शामिल है जो लिखने, बोलने, इशारे या किसी अन्‍य रूप में हो सकता है। इसमें संचार के अधिकार और किसी राय को प्रचारित या प्रकाशित करने का अधिकार भी शामिल है।

हमारे संविधान द्वारा गारंटीकृत अधिकार को  एक स्‍वस्‍थ लोकतंत्र के सबसे बुनियादी तत्‍वो में से एक माना जाता है। क्‍योकि यह नागरिक को बहुत सक्रिय रूप से किसी देश की सामाजिक और राजनैतिक में भाग लेने की अनुमति देता है।

भाषण और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का महत्‍व-

यह राजनीति के साथ-साथ वकील के रूप् में सिसरो ने भी कहा था कि ‘’लोगों का भला सर्वोच्‍च कानून है’’ जिस तरह से यह हासिल किया जा सकता है वह हमारे संवैधानिक प्रावधानों से अनुमान लगाया जा सकता है, जो प्रदर्शित करता है कि यदि कोई व्‍यक्‍ति किसी भी बुराई के खिलाफ अपनी आवाज उठाता है, तो हर कोई आवाज को सुनेगा और उस बुराई के खिलाफ अपनी जड़ से बाहर निकालने के लिए खड़ा होगा।

उदाहरण-

अतीत की तुलना करें जब महिलाओं को वर्तमान दिन के साथ मतदान करने की अनुमति नहीं थी अब महिलाओं को वोट देने की अनुमति है यह कैसे होता है। यह मुक्‍त भाषण और अभिव्‍यक्‍ति के अधिकार के कारण होता है। मुक्‍त भाषण और अभिव्‍यक्‍ति के अधिकार में वह शक्‍ति है। जिसके माध्‍यम से वह अपने रास्‍ते में आने वाली किसी प्रकार की विशालकाय ईंट को तोड़ सकता है।

केस:- भारत संघ बनाम नवीन जिंदल (AIR 2004 )S.C. 1559

तथ्‍य – इस मामले में प्रत्‍यार्थी नवीन जिंदल ने अपने कारखाने के परिसर में स्‍थित ऑफिस पर राष्‍ट्रीय ध्‍वज लगाया था। इससे सरकार ने इसलिये रोक दिया था क्‍योंकि यह भारत के फ्लेग कोड के अतंर्गत वर्णित था।

निर्णय – न्‍यायालय ने निर्णय दिया कि अपने मकान पर राष्‍ट्रीय ध्‍वज फहराना अनुच्‍छेद 19(1)(क) के अधीन मूल अधिकार है। क्‍योंकि इसके माध्‍यम से वह राष्‍ट्र के प्रति अपनी भावनाओ और वफादारी के भाव का प्रकटीकरण करता है। किंतु यह अधिकार आत्‍यन्‍तिक नहीं है और इस पर अनुच्‍छेद 19(2) के अन्‍तर्गत युक्‍ति-युक्‍त निर्बन्धन लगाये जा सकते है।

केस- वीरेन्‍द्र बनाम पंजाव राज्‍य और अन्‍य (AIR 1957) S.C.)

तथ्‍य –  भाषाई और सांप्रदायिक आधार पर राज्‍य के विभाजन के सवाल के कारण हिदुंओं और अकाली सिखों के बीच पंजाव राज्‍य में गंभीर सांप्रदायिक तनाव पैदा हो गया था दो याचिकाकर्ता थे और दोने अलग-अलग अखबारों से थे उनकी अखबारों की नीति (हिंदी बचाओं आंदोलन) का समर्थन करना था|

गृह मंत्रालय कार्यालय द्वारा हिन्‍दी बचाओ आंदोलन से संबंधित किसी भी सामग्री के प्रकाशन और मुद्रण पर रोक लगाने के लिए एक अधिसूचना पारित की गई थी दोनो याचिकाकर्ताओ ने एक शिकायत दायर कर आरोप लगाया था कि राज्‍य विधानसभा द्वारा आरोप लगाया था कि राज्‍य विधान सभा द्वारा पारित पंजाब विशेषाधिकार (प्रेस) अधिनियम 1956 असंवैधानिक था।

