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भारत में लोकसेवकों को प्रदत्त संवैधानिक संरक्षण’

भारत में लोकसेवकों को प्रदत्त संवैधानिक संरक्षण’

भारत में लोकसेवकों को कौन-कौन से संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है?

प्रस्‍तावना-

देश के प्रशासन में संघ और राज्‍यों की सेवाओं का स्‍थान बहुत महत्‍वपूर्ण हैं। किसी भी देश का प्रशासन वहां के कुशल लोकसेवकों पर निर्भर करता है। संघात्‍मक संविधान में इनका विशेष महत्‍व है। प्रशासन संबंधी नीतियों का निर्धारण तो मन्त्रिमंडल करता हैं किन्‍तु उनका कार्यान्वयन लोकसेवक ही करते हैं तथा लोकसेवक को राजनीतिक या व्‍यक्‍तिगत दबावों से मुक्‍त करना आवश्‍यक है जिससे वे सरकारी नीतियों को निष्‍पक्षता और स्‍वतंत्रता से कार्यान्‍वित कर सकें। इस उद्देश्‍य से संविधान के अनुच्‍छेद 308 से लेकर 323 तक उपबन्ध किये गये है, जो लोक सेवकों के कार्यकाल ,सेवा की शर्ते और संवैधानिक संरक्षण से संबंधित है।

संविधान में ‘सिविल सेवा’ की कोई परिभाषा नहीं दी गई है, किन्‍तु अनुच्‍छेद 310 और 311 के उपबन्‍धो के अनुसार ऐसा प्र‍तीत होता है कि प्रतिरक्षा पदों के अतिरिक्‍त अन्‍य पद लोकपद है।

किसी देश की सिविल सेवा में उसके सरकारी विभाग और उनमें कार्य करने वाले सभी लोग शामिल होते है। कई देशों में सैन्‍य कानूनी मामलों से संबंधित विभाग सिविल सेवा का हिस्‍सा नहीं हैं।

केस :-शेर सिंह बनाम मध्‍यप्रदेश राज्‍य (AIR 1956) नागपुर 175.

सिविल सेवा का अर्थ- प्रशासन के असैनिक पदों पर नियुक्‍ति।

केस :-उत्‍तर प्रदेश राज्‍य बनाम ए. एन. सिंह (AIR 1965) S.C.360)

राज्‍य और पद धारण करने वाले व्‍यक्‍ति के बीच स्‍वामी और सेवक का संबंध तब स्‍थापित होता है, जब निम्‍न- लिखित तत्‍व मौजूद होते है-

  1. राज्‍य को उस पद के सेवकों को चुनने तथा नियुक्‍त करने का अधिकार।
  2. उसके द्वारा कार्य किये जाने के ढंग पर नियंत्रण का अधिकार।‍ ‍ 
  3. उसके लिए राज्‍य कोष से परिश्रमिक या वेतन देने का अधिकार। 

संघ या राज्‍य सेवा में नियुक्‍त व्‍यक्‍तियों की भर्ती और सेवा शर्तों का विनियमन (अनुच्‍छेद 309)-

अनुच्‍छेद 309 संघ और राज्‍य विधान मंण्‍डल को उनकी सेवा नियुक्‍त लोकसेवकों की भर्ती और सेवा की शर्तो के विनियमन की शक्‍ति प्रदान करता है।

अनुच्‍छेद 309 कहता है कि संसद तथा राज्य विधानमंण्‍डल संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए संघ तथा राज्‍यों के कार्यो से संबंध लोकसेवा और पदों के लिए भर्ती का नियुक्‍त व्‍यक्‍तियों की सेवा शर्तो का विनियमन करेगे किन्‍तु जब तक समुचित विधानमण्‍डल के अधिनियम द्वारा उत्‍तर प्रयोजनों के लिए उपबन्‍ध नहीं बनाये जाते है, तब तक ऐसी सेवा और पदों के लिए भर्ती नियुक्‍ति व्‍यक्‍तियों की शक्‍तियों का वर्णन करने के लिए नियमों को राष्‍ट्रपति और राज्‍यपाल बनाएंगे।

इस प्रकार बनाये गये नियम विधानमंण्‍डल द्वारा बनाये गए अधिनियम के अ‍धीन होंगे। संविधान में लोकसेवको की भ‍र्ती में सहायता देने के लिए लोक सेवा आयोग की स्‍थापना का उपबंध किया गया है। अनुच्‍छेद 309 में प्रावधान के अधीन रहते हुऐ स्‍पष्‍ट है कि विधान मंण्‍डलों की विधान की शक्‍ति और कार्यपालिका की शक्‍ति संविधान के विरुद्ध नहीं हो सकती है अनुच्‍छेद 309 के अन्‍तर्गत लोकसेवकों की भर्ती तथा उनकी सेवा की भर्ती के लिए बनाया गया कोई अधिनियम किसी भी मूल अधिकार का अतिक्रमण नहीं कर सकता है।

केस:- पलारूराम कृष्‍णैया बनाम भारत संघ (AIR 1990) S.C. 166.

