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भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 | Prevention Of Corruption Act, 1988 In Hindi

 

 (1988 का अधिनियम संख्यांक 49) 

[9 सितंबर, 1988] 

भ्रष्टाचार निवारण से संबंधित विधि का समेकन और संशोधन करने तथा उससे संबंधित विषयों के लिए अधिनियम 

  भारत गणराज्य के उनतालीसवें वर्ष में संसद् द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो : 

अध्याय

प्रारंभिक 

  1. संक्षिप्त नाम और विस्तार—(1) इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 है। 

       (2) इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय संपूर्ण भारत पर है और यह भारत के बाहर भारत के समस्त नागरिकों को भी लागू है। 

  1. परिभाषाएं-इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो

               (क) निर्वाचनसे संसद् या किसी विधान-मंडल, स्थानीय प्राधिकरण या अन्य लोक प्राधिकरण के सदस्यों के चयन के प्रयोजन के लिए किसी विधि के अधीन, किसी भी माध्यम से, कराया गया निर्वाचन अभिप्रेत है

               (ख) लोक कर्तव्यसे अभिप्रेत है वह कर्तव्य; जिसके निर्वहन में राज्य, जनता या समस्त समुदाय का हित है। 

        स्पष्टीकरण-इस खंड में, “राज्यके अंतर्गत किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित निगम या सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण के अधीन या सरकार से सहायता प्राप्त कोई प्राधिकरण या निकाय या कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में यथापरिभाषित सरकारी कंपनी भी है

               (ग) लोक सेवकसे अभिप्रेत है

                    (i) कोई व्यक्ति जो सरकार की सेवा या उसके वेतन पर है या किसी लोक कर्तव्य के पालन के लिए सरकार से फीस या कमीशन के रूप में पारिश्रमिक पाता है

                    (ii) कोई व्यक्ति जो किसी लोक प्राधिकरण की सेवा या उसके वेतन पर है

                    (iii) कोई व्यक्ति जो किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित निगम या सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण के अधीन या सरकार से सहायता प्राप्त किसी प्राधिकरण या निकाय या कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में यथापरिभाषित किसी सरकारी कंपनी की सेवा या उसके वेतन पर है

                    (iv) कोई न्यायाधीश, जिसके अंतर्गत ऐसा कोई व्यक्ति है जो किन्हीं न्यायनिर्णयन कृत्यों का, चाहे स्वयं या किसी व्यक्ति के निकाय के सदस्य के रूप में, निर्वहन करने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया है

                    (v) कोई व्यक्ति जो न्याय प्रशासन के संबंध में किसी कर्तव्य का पालन करने के लिए न्यायालय द्वारा प्राधिकृत किया गया है, जिसके अंतर्गत किसी ऐसे न्यायालय द्वारा नियुक्त किया गया परिसमापक, रिसीवर या आयुक्त भी है

                    (vi) कोई मध्यस्थ या अन्य व्यक्ति जिसको किसी न्यायालय द्वारा या किसी सक्षम लोक प्राधिकरण द्वारा कोई मामला या विषय विनिश्चय या रिपोर्ट के लिए निर्देशित किया गया है

                    (vii) कोई व्यक्ति जो किसी ऐसे पद को धारण करता है जिसके आधार पर वह निर्वाचक सूची तैयार करने, प्रकाशित करने, बनाए रखने या पुनरीक्षित करने अथवा निर्वाचन या निर्वाचन के भाग का संचालन करने के लिए सशक्त है

                    (viii) कोई व्यक्ति जो किसी ऐसे पद को धारण करता है जिसके आधार पर वह किसी लोक कर्तव्य का पालन करने के लिए प्राधिकृत या अपेक्षित है

                    (ix) कोई व्यक्ति जो कृषि, उद्योग, व्यापार या बैंककारी में लगी हुई किसी ऐसी रजिस्ट्रीकृत सोसाइटी का अध्यक्ष, सचिव या अन्य पदधारी है जो केंद्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार या किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित किसी निगम से या सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण के अधीन या सरकार से सहायता प्राप्त किसी प्राधिकरण या निकाय से या कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में यथापरिभाषित किसी सरकारी कंपनी से कोई वित्तीय सहायता प्राप्त कर रही है या कर चुकी है

                   (x) कोई व्यक्ति जो किसी सेवा आयोग या बोर्ड का, चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो, अध्यक्ष, सदस्य या कर्मचारी या ऐसे आयोग या बोर्ड की ओर से किसी परीक्षा का संचालन करने के लिए या उसके द्वारा चयन करने के लिए नियुक्त की गई किसी चयन समिति का सदस्य है

                   (xi) कोई व्यक्ति जो किसी विश्वविद्यालय का कुलपति, उसके किसी शासी निकाय का सदस्य, आचार्य, उपाचार्य, प्राध्यापक या कोई अन्य शिक्षक या कर्मचारी है, चाहे वह किसी भी पदाभिधान से ज्ञात हो, और कोई व्यक्ति जिसकी सेवाओं का लाभ विश्वविद्यालय द्वारा या किसी अन्य लोक निकाय द्वारा परीक्षाओं के आयोजन या संचालन के संबंध में लिया गया है

                  (xii) कोई व्यक्ति जो किसी भी रीति में स्थापित किसी शैक्षिक, वैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या अन्य संस्था का, जो केंद्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार या किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकरण से वित्तीय सहायता प्राप्त कर रही है या कर चुकी है, पदधारी या कर्मचारी है। 

        स्पष्टीकरण 1उपर्युक्त उपखंडों में से किसी के अंतर्गत आने वाले व्यक्ति लोक सेवक हैं चाहे वे सरकार द्वारा नियुक्त किए गए हों या नहीं। 

