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CPC- दीवानी प्रकृति के वाद | सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 | sec 9 of cpc hindi | suit of civil nature in hindi

दीवानी प्रकृति के वाद

दीवानी प्रकृति के वाद | सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9

प्रस्तावना-

सिविल प्रक्रिया संहिता  की धारा 9 ‘दीवानी प्रकृति के वाद का निर्धारण किया गया है जिसमे सम्पत्ति सम्बन्धी या पद सम्बन्धी अधिकार विवादित होता है चाहे ऐसा अधिकार धार्मिक कृत्यों या कर्मों सम्बन्धी प्रश्नों के निर्णय पर पूर्ण रूप से आधारित हो इसमें वर्णित पद के लिए यह आवश्यक नहीं है की उस पद के लिए कोई फ़ीस है या नहीं अथवा ऐसा पद किसी विशेष स्थान से जुड़ा है या नहीं।

अधिकारिता का अर्थ-

अधिकारिता “शब्द को संहिता में परिभाषित नहीं किया गया है। शब्द अधिकारिता लैटिन शब्द “ज्यूरिस” और “डिक्टो” से लिया गया है जिसका अर्थ है “मैं कानून द्वारा बोलता हूं”

सीधे तौर पर कहा जाये तो , ” अधिकारिता ” का अर्थ किसी न्यायालय या मामले को सुनने और निर्धारित करने के लिए कानून की अदालत की शक्ति या अधिकार है। यह एक मुकदमे, एक कार्रवाई, याचिका या अन्य कार्यवाही को शामिल करने , निपटने और निर्णय लेने की शक्ति है। ”

हेल्सबरी लॉ ऑफ़ इंग्लैंड

“अधिकार क्षेत्र से अभिप्राय उस अधिकार से है जिसके द्वारा न्यायालय को उन मामलों का निर्णय करना होता है जो उसके समक्ष मुकदमे होते हैं, या उसके निर्णय के लिए औपचारिक रूप में प्रस्तुत मामले का संज्ञान लेना होता है।”
केस – आधिकारिक ट्रस्टी बनाम सचिंद्र नाथ ,1969

दूसरे शब्दों में, अधिकार क्षेत्र से अभिप्राय उस प्राधिकरण से है जिसे न्यायालय को उन मामलों को तय करना होता है जो उसके समक्ष मुकदमे होते हैं या उसके निर्णय के लिए औपचारिक रूप से प्रस्तुत मामलों का संज्ञान लिया जाता है।
केस- ह्रदयनाथ v / s रामचंद, 1921

“किसी मामले को सुनने और निर्धारित करने के लिए अदालत की शक्ति होना”

अधिकारिता से अभिप्राय–

अधिकारिता से अभिप्राय न्यायालय के उस शक्ति से है जिसके अन्तर्गत वह किसी वाद, अपील या आवेदन को ग्रहण कर सकता है और सुनवाई के बाद उस पर निर्णय दे सकता है।

अधिकारिता से तात्पर्य निम्न दो बातों से है–

  1. वाद की विषयवस्तु पर अधिकारिता ,और
  2. आदेश पारित करने की शक्ति या अधिकार।

अधिकारिता निश्चित करने के आधार–

  1. स्थानीय अधिकारिता
  2. धन सम्बन्धी अधिकारिता
  3. विषय–वस्तु सम्बन्धी अधिकारिता

केस -अब्दुल्ला बिन अली V/s गलप्पा AIR 1985 S.C.

इसमें कहा गया है वाद संस्थित करने के स्थान का निर्धारण वाद पत्र में किए गए अभिकथन से होता है। दूसरे शब्दों में , वाद पत्र मे अभिकथन वाद स्थान का निर्धारण करता है, न कि लिखित कथन मे प्रतिवादी द्वारा बचाव।

किसी भी वाद को संस्थित करने से पहले यह निश्चित कर लेना होता है कि क्या उस न्याय उपरोक्त वर्णित तीनों प्रकार की अधिकारितायें, वाद के संधर्भ मे निहित है या नहीं?