इस मामले में कहा गया है कि अनुच्‍छेद 309 के अधीन बनाये गये नियम के उपबन्‍धों को कार्यपालिक अनुदेशो द्वारा उल्‍टा नहीं जा सकता है।

केस :- मध्‍यप्रदेश बनाम एम.पी.ओझा (AIR1998)S.C.659. 

इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि एक सेवानिवृत्‍त सरकारी सेवक जो अपने पुत्र, जो स्‍वयं एक सरकारी सेवक है,  के साथ रहता है उसे पुत्र पर ‘पूर्ण रूप से आश्रित’ माना जाएगा। इस बात के होते हुए कि वह स्‍वंय पेंशन पाता हो। अत: पुत्र अपने पिता की चिकित्‍सा में खर्च हुये की प्रतिपूर्ती का हकदार है मध्‍यप्रदशे सिविल सेवा नियम,1958 के अधीन ‘परिवार’ या ‘पूर्णरूपेण आश्रित’ के अन्‍तर्गत वित्‍तीय या शा‍रीरिक रूप से आश्रित दोनों आते है।

केस:-सत्यवीर सिंह बनाम भारत संघ (AIR 1967)S.C.1889

इस मामले में अनुच्छेद 309 के अनुसरण में बनाए गए अधिनियम या नियम अनुच्छेद 310(1) मे अधिकथित प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के अध्याधीन है और उस सीमा को छोड़कर जहां तक की प्रसादपर्यंत का सिद्धांत संविधान के उपबंध हो द्वारा निर्बन्धित किया गया है, जैसे -अनुच्छेद 311, 317 और अनुच्छेद 309 के अधीन बनाए गए अधिनियम या नियमों द्वारा कोई निर्बंधन लगाया नहीं जा सकता है| इस प्रकार अनुच्छेद 311(2) के दूसरे परंतुक द्वारा प्रसादपर्यंत के सिद्धांत पर अधोरोपित निर्बंधनों को जिन्हें कि शिथिल कर दिया गया है फिर से अनुच्छेद 309 के अधीन बनाए गए अधिनियम द्वारा प्रविष्‍टि नहीं किया जा सकता है। यदि वे इस प्रकार फिर प्रविष्‍टि किए जाते हैं तो उनकी असंवैधानिकता दूर करने के लिए उन्‍हें निर्देशात्‍मक माना जाएगा ,आज्ञापक नहीं है।

लोक सेवकों का पदावधि: प्रसाद का सिद्धांत (doctrine of pleasure) (अनुच्छेद 310):- 

भारत के संविधान के अनुच्छेद 310 में यह उपबंध किया गया है, कि प्रत्येक व्यक्ति को जो संघ की प्रतिरक्षा से अखिल भारतीय सेवा में पदस्थ हैं अथवा संघ के अधीन प्रतिरक्षा से संबंधित किसी पद को अथवा किसी सैनिक पद को धारण करता है, राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है|

 इसी तरह राज्य सेवकों के सदस्यगण राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं यह एक सामान्य नियम है| किंतु संविधान में उपबंध दिए गए हैं जहां प्रसादपर्यंत का सिद्धांत लागू नहीं होता है भारत के संविधान में प्रसाद का सिद्धांत बहुत सीमित रूप से लागू होता है।

लोकसेवक सम्राट के अधीन होते है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्य सम्प्रभु है और सम्राट की भांति है। यदि कोई कोई लोक सेवक नौकरी से सेवानिवृत्ति से पहले निकाल दिया जाता है तो भी वह सम्राट से वेतन या किसी प्रकार का दावा नहीं कर सकता। प्रसाद का सिद्धांत लोक नीति पर आधारित है।

भारत में प्रसादपर्यंत का सिद्धांत इंग्‍लैण्‍ड से आया है।

अनुच्‍छेद 310 में प्रयुक्‍त प्रारंभिक शब्‍दावली में संविधान द्वारा स्‍पष्‍ट उपबंधित अवस्‍था को छोड़कर प्रसाद के सिद्धांत का प्रयोग पर निर्बंधन लगाती है और उसके प्रयोग की सीमाओं को विहित करती है। भारत में एक लोक सेवक अपने वकाया वेतन के लिए सरकार के विरूद्ध वाद चला सकता है।