        स्पष्टीकरण 2—“लोक सेवक” शब्द जहां भी आए हैं, वे उस हर व्यक्ति के संबंध में समझ जाएंगे जो लोक सेवक के ओहदे को वास्तव में धारण किए हों, चाहे उस ओहदे को धारण करने के उसके अधिकार में कैसी ही विधिक त्रुटि हो। 

अध्याय

 विशेष न्यायाधीशों की नियुक्ति 

  1. विशेष न्यायाधीश नियुक्त करने की शक्ति(1) केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, निम्नलिखित अपराधों के विचारण के लिए इतने विशेष न्यायाधीश नियुक्त कर सकेगी, जितने ऐसे क्षेत्र या क्षेत्रों के लिए या ऐसे मामलों या मामलों के समूह के लिए जो आवश्यक हों अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किए जाएं, अर्थात् : 

        (क) इस अधिनियम के अधीन दंडनीय कोई अपराध ; और 

        (ख) खंड (क) में विनिर्दिष्ट अपराधों में से किसी को रोकने के लिए षड्यंत्र करने या करने का प्रयत्न या कोई दुष्प्रेरण। 

        (2) कोई व्यक्ति इस अधिनियम के अधीन विशेष न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए तब तक अर्हित नहीं होगा जब तक कि वह दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अधीन सेशन न्यायाधीश या अपर सेशन न्यायाधीश या सहायक सेशन न्यायाधीश नहीं है या नहीं रहा है। 

  1. विशेष न्यायाधीशों द्वारा विचारणीय मामले—(1) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी धारा 3 की उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट अपराध विशेष न्यायाधीश द्वारा ही विचारणीय होंगे। 

        (2) धारा 3 की उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट प्रत्येक अपराध उस क्षेत्र के विशेष न्यायाधीश द्वारा जिसमें वह अपराध किया गया है या जहां ऐसे क्षेत्र के लिए एक से अधिक विशेष न्यायाधीश हैं वहां उनमें से ऐसे न्यायाधीश द्वारा जो इस निमित्त केंद्रीय सरकार द्वारा विनिर्दिष्ट किया जाएगा उस मामले के लिए नियुक्त किए गए विशेष न्यायाधीशों द्वारा विचारणीय होगा। 

        (3) किसी मामले का विचारण करते समय विशेष न्यायाधीश धारा 3 में विनिर्दिष्ट किसी अपराध से भिन्न, किसी ऐसे अन्य अपराध का भी विचारण कर सकता है जिससे अभियुक्त दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अधीन, उसी विचारण में आरोपित किया जा सकता है। 

        (4) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी विशेष न्यायाधीश, अपराध का विचारण यावत्शक्य, दिन प्रतिदिन के आधार पर करेगा। 

  1. प्रक्रिया और विशेष न्यायाधीश की शक्तियां – (1) विशेष न्यायाधीश अभियुक्त के विचारणार्थ सुपुर्द किए गए बिना भी अपराधों का संज्ञान कर सकता है, और वह अभियुक्त व्यक्ति के विचारण में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में मजिस्ट्रेटों द्वारा वारंट के मामलों के लिए विहित प्रक्रिया का अनुसरण करेगा। 

        (2) विशेष न्यायाधीश किसी ऐसे व्यक्ति का साक्ष्य प्राप्त करने की दृष्टि से जिसका प्रत्यक्षत: या अप्रत्यक्षत: किसी अपराध से संपृक्त होना या संसर्गी होना अनुमित है, विशेष न्यायाधीश ऐसे व्यक्ति और प्रत्येक अन्य संपृक्त व्यक्ति को, चाहे वह उस अपराध के किए जाने में मुख्य रहा हो या दुष्प्रेरक रहा हो उसके अपराध से संबंधित अपनी जानकारी की सभी परिस्थितियों का पूर्ण और सत्य प्रकटन करने की शर्त पर क्षमा प्रदान कर सकता है और इस प्रकार दी गई क्षमा दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 308 की उपधारा (1) से (5) के प्रयोजनों के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 307 के अधीन प्रदत्त की गई समझी जाएगी। 

        (3) उपधारा (1) या उपधारा (2) में यथा उपबंधित के सिवाय, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के उपबंध जहां तक वे इस अधनियम से असंगत नहीं हैं, विशेष न्यायाधीश के समक्ष कार्यवाहियों को लागू होंगे; और उक्त उपबंधों के प्रयोजनार्थ, विशेष न्यायाधीश का न्यायालय सेशन न्यायालय समझा जाएगा और विशेष न्यायाधीश के समक्ष अभियोजन का संचालन करने वाला व्यक्ति लोक अभियोजक समझा जाएगा। 

       (4) विशिष्टतया, और उपधारा (3) में अंतर्विष्ट उपबंधों की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 320 और धारा 475 के उपबंध, जहां तक हो सके, विशेष न्यायाधीश के समक्ष कार्यवाही को लागू होंगे, और उक्त उपबंधों के प्रयोजनार्थ विशेष न्यायाधीश मजिस्ट्रेट समझा जाएगा। 

       (5) विशेष न्यायाधीश उसके द्वारा दोषसिद्ध व्यक्ति को कोई भी दंडादेश दे सकता है जो उस अपराध के लिए जिसके लिए ऐसे व्यक्ति दोषसिद्ध हैं, विधि द्वारा प्राधिकृत है। 