निर्णय अदालत ने माना कि लागू अधिनियम की धारा 2 ने केवल प्रतिबंध नहीं लगाया है बल्‍कि अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता के अधिकार के प्रयोग के खिलाफ कुल प्रतिबंध लगाया है, जो संवैधानिक प्रावधान द्वारा गारंटी के अधिकार का उल्‍लंघन करता है।

केस- साकल पेपर्स बनाम भारत संघ (AIR 1962) S.C. 305

तथ्‍य – याचिकाकर्ता एक निजी लिमिटेड कम्‍पनी, सकाल का मालिक था जो मराठी में दैनिक और सप्‍ताहिक समाचार पत्र पकाशित करती थी | यह अखबार समाचार के प्रसार और जनता के राय को ढालने में अग्रणी भूमिका निभाता था उन्‍होंने दावा किया कि सप्‍ताह के दिनों में महाराष्‍ट्र और कर्नाटक में प्रतियों का शुद्ध संचलन 53000 था और रविवार को यह 56000 था |

हॉलाकि केन्‍द्र सरकार ने समाचार पत्र आदेश, 1956, बाद में दैनिक समाचार पत्रों आदेश 1960 को पारित कर दिया। उस आदेश के कारण, सरकार ने अधिकतम पृष्‍ठों की संख्‍या तय की इसलिये याचिकाकर्ता ने उस अधिनियम की संवैधानिकता को चुनौती देने वाला मामला दायर किया।

निर्णय – न्‍यायलय ने कहा कि अधिनियम की धारा 3(1) असंवैधानिक हैं और इसके तहत एक आदेश भी असंवैधानिक होगा।

भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के तत्व-

बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के लिए मुख्य तत्व निम्‍नानुसार है-

1- यह अधिकार केवल भारत के नागरिकों को उपलब्ध है, अन्य राष्ट्रीयताओं के व्यक्ति को नहीं अर्थात विदेशी नागरिको को। 

2 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत बोलने की स्वतंत्रता में किसी भी माध्यम से खुद को व्‍यक्त करने का अधिकार शामिल है, जैसे कि लेखन, मुद्रण, इशारा आदि।

3- यह अधिकार निरपेक्ष नहीं है, जिसका अर्थ कि सरकार को कानून बनाने और भारत की संप्रभुता और अखण्डता के हित में उचित प्रतिबंध लगाने का अधिकार है, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्‍यवस्‍था, शालीनता,  नैतिकता, अदालत की अवमानना।

4- इस तरह के अधिकार को राज्य की कार्यवाही द्वारा उसकी निष्क्रियता के रूप में लागू किया जाना चाहिए। इस प्रकार, राज्य की ओर से अपने सभी नागरिकों को अधिकार और अभिव्‍यक्‍ति की स्वतंत्रता की गारंटी देने में विफलता भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क)  का उल्लंघन होगा।

प्रेस की स्वतंत्रता-

  भारतीय संविधान के अनु-19 में प्रेस की स्‍वतंत्रता का उल्लेख नहीं किया गया है. फिर भी यह भाषण और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का हिस्‍सा है।

केस- रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्‍य

सर्वोच्‍चय न्‍यायालय द्वारा निर्णय लिया गया है, कि प्रेस की स्‍वतंत्रता, भाषण की स्‍वतंत्रता और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का आंतरिक हिस्‍सा है। समाचार-पत्र विचारों को अभिव्‍यक्‍त करने का एक महत्‍वपूर्ण साधन है। 