केस:-– रोशनलाल टंडन बनाम भारत संघ (AIR 1967)S.C.1889

इस मामले में न्‍यायमूर्ती वी. रामास्‍वामी ने कहा कि सरकारी कर्मचारी की उपलब्‍धियॉं और उसकी सेवा के निर्बंधन अधिनियम अथवा अधिनियम की क्षमता रखने वाले नियमों से शासित होते है। जिन्‍हे सरकार कर्मचारी की सहमति के बिना परिवर्तित करने के लिए सक्षम होती है।

रोशन लाल टंडन के मामले में अर्जीदार की ओर से एक दावा यह किया गया था कि जिस समय वह रेलसेवा में श्रेणी ‘घ’ के ट्रेन परीक्षक की हैसियत से भर्ती हुआ था उस समय श्रेणी ‘घ’ से श्रेणी ‘ग’ प्रोन्‍नति प्राप्‍त करने के जो भी नियम थे वे अर्जीदार और भारत सरकार के बीच की, उसके नियोजन के संबंध में की गई संबिदा की शर्ते, अत: उसके श्रेणी ‘घ’ में प्रवेश के पश्‍चात् उन शर्तो को केवल दोनो पक्षकारों के बीच किसी नए करार द्वारा ही परिवर्तित किया जा सकता है और भारत सरकार अथवा रेल प्रशासन उसे केवल अपनी मर्जी से, एकतरफा निर्णय द्वारा परिवर्तित नहीं कर सकते है।

अर्जीदार के इस तर्क को अस्‍वीकार करते हुए उच्‍चतम न्‍यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि भारत सरकार के कर्मचारी राष्‍ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपने पदधारण करते है और उस प्रसाद के अनुकूल समय-समय पर उनकी सेवा की शर्तो में किए गए परिवर्तनों को स्‍वीकार करने के लिए वे विधि द्वारा बाध्‍य है। उनका अपने नियोजन के साथ का संबंध मात्र संविदा का संबंध नहीं हैं।

केस:- शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्‍य (AIR 1974) S.C. 2192)  ,

और

श्रीमति रंजन बनाम और भारत संघ (AIR 1975 ) S.C.1755.

सिविल सेवकों की नियुक्‍ति, पदच्‍युति और हटाया जाना ‘वैयक्तिक’ नहीं वल्‍कि राष्‍ट्रपति या राज्‍यपाल के समाधान की अपेक्षा करता है, यह उसका वैयक्‍तियक समाधान नहीं है जो अपेक्षित होता है।

बल्‍कि सांविधानिक अर्थ में समाधीन इस प्रकार कार्य-संचालन के नियमों के अधीन प्राधिकृत अधिकारी, राष्‍ट्रपति, या राज्‍यपाल के नाम से यथास्‍थिति वांछित कार्यवाही कर सकता है। रंजन के मामले में एक कर्मचारी की पदच्‍युति के बारे में अपील निस्‍तारण मंत्री द्वारा किया गया जबकि नियमों के अधीन अपील राष्‍ट्रपति को की गई थी अपील निस्‍तारण को उचित और वैध घोषित किया गया।

‘प्रसादपर्यंत’ सिद्धांत पर निर्बंधन- 

भारत के संविधान में ‘प्रसाद का सिद्धांत’ बहुत सीमित रूप से लागू होता है| अनुच्‍छेद 310 में प्रयुक्‍त प्रारंभिक पदावली ‘संविधान द्वारा स्‍पष्‍टतापूर्वक उपबंधित अवस्‍था को छोड़कर’ प्रसाद के सिद्धांत के प्रयोग पर निर्बंधन लगाती है और इसके प्रयोग की सीमाओं को विहित करती है। अत: भारत में एक लोक सेवक अपने वकाया वेतन के लिए सरकार के विरूद्ध वाद चला सकता है।

केस:– बिहार राज्‍य बनाम अब्‍दुल मजीद (AIR 1964)S.C.245

इस मामले में एक पुलिस सब इन्‍सपेक्‍टर को कायरता के आधार पर सेवा से पदच्‍युत कर दिया गया था। बाद में उसे पुन: बहाल कर दिया गया, किन्‍तु सरकार ने पदच्‍युति की अवधि के लिए वेतन देना अस्‍वीकार कर दिया। उच्‍चतम न्‍यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि वह बकाया वेतन पाने का हकदार था, क्‍योकि उसने सेवा संविदा के अधीन कार्य किया था।

केस:- दिनेश चंद्र बनाम असम राज्‍य(AIR 1978) S.C.17

जिस प्रकार सेवा शर्तों के अनुसार सरकार को किसी सेवक को अनिवार्य सेवानिवृत्‍ति करने की शक्‍ति प्राप्‍त है। उसी प्रकार सेवक को भी अपने पद से स्‍वेच्‍छापूर्वक 3 माह की सूचना देकर त्‍याग पद देने का अधिकार प्राप्‍त है चाहे उसे राज्‍य स्‍वीकार करे या नहीं |