       (6) इस अधिनियम के अधीन दंडनीय अपराधों का विचारण करते समय विशेष न्यायाधीश दंड विधि संशोधन अध्यादेश, 1944 (1944 का अध्यादेश संख्यांक 38) के अधीन जिला न्यायाधीश द्वारा प्रयोक्तव्य सभी सिविल शक्तियों और कृत्यों का प्रयोग करेगा। 

  1. संक्षिप्तत: विचारण करने की शक्ति–(1) जहां कोई विशेष न्यायाधीश धारा 3 की उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट ऐसे अपराध का विचारण करता है जो आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 (1955 का 10) की धारा 12क की उपधारा (1) में निर्दिष्ट किसी विशेष आदेश. या उस धारा की उपधारा (2) के खंड (क) में निर्दिष्ट आदेश के उल्लंघन की बाबत किसी लोक सेवक द्वारा किया जाना अभिकथित है, वहां इस अधिनियम की धारा 5 की उपधारा (1) में या दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 260 में किसी बात के होते हुए भी, विशेष न्यायाधीश अपराध का संक्षिप्त रूप में विचारण करेगा, और उक्त संहिता की धारा 262 से धारा 265 (जिसमें ये दोनों धाराएं सम्मिलित हैं) के उपबंध, यथाशक्य ऐसे विचारण को लागू होंगे : 

। परंतु इस धारा के अधीन किसी संक्षिप्त विचारण में किसी दोषसिद्धि की दशा में, विशेष न्यायाधीश के लिए एक वर्ष से अनधिक की अवधि के कारावास का दंडादेश पारित करना विधिपूर्ण होगा : 

परंतु यह और कि इस धारा के अधीन जब किसी संक्षिप्त विचारण के प्रारंभ पर या उसके अनुक्रम में, विशेष न्यायाधीश को यह प्रतीत होता है कि मामले की प्रकृति ऐसी है कि एक वर्ष से अधिक के कारावास का दंडादेश पारित करना पड़ सकता है या, किसी अन्य कारण से, मामले का संक्षिप्त रूप से विचारण करना अवांछनीय है तब विशेष न्यायाधीश, पक्षकारों की सुनवाई के पश्चात्, उस आशय का एक आदेश लेखबद्ध करेगा और उसके पश्चात् किसी साक्षी को जिसकी परीक्षा हो चुकी है पुन: बुलाएगा और मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट मामलों के विचारण के लिए उक्त संहिता द्वारा विहित प्रक्रिया के अनुसार मामले की सुनवाई या पुन: सुनवाई की कार्यवाही करेगा। 

        (2) इस अधिनियम या दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी प्रतिकूल बात के होते हुए भी, इस धारा के अधीन संक्षिप्त विचारण किए गए किसी मामले में, जिसमें विशेष न्यायाधीश एक मास से अनधिक के कारावास का और दो हजार रुपए से अनधिक के जुर्माने का दंडादेश पारित करता है, चाहे उक्त संहिता की धारा 452 के अधीन ऐसे दंडादेश के अतिरिक्त कोई आदेश पारित किया जाता हो, या नहीं, किसी दोषसिद्ध व्यक्ति द्वारा कोई अपील नहीं की जाएगी, किंतु जहां विशेष न्यायाधीश द्वारा उपरोक्त परिसीमाओं से अधिक कोई दंडादेश पारित किया जाता है, वहां अपील होगी। 

अध्याय

अपराध और शास्तियां 

  1. लोक सेवक द्वारा पदीय कार्य के लिए वैध पारिश्रमिक से भिन्न परितोषण लिया जानाजो कोई लोक सेवक होते हुए या होने की प्रत्याशा रखते हुए वैध पारिश्रमिक से भिन्न किसी प्रकार का भी कोई परितोषण इस बात के करने के लिए हेतु या इनाम के रूप में किसी व्यक्ति से अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त करेगा या प्रतिगृहीत करने को सहमत होगा या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करेगा कि वह लोक सेवक अपना कोई पदीय कार्य करे या करने से प्रविरत रहे अथवा किसी व्यक्ति को अपने पदीय कृत्यों के प्रयोग में कोई अनुग्रह या अननुग्रह दिखाए या दिखाने से प्रविरत रहे अथवा केंद्रीय सरकार या किसी राज्य की सरकार या संसद् या किसी राज्य विधान-मंडल में या धारा 2 के खंड (ग) में निर्दिष्ट किसी स्थानीय प्राधिकारी, निगम या सरकारी कंपनी में या किसी लोक सेवक के यहां, चाहे वह नामित हो या नहीं, किसी व्यक्ति का कोई उपकार या अपकार करे या करने का प्रयत्न करे, वह कारावास से, जिसकी अवधि [तीन वर्ष से कम नहीं होगी किंतु [सात वर्ष] तक की हो सकेगी और जुर्माने से भी दंडित किया जाएगा। 

       स्पष्टीकरण—(क) लोक सेवक होने की प्रत्याशा रखते हुए”—यदि कोई व्यक्ति जो किसी पद पर होने की प्रत्याशा न रखते हुए, दूसरों को प्रवंचना से यह विश्वास करा कर कि वह किसी पद पर होने वाला है और यह कि तब वह उनका उपकार करेगा, उससे परितोषण अभिप्राप्त करेगा, तो वह छल करने का दोषी हो सकेगा किंतु वह इस धारा में परिभाषित अपराध का दोषी नहीं है। 

       (ख) परितोषण”—“परितोषणशब्द से धन संबंधी परितोषण तक, या उन परितोषणों तक ही, जो धन में आंके जाने योग्य हैं, निर्बधित नहीं है। 

