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IPC की धारा 83 | धारा 83 भारतीय दण्ड संहिता | IPC Section 83 In Hindi

IPC की धारा 83 — सात वर्ष से ऊपर किन्तु बारह वर्ष से कम आयु के अपरिपक्व समझ के शिशु का कार्य –

कोई बात अपराध नहीं है, जो सात वर्ष से ऊपर और बारह वर्ष से कम आयु के ऐसे शिशु द्वारा की जाती है जिसकी समझ इतनी परिपक्व नहीं हुई है कि वह उस अवसर पर अपने आचरण की प्रकृति और परिणामों का निर्णय कर सके।


धारा 83 आईपीसी के प्रमुख अवयव क्या हैं?
कोई बात अपराध नहीं है, जो-
1. 7 वर्ष से अधिक किन्तु 12 वर्ष से कम आयु के बालक द्वारा किया गया हो
2. बालक में अपने आचरण के प्रकृति और परिणाम को समझने की पर्याप्त परिपक्वता नहीं थी 
3. कार्य सम्पादित होते समय अक्षमता अस्तित्व में थी।

IPC की धारा 83 से संबंधित महत्वपूर्ण केस –

कृष्णा (1883)6 मद्रास 373.
के वाद में 9 वर्ष के एक बच्चे ने 2 रुपये आठ आने कीमत वाले एक हार को चुराकर अभियुक्त के हाथ पांच आने में बेच दिया। परीक्षण के दौरान प्रस्तुत किये गये साक्ष्य से पता चला कि बच्चे ने अपने कार्य की प्रकृति तथा परिणामों को समझने की पर्याप्त प्रौढ़ता अर्जित कर ली थी । अतः यह चोरी के आरोप का दोषी ठहराया गया।  
गोदी (1896) क्रि० रि० नं० 55 : 1896 अनरिपोर्टेड क्रिमिनल केसेज, 876.
एक 10 वर्ष की लड़की ने अपने पति के जीवनकाल में दुबारा विवाह किया। विवाह की सारी कार्यवाहियाँ उनकी माँ ने सम्पन्न किया। यह निर्णय दिया गया कि दूसरे विवाह के समय लड़की कार्य की प्रकृति तथा उसके परिणामों को समझने में पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं थी | आईपीसी की धारा 83 का संरक्षण मिला |
उल्ला महापात्र 1950 कटक 293. 
के वाद में अभियुक्त जो 11 वर्ष से अधिक तथा 12 से कम आयु का था, ने एक चाकू उठाकर मृतक को टुकड़े-टुकड़े में काट देने की धमकी देने लगा तथा यथार्थतः उसने उसकी हत्या भी कर दी। यह निर्णय हुआ कि अभियुक्त के कार्य से केवल एक निर्णय निकाला जा सकता है और वह यह कि उसने वही किया जो वह करना चाहता था तथा पूरी घटना के दौरान उसे यह ज्ञात था कि चाकू का मात्र एक ही प्रहार उसके आशय की पूर्ति कर देगा। अतः उसे सुधार गृह में 5 वर्ष के लिये भेज दिया गया।
अब्दुल सत्तार बनाम क्राउन, (1949) 50 क्रि0 लॉ ज0 336
अभियोजक का कर्तव्य नहीं होगा कि वह सकरात्मक साक्ष्यों से इस तथ्य को साबित करें कि वह 12 वर्ष से कम आयु का था तथा अपरिपक्वता के कारण वह अपने कार्य को नहीं समझ सका था, परिपक्वता तथा आयु का तथ्य मामले की परिस्थितियों से भी निष्कर्षित किया जा सकता है।
हीरालाल बनाम बिहार राज्य 1977 क्रि० लॉ ज० 1921 (सु० को० )
एक लड़के ने एक आयोजित कार्य में भाग लिया और मृतक पर प्राणघातक हमला करने में एक धारदार अस्त्र का प्रयोग किया। उस लड़के के मन्दबुद्धि होने के कारण अपने कार्यों की समुचित समझ न होने के साक्ष्य के अभाव में IPC की धारा 83 के अन्तर्गत प्रतिरक्षा प्रदान की गई ।
कीन इम्प्रेस बनाम मकीमुद्दीन, इ) लॉ रि0 27 कल0 133
आयु की अपरिपक्कता के संदर्भ में युक्तियुक्त साक्ष्य का पेश किया जाना आवश्यक है, किन्तु फिर भी एक मजिस्ट्रेट अभियुक्त की उपस्थिति से उसके आयु के बारे में निष्कर्ष निकालने हेतु सक्षम माना जायेगा ।

IPC की धारा 83 FAQ

  1. IPC की धारा 83 कितने वर्ष के शिशुओं के दाण्डिक दायित्व से सम्बन्धित है ? 

    7 वर्ष से अधिक किन्तु 12 वर्ष से कम की आयु के बालकों के।

  2. IPC की धारा 83 क्या है ? 

    IPC की धारा 83 के अनुसार- कोई बात अपराध नहीं है जो 7 वर्ष से ऊपर और 12 वर्ष से कम आयु के शिशु द्वारा की जाती है जिसकी समझ इतनी परिपक्व नहीं हुई है कि वह उस अवसर पर अपने आचरण की प्रकृति और परिणामों का निर्णय कर सके।

  3. IPC की धारा 83 के प्रमुख अवयव क्या हैं?

    1. एक कार्य जो 7 वर्ष से अधिक किन्तु 12 वर्ष से कम आयु के बालक द्वारा किया गया हो
    2. बालक में अपने आचरण के प्रकृति और परिणाम को समझने की पर्याप्त परिपक्वता नहीं थी 
    3. कार्य सम्पादित होते समय अक्षमता अस्तित्व में थी।

  4. IPC की धारा 83 किस लैटिन सूक्ति पर आधारित है? 

    यह  Malitia supplet aetatem “उम्र विद्वेष की परिपूर्ति करता है” नामक लैटिन सूक्ति पर आधारित है। 

  5. IPC की धारा 83 किस प्रकार की उन्मुक्ति के मामलों से सम्बन्धित है ?

    सीमित उन्मुक्ति के मामलों से

  6. Malitia supplet aetatem किस धारा से संबंधित है ?

    IPC की धारा 83 से |

IPC Section 83 — Act of a child above seven and under twelve of immature understanding –

Nothing is an offence which is done by a child above seven years of age and under twelve, who has not attained sufficient maturity of understanding to judge of the nature and consequences of his conduct on that occasion.

भारतीय दण्ड संहिता के लिए महत्वपूर्ण पुस्तकें –

भारतीय दंड संहिता,1860 – प्रो सूर्य नारायण मिश्र

भारतीय दंड संहिता, 1860 – डॉ. बसंती लाल

भारतीय दण्ड संहिता ( DIGLOT) [ENGLISH/HINDI] [BARE ACT]

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