सीआरपीसी की धारा 329 — न्यायालय के समक्ष विचारित व्यक्ति के विकृतचित्त होने की दशा में प्रक्रिया —
(1) यदि किसी मजिस्ट्रेट या सेशन न्यायालय के समक्ष किसी व्यक्ति के विचारण के समय उस मजिस्ट्रेट या न्यायालय को वह व्यक्ति विकृतचित्त और परिणामस्वरूप अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ प्रतीत होता है, तो वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय, प्रथमतः ऐसी चित्त-विकृति और असमर्थता के तथ्य का विचारण करेगा और यदि उस मजिस्ट्रेट या न्यायालय का ऐसे चिकित्सीय या अन्य साक्ष्य पर, जो उसके समक्ष पेश किया जाता है, विचार करने के पश्चात् उस तथ्य के बारे में समाधान हो जाता है तो वह उस भाव का निष्कर्ष अभिलिखित करेगा और मामले में आगे की कार्यवाही मुल्तवी कर देगा।
(1क) यदि विचारण के दौरान; मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय पाता है कि अभियुक्त चित्त विकृत है, वह या यह ऐसे व्यक्ति को किसी मनोचिकित्सक या चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक के पास देख-रेख तथा उपचार के लिए निर्दिष्ट करेगा, और यथास्थिति मनोचिकित्सक या चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक मजिस्ट्रेट या न्यायालय को यह रिपोर्ट देगा कि क्या अभियुक्त चित्त की विकृतता से ग्रस्त है
परन्तु यह कि यदि अभियुक्त, यथास्थिति, मनोचिकित्सक या चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक द्वारा मजिस्ट्रेट को दी गई सूचना द्वारा व्यथित है, वह मेडिकल बोर्ड के समक्ष अपील कर सकता है जिसमें सम्मिलित होंगे :
(क) निकटतम शासकीय चिकित्सालय में के मनोचिकित्सक इकाई के प्रमुख; और
(ख) निकटतम मेडिकल कॉलेज के मनोचिकित्सक में संकाय का कोई सदस्य ।
(2) यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय को सूचित किया जाता है कि उपधारा (1-क) में निर्दिष्ट व्यक्ति चित्त विकृत व्यक्ति है, तब मजिस्ट्रेट या न्यायालय यह और अवधारित करेगा कि चित्त विकृतता अभियुक्त को अभिरक्षा करने में अक्षम बनाती है तथा यदि अभियुक्त इस प्रकार अक्षम पाया जाता है तो मजिस्ट्रेट या न्यायालय इस प्रभाव का निष्कर्ष अभिलिखित करेगा तथा अभियोजन द्वारा पेश किए गए साक्ष्य के अभिलेख का परीक्षण करेगा तथा अभियुक्त के अधिवक्ता को सुनने के पश्चात् लेकिन अभियुक्त से प्रश्न किए बिना, यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय पाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला सिद्ध नहीं होता है, वह या यह विचारण को स्थगित करने के स्थान पर अभियुक्त को उन्मोचित करेगा तथा उसके बारे में धारा 330 के अधीन उपबन्धित ढंग में कार्यवाही करेगा :
परन्तु यह कि यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय पाता है कि उस अभियुक्त के विरुद्ध जिसके सम्बन्ध में चित्त विकृतता का निष्कर्ष निकाला गया है, प्रथम दृष्टया मामला सिद्ध होता है वह विचारण को ऐसी अवधि के लिए मुल्तवी करेगा, जैसा कि मनोचिकित्सक या चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक की राय में अभियुक्त के उपचार के लिए अपेक्षित है।
(3) यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय पाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला सिद्ध होता है तथा बुद्धि मन्दता के कारण वह प्रतिरक्षा करने में अक्षम है, वह या यह विचारण नहीं करेगा तथा अभियुक्त के बारे में धारा 330 के अनुसार कार्यवाही करना आदेशित करेगा।
Section 329 CrPC — Procedure in case of person of unsound mind tried before Court —
(1) If at the trial of any person before a Magistrate or Court of Session, it appears to the Magistrate or Court that such person is of unsound mind and consequently incapable of making his defence, the Magistrate or Court shall, in the first instance, try the fact of such unsoundness and incapacity, and if the Magistrate or Court, after considering such medical and other evidence as may be produced before him or it, is satisfied of the fact, he or it shall record a finding to that effect and shall postpone further proceedings in the case.
1[(1A) If during trial, the Magistrate or Court of Sessions finds the accused to be of unsound mind, he or it shall refer such person to a psychiatrist or clinical psychologist for care and treatment, and the psychiatrist or clinical psychologist, as the case may be shall report to the Magistrate or Court whether the accused is suffering from unsoundness of mind: सीआरपीसी की धारा 329
Provided that if the accused is aggrieved by the information given by the psychiatric or clinical psychologist, as the case may be, to the Magistrate, he may prefer an appeal before the Medical Board which shall consist of– सीआरपीसी की धारा 329
(a) head of psychiatry unit in the nearest government hospital; and
(b) a faculty member in psychiatry in the nearest medical college.]
2[(2) If such Magistrate or Court is informed that the person referred to in sub-section (1A) is a person of unsound mind, the Magistrate or Court shall further determine whether unsoundness of mind renders the accused incapable of entering defence and if the accused is found so incapable, the Magistrate or Court shall record a finding to that effect and shall examine the record of evidence produced by the prosecution and after hearing the advocate of the accused but without questioning the accused, if the Magistrate or Court finds that no prima facie case is made out against the accused, he or it shall, instead of postponing the trial, discharge the accused and deal with him in the manner provided under section 330: सीआरपीसी की धारा 329
Provided that if the Magistrate or Court finds that a prima facie case is made out against the accused in respect of whom a finding of unsoundness of mind is arrived at, he shall postpone the trial for such period, as in the opinion of the psychiatrist or clinical psychologist, is required for the treatment of the accused.
(3) If the Magistrate or Court finds that a prima facie case is made out against the accused and he is incapable of entering defence by reason of mental retardation, he or it shall not hold the trial and order the accused to be dealt with in accordance with section 330.]