अमेरिका के प्रेस -कमीशन ने प्रेस की स्‍वतंत्रता का महत्‍व के बारे में निम्‍नलिखित विचार व्‍यक्‍त किए है- “प्रेस की स्‍वतंत्रता राजनैतिक स्‍वतंत्रता के लिए आवश्‍यक है। जिस समाज में मनुष्‍य को अपने विचारों को एक दूसरे तक पहुचाने की स्‍वतंत्रता नहीं है। वहा अन्‍य स्‍वतंत्रताए भी सुरक्षित नहीं रह सकती है, वस्तुत: जहॉं वाक स्‍वतंत्रता है वहाँ स्वतंत्र समाज का प्रारंभ होता है और स्वतंत्रता को बनाये रखने के सभी साधन मौजूद रहते हैं इसीलिए वाक् स्‍वतंत्रताओं को एक अनोखा स्थान प्राप्त है “

भारतीय कमीशन-

“प्रजातंत्र केवल विधानमण्डल के सचेत देखभाल में ही नही वरन लोकमत की देखभाल और मार्गदर्शन के अन्तर्गत भी फलता-फूलता है। प्रेस की यह सबसे बड़ी विशिष्‍टिता है कि उसके ही माध्यम से लोकमत स्पष्ट होता है।

लार्ड मेन्‍सफील्‍ड के अनुसार प्रेस की स्‍वतंत्रता का अर्थ है बिना सरकारी अनुज्ञा के विचारों को प्रकाशित करना वशर्ते कि देश की साधारण विधि का उल्‍लंघन न किया गया हो, प्रेस की स्‍वतंत्रता केवल दैनिक समचार पत्रो  और साप्ताहिक पत्रो तक ही सीमित नहीं है। इसके अन्तर्गत इसी प्रकार के प्रकाशन सम्‍मिलित है, जिनके द्वारा व्‍यक्‍ति अपने विचारों को एक दूसरे तक पहुंचा सकता है। जैसे पत्रिका, पत्रक, परिपत्र आदि।

केस- सकाल पेपर्स लिमिटेड बनाम भारत संघ [AIR 1962 )S.C.305]

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्‍वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल हैं। क्‍योकि समाचार पत्र विचारों की अभिव्‍यक्‍त करने का माध्यम मात्र ही है।

केस- प्रभुदत्त बनाम भारत संघ (AIR 1982)S.C. 6]

इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रेस की स्वतंत्रता में सूचनाओं तथा सामाचारों को जानने का अधिकार (Right to know) भी शामिल है |प्रेस को व्यक्तियों से साक्षात्कार के माध्यम से सूचनाएं जानने की स्वतंत्रता है किंतु जानने की स्वतंत्रता आत्यन्तिक नहीं है और उसके ऊपर युक्तियुक्त निर्बन्धन अधिरोपित किये जा सकते है।

प्रेस का पूर्व अवरोध-

प्रेस की स्‍वतंत्रता का अर्थ सरकार की बिना पूर्व अनुमति के अपने विचारों को प्रकाशित करना। अत: यदि कोई विधि विचारों के प्रकाशन पर पूर्व अवरोध का प्रावधान करती है। तो वह अनु-19(1) द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता का अतिक्रमण करती है।

केस – ब्रजभूषण बनाम दिल्ली राज्य, (AIR 1950)S.C.129)

इस मामले में दिल्ली के चीफ कमिश्नर ने ईस्ट पंजाब पब्‍लिक सेफ्टी, 1947 की धारा 7 के अन्तर्गत दिल्ली के साप्ताहिक समाचार पत्र पर यह सेन्सर लगाया गया कि वह उन सभी प्रकार के साम्प्रादायिक मामलों या पाकिस्तान से सम्बंधित समाचारों आदि को जो सरकारी न्यूज ऐजेंसियों द्वारा प्राप्त नहीं किये गये है। प्रकाशित करने से पहले सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त करे ।

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि समाचार पत्र पर सेन्सर लगाना प्रेस की स्वतंत्रता पर अनुचित प्रतिबंध है। इसलिए सरकार का आदेश असंवैधानिक है।

केस – बीरेन्द बनाम पंजाब राज्य [AIR 1957)S.C.896]

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है। कि “किसी समाचार पत्र को तत्कालीन महत्व के विषय पर अपने विचार प्रकाशित करने से रोकना बाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर एक गम्भीर अतिक्रमण है”|