न्यायालय की सक्षमता–

न्यायालय के पास न्यायिक अधिकरण के साजो–समान के साथ उसके पास एक विनिश्चय देने या अन्तिम निर्णय देने की शक्ति होनी चाहिए।
केश –पी सारथी व. स्टेट बैंक आफ इण्डिया AIR 2000 S .C.

इस वाद में कहा गया है न्यायालय होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह केवल एक न्यायिक अधिकरण हो अपितु इसमें एक अन्तिम निर्णय देने की शक्ति हो जो अन्तिमता और प्राधिकारिता से युक्त हो।

न्यायालय की सक्षमता निश्चित करने का आधार–

  1. स्थानीय अधिकारिता– एक न्यायालय की स्थानीय अधिकारिता की सीमा सरकार द्वारा निश्चित होती है तथा उस स्थानीय सीमा से बाहर न्यायालय को क्षेत्राधिकार प्रान्त नहीं होता।

उदाहरण– जिला न्यायालय को जिले की सीमा के अन्तर्गत ही क्षेत्राधिकार होता है, उच्च न्यायालय राज्य विशेष की सीमाओं के अन्तर्गत ही।

  1. धन सम्बन्धी अधिकारिता– न्यायालय की धन सम्बन्धी अधिकारिता भी निश्चित कर दी जाती है।

उदाहरण–

जूनियर सिविल जज -5 लाख तक

सीनियर सिविल जज -5 लाख से 1 करोड

जिला न्यायालय – 1 करोड से उपर

  1. विषय वस्तु सम्बन्धी अधिकारिता– न्यायालय को विषय वस्तु सम्बन्धी अधिकारिता भी प्राप्त है। हर न्यायालय को सभी विषय वस्तु सम्बन्धी मामले सुनवाई का अधिकार नहीं होता। उदाहरण– लघुवाद न्याय अचल सम्पत्ति के विभाजन सम्बन्धी वाद, संविदा के विनिश्चय पालन, भागीदारी के विघटन या भागीदारी के लेखा स वाद इत्यादि के विचारण का अधिकार प्राप्त नहीं है। विवाह संबंधी मामलों की सुनवाई पारिवारिक न्यायालय को है।

 

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9

जब तक कि वर्जित न हो, न्यायालय सभी सिविल वादों का विचारण करेंगें, न्यायालयों को ( इसमें अन्तर्विष्ट उपबन्धों के अधीन रहते हुए) उन वादों के सिवाय, जिनका उनके द्वारा संज्ञान अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से वर्जित है, सिविल प्रकृति के सभी वादों के विचारण की अधिकारिता होगी।

स्पष्टीकरण 1- वह वाद, जिसमें सम्पत्ति सम्बन्धी या पद सम्बन्धी अधिकार प्रतिपादित है , इस बात के होते हुए भी कि ऐसा आधिकार धार्मिक कृत्यों या कर्मों सम्बन्धी प्रश्नों के विनिश्चय पर पूर्ण रूप से अवलम्बित है, सिविल प्रकृति का वाद है।

स्पष्टीकरण 2- इस धारा के प्रयोजनों के लिए, यह बात तात्विक नहीं है कि स्पष्टीकरण १ में निर्दिष्ट पद के लिए कोई फीस है या नहीं अथवा ऐसा पद किसी विशिष्ट स्थान से जुडा है या नहीं।

 

 दिवानी प्रकृति के वाद  (suit of civil nature)-

दिवानी प्रकृति के वाद से तात्पर्य ऐसे वाद से है, जिसमें किसी महत्त्वपूर्ण अधिकार के प्रवर्तन की मांग की जाती है। स्पष्टीकरण १ में इसे स्पष्ट किया गया है दीवान का वाद उस वाद को कहते हैं जिसमें सम्पत्ति–सम्बन्धी या पद सम्बन्धी अधिकार प्रतिपादित हैं, इस बात के होते हुए भी की अधिकार धार्मिक कृत्यों या कर्मों सम्बन्धी प्रश्नों के विनिच्या पूर्ण रूप से अवलम्बित है।

दूसरे शब्दों में यदि पद धार्मिक हो और उससे सम्बन्धित विवाद प्रतिपादित हो तो भी वाद दीवानी प्रकृति का होगा।
केस – पी० एम० ए० मेट्रोपालिटन व. मोरन मार मारथोमा AIR,1995 S. C.