       (ग) वैध पारिश्रमिक”—“वैध पारिश्रमिक” शब्द उस पारिश्रमिक तक ही निर्बंधित नहीं हैं जिसकी मांग कोई लोक सेवक विधि पूर्ण रूप से कर सकता है, किंतु इसके अंतर्गत वह समस्त पारिश्रमिक आता है जिसको प्रतिगृहीत करने के लिए उस सरकार या संगठन द्वारा, जिसकी सेवा में है, उसे अनुज्ञा दी गई है। 

       (घ) करने के लिए हेतक या इनाम” वह व्यक्ति जो वह कार्य करने के लिए हेतुक या इनाम के रूप में, जिसे करने का उसका आशय नहीं है, या जिसे करने की स्थिति में वह नहीं है या जो उसने नहीं किया है, परितोषण प्राप्त करता है, इस पद के अंतर्गत आता है। 

      (ङ) जहां कोई लोक सेवक किसी व्यक्ति को यह गलत विश्वास करने के लिए उत्प्रेरित करता है कि सरकार में उसके असर से उस व्यक्ति को कोई हक अभिप्राप्त हुआ है, और इस प्रकार उस व्यक्ति को इस सेवा के लिए पुरस्कार के रूप में लोक सेवक को धन या कोई अन्य परितोषण देने के लिए उत्प्रेरित करता है, तो यह इस धारा के अधीन लोक सेवक द्वारा किया गया अपराध होगा। 

  1. लोक सेवक पर भ्रष्ट या अवैध साधनों द्वारा असर डालने के लिए परितोषण का लेना – जो कोई अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए किसी प्रकार का भी कोई परितोषण किसी लोक सेवक को, चाहे वह नामित हो या नहीं, भ्रष्ट या अवैध साधनों द्वारा इस बात के लिए उत्प्रेरित करने के लिए हेतु या इनाम के रूप में किसी व्यक्ति से प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त करेगा या प्रतिगृहीत करने को सहमत होगा या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करेगा कि वह लोक सेवक कोई पदीय कार्य करे या करने से प्रविरत रहे अथवा किसी व्यक्ति को अपने पदीय कृत्यों के प्रयोग में कोई अनुग्रह या अननुग्रह दिखाए अथवा या केंद्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार में या संसद् या किसी राज्य के विधान-मंडल में या धारा 2 के खंड (ग) में निर्दिष्ट किसी स्थानीय प्राधिकरण, निगम या सरकारी कंपनी में या किसी लोक सेवक के यहां चाहे वह नामित हो या नहीं किसी व्यक्ति का कोई उपकार या अपकार करे या करने का प्रयत्न करे, वह कारावास से, जिसकी अवधि [तीन वर्ष से कम नहीं होगी किंतु [सात वर्ष] तक की हो सकेगी, और जुर्माने से भी, दंडित किया जाएगा। 
  2. लोक सेवक पर वैयक्तिक असर डालने के लिए परितोषण का लेना- जो कोई अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए किसी प्रकार का भी कोई परितोषण किसी लोक सेवक को, चाहे वह नामित हो या नहीं, अपने वैयक्तिक असर के प्रयोग द्वारा इस बात के लिए उत्प्रेरित करने के लिए हेतु या इनाम के रूप में किसी व्यक्ति से प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त करेगा या प्रतिगृहीत करने को सहमत होगा या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करेगा कि वह लोक सेवक कोई पदीय कार्य करे या करने से प्रविरत रहे अथवा किसी व्यक्ति को ऐसे लोक सेवक के पदीय कृत्यों के प्रयोग में कोई अनुग्रह या अननुग्रह दिखाए अथवा केंद्रीय सरकार या किसी राज्य की सरकार या संसद् या किसी राज्य के विधान-मंडल में या धारा 2 के खंड (ग) में निर्दिष्ट किसी स्थानीय प्राधिकारी, निगम या सरकारी कंपनी में या किसी लोक सेवक के यहां चाहे वह नामित हो या नहीं, किसी व्यक्ति का कोई उपकार या अपकार करे या करने का प्रयत्न करे, वह कारावास से, जिसकी अवधि [तीन वर्ष से कम नहीं होगी किंतु [सात वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने से भी, दंडित किया जाएगा। 
  3. लोक सेवक द्वारा धारा 8 या धारा 9 में परिभाषित अपराधों के दुष्प्रेरण के लिए दंड- जो कोई ऐसा लोक सेवक होते हुए, जिसके बारे में उन अपराधों में से कोई अपराध किया जाए, जो धारा 8 या धारा 9 में परिभाषित हैं, उस अपराध का दुष्प्रेरण करेगा, चाहे वह अपराध ऐसे दुष्प्रेरण के परिणमस्वरूप किया गया हो या नहीं, वह कारावास से, जिसकी अवधि छह मास से कम नहीं होगी किंतु पांच वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने से भी, दंडित किया जाएगा। 
  4. लोक सेवक, जो ऐसे लोक सेवक द्वारा की गई कार्यवाही या कारबार से संबद्ध व्यक्ति से, प्रतिफल के बिना, मूल्यवान चीज अभिप्राप्त करता है – जो कोई लोक सेवक होते हुए, अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए, किसी व्यक्ति से यह जानते हुए कि ऐसे लोक सेवक द्वारा की गई या की जाने वाली किसी कार्यवाही या कारबार से वह व्यक्ति संपृक्त रह चुका है, या है या उसका संपृक्त होना संभाव्य है, या स्वयं उसके या किसी ऐसे लोक सेवक के, जिसका वह अधीनस्थ है, पदीय कृत्यों से वह व्यक्ति संपृक्त है, अथवा किसी ऐसे व्यक्ति से यह जानते हुए हुए कि वह इस प्रकार संपृक्त व्यक्ति से हितबद्ध है या नातेदारी रखता है, किसी मूल्यवान चीज को किसी प्रतिफल के बिना, या ऐसे प्रतिफल के लिए, जिसे वह जानता है, कि अपर्याप्त है, प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त करेगा, या प्रतिगृहीत करने को सहमत होगा या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करेगा, वह कारावास से, जिसकी अवधि छह मास से कम नहीं होगी किंतु पांच वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने से भी, दंडित किया जाएगा। 
  5. धारा 7 या धारा 11 में परिभाषित अपराधों के दुष्प्रेरण के लिए दंड- जो कोई धारा 7 या धारा 11 के अधीन दंडनीय किसी अपराध का दुष्प्रेरण करेगा, चाहे वह अपराध उस दुष्प्रेरण के परिणामस्वरूप किया गया हो या नहीं, वह कारावास से, जिसकी अवधि [तीन वर्ष से कम नहीं होगी किंतु [सात वर्ष] तक की हो सकेगी और जुर्माने से भी, दंडित किया जाएगा। 
  6. लोक सेवक द्वारा आपराधिक अवचार—(1) कोई लोक सेवक आपराधिक अवचार का अपराध करने वाला कहा जाता है