केस – एम.आई.सी बनाम मनुभाई [(1992)3 S.C.C.63]

इस मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि प्रेस की स्‍वतंत्रता पर निर्बंधन उन्ही आधारों पर लगाये जा सकते हैं, जो कि अनुच्छेद 19 में उल्‍लेखित है अन्य किसी आधार पर प्रेस की स्वतंत्रता पर निर्बंधन नहीं लगाये जा सकते हैं। 

केस – डाइरेक्टर जनरल ऑफ दूरदर्शन बनाम आनंद परवर्धन [(2006) 8 S.C.C. 433]

इस मामले में उच्‍चतम न्यायालय में यह अवधारित किया है, कि प्रत्येक व्यक्ति को अनुच्छेद 19(1)(क) के अधीन अभिव्‍यक्‍ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है, जिसके अन्तर्गत हर प्रकार की सूचना और विचार सीमा के बंधन से परे मौखिक, लिखित, या प्रिंट के रूप से प्राप्त करने एवं प्रदान करने की स्वतंत्रता है।

प्रेस की स्वतंत्रता के तत्व- 

प्रेस की स्वतंत्रता के तीन तत्व है और ये इस प्रकार हैं- 

  1. सभी प्रकार की सूचनाओं के स्रोत तक पहुँच की स्वतंन्त्रता 
  2. प्रकाशन स्वतंत्रता और
  3. परिसंचरण की स्वतंत्रता

वाणिज्‍यिक भाषण(विज्ञापन )की स्वतंत्रता:-

भारत में वाणिज्‍यिक भाषण की वर्तमान न्यायिक स्थिति यह है कि इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंधों के साथ भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के एक भाग के रूप में देखा जा सकता है।

भारत में संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत भाषण और अभिव्‍यक्‍ति की स्वतंत्रता  प्रत्येक नागरिक को दी गई है। विभिन्न न्यायिक घोषणाओं मे बोलने और अभिव्‍यक्‍ति की स्वतंत्रता के दायरे को बढ़ा दिया है अब इसमें शामिल है-

  1. सूचना प्राप्‍त करने और प्रसारित करने का अधिकार
  2. विज्ञापन, फिल्‍म, भाषण, आदि के रूप में किसी भी मीडिया के माध्यम से संवाद करने का अधिकार
  3. स्‍वतंत्र बहस और रफली चर्चा का अधिकार
  4. प्रेस की स्‍वतंत्रता
  5. सूचित किये जाने की स्‍वतंत्रता
  6. चुप रहने का अधिकार

केस- टाटा प्रेस लिमिटेड बनाम महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड [(1995)5 S.C. 138]

इस वाद में उच्‍च्‍तम न्‍यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि वाणिज्‍यिक भाषण (विज्ञापन) अनु-19 (1)(क) के अंतर्गत भाषण एवं अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का ही एक रूप है और उस पर केवल अनु-19 के खण्ड (2) पर उल्‍लेखित आधारो पर ही निर्बंधन लगाये जा सकते है।

प्रसारण का अधिकार- 

भाषण और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता की अवधारणा प्रोधोगिकी के क्षेत्र में प्रगति के कारण अभिव्‍यक्‍ति और संचार के सभी उपलब्‍ध साधनों में शामिल करने के लिए विकसित हुई है। इसमें प्रसारण मीडिया, इलेक्‍ट्रानिक मीडिया और कई अन्‍य प्रकार के मीडिया शामिल है।

केस- सेक्रेटरी मिनिस्‍ट्री ऑफ इन्‍फोरमेशन एण्‍ड व्राडकास्‍टिंग बनाम क्रिकेट एसोसियेशन ऑफ वेस्‍ट बंगाल [(1995)2 S.C.C. 161]