इसाईयों के धार्मिक पद से सम्बन्धित विवाद भी दीवानी प्रकृति का वाद है। सिविल का अर्थ होता है व्यक्ति के रूप में एक नागरिक से सम्बन्धित दीवानी अधिकार।

निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि इस धारा के अन्तर्गत प्रत्येक उपबन्ध प्रत्येक उस वाद में लागू होंगे या उपलब्ध होंगे जहां विवाद की विशेषता यह है कि एक व्यक्ति के अधिकार को प्रभावित करती है जो न केवल सिविल है, अपितु सिविल प्रकृति का है।
केस – ए० वी० एन० गर्ल्स हाईस्कूल व. डिप्टी डायरेक्टर पब्लिक इन्सपेक्शन AIR,1983 S.C.

 

इस वाद में विद्यालय की प्रबन्ध समिति ने एक वाद संस्थित किया और न्यायालय से निवेदन किया कि यह घोषणा की जाय कि उपसार्वजनिक शिक्षा निदेशक एवं सार्वजनिक निदेशक शिक्षा के एक महिला शिक्षक की नियुक्ति परिवर्तन की स्वीकृति न प्रदान करने सम्बन्धी अधिकारातीत है। वहां S.C. ने निर्धारित किया कि ऐसा दिवानी प्रकृति का है।

यदि किसी वाद में मुख्य प्रश्न जाति सम्बन्धी या धार्मिक कृत्यों या कर्मों से सम्बन्धित है तो वह वाद दिवानी प्रकृति का वाद नहीं है क्योंकि उसमें जो प्रश्न विवादित हैं वह नागरिकों के अधिकारों से सम्बन्धित न होकर उनके सामाजिक प्रश्नों से सम्बन्धित हैं। किन्तु जहां किसी वाद में जातिगत या धार्मिक कृत्य से सम्बन्धित प्रश्न मुख्य न होकर गौण प्रश्न है तथा मुख्य विचारणीय प्रश्न दिवानी प्रकृति का है तब तक अवधारित नहीं किया जा सकता जब तक कि गौण प्रश्न पर विचार न कर लिया जाय और न्यायालय को गौण प्रश्न विचार करने का अधिकार है ताकि वह मुख्य प्रश्न पर सके। [मुल्ला cpc , 1908 (1941 संस्करण ) पेज संख्या 22 ]
केश – हुकुम चन्द्र व. महाराज बहादुर,1933

इस वाद में कहा गया है मुख्य प्रश्न पर निर्णय देने से पहले गौण प्रश्न जो जातिगत या धार्मिक कृत्यों से सम्बन्धित है पर विचार करना या निर्णय देना आवश्यक है तो ऐसा होने से वाद की प्रकृति परिवर्तन नही होगा, वाद दिवानी प्रकृति का ही रहेगा।

धार्मिक अधिकार दिवानी प्रकृति का होता है और इसका अतिलंघन एक सिविल दोष होता है। धार्मिक अधिकार एक व्यक्ति का वह अधिकार है जिससे वह एक धर्म विशेष मे विश्वास कर सकता है, उसके अनुसार आचरण कर सकता है, प्रचार-प्रसार कर सकता है। धार्मिक पद से सम्बन्धित विवाद दिवानी विवाद है।
केस – मेट्रोपालिटन का वाद AIR 1995 S.C.

प्रश्न आता है कि क्या दिवानी न्यायालय चर्च सम्बन्धी मामलों में एक व्यक्ति को बहिष्कृत किए जाने की वैधता का विनिश्चय कर सकता है….S.C. ने कहा – हां।
केस – शीबा पुलिक्कल व. शौकत अली AIR , 2012 केरल हाईकोर्ट

एक तलाकशुदा पत्नी के द्वारा आवेदन किया जाता है कि उसका धन और जेवरात जो पति ने तलाक के पश्चात् भी प्रतिधारित किया है लौटाया जाए। प्रश्न यह है कि क्या उसका निवारण सिविल न्यायालय द्वारा किया जा सकता है..