भारतीय संविधान प्रसाद के सिद्धांत पर निम्‍न लिखित निर्बंधन लगाता है-

  1. यह सिद्धांत अनुच्‍छेद 311 के अधीन है ,अर्थात इसका प्रयोग अनुचछेद 311 मे विहित प्रक्रिया के अनुसार ही किया जा सकता है। अनुच्‍छेद 311 के उल्‍लंघन होने पर ‘प्रसाद के सिद्धांत’ का प्रयोग अवैध हो जाएगा।
  2. यह निम्‍न अधिकारियों पर नहीं लागू होता है – उच्‍चतम न्‍यायालय (अनुच्‍छेद 124) और उच्‍च न्‍यायालय (अनुच्‍छेद 218 ) के न्‍यायाधीश, भारत का महालेखाकर (अनुच्‍छेद 148(2), मुख्‍य चुनाव आयुक्‍त (अनुच्‍छेद 324) ,लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष तथा सदस्‍य (अनुच्‍छेद 317) के पद राष्‍ट्रपति या राज्‍यपाल के ‘प्रसादपर्यंत’ पर नहीं निर्भर करते हैं। 
  3. प्रसाद का सिंद्धात मूल अधिकारों के आधीन है,अर्थात इसके प्रयोग द्वारा नागरिको के मूल अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होना चाहिए।

प्रसादपर्यंतसिद्धांत का अपवाद अनु० 310(2):-

इस खंड के अनुसार कोई संविदा जिसके अधीन कोई व्‍यक्‍ति जो रक्षा सेवा का या अखिल भारतीय सेवा का या संघ या राज्‍य की सिविल सेवा का सदस्‍य नहीं है ऐसे किसी पद को धारण करने के लिए इस संविधान के अधीन नियुक्‍त किया जाता है।

उस दशा में जिसमें यथास्‍थिति राष्‍ट्रपति या राज्‍यपाल विशेष अर्हताओं वाले किसी व्‍यक्‍ति की सेवाएँ प्राप्‍त करने के लिए आवश्यक समझता है। यह उपबंध कर सकेगी कि यदि करार की गई अवधि की समाप्ति से पहले वह पद समाप्‍त कर दिया जाता है या ऐसे कारणों से, जो उसके अवचार से संबंधित नहीं है, उससे यह पद रिक्‍त करने की अपेक्षा की जाती है तो प्रतिकर दिया जायेगा।

लोकसेवको के संवैधानिक संरक्षण (अनु0 311):-

अनु० 310 में साधारण सिद्धांत अधिकथित किया गया कि सरकारी सेवक सरकार के ‘प्रसादपर्यंत’ पद धारण करता है। अनु० 311 जिसे विश्‍व संविधान वाद में अद्वितीय कहा गया है प्रसाद पर पदच्‍युति के परमाधिकार पर दो मुख्‍य निर्बंधन लगाता है। जो कर्मचारी के दृष्टिकोण से उसके दो महत्‍वपूर्ण संवैधानिक संरक्षण है-

  1. अनुच्‍छेद 311 (1)- किसी व्‍यक्‍ति को जो संघ की सिविल सेवा का या अखिल भारतीय सेवा का या राज्‍य की सिविल सेवा का सदस्‍य है अथवा संघ या राज्‍य के अधीन कोई सिविल पद धारण करता है, उसकी नियुक्‍ति करने वाले प्राधिकारी के अधीनस्‍थ किसी प्राधिकारी द्वारा पदच्‍युत नहीं किया जाएगा या पद से नहीं हटाया जाएगा।
  2. अनुच्‍छेद 311(2)- किसी भी ऐसे व्‍यक्‍ति को ऐसी जॉंच के पश्‍चात ही, जिसमें उसे अपने विरूद्ध आरोपों की सूचना दे दी गई है। उन आरोपों के संबंध में सुनवाई का युक्‍तियुक्‍त अवसर दे दिया गया है। पदच्‍युत किया जावेगा अन्‍यथा नहीं। ये निर्बंधन सिविल सेवको के संवैधानिक संरक्षण है।
  3. यदि ऐसी जॉच के बाद उस पर उपयुक्‍त कोई शास्ति अधिरोपित किया जाना प्रस्‍तावित किया जाता है तो ऐसा उस जॉंच में पेश की गई साक्ष्‍य के आधार पर ही किया जाना चाहिए अर्थात मनमाने ढ़ंग से ऐसा कोई प्रस्‍ताव नहीं किया जा सकता है। 
  4. यदि उसे पद‍च्‍युत, पद से हटाने या पदानवत करने की शक्‍ति रखने वाला प्राधिकारी ऐसी जॉंच करना किसी कारण से युक्‍तियुक्‍त रूप से व्‍यवहारिक नहीं समझता है, तो उसे ऐसे कारणों को लिखित रूप से लेखबद्ध करना होगा। 