इस वाद में उच्‍चतम न्‍यायालय में निर्धारित किया कि क्रिकेट के खेल का दूरदर्शन एवं रेडियो पर प्रसारण अभिव्‍यक्‍ति का एक माध्‍यम है। तथा यह अनुच्‍छेद 19(1)(क) में सम्‍मिलित है। भाषण एवं अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वाधीनता के अंतर्गत संसूचना प्राप्‍त करना और उसका प्रसारण करना भी शामिल है, इसकी कोई भौगोलिक सीमा नहीं है। वायु तरंगे’ सार्वजनिक संपत्‍ति है और इसका प्रयोग सार्वजनिक हित (Public intrest) के लिए होना चाहिए।

सूचना का अधिकार-

सूचना के अधिकार का अधिनियम, 2005 पारित किया गया है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्‍य देश के नागरिकों को लोक प्राधिकारियों के पास सरकारी काम काज से सम्बंधित सूचनाओं को प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करना है।

मतदाता का सूचना का अधिकार-

केस- यूनियन ऑफ इंडिया बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोट्रिक रिफॉमर्स [AIR 2001]

इस मामले में यह माना गया कि संसद द्वारा पारित संसोधित चुनाव सुधार कानून असंवैधानिक था। क्योंकि इसने नागरिकों के अधिकार का उल्लंघन अनुच्छेद 19 (1)(क) के तहत किया था।

आलोचना का अधिकार

एक राजतंत्र में हम जानते है कि राजा सर्वोच्‍च् है और लोग उसके विषय है। सरकार की लोकतांत्रिक रूप में संबंधो की यह प्रणाली उलट जाती है। जनता सर्वोच्‍च है और राज्‍य प्राधिकरण लोगो का सेवक है। 

मणिपुर केस-

किशोर चंद्र वांगखेम नाम के पत्रकार पर मुख्‍यमंत्री की आलोचना करने और राष्‍ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत देशद्रोह का आरोप लगाया गया था हालॉंकि, उन्‍हें अदालत के रूप् में रिहा कर दिया गया कि भारतीय लोगो को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत आलोचना करने का अधिकार था। 

CASES:-

केस- पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ [2002]

इस मामले में भारतीय टेलीग्राम अधिनियम. 1885 की धारा 5(2) की वैधता को चुनौती दी, जिसमें कहा गया कि यदि कोई सार्वजनिक आपातकाल या सार्वजनिक सुरक्षा के हित में केंद्र सरकार या राज्य सरकार या किसी अन्य अधिकारियों को अधिकृत किया गया था सरकार की ओर से किसी टेलीग्राम पर अस्‍थायी कब्‍जा करने के लिए इस मामले से निपटने के दौरान दो स्‍थितियॉं देखी गई; 

  • सार्वजनिक आपातकाल की घटना
  • सार्वजनिक सुरक्षा के हित में

केस–  हमदर्द दवाखाना बनाम भारत संघ (AIR-1960)

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस मामले में प्रतिबंध के आधार पर ड्रग्स एण्‍ड मैजिक रेमेडीज अधिनियम ,1956 की वैधता को चुनौती दी कि उसने इस स्‍वतंत्रता को छीन लिया या नष्ट कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि विज्ञापन केवल भाषण का एक रूप है। यदि हर विज्ञापन को वाणिज्य और व्यापार से निपटने के लिए आयोजित किया गया था और किसी भी विचार के प्रचार के लिए नहीं |

केस – अब्बास बनाम भारत संघ (AIR 1971) 481

इस बाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फिल्मों  के पूर्व सेंसरशिप के मुद्दे पर विचार किया गया याचिकाकर्ता की फिल्म को ‘यू’  प्रमाण पत्र नहीं दिया गया था,  इसलिए उसने सेंसरशिप की वैधता को मानदंड के तहत चुनौती दी क्‍योकि इसने बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने मौलिक अधिकारों का उल्लघंन किया। अदालत में हालांकि,  यह माना कि गति चित्र भावनाओं को कला के किसी भी रूप से अधिक गहरा ठहराती है। इसलिए पूर्व-सेंसरशिप वैध थी और अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित थी।