केरल केरल हाईकोर्ट ने निर्धारित किया कि सिविल न्यायालय और पारिवारिक न्यायालय दोनों को अधिकारिता प्राप्त है।
केस – ए० जे० वि० प० कमेटी व. पी० वी० इब्राहिम हाजी AIR,2013 SC

इस वाद में विवाद था कि मस्जिद, मदरसा और वक्फ से सम्बन्धित आस्तियों का प्रबन्धन और शान्तिपूर्ण उपयोग कौन करे, निर्धारित किया गया कि वक्फ अधिकरण निस्तारण करेगा न कि सिविल न्यायालय।
केस – भंवरलाल व. राजस्थान बोर्ड आफ मुस्लिम वक्फ AIR,2014 SC

इस वाद में वक्फ सम्पत्ति के बारे में वाद दाखिल किया गया ,यह वाद राजस्थान वक्फ अधि० लागू होने से पहले का वाद था। सिविल न्यायालय वाद पर अधिकारिता जारी रखता है।
केस – फसीला एम. व. मुन्नेयल इस्लाम मदरसा कमेटी AIR, 2014 SC

वक्फ सम्पत्ति से बेदखली के बाद वाद की सुनवाई सिविल न्यायालय करेगा वक्फ अधिकरण नहीं।

जातिगत प्रश्न-

जिस किसी वाद में मुख्य विचारणीय प्रश्न जाति सम्बन्धी वह दिवानी प्रकृति का वाद नहीं है। जातिगत प्रश्न वे हैं जो जाति के आन्तरिक स्वतन्त्रता अथवा सामाजिक सम्बन्धों को प्रभावित करने से सम्बन्धित है। जैसे अगर किसी व्यक्ति को जातिगत उत्सव जैसे विवाह ,भोज या खान पान आदि से वंचित किया जाता है तो इसके लिए वाद दिवानी न्यायालय में नहीं होगा।

लेकिन अगर किसी व्यक्ति को जाति से निकाल दिया जाता है तो उसके विधिक अधिकार का हनन है और वह दिवानी न्यायालय में वाद ला सकता है।

धार्मिक कृत्य या कर्मों से सम्बन्धित प्रश्न–

किसी वाद कामुख्य प्रश्न धार्मिक कृत्यों सम्बन्धित है तो वह दिवानी प्रकृति का नहीं होगा।
केस – अन्धुनिस्वामी व. टोटडस्वामी,1921 बॉम्बे

एक स्वामी या मठाधीश का यह दावा है कि उन्हें किसी अवसर पर सार्वजनिक सडक पर पालकी में ले जाया जाए| नहीं लेकर जाया जाता तो वह वाद संस्थित नहीं क्योंकि उसके विधिक अधिकार का हनन नहीं हुआ है।

इसी तरह किसी स्वामी या पुजारी को मजबूर नहीं किया जा सकता कि वह प्रतिमा को किसी विशेष पर सुसज्जित करें। यदि वह ऐसा नहीं करता तो वाद संस्थित नहीं किया जा सकता।

कौन-कौन से वाद दिवानी प्रकृति के वाद है? –

  1. एक सरकारी सेवक द्वारा अपने वेतन के बकाये के लिए लाया जाने वाला वाद, दिवानी प्रकृति का वाद है।

केस -बिहार राज्य व. अब्दुल माजिद AIR,1995 SC

  1. पूजा का अधिकार– पूजा करने का अधिकार एक दिवानी अधिकार है।

केस -पी० एम० इस्लामिया व. शेख मो०1963 kerla HC

किसी धार्मिक संस्थान में घूमने के लिए व्यक्ति के अधिकार को स्थापित करने का वाद और पूजा के स्थान में घुसने से वादी को रोकने सम्बन्धी वाद दिवानी वाद है।

  1. धार्मिक या अन्य प्रकार का जुलूस निकालने का अधिकार– धार्मिक जुलूस निकालने का अधिकार दिवानी प्रकृति का है।