             (क) यदि वह अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए वैध पारिश्रमिक से भिन्न कोई परितोषण ऐसे हेतु या इनाम के रूप में, जैसा धारा 7 में वर्णित है किसी व्यक्ति से अभ्यासत: प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त करता है या प्रतिगृहीत करने के लिए सहमत होता है या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करता है, या 

             (ख) यदि वह अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान चीज प्रतिफल के बिना या ऐसे प्रतिफल के लिए जिसका अपर्याप्त होना वह जानता है किसी ऐसे व्यक्ति से जिसका कि अपने द्वारा या किसी ऐसे लोक सेवक द्वारा, जिसके वह अधीनस्थ है, की गई या की जा सकने वाली किसी कार्रवाई या कारबार से संबद्ध रहा होना, होना या हो सकना वह जानता है अथवा किसी ऐसे व्यक्ति से जिसका ऐसे संबद्ध व्यक्ति में हितबद्ध या उससे संबंधित होना वह जानता है, अभ्यासत: प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त करता है या प्रतिगृहीत करने के लिए सहमत होता है या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न करता है, या 

            (ग) यदि वह लोक सेवक के रूप में अपने को सौंपी गई या अपने नियंत्रणाधीन किसी संपत्ति का अपने उपयोग के लिए बेइमानी से या कपटपूर्वक दुर्विनियोग करता है या उसे अन्यथा संपरिवर्तित कर लेता है या किसी अन्य व्यक्ति को ऐसा करने देता है, या 

           (घ) यदि वह –

                  (i) भ्रष्ट या अवैध साधनों से अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान चीज या धन संबंधी फायदा अभिप्राप्त करता है ; या 

                  (ii) लोक सेवक के रूप में अपनी स्थिति का अन्यथा दुरुपयोग करके अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान चीज या धन संबंधी फायदा अभिप्राप्त करता है ; या 

                  (iii) लोक सेवक के रूप में पद धारण करके किसी व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान चीज या धन संबंधी फायदा बिना किसी लोक हित के अभिप्राप्त करता है ; या 

           (ङ) यदि उसके या उसकी ओर से किसी व्यक्ति के कब्जे में ऐसे धन संबंधी साधन तथा ऐसी संपत्ति है जो उसकी आय के ज्ञात स्रोतों की अननुपातिक है अथवा उसके पद की कालावधि के दौरान किसी समय कब्जे में रही है जिसका कि वह लोक सेवक, समाधानप्रद लेखा-जोखा नहीं दे सकता। 

स्पष्टीकरण-इस धारा के प्रयोजनों के लिए आय के ज्ञात स्रोतसे अभिप्रेत है किसी विधिपूर्ण स्रोत से प्राप्त आय, जिस प्राप्ति की संसूचना, लोक सेवक को तत्समय लागू किसी विधि, नियमों या आदेशों के उपबंधों के अनुसार दे दी गई है। 

        (2) कोई लोक सेवक जो आपराधिक अवचार करेगा इतनी अवधि के लिए, जो ‘[चार वर्ष] से कम की न होगी किंतु जो ‘[दस वर्ष तक की हो सकेगी, कारावास से दंडनीय होगा और जुर्माने का भी दायी होगा। 

  1. धारा 8, धारा 9 और धारा 12 के अधीन अभ्यासत: अपराध करना- जो कोई : 

                (क) धारा 8 या धारा 9 के अधीन दंडनीय कोई अपराध अभ्यासत: करेगा ; या 

                (ख) धारा 12 के अधीन दंडनीय कोई अपराध अभ्यासत: करेगा, वह इतनी अवधि के लिए जो ‘[पांच वर्ष] से कम की नहीं होगी किंतु जो ‘[दस वर्ष] तक की हो सकेगी, कारावास से, और जुर्माने से भी, दंडनीय होगा। 