केस:- यू. पी. कोआपरेटिव फेडरेशन लि. बनाम एल.पी.राय

इस वाद में उच्‍चतम न्‍यायालय में यह अवधारित किया है कि किसी कर्मचारी के विरूद्ध सेवानिवृत्‍त उसके विरूद्ध जॉंच किये जाने पर कोई अवरोध नहीं उत्‍पन्‍न करती है। यदि कर्मचारी के विरूद्ध गंभीर प्रकृति का आरोप लगातो उसकी सेवानिवृत्‍ति के बाद भी उसके विरूद्ध नियामानुकूल जॉंच की जा सकती है।

संरक्षण केवल सिविल सेवा पर नियुक्‍त व्‍यक्‍तियों को प्राप्‍त है। उर्पयुक्‍त संरक्षण सिविल सेवा धारण करने वाले व्‍यक्‍तियों को ही उपलब्‍ध है। यह सैनिक सेवकों या प्रतिरक्षा से संबंधित सेवाओं पर कार्य करने वाले व्‍यक्‍तियों को नहीं प्राप्‍त है। अतएव उन्‍हें बिना कोई कारण दिखाए पदच्‍युत किया जा सकता है। (“केस:- बी.के. नम्‍बूदरी बनाम भारत संघ (AIR 1961)kerla S.C.155 “)

केस:- भारत संघ बनाम छोटेलाल(AIR 1999)S.C.376

इस मामले मे यह अभिनिर्धारित किया गया है कि राष्‍ट्रीय रक्षा अकादमी के कैडिटों के कपड़ो को धोने के लिए नियुक्‍त धोबी अनुच्‍छेद 311 के अंतर्गत इस कारण ‘सिविल पद’ के धारणकर्ता नहीं हो जाते है। क्‍योंकि उन्‍हें सेना के रेजीमेन्‍टल कोष से वेतन मिलता है।

रेजीमेन्‍टल कोष लोक कोष नहीं अत: धोबियों को वेतन का भुगतान भारत की संचित निधि या रक्षा मंत्रालय के नियंत्रण वाले किसी लोक कोष से नहीं किया जाता है। अत: केन्‍द्रीय प्रशासकीय अभिकरण को ऐसे धोबियों की सेवा शर्तो के निर्धारण के प्रश्‍न पर विचार करने के लिए कोई अधिकारिता नहीं प्राप्‍त है।

केस:- भारत संघ बनाम गोविंदा प्रसाद पूले (AIR 2013 )S.C.

इस वाद में न्‍यायालय ने कहा कि वायु सेना की एक युनिट द्वारा चलायी जा रही केन्‍टीन में काम करने वाला कर्मचारी सिविल पद धारण नही करता है और इसलिए वह सिविल सेवक नहीं होता है।

केस:- मोतीराम बनाम महाप्रबंधक (AIR 1964) S.C.100.

अनु० 311 के अनुबंध अनु० 309,310 या संविधान के किसी अन्‍य उपबंध के अधीन नहीं है। 

केस:- पुरूषोत्‍तम लाल धींगरा बनाम भारत संघ (AIR 1883)S.C.361

अनु० 311 में सेवा के स्‍थाई और अस्‍थायी सदस्‍यों के बीच या स्‍थायी या अस्‍थायी पद धारण करने वाले व्‍यक्‍तियों के बीच कोई अन्‍तर नहीं किया गया है।

केस:- सुखवंश सिंह बनाम पंजाब राज्‍य (AIR 1962 )S.C.1711

सरकारी सेवा के किसी सरकारी सेवक का निलंबन न तो पदच्‍युति है न पद से हटाया जाना है और इसलिए एक निलंबित सेवक अनु० 311 के संरक्षण का दावा नहीं कर सकता है। 

प्रमुख संरक्षण – सिविल सेवकों को दो प्रमुख संरक्षण प्राप्‍त है जिनका उल्‍लेख अनु० 311(1) और (2) में किया गया है। 

अधीनस्‍थ प्राधिकारी द्वारा न हटाया जाना-

पहला संरक्षण यह है कि कोई व्‍यक्‍ति जो सिविल सेवा का सदस्‍य है या सिविल पद धारण करता है किसी प्राधिकारी द्वारा पदच्‍युत या हटाया नहीं जा सकता है जो उसकी नियुक्‍ति करने वाले प्राधिकरण के अधीनस्‍थ है।

केस:- सूरज नारायण आनंद बनाम उत्‍तर पूर्व राज्‍य (AIR 1942)f c 3

इस ममाले में वादी को आई.जी. पुलिस ने सब इन्‍सपेक्‍टर के पद पर नियुक्‍त किया था उसे डी.आई.जी. पुलिस ने पदच्‍युत कर दिया। न्‍यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि पदच्‍युति करने वाला प्राधिकारी नियुक्‍तिकर्ता का अधीनस्‍थ अधिकारी है। अत: उसके द्वारा प्रार्थी को पदच्‍युत नहीं किया जा सकता है।