केस -शेख पीरु व. कालिन्दीपती AIR,1964 ओड़िसा HC

सार्वजनिक मार्गों पर जुलूस निकालने का अधिकार जैसे– राजनैतिक कार्य के लिए, सामाजिक कार्य, मृत व्यक्ति की अन्त्येष्टि सम्बन्धी जुलूस निकालने का अधिकार प्रकृति का वाद है।

  1. मृत को दफनाने का अधिकार– मृत को दफनाने सम्बन्धी दिवानी अधिकार है।

केस -जंग बहादुर व. वजीर खानAIR,1930 अवध

  1. किसी व्यक्ति की हैसियत या संचालन सम्बन्धी अधिकार– कोई भी व्यक्ति जो किसी कम्पनी में संचालक या चेयरमैन के पद पर चुना उसे उस हैसियत से कार्य करने का दिवानी अधिकार है और अगर ऐसा कार्य करने से रोका जा रहा था तो वह अन्य संचालक विरुद्ध वाद ला सकता है।

केस -शरदचन्द्र चक्रवर्ती व. तरक चन्द्र चटर्जी AIR,1924 कलकत्ता

  1. मत देने का अधिकार– मत देने का अधिकार दिवानी अधिकार है जब कभी इस अधिकार का हनन होता है दिवानी वाद लाया जा सकता है।

केस -एम० के० श्रीवास्तव व. बताप AIR,1932

जहां किसी कम्पनी के भागीदारों को मत देने के अधिकार होता है और उन्हें मत नही देने दिया जाता है ,तो वे कम्पनी के विरुद्ध वाद संस्थित कर सकते है।

  1. विशिष्ट अनुतोष का अधिकार– विशिष्ट अनुतोष का अधिकार यथा – संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का अधिकार, प्रसंविदा को निरस्त करने से सम्बन्धी अधिकार प्रपत्र के संशोधन सम्बन्धी अधिकार,घोषणा का अधिकार या व्यादेश का अधिकार एक दिवानी अधिकार है।

केस -जबर सिंह व. बलदेव प्रसाद AIR,1952 इलाहाबाद HC

ऐसे अनुतोष की प्राप्ति के लिए दिवानी वाद संस्थित किया जा सकता है।

  1. दिवानी अपराध के लिए क्षतिपूर्ति का अधिकार– दिवानी अपराध जिसमें दुष्कृति भी सम्मिलित है के लिए क्षतिपूर्ति कराने का अधिकार दिवानी अधिकार है।
  2. प्रसंविदा के भंग पर क्षतिपूर्ति का अधिकार– प्रसंविदा के भंग होने पर क्षतिपूर्ति पाने के अधिकार को सम्पत्ति को पुनः प्राप्त करने के अधिकार से सम्बन्धित माना गया है, दिवानी प्रकृति का है।
  3. विवाह–विच्छेद सम्बन्धी वाद विवाह–विच्छेद सम्बन्धी वाद से पक्षकारों की विधिक हैसियत प्रभावित होती है, अतः ऐसा वाद दिवानी प्रकृति का है।

केस -हरीपद राय व. कृष्ण विनोद राय AIR,1939 कलकत्ता

एक हिन्दू महिला के वाद द्वारा कि उसके पति के दूसरे विवाह को जो उसने किसी अन्य महिला से किया है, हिन्दू विवाह अधिकरण,1995 के अन्तर्गत शून्य घोषित कर दिया जाय, एक दिवानी वाद है।

  1. पद के लिए वाद– पद से सम्बन्धित अधिकार केवल पद जिसके साथ प्रथा या परम्परा कुछ कर्तव्य जुडे हुए है, दिवानी प्रकृति के वाद है। के साथ एसे कर्तव्य नहीं जुडे हैं दिवानी प्रकृति के नहीं है।