निर्बन्धन के आधार (अनुच्‍छेद-19(2)):-

एक लोकतांत्रिक देश भाषण और अभिक्ति की स्‍वंत्रता को संरक्षित करता है और इस स्‍वतंत्रता को सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए प्रतिबंधित करना भी आवश्यक है। अन्यथा कुछ लोग इस स्वतन्त्रता का दुरुपयोग कर सकते हैं। कुछ आधारों पर भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अनुच्छेद 19 के खंड (2) के माध्यम से कुछ प्रतिबंध लगाए गए हैं।

  1. राज्य की सुरक्षा
  2. विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों के हित में
  3. लोक व्‍यवस्‍था (public order) 
  4. शिष्टाचार या सदाचार के हित में
  5. न्यायालय अवमान
  6. मानहानि
  7. अपराध उद्दीपन के मामले में
  8. भारत में सम्प्रभुता एवं अखण्डता

राज्य की सुरक्षा-

राज्य की सुरक्षा सर्वोपरि है अनुच्छेद 19(2) राज्य की सुरक्षा के हित में नागरिकों के वाक् और अभियाक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाये जा सकते है।

राज्य की सुरक्षा शब्द को ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ से अलग किया जाना चाहिए क्योंकि राज्य की सुरक्षा में सार्वजनिक व्यवस्था का उग्र रूप शामिल होता है| उदाहरण के लिए, राज्‍य के खिलाफ युद्ध छेड़ना विद्रोह करना आदि शब्‍द ‘राज्‍य की सुरक्षा’ अनुच्‍छेद 19(2) में न केवल पूरे देश की सुरक्षा के लिए खतरा है, बल्‍कि यह सुरक्षा की सुरक्षा के लिए भी खतरा है।राज्‍यों का एक हिस्‍सा या राज्‍यों के एक हिस्‍से के लिए खतरा है।

केस- पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ (AIR 1997)एस.सी.568

पीयूसीएल द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत जनहित याचिका (P I.L)  दायर की गई की थी| पूरे देश में टेलीफोन टेपिंग के लगातार मामलों के खिलाफ और इस प्रकार भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 की धारा 5(2) की वैधता को चुनौती दी गई। तब यह देखा गया कि सार्वजनिक आपातकाल की घटना और सार्वजनिक सुरक्षा के हित में धारा 5(2) के तहत प्रावधानों के आवेदन के लिए गैर योग्य अर्हता है यदि इन दोनो स्थितियों में से कोई भी स्थिति से अनुपस्थित है, तो भारत सरकार को इस धारा के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करने का कोई अधिकार नहीं है।

टेलीफोन टेपिंग, इसलिए अनुच्‍छेद 19(1)(क) का उल्‍लंघन होगा जब तक कि यह अनुच्‍छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंधों के आधार पर नहीं आता है।

विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध– 

निर्बंधन का यह आधार संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम ,1951 द्वारा अनु-19(2) में जोड़ा गया है। इस खंड का अतंर्निहित उद्देश्‍य केवल अपलेख और मानहानि के क्षेत्र को विस्‍तृत करना है और किसी व्‍यक्‍ति को ऐसी मिथ्‍या या झूठी अफवाहे फैलाने से रोकना है। जिससे किसी विदेशी राज्‍य के साथ साथ हमारे मेत्रीपूर्ण संबंधों को आघात पहुँचता हो।

सार्वजनिक व्यवस्था (Public india) –

इस शब्द को रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्‍य के मामले में उच्‍चतम न्‍यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के प्रभाव को दूर करने के लिए प्रथम संविधान संशोधन 1951 अनुच्छेद 19(2) में जोड़ा गया है। लोक व्‍यवस्‍था का अभिप्राय है, समाज की वाह्य एवं आंतरिक खतरों से सुरक्षा करना। इस प्रकार आंतरिक विक्षोभ या विद्रोह उत्पन्न करना लोक व्‍यवस्‍था सुरक्षा एवं लोक सुरक्षा के विरूद्ध होगा। 

ब्रजभूषण बनाम स्‍टेट (ए.आई.आर.1950)एस.सी.)