  1. प्रयत्न के लिए दंड- जो कोई धारा 13 की उपधारा (1) के खंड (ग) या खंड (घ) में निर्दिष्ट कोई अपराध करने का प्रयत्न करेगा वह कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष से कम की नहीं होगी, किन्तु पांच वर्ष तक की हो सकेगी] और जुर्माने से भी, दंडनीय होगा। 
  2. जुर्माना नियत करने के लिए ध्यान में रखी जाने वाली बातें – जुर्माने की रकम नियत करने में न्यायालय, वहां जहां जुर्माने का दंड धारा 13 की उपधारा (2) या धारा 14 के अधीन अधिरोपित किया गया है उस रकम या संपत्ति के मूल्य का, यदि कोई हो, जिसे अभियुक्त व्यक्ति ने अपराध करके अभिप्राप्त किया हो अथवा वहां जहां दोषसिद्धि धारा 13 की उपधारा (1) के खंड (ङ) में निर्दिष्ट किसी अपराध के लिए है, उस खंड में निर्दिष्ट धन संबंधी साधन या संपत्ति का जिसका कि अभियुक्त व्यक्ति समाधानप्रद लेखा-जोखा देने में असमर्थ है, ध्यान रखेगा। 

अध्याय

इस अधिनियम के अधीन मामलों का अन्वेषण 

  1. अन्वेषण करने के लिए प्राधिकृत व्यक्ति दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी, निम्नलिखित की पंक्ति से नीचे का कोई भी पुलिस अधिकारी

               (क) दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन की दशा में, पुलिस निरीक्षक

               (ख) मुंबई, कलकत्ता, मद्रास और अहमदाबाद के महानगरीय क्षेत्रों में, और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 8 की उपधारा (1) के अधीन इस रूप में अधिसूचित किसी अन्य क्षेत्र में, सहायक पुलिस आयुक्त

               (ग) अन्यत्र, उप पुलिस अधीक्षक, या समतुल्य रैंक का पुलिस अधिकारी ; इस अधिनियम के अधीन दंडनीय किसी अपराध का अन्वेषण, यथास्थिति, महानगर मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग के मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना, अथवा उसके लिए कोई गिरफ्तारी, वारंट के बिना, नहीं करेगा : 

परंतु यदि कोई पुलिस अधिकारी जो पुलिस निरीक्षक की पंक्ति से नीचे का न हो साधारण या विशेष आदेश द्वारा इस निमित्त राज्य सरकार द्वारा प्राधिकृत है तो वह भी ऐसे किसी अपराध का अन्वेषण, यथास्थिति, महानगर मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग के मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना, अथवा उसके लिए गिरफ्तारी वारंट के बिना, कर सकेगा : 

परंतु यह और कि धारा 13 की उपधारा (1) के खंड (ङ) में निर्दिष्ट किसी अपराध का अन्वेषण ऐसे पुलिस अधिकारी के आदेश के बिना नहीं किया जाएगा जो पुलिस अधीक्षक की पंक्ति से नीचे का न हो। 

  1. बैंककार बहियों के निरीक्षण की शक्ति- यदि प्राप्त जानकारी से या अन्यथा किसी पुलिस अधिकारी के पास किसी ऐसे अपराध के किए जाने का संदेह करने का कारण है जिसका अन्वेषण करने के लिए वह धारा 17 के अधीन सशक्त है और वह समझता है कि ऐसे अपराध का अन्वेषण या जांच करने के प्रयोजन के लिए किन्हीं बैंककार बहियों का निरीक्षण करना आवश्यक है तो तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में किसी बात के होते हुए भी वह किन्हीं बैंककार बहियों का वहां तक निरीक्षण कर सकेगा जहां तक वे उस व्यक्ति के, जिसके द्वारा अपराध किए जाने का संदेह है या किसी अन्य व्यक्ति के, जिसके द्वारा ऐसे व्यक्ति के निमित्त धन धारण किए जाने का संदेह है, लेखाओं से संबंधित हैं, और उसमें से सुसंगत प्रविष्टियों की प्रमाणित प्रतियां ले सकेगा या लिवा सकेगा तथा संबंधित बैंक उस पुलिस अधिकारी की, इस धारा के अधीन उसकी शक्तियों के प्रयोग में, सहायता करने के लिए आबद्ध होगा : 

परंतु किसी व्यक्ति के लेखाओं के संबंध में इस उपधारा के अधीन किसी शक्ति का प्रयोग पुलिस अधीक्षक की पंक्ति से नीचे के किसी पुलिस अधिकारी द्वारा नहीं किया जाएगा जब तक कि वह पुलिस अधीक्षक की पंक्ति के या उससे ऊपर के किसी पुलिस अधिकारी द्वारा इस निमित्त विशेष रूप से प्राधिकृत न कर दिया गया हो। 

स्पष्टीकरण-इस धारा में बैंकऔर बैंककार बहीपदों के वे ही अर्थ होंगे जो बैंककार बही साक्ष्य अधिनियम, 1891 (1891 का 18) में हैं। 

अध्याय 5 

अभियोजन के लिए मंजूरी और अन्य प्रकीर्ण उपबंध 

  1. अभियोजन के लिए पूर्व मंजूरी का आवश्यक होना—(1) कोई न्यायालय धारा 7, धारा 10, धारा 11, धारा 13 और धारा 15 के अधीन दंडनीय किसी ऐसे अपराध का संज्ञान, जिसकी बाबत यह अभिकथित है कि वह लोक सेवक द्वारा किया गया है, 1[जैसा लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 (2014 का अधिनियम संख्यांक 1) में अन्यथा उपबंधित है, उसके सिवाय] निम्नलिखित की पूर्व मंजूरी के बिना नहीं करेगा 

               (क) ऐसे व्यक्ति की दशा में, जो संघ के मामलों के संबंध में, नियोजित है और जो अपने पद से केंद्रीय सरकार द्वारा या उसकी मंजूरी से हटाए जाने के सिवाय नहीं हटाया जा सकता है, केंद्रीय सरकार

               (ख) ऐसे व्यक्ति की दशा में, जो राज्य के मामलों के संबंध में नियोजित है और जो अपने पद से राज्य सरकार द्वारा या उसकी मंजूरी से हटाए जाने के सिवाय नहीं हटाया जा सकता है, केंद्रीय सरकार