केस -रामास्वामी गौडन व. लक्षमना रेड्डी।

  1. प्रसंविदा के अन्तर्गत अधिकार के प्रवर्तन सम्बन्धी वाद के अन्तर्गत कई प्रकार के अधिकार उत्पन्न होते हैं–
  • प्रसंविदा को पालन कराने सम्बन्धी अधिकार
  • प्रसंविदा के अन्तर्गत लेखा–जोखा लेने तथा बकाया का अधिकार
  • सम्पत्ति या पैसा वापस पाने का अधिकार
  • अभिदाय पाने का अधिकार

उपरोक्त सभी प्रकार के वाद दिवानी है।

  1. प्रबन्ध सम्बन्धी वाद– प्रबन्ध से तात्पर्य सम्पत्ति वसूली और विक्रय से है। आस्तियों के प्रबन्ध, वसूली या विक्रय से है जिसके रूप को परिवर्तित कर दिया गया है। प्रबन्ध का वाद विभिन्न के अधिकारों और दायित्वों से है, दिवानी प्रकृति का है।

केस -महबूब आलम व. रजिया बेगम।

  1. भटक के लए वाद– भाटक के बकाये की रकम की वसूली का वाद दिवानी प्रकृति का वाद है।

केस -आर० बी० एस० मनी व. बालकृष्ण नानवाराम
केस -पार्वती व. फतेह सिंह राव

इस वाद में बाम्बे टेनेन्सी एंड एग्रीकल्चर लैंड्स अधि० के प्रावधान बडौदा नगर की सीमाओं पर न लागू हो, ऐसी व्यवस्था किया गया, अधिसूचना पिछली तिथि से प्रभावकारी मानी गयी है किरायेदार के अधिकार को ऐसे प्रावधानों से सुरक्षित नहीं किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि मामलातदार के द्वारा भाटक का निर्धारण अप्रभावी है और दिवानी न्यायालय में विचारण के लिए जा सकता है।

  1. घोषणा सम्बन्धी वाद– सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि घोषणा सम्बन्धी वाद दिवानी प्रकृति का है। केस -एनी बेसेन्ट नेशनल हाईस्कूल व. डिप्टी डायरेक्टर पब्लिक इन्सट्रक्शन
  1. जन्म तिथि में सुधार सम्बन्धी वाद– कर्मचारी द्वारा अधिवर्षिता की आयु से पहले जन्मतिथि में सुधार के लिए संस्थित वाद दिवानी प्रकृति का वाद है।

केस -इशर सिंह व. नेशनल फर्टिलाउजर

  1. विक्रय द्वारा बन्धक के प्रवर्तन का वाद– एक बन्धक का अन्तरण है। सम्पत्ति के विक्रय के लिए एक बन्धक वाद एक सर्वबन्धी अधिकार के प्रवर्तन के लिए। बन्धक पर वाद धन सम्बन्धी वाद नहीं है। एक बन्धक के प्रवर्तन के लिए वाद है। अतः इसका विधिक न्यायालय या सिविल न्यायालय द्वारा होनी चाहिए।

केस वर्ल्ड स्पोर्ट ग्रुप लि० व. एम. एस. एम. सैटेलाइट

इस वाद में एक विलेज को शून्य घोषित करने के लिए वाद किया गया, उस विलेज में विवाचन सिंगापुर में हो, का झगडा था, इसमें यह भी प्रावधान था कि पक्षकार में साम्यिक अनुतोष सिंगापुर में प्राप्त कर सकते हैं या न्यायालयों में जिसको पक्षकार पर अधिकारिता हो, में स्थान ख पर निष्पादित किया गया है, धोखे से विलेज के निष्पादन के लिए स्थान ख पर दिया गया है को निरस्त ख स्थान पर निरस्त किया गया, वाद हेतुक ख पर उत्पन्न हुआ, स्थान ख के न्यायालय को के ग्रहण करने की अधिकारिता होगी।

कौन-कौन से वाद दिवानी प्रकृति के वाद नहीं है ?