केस:- भारत संघ बनाम गुरूवंस सिंह (AIR 1960)S.C.641

कोई व्‍यक्‍ति जिसकी नियुक्‍ति केन्‍द्रीय सरकार द्वारा की गई उसके द्वारा पदच्‍युत किया जा सकता है। किन्‍तु राज्‍य सरकार द्वारा नहीं।

केस:- मुहम्‍मद गौस बनाम आंध्रप्रदेश राज्‍य (AIR 1957) S.C.246

कोई नियम जो कनिष्‍ठ अधिकारी को ज्‍येष्‍ठ अधिकारी द्वारा नियुक्‍त किए कर्मचारी को पदच्‍युत करने के लिए प्राधिकृत करता है। अविधिमान्‍य है, क्‍योंकि अनु० 311(1) उल्‍लंघन होता है।

सुनवाई का युक्‍तियुक्‍त अवसर :- 

अनु० 311 (2) यह उपबंध करता है कि किसी भी एक सिविल सेवक को तब तक पदच्‍युत या हटाना या पंक्‍ति में अवनत नहीं किया जा सकता। जब तक की उसे अपनी प्रस्‍तावित कार्यवाहीं के विरूद्ध लगाए गए आरोपों के विरूद्ध सुनवाई का युक्‍तियुक्‍त अवसर न प्रदान किया गया हो। 

किसी अधिकारी की पदच्‍युति हटाये जाने से संबंधित या पंक्‍ति मे अवनति द्वारा दंण्डित किए जाने के पहले दो बाते की जाना चाहिए।जॉंच को श्रुजिता से और उचित रूप से किया जाना चाहिए इस संदर्भ में पदच्‍युति और हटाया जाना समानार्थी है।

केस:- रिड बनाम वाहडविन(AIR 1964)S.C.40

इस मामले में लार्ड हडसन को नैसर्गिक न्‍याय के तीन लक्षण स्‍पष्‍ठ दिखाई देते है-

  1. निष्‍पक्ष अधिकरण द्वारा सुने जाने का अधिकार:
  2. अवचार के आरोपों की सूचना पाने का अधिकार:
  3. उस आरोपों के उत्‍तर में सुने जाने का अधिकार:

केस:- खेमचंद्र बनाम भारत संघ (AIR 1964) S.C.40

उच्‍च्‍तम न्‍यायालय ने यह निर्धारित किया है कि अनु० 311 में परिकल्‍पित युक्‍तियुक्‍त अवसर जिसे सरकार कर्मचारियों को दिया जाना है, निम्‍नलिखित सम्‍मिलित है-

  1. अपना दोष इंकार करने और निर्दोषता स्‍थापित करने का अवसर जिसको वह तभी कर सकता है जब उसे बताया जाए कि उसके विरूद्ध लगाये गये आरोपों और अभिकथन जिन पर आरोप आधारित है,क्या है?
  2. अपने विरूद्ध पेश किये गए साक्षियों के प्रति परीक्षण करके अपनी रक्षा का अवसर।

केस:- मैनेजिंग डायरेक्‍टर ई.सी.एल. बनाम बी.करूणा कर (AIR 1993) 4 S.C.727.

इस मामले में उच्‍च्‍तम न्‍यायालय की जॉंच न्‍यायाधीशों की न्‍यायपीठ ने सर्वसम्‍मति से अधिकथित किया है, कि जब जॉंच अधिकारी अनुशासनिक प्राधिकारी नहीं होता है। तब अपचारी सेवक को जॉंच अधिकारी की रिपोर्ट प्राप्‍त करने का अधिकार होता है। जिससे वह अनुशासनिक प्राधिकारी के समक्ष अपना बचाव युक्‍तियुक्‍त रूप से प्रस्‍तुत कर सके। यदि जॉंच अधिकारी अपनी रिपोर्ट सेवक को देने से इंकार करता है तो इससे नैसर्गिक न्‍याय के सिद्धांतों की अवहेलना होगी। 

अनु० 311(1) का अपवाद-

नैसर्गिक न्‍याय के सिद्धांत का अपवर्जन अनु० 311(2) दिए गए संवैधानिक संरक्षण के लिए स्‍वयं खंड (2) ही में तीन अपवाद उल्‍लिखित किये गये है। जब कोई भी पद धारण करने वाली किसी व्‍यक्‍ति को पदच्‍युत किया जाता है, या पद से हटाया जाता है, या पंक्‍ति में अवनत किया जाता है तो तीन प्रकार के मामलों में कोई जॉंच या सुनवाई का अवसर देने की आवश्‍यककता नहीं है चाहे ये तीनों कार्यवाहियां दंडस्‍वरूप ही क्‍यों न हो अन्‍य अनु० 311 के खण्‍ड (2) के द्वितीय परंतुक में अभिकाथित किया गया है कि जॉंच या सूचना देने की आवश्‍यकता नहीं होगी।