किंतु सरकार की आलोचना लोक व्यवस्था या लोक सुरक्षा को खतरा पैदा करने वाली नही समझी जाती है 

शिष्टाचार या सदाचार-

ऐसे कथनों या प्रकाशनों पर जिनसे लोक नैतिकता एवं शिष्‍टता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सरकार निर्बंधन लगा सकती है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 292 से लेकर 294 तक नैतिकता एवं शिष्‍टता के हित में वाक और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता पर निर्बंधन लगाने का उपबंध करती है। किसी व्‍यक्‍ति द्वारा सार्वजनिक स्‍थानों पर ये धाराऍ अश्‍लील प्रकाशनों को बेचने, प्रचार या प्रदर्शन करने, अश्‍लील कृत्यों को करने, अशलील गानो या अश्लील भाषणो आदि का प्रतिषेद करती है। किन्तु भारतीय दंड संहिता में ‘अश्‍लीलता’ की कोई कसौटी नहीं दी गई है।

न्यायालय का अवमान –

संसद ने न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 पारित करके इस कमी को पूरा कर दिया है। इस अधिनियम की धारा (2) के अनुसार ‘न्यायालय – अवमान’  के अन्तर्गत सिविल और अपराधिक दोने प्रकार के अवमान शामिल है।

शुरू में ‘सत्य’ अदालत की अवमानना के तहत बचाव नहीं था लेकिन 2006 में एक बचाव के रुप में ‘सत्य’ को जोड़ने के लिए संशोधन किया गया था। 

केस- अप्रत्यक्ष कर व्यवसायी असम बनाम आर. के. जैन

इस मामले में अदालत ने यह सत्‍य माना है, कि जो तथ्य पर आधारित है, उसे एक वैध बचाव के रूप में अनुमति दी जानी चाहिए।

अवमानना स्थापित करने के लिए आवश्यक तत्व –

  1. वैध न्यायालय का आदेश देना
  2. प्रतिवादी को उस आदेश का ज्ञान होना चाहिए।
  3. जानबूझकर आदेश की अवज्ञा करना
  4. प्रतिवादी के पास अनुपालन प्रस्तुत करने की क्षमता होना चाहिए

उच्‍च्‍तम न्‍यायालय और उच्‍च न्‍यायलय को क्रमश: अपने अवमान के लिए दंड देने की शक्‍ति प्रदान की गई है।

मानहानि-

कोई भी ऐसा कथन प्रकाशन, जो किसी व्‍यक्‍ति की प्रतिष्‍ठा को क्षति पहुचाता है, मानहानि कहलाता है। ऐसे कथन के प्रकाशन को मानहानि कहा जाता है। जो किसी व्यक्ति या समाज में घृणा, हंसी या अपमान पात्र बनाता है। उक्‍त कथन या प्रकाशन पर अनुच्‍छेद 19(2) के अंतर्गत युक्‍तियुक्‍त प्रतिबंध लगाए जा सकते है। भारतीय दंड संहिता की धारा 499,500 में मानहानि संबंधित विधि दी हुई है।

केस- नम्बूदरिपाद बनाम नम्बियार (ए.आई.आर.1970)एस.सी.2015)

इस मामले में न्यायालय ने कहा है कि जो विधि मानहानि के लिए दंण्डित करने के लिए बनाई गई है वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्‍लंघन नहीं करती है।

अपराध उद्दीपन

यह आधार संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 के द्वारा जोड़ा गया है। वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी व्‍यक्‍ति को इस बात का अधिकार नहीं देती है। कि वे लोगों को अपराध करने के लिए भड़काये या उकसाये इसी आधार पर किसी भी अपराध जिसमें हत्या जैसा गंभीर अपराध सम्मिलित है। उद्दीपन को दंण्डित या निवारित करने के लिए विधान बनाए जा सकते है| भारतीय दंड संहित, 1860 की धारा 40 के तहत ‘अपराध’ शब्द का वर्णन किया गया है।