               (ग) किसी अन्य व्यक्ति की दशा में, उसे उसके पद से हटाने के लिए, सक्षम प्राधिकारी। (2) जहां किसी भी कारणवश इस बाबत शंका उत्पन्न हो जाए कि उपधारा (1) के अधीन अपेक्षित पूर्व मंजूरी केंद्रीय या राज्य सरकार या किसी अन्य प्राधिकारी में से किसके द्वारा दी जानी चाहिए वहां ऐसी मंजूरी उस सरकार या प्राधिकारी द्वारा दी जाएगी जो लोक सेवक को उसके पद से उस समय हटाने के लिए सक्षम था जिस समय अपराध का किया जाना अभिकथित है। 

        (3) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी

               (क) विशेष न्यायाधीश द्वारा पारित कोई निष्कर्ष, दंडादेश या आदेश किसी न्यायालय द्वारा अपील, पुष्टिकरण या पुनरीक्षण में, अभियोजन के लिए उपधारा (1) के अधीन अपेक्षित मंजूरी के न होने या उसमें कोई त्रुटि, लोप या अनियमितता होने के आधार पर तब तक नहीं उलटा या परिवर्तित किया जाएगा जब तक कि न्यायालय की राय में उसके कारण वास्तव में कोई अन्याय हुआ है

              (ख) कोई न्यायालय इस अधिनियम के अधीन कार्यवाहियों को किसी प्राधिकारी द्वारा दी गई मंजूरी में किसी त्रुटि, लोप या अनियमितता के आधार पर तब तक नहीं रोकेगा जब तक उसका यह समाधान नहीं हो जाता कि ऐसी त्रुटि, लोप या अनियमितता के परिणामस्वरूप अन्याय हुआ है

             (ग) कोई न्यायालय इस अधिनियम के अधीन किसी अन्य आधार पर कार्यवाहियां नहीं रोकेगा और कोई न्यायालय किसी जांच, विचारण, अपील या अन्य कार्यवाही में पारित किसी अंर्तवर्ती आदेश के संबंध में पुनरीक्षण की शक्तियों का प्रयोग नहीं करेगा। 

        (4) उपधारा (3) के अधीन यह अवधारित करने में कि ऐसी मंजूरी के न होने से या उसमें किसी त्रुटि, लोप या अनियमितता के होने से कोई अन्याय हुआ या परिणामित हुआ है या नहीं, न्यायालय इस तथ्य को ध्यान में रखेगा कि क्या कार्यवाहियों के किसी पूर्वतर प्रक्रम पर आक्षेप किया जा सकता था और किया जाना चाहिए था या नहीं। 

         स्पष्टीकरण-इस धारा के प्रयोजनों के लिए

               (क) त्रुटि के अंतर्गत मंजूरी देने वाले प्राधिकारी की सक्षमता भी है

               (ख) अभियोजन के लिए अपेक्षित मंजूरी के अंतर्गत इस अपेक्षा के प्रति निर्देश भी है कि अभियोजन किसी विनिर्दिष्ट प्राधिकारी की ओर से, या किसी विनिर्दिष्ट व्यक्ति की मंजूरी से होगा या समतुल्य प्रकृति की कोई अपेक्षा भी है। 

  1. जहां लोक सेवक वैध पारिश्रमिक से भिन्न परितोषण प्रतिगृहीत करता है, वहां उपधारणा (1) जहां धारा 7 या धारा 11 या धारा 13 की उपधारा (1) के खंड (क) या खंड (ख) के अधीन दंडनीय अपराध के किसी विचारण में यह साबित कर दिया जाता है कि अभियुक्त व्यक्ति ने किसी व्यक्ति से (वैध पारिश्रमिक से भिन्न) कोई परितोषण या कोई मूल्यावन चीज अपने लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त की है अथवा प्रतिगृहीत करने के लिए सहमति दी है या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न किया है, वहां जब तक प्रतिकूल साबित न कर दिया जाए यह उपधारणा की जाएगी कि उसने, यथास्थिति, उस परितोषण या मूल्यवान चीज को ऐसे हेतु या इनाम के रूप में, जैसा धारा 7 में वर्णित है, या, यथास्थिति, प्रतिफल के बिना या ऐसे प्रतिफल के लिए, जिसका अपर्याप्त होना वह जानता है, प्रतिगृहीत या अभिप्राप्त किया है अथवा प्रतिगृहीत करने के लिए सहमत हुआ है या अभिप्राप्त करने का प्रयत्न किया है। 

         (2) जहां धारा 12 के अधीन या धारा 14 के खंड (ख) के अधीन दंडनीय अपराध के किसी विचारण में यह साबित कर दिया जाता है कि अभियुक्त व्यक्ति ने (वैध पारिश्रमिक से भिन्न) कोई परितोषण या कोई मूल्यवान चीज दी है या देने की प्रस्थापना की है, या देने का प्रयत्न किया है, वहां जब तक प्रतिकूल साबित न कर दिया जाए यह उपधारणा की जाएगी कि उसने, यथास्थिति, उस परितोषण या मूल्यवान चीज को ऐसे हेतु या इनाम के रूप में, जैसा धारा 7 में वर्णित है या, यथास्थिति, प्रतिफल के बिना या ऐसे प्रतिफल के लिए, जिसका अपर्याप्त होना वह जानता हो, दिया है या देने की प्रस्थापना की है या देने का प्रयत्न किया है। 