  • (क) जहॉं किसी व्‍यक्‍ति को ऐसे आचरण के आधार पर पदच्‍युत किया जाता है, या पद से हटाया जाता है या पंक्‍ति से अवनत किया जाता है जिसके लिए आपराधिक आरोप पर उसे सिद्धदोष ठहराया गया है या 
  • (ख) जहॉं किसी व्‍यक्‍ति को पदच्‍युत करने या पद से हटाने या पंक्‍ति में अवनत करने के लिए सशक्‍त प्राधिकारी का यह समाधान हो जाता है किसी कारण से जो उस प्राधिकारी द्वारा लेखवद्ध किया जाता हैं यह युक्‍तियुक्‍त रूप् से साध्‍य नहीं है कि ऐसी जॉंच की जाए |
  • (ग) जहॉं यथास्‍थिति, राष्‍ट्रपति या राज्‍यपाल का यह समाधान हो जाता है कि राज्‍य की सुरक्षा के हित में समीचीन नहीं है कि ऐसी जॉंच की जाए।

अनिवार्य सेवानिवृत्‍ति:- 

केस:- श्‍याम लाल बनाम उत्‍तरप्रदेश राज्‍य (AIR 1974)S.C.369.

इस मामले में प्रार्थी को अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्‍त किया जाता है। न्‍यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि अनिवार्य सेवानिवृत्‍त, पदच्‍युत या पद से हटाया जाने के समान है। किन्‍तु यदि उसमें लोक सेवक पर कोई आरोप लगाया जा सकता हैं तो दंडस्‍वरूप होगा और उसे पदच्‍युति माना जायेगा। 

केस:- सुखवंश सिंह बनाम पंजाब राज्‍य (AIR 1952)S.C.1011

इस मामले में निलंबन को पदावनति नहीं माना गया और यह निर्णय दिया गया कि निलंबित सेवक अनुच्‍छेद 311(2) के संरक्षण का लाभ नहीं ले सकता है।

केस:- सतीश चन्द्र आनन्‍द बनाम भारत संघ ,(AIR 1953) S.C.250 

अनिवार्य सेवानिवृत्ति को पदच्‍युति या हटाया जाना नहीं कहा जा सकता है क्‍योंकि यह दंड के रूप में नहीं होती है।

न्‍यायिक पुनर्विलोकन (judicial Review):

केस:- ए.के.कोल. बनाम भारत संघ, (AIR 1995) S.C.C.73 

इस मामले में उच्‍चतम न्‍यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अनुच्‍छेद 311(2) के परन्‍तुक (ग) के  अधीन पदच्‍युति का आदेश न्यायिक पुनर्विलोकन (judicial Review) के अधीन है तथा न्‍यायलय ऐसे आदेश की जॉंच कर सकता है।

केस:- आंध्रप्रदेश सरकार बनाम मो. ताहर अली (AIR 2008)S.C.375

इस वाद में अपीलार्थी को गम्‍भीर कदाचार के आधार पर अनिवार्य रूप से उसकी सेवा से सेवानिवृत्‍त कर दिया गया था वह अप्राधिकृत रूप से और बिना छुट्टी लिए 21 दिनों तक ड्यूटी से अनुपस्थित रहा था अनुशासन समिति ने उसकी अनिवार्य सेवानिवृत्‍ति को न्‍यायोचित माना। अपीलार्थी का कथन था कि उक्‍त दंण्‍ड उसके अपराध के अनुपात से अधिक था अत: अनुच्‍छेद 311 का उल्लंघन करता है। न्‍यायालय ने उक्‍त दंड को उचित माना और निर्णय दिया कि अनिवार्य सेवानिवृत्‍ति वैध।

केस:- भारत संघ बनाम दत्‍तादेय नामदेव मन्‍धेकर (AIR 2008 )S.C.1678

इस मामले में झूठे जाति प्रमाण पत्र के आधार पर प्रत्‍यार्थी ने जी.पी. पंथ अस्‍पताल नई दिल्‍ली में सहायक मनोविज्ञान के पद पर नियुक्‍ति प्राप्‍त किया था। इस आधार पर उसकी नौकरी से पदच्‍युत कर दिया गया था। न्‍यायालय ने उसकी पदच्‍युति को उचित माना।