केस- बिहार राज्य बनाम शैल बाला देवी [ए.आई.आर.1952 )एस.सी)

उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि हत्या या अन्य हिंसात्मक अपराधों के लिए उद्दीपन साधारणतया राज्य की सुरक्षा को संकटापन करेगा। अस्तु ऐसे उद्‌दीपन के विरुद्ध निर्वंधन अनुच्छेद 19(2) के अधीन विधि मान्य होगा।

भारत की सम्प्रभुता एवं अखण्डता– 

भारत की प्रभुता एवं अखण्डता के आधार पर युक्‍तियुक्त निर्बन्धन लागाया जा सकता है। वाकू और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर निर्वंधन लगाने के लिए इस आधार को संविधान के 16 वें संविधान द्वारा जोड़ा गया है। यह आधार इस उद्देश्य से जोड़ा गया है, ताकि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का प्रयोग संघ की राज्य क्षेत्रीय अखण्डता और प्रभुता पर आक्रमण करने के लिए न किया जा सके।

वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उल्लंघन पर उपलब्‍ध कानूनी उपचार-

1. अनुच्‍छेद 19(1)(क) के उल्‍लंघन के मामले में संविधान के अनुच्‍छेद-32 के तहत एक और मौलिक अधिकार है, जो संविधान के भाग-3 के तहत प्रदत्‍त अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उपायों से संबंधित है। यानि वाक् और अभिव्यक्ति के अधिकार के प्रवर्तन के लिए उच्‍चतम न्‍यायालय में जाने का अधिकार।

अनुच्‍छेद-32(2) उच्‍चतम न्‍यायलय को इन अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित निर्देश या रिट, जिनके अतंर्गत बंदी प्रत्‍यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्‍छा, और उत्प्रेष्ण के प्रकार के रिट भी सम्‍मिलित है।जारी करने की शक्‍ति प्रदान करता है। (अनु-19(1)(क) के तहत प्रवर्तन के लिए)|

2- यहॉं तक कि अनु-226 के तहत उच्‍च न्यायालयों को भी आदेश जारी करने और नागरिको की अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय जैसी ही शक्‍ति प्रदान की गई है।

3- जनहित याचिका को किसी भी व्यक्ति द्वारा सीधे सर्वोच्च न्यायालय या उच्‍च न्‍यायालय में दायर किया जा सकता है, अगर किसी व्यक्ति के बोलने की स्वतन्त्रता या किसी अन्य पक्ष का उल्लंघन किया जाता है इस तरह से कार्य करना अभिरूचि वाला हो।

इसलिए कोई भी पीडित व्यक्ति इन अदालतो से संपर्क कर सकता है, जिन्हें संविधान का संरक्षक माना जाता है।

निष्कर्ष

समाज नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सबसे बुनियादी गारंटी प्रदान करता है। निष्कर्ष निकालने के बाद हम कह सकते हैं कि बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार एक महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार है, जिसके दायरे को प्रेस की स्वतंत्रता को शामिल करने के लिए चौड़ा किया गया है। सूचना का अधिकार जिसमें व्यावसायिक जानकारी भी शामिल हैं, बोलने का अधिकार नहीं है और आलोचना करने का अधिकार है।

आधुनिक दुनिया में बोलने की स्वतंत्रता के अधिकार में केवल शब्‍दों के माध्यम से किसी के विचार को व्यक्त करने की स्वतंत्रता शामिल नहीं है। बल्‍कि इसमें किसी विचार करने के लिए संचार के कई साधन भी शामिल है जिस अधिकार के बारे में हमने बात की है, वह भारतीय संविधान के अनुच्देद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंध के अधीन है।

संदर्भ 

  • भारत का संविधान – डॉ. जय नारायण पाण्डेय-भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
  • https://blog.ipbaders. in-भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
  • https: //www.Leagalservisindia.com.-भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता