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कारलिल बनाम कारबोलिक स्मोक बाल कम्पनी,1863 | Carlill v. Carbolic Smoke Ball Co. 1863 in hindi

कारलिल बनाम कारबोलिक स्मोक बाल कम्पनी,1863 | Carlill v. Carbolic Smoke Ball Co. 1863 in hindi

कारलिल बनाम कारबोलिक स्मोक बाल कम्पनी | Carlill v. Carbolic Smoke Ball Co. 1863

कारलिल बनाम कारबोलिक स्मोक बाल कम्पनी का वाद प्रस्ताव तथा स्वीकृति से सम्बन्धित है।

तथ्य तथा विवाद –

इस मामले में प्रतिवादी कारबोलिक स्मोक बाल नामक एक दवा के निर्माता और विक्रेता थे। उन्होंने एक विज्ञापन में दावा किया था कि उनकी दवा का उपयोग करने वाले व्यक्ति को निर्दिष्ट दिशानिर्देशों के अनुसार निश्चित अवधि तक इंफ्लुएंजा नहीं होगी, और यदि ऐसा हो तो प्रतिवादी कंपनी उसे 100 पौंड का पुरस्कार देगी। प्रतिवादी ने अपनी गंभीरता को प्रमाणित करने के लिए इस उद्देश्य के लिए बैंक में 1000 पौंड जमा करवा दिया। वादी एक महिला थी जिसने निर्धारित दिशानिर्देशों के अनुसार और उसमें निर्दिष्ट अवधि तक कारबोलिक स्मोक बाल का उपयोग किया, लेकिन फिर भी उसे इंफ्लुएंजा हो गयी।

वादी ने प्रतिवादी के खिलाफ 1000 पौंड का पुरस्कार प्राप्त करने के लिए वाद किया। प्रतिवादी दावा करता है कि वह अपने विक्रय को बढ़ाने के लिए इस विज्ञापन को मात्र कारणबद्धता से दिया था। प्रतिवादी के साथ उसका कोई औपचारिक संबंध नहीं था और न ही वादी ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार करने की सूचना दी थी। न्यायालय ने वादी के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा है कि वह 100 पौंड का पुरस्कार प्राप्त करने के योग्य है।

कारलिल बनाम कारबोलिक स्मोक बाल कम्पनी वाद में प्रतिपादित नियम –

(1) न्यायालय ने अपने निर्णय में यह नियम प्रतिपादित किया कि विज्ञापन के मामले में सामान्य प्रस्ताव दिया जा सकता है, अर्थात् एक ऐसा प्रस्ताव दिया जा सकता है जो समस्त विश्व के लिये हो।

(2) ऐसा प्रस्ताव प्रतिज्ञा में तभी परिणत होता है जब कि कोई विशिष्ट व्यक्ति उसे स्वीकार लेता है।

(3) चूँकि प्रस्ताव की स्वीकृति की संसूचना प्रस्ताव क के हित के लिये होती है, अतः यदि वह चाहता है तो वह उसका अभित्याग कर सकता है। प्रस्तुत वाद में चूंकि प्रतिवादी कम्पनी ने दवा के प्रयोग का विषय में लिखित निर्देश आदि दिया था यह माना जायेगा कि उसने स्वीकृति की संसूचना के प्राप्त करने के अपने अधिकार का अभित्याग कर दिया था।

किसी भी प्रस्ताव की स्वीकृति तभी संविदा में परिणत होती है जब कि पक्षकार परस्पर विधिक सम्बन्ध उत्पन्न करना चाहते हैं और मापदण्ड यह है कि क्या प्रस्तावक का आशय संविदा करने का था ? प्रस्तुत वाद के तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि प्रस्तावक विधिक सम्बन्ध स्थापित करना चाहता था।

निष्कर्ष :- उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर न्यायालय ने वादी के पक्ष में अपना निर्णय देते हुए कहा कि वह 100 पौंड़ का इनाम पाने की अधिकारिणी है। यहाँ पर यह नोट करना वांछनीय होगा कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 8 में यह स्पष्ट प्रावधान है कि प्रस्ताव की शर्तों का पालन या परस्पर प्रतिज्ञा को जिस प्रतिफल की पेशकश प्रस्ताव के साथ की गई हो, उसका प्रतिग्रहण वास्तव में प्रस्ताव का प्रतिग्रहण है।

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