परियोजना के बन्‍द होने पर आस्‍थायी कर्मचारी की सेवा समाप्‍ति-

केस:- हिमाचल प्रदेश बनाम अश्‍वनी कुमार (AIR 1997 )S.C.352

इस मामले में अस्‍थायी कर्मचारियों की सेवाए जो कि दैनिक वेतन भोगी था, परियोजना के बंद किये जाने के फलस्‍वरूप समाप्‍त की गई थी, उसको उच्‍च्‍तम न्‍यायलय ने वैध ठहराया। 

सरकारी सेवकों को हड़ताल का अधिकर नहीं:-

केस:- टी. के रंगराजन बनाम तमिलनाडु सरकार (AIR 2003)S.C.3032)

इस मामले में सन् 2003 में प्रारंभ में तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारीगण अपनी मांगों को लेकर हड़ताल पर चले गये। सरकार ने आवश्‍यक सेवा बनाये रखने हेतु 2002 के अधिनियम के अन्‍तर्गत तथा 2003 के एक अध्‍यादेश द्वारा उनको नौकरी से बर्खास्‍त कर दिया। उच्‍च्‍तम न्‍यायालय ने उनकी याचिका को इस आधार पर अस्‍वीकार कर दिया कि उन्‍होने प्रशासनिक अधिकरण में जाने के आनुकाल्‍पिक उपचार का प्रयोग नहीं किया था। उच्‍चतम न्‍यायालय के दो न्‍याय मूर्तियों एन. वी. शाह और डॉ.ए.आर. लक्ष्मनन ने यह अभिनिर्धारित किया कि उनको हड़ताल करने का कोई अधिकार नहीं हैं और न मूलअधिकार, न कानूनी अधिकार और ना ही नैतिक अधिकार।

न्‍यायालय ने कहा कि यधपि व्‍यापार संघ के कर्मचारियों की ओर से सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार है परन्‍तु उन्‍हे हड़ताल करने का अधिकार नहीं है। न्‍यायालय ने स्‍थिति को स्‍पष्‍ठ करते हुए कहा कि कोई भी राजनैतिक दल या संगठन देश की आर्थिक गतिविधियों और राज्‍य की औधोगिक गतिविधियों को छिन्‍न-भिन्‍न करने या नागरिकों को असुविधा पहुचाने का अधिकार का दावा नहीं कर सकता है। ऐसा निर्णय कई मामलों में दिया जा चुका है। किसी अधिनियम के अंर्तगत उन्‍हें हड़ताल का अधिकार प्राप्त नहीं है।

वे इस बात का दावा नहीं करते है, कि हड़ताल करके वे पूरे समाज को तबाह कर सकते है यदि यह मान भी लिया जाये कि उनके साथ अन्‍याय हुआ है तो विभिन्‍न अधिनियमों के अधीन उन्‍हें इसके निराकरण के लिए अधिकार दिये गये है। हड़ताल के अस्त्र का अधिकांश दुरूपयोग होता है, जिससे प्रशासन छिन्‍न-भिन्‍न हो जाता है और अव्‍यवस्‍था फैल जाती है। हड़ताल से पूरे समाज पर प्रतिकूल असर पड़ता है और जहॉं इतनी बेरोजगारी हो ,असंख्‍य लोग सरकारी संस्‍थाओं में नौकरी पाने के लिए उत्‍सुकता से प्रतीक्षा कर रहे है वहाँ हड़ताल को नैतिक आधार पर भी उचित नही ठहराया जा  सकता है। 

उच्‍च्‍तम न्‍यायालय के सुझाव पर सरकार अधिकतम कर्मचारियों को पुन: बहाल करने पर राजी हो गई वशर्ते वे क्षमा मॉंगे और भविष्‍य में सरकारी नियमों का अनुपालन करें। अन्य कर्मचारियों के मामले में निपटारे के लिए न्‍यायधीशों की अध्‍ययक्षता में एक समिति गठित की जायगी जो इनके मामलों का निपटारा करेगी।

निष्‍कर्ष-

अत: स्‍पष्‍ट है कि भारतीय संविधान में संघ एवं राज्‍य के लोक सेवको को अनुच्‍छेद 309 से अनुच्‍छेद 311 में लोक सेवकों के सेवानियमों तथा बर्खास्‍तगी के नियमों का उपबंध किया गया है।

अनुच्‍छेद 311 के अन्‍तर्गत लोक सेवको को अपने पद से मनमाने ढंग से पदच्‍युत किये जाने के विरूद्ध कुछ संविधानिक संरक्षण प्रदान किये गये है। इसी के साथ-साथ संविधानिक संरक्षकों पर कुछ निर्वन्‍धन भी लगाये गए है और अनुच्‍छेद 311(2) के अनुसार कुछ परिस्‍थितियों में किसी सरकारी सेवक को युक्‍तियुक्त अवसर का अधिकार नहीं दिया गया।

संदर्भ-