सामान्यतः उन वादों को दिवानी प्रकृति का वाद नहीं माना गया है जिसमें मुख्य प्रश्न दिवानी या विधिक अधिकार से सम्बन्धित नहीं है।

  1. जातिगत प्रश्नों से सम्बन्धित वाद
  2. धार्मिक कृत्यों या कर्मों से सम्बन्धित वाद
  3. किसी पद के साथ जुडी हुई गरिमा की रक्षा के लिए वाद– ऐसे वाद दिवानी प्रकृति के वाद नहीं है क्योंकि ऐसे वाद में जिस बात का दावा किया जाता है वह पद के साथ लगी हुई गरिमा के लिए है न कि किसी दिवानी अधिकार के प्रवर्तन के लिए।( केस – श्री शंकर व. सिधा (मद्रास))

केस -रंगाचेटियार व. रंगास्वामी

इस वाद में कहा गया है जहां पद के साथ जुडी हुई गरिमा का सम्बन्ध पारिश्रमिक से है जो लाभ का एक अंश है, वहां जो प्रभावित हो रहा है वह सम्पत्ति अधिकार है और दिवानी न्यायालय में वाद संस्थित किया जा सकता है।

4 .स्वेच्छा से किए गए भुगतान से सम्बन्धित वाद– स्वेच्छा से किए गए भुगतान किसी समझौता या व्यस्था–पत्र द्वारा आधारित नहीं है, पाने का वाद दिवानी प्रकृति का वाद नहीं है।

  1. औद्योगिक विवाद अधिनियम से सम्बन्धित वाद–

केस -बिहार स्टेट इलेक्ट्रिकसिटी बोर्ड व. रामदेव प्रसाद

भारतीय औद्योगिक विवाद अधि० १९४७ के अर्थों में जो है और जब वह एक वाद अपनी सेवा की बहाली के लिए है तो वह सिविल न्यायालय द्वारा पोषणीय नहीं है।

6 .भूमि अधिग्रहण अधि. से सम्बन्धित वाद–
केस -स्टेट आफ बिहार व. धीरेन्द्र कुमार

इसमें सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि भूमि अधिग्रहण अधि अपने आप में एक पूर्ण नियम है संहिता है, इससे उत्पन्न वाद न्यायालय में न जाकर उच्च न्यायालय संविधान के अनु० अन्तर्गत कार्यवाही कर सकते है।

वर्जित वाद–

दिवानी न्यायालय सभी प्रकार के दिवानी प्रकृति के वादों का संज्ञान कर सकेंगे जो अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से वर्जित नहीं है।

1.अभिव्यक्त रूप से विवर्जित वाद–

जो किसी अधिनियम के माध्यम से दिवानी न्यायालय का संज्ञान वर्जित है।

  • विशिष्ट कानून द्वारा विचारित विषय– अगर किसी विशिष्ट कानून के प्रावधानों के फलस्वरूप दिवानी न्यायालयों की अधिकारिता वर्जित कर दी गयी हो।

केस -अजहर हसन व. डिस्ट्रिक्ट जज सहारनपुर

किसी व्यक्ति का नाम राजस्व अभिलेख में सही तरीके से इन्दराज किया गया है। ऐसा विषय केवल राजस्व अधिकारी द्वारा निर्धारण किए जाएंगे।

परन्ति यदि राजस्व अधिकारियों या न्यायालय की कार्यवाहियों में धोखा– धडी, अनियमितता, अवैधानिकता या कोई अन्य मूलभूत त्रुटि है तो दिवानी न्यायालयों को हस्तक्षेप करने का अधिकार है।

  • विशिष्ट न्यायाधिकरण द्वारा विचारण विषय– जहां किन्हीं विषयों पर निर्णय के लिए विशिष्ट अधिकरणों की स्थापना की गई है, वहां उस विषयों पर निर्णय करने का एकमात्र अधिकार उस अधिकरण को है।

निम्न अवस्थाओं में अधिकरण के निर्णय के विरुद्ध उपचार या अनुतोष प्रदान करने का अधिकार दिवानी को है–

  • जब वह अधिकारातीत कार्य करता है या अपनी अधिकारिता का प्रयोग करने से अस्वीकार करता है।
  • जब वह दुर्भावना पूर्ण या स्वेच्छाचारिता से कार्य करता है।
  • जब वह स्वाभाविक न्याय के सिद्धान्तों के विपरीत कार्य
  • जब वह विकृत भाव से कार्य करता हे।