         (3) उपधारा (1) और (2) में किसी बात के होते हुए भी न्यायालय उक्त उपधाराओं में से किसी में निर्दिष्ट उपधारणा करने से इंकार कर सकेगा यदि पूर्वोक्त परितोषण या चीज, उसकी राय में, इतनी तुच्छ है कि भ्रष्टाचार का कोई निष्कर्ष उचित रूप से नहीं निकाला जा सकता। 

  1. अभियुक्त व्यक्ति का सक्षम साक्षी होना इस अधिनियम के अधीन दंडनीय अपराध से आरोपित कोई व्यक्ति प्रतिरक्षा पक्ष के लिए सक्षम साक्षी होगा और वह अपने विरुद्ध या उसी विचार में अपने साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरुद्ध किए गए आरोपों को साबित करने के लिए शपथ पर साक्ष्य दे सकेगा : 

        परंतु —

             (क) साक्षी के रूप में वह अपनी प्रार्थना पर के सिवाय आहूत नहीं किया जाएगा

             (ख) साक्ष्य देने में उसकी असफलता पर अभियोजन पक्ष कोई टीका-टिप्पणी नहीं करेगा अथवा इससे उसके या उसी विचारण में उसके साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई उपधारणा उत्पन्न नहीं होगी

             (ग) कोई ऐसा प्रश्न जिसकी प्रवृत्ति यह दर्शित करने की है कि जिस अपराध का आरोप उस पर लगाया गया है उससे भिन्न, अपराध उसने किया है या वह उसके लिए सिद्धदोष हो चुका है, या वह बुरे चरित्र का है, उससे उस दशा में के सिवाय न पूछा जाएगा या पूछे जाने पर उसका उत्तर देने की उससे अपेक्षा नहीं की जाएगी जिसमें 

                      (i) इस बात का सबूत कि उसने ऐसा अपराध किया है या उसके लिए वह सिद्धदोष हो चुका है, यह दर्शित करने के लिए ग्राह्य साक्ष्य है कि वह उस अपराध का दोषी है जिसका आरोप उस पर लगाया गया है, या 

                      (ii) उसने स्वयं या अपने प्लीडर द्वारा अभियोजन पक्ष के किसी साक्षी से अपना अच्छा चरित्र सिद्ध करने की दृष्टि से कोई प्रश्न पूछा है या अपने अच्छे चरित्र का साक्ष्य दिया है अथवा प्रतिरक्षा का स्वरूप या संचालन इस प्रकार का है कि उसमें अभियोजक के या अभियोजन पक्ष के लिए किसी साक्षी के चरित्र पर लांछन अंतर्गत है, या 

                      (iii) उसने उसी अपराध से आरोपित किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध साक्ष्य दिया है। 

  1. दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 का कुछ उपांतरणों के अध्यधीन लागू होना- दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के उपबंध, इस अधिनियम के अधीन दंडनीय किसी अपराध के संबंध में किसी कार्यवाही पर लागू होने में ऐसे प्रभावी होंगे मानो 

               (क) धारा 243 की उपधारा (1) में तब अभियुक्त से अपेक्षा की जाएगीशब्दों के स्थान पर तब अभियुक्त से अपेक्षा की जाएगी कि वह तुरंत या इतने समय के भीतर जितना न्यायालय अनुज्ञात करे, उन व्यक्तियों की (यदि कोई हों) जिनकी वह अपने साक्षियों के रूप में परीक्षा करना चाहता है और उन दस्तावेजों की (यदि कोई हों) जिन पर वह निर्भर करना चाहता है, एक लिखित सूची दे, और तब उससे अपेक्षा की जाएगीशब्द प्रतिस्थापित कर दिए गए हों

              (ख) धारा 309 की उपधारा (1) में, तीसरे परंतुक के पश्चात्, निम्नलिखित परंतुक अंत:स्थापित किया गया था, अर्थात् : 

       “परंतु यह और कि कार्यवाही मात्र इस आधार पर कि कार्यवाही के एक पक्षकार द्वारा धारा 307 के अधीन आवेदन किया गया है, स्थगित या मुल्तवी नहीं की जाएगी।”; (ग) धारा 317 की उपधारा (2) के पश्चात् निम्नलिखित उपधारा अंत:स्थापित की गई थी, अर्थात् : 

       “(3) उपधारा (1) या उपधारा (2) में किसी बात के होते हुए भी न्यायाधीश, यदि वह ठीक समझता है तो और ऐसे कारणों से जो उसके द्वारा लेखबद्ध किए जाएंगे, अभियुक्त या उसके प्लीडर की अनुपस्थिति में जांच या विचारण करने के लिए अग्रसर हो सकता है और किसी साक्षी का साक्ष्य, प्रतिपरीक्षा के लिए साक्षी को पुन: बुलाने के अभियुक्त के अधिकार के अधीन रहते हुए, लेखबद्ध कर सकता है।” 

             (घ) धारा 397 की उपधारा (1) में स्पष्टीकरण के पहले निम्नलिखित परंतुक अंत:स्थापित कर दिया गया हो, अर्थात् : 

       “परंतु जहां किसी न्यायालय द्वारा इस उपधारा के अधीन शक्तियों का प्रयोग ऐसी कार्यवाहियों के किसी एक पक्षकार द्वारा किए गए आवेदन पर किया जाता है, वहां वह न्यायालय कार्यवाही के अभिलेख को मामूली तौर पर 

           (क) दूसरे पक्षकार को इस बात का हेतुक दर्शित करने का अवसर दिए बिना नहीं मंगाएगा कि अभिलेख क्यों न मंगाया जाए ; या 

           (ख) उस दशा में नहीं मंगाएगा जिसमें उसका यह समाधान हो जाता है कि कार्यवाही के 