2. विवक्षित रूप से वर्जित वाद–

दिवानी वाद विवक्षित रूप से दो आधारों पर होते हैं

  • विधि के सामान्य सिद्धान्त पर वर्जित– इस सिद्धान्त के राज्य कार्य से वाद के ग्रहण करने का अधिकार नहीं है। राज्य कार्य से व कार्य से है जो राज्य के द्वारा उसकी प्रभुत्व सम्पन्न हैसियत अन्तर्गत किया जाता है।

केस -लक्ष्मीचन्द व. ग्राम पंचायत भरदिया

सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि भूमि अर्जन अधि० के अन्तर्गत सभी मामलों में दिवानी न्यायालयों की अधिकारिता आवश्यक विवक्षा से वर्जित है क्योंकि अधि० की स्वीय अपने आप पूर्ण है।

  • लोक नीति के आधार पर वर्जित– कुछ वाद दिवानी तो हैं किन्तु संज्ञान लोक नीति या राज्य नीति के आधार पर वर्जित किया गया है।

केस -कोटेश्वर विट्ठल व. कगट एण्ड कं०

इस वाद में प्रसंविदा के भंग होने पर जो अवैध है, लाए जाने वाला क्षतिपूर्ति का वाद लोकनीति के आधार पर वर्जित है।

इसी प्रकार न्यायिक पदाधिकारी के विरुद्ध उन कार्यों के लिए क्षतिपूर्ति का वाद, जिसको उसने सद्भावपूर्वक और अपने कर्तव्य के दौरान किया था, लोकनीति द्वारा वर्जित है।

राजनैतिक प्रश्न–

दिवानी न्यायालयों को दिवानी अधिकारों से सम्बन्धित वादों के विनिश्चय का अधिकार है। राजनैतिक प्रश्नों से सम्बन्धित वाद दिवानी न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
केस -स्टे आफ तमिलनाडु व. स्टेट आफ केरल

जहां विवाद स्टेट और भारत संघ या राज्य और राज्य के बीच है, ऐसे वाद के समाधान के लिए वाद दाखिल किया गया है, वहां ऐसा वाद के प्रावधानों से शासित नहीं होगा।

राजस्थान भूमि अर्चन अधि० १९५३ की धारा ४ के अधिसूचना नहीं १०.७.१९८१ को डूंगा पुत्र नोला जिसकी धारा ४ के उद्घोषणा १६.४.१९८२ बोर्ड ने २७.१.१९८४ को भूमिकार करना………..

निष्कर्ष-

अतः उपर्युक्त वर्णित तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि कोई वाद सिविल प्रकृति का वाद है या नहीं वाद के पक्षकारों की हैसियत पर नहीं वरन वाद की विषयवस्तु पर निर्भर करता है। कोई वाद सिविल प्रकृति का है या नहीं इस बात पर भी निर्भर करता है की मुख्य विचारणीय प्रश्न कैसा है यदि किसी वाद में मुख्य विचारणीय प्रश्न जातिगत या धार्मिक कृत्यों या कर्मों से सम्बंधित है तो वह सिविल प्रकृति का वाद नहीं होगा लेकिन यदि कोई वाद जिसमे मिख्य रूप से बिचारणीय प्रश्न कोई सम्पत्ति सम्बन्धी या पद सम्बन्धी या अन्य कोई सिविल अधिकार है एवं गौण रूप से विचारणीय प्रश्न कोई जातिसम्बन्धी या कोई धार्मिक कार्यों से सम्बंधित है सिविल प्रकृति का वाद होगा।

सन्दर्भ सूची –

1 – सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 – मुल्ला
2 – त्रिपाठी , डॉ टी पी – सिविल प्रक्रिया संहिता इलाहबाद लॉ एजेंसी पब्लिकेशन्स , 28 वा संस्करण
3- सिविल जज – डॉ चंद्र प्रकाश सिंह

“यह आर्टिकल Aryesha Anand के द्वारा लिखा गया है जो की LL.B. Vth सेमेस्टर BANARAS HINDU UNIVERSITY (BHU) की छात्रा है |”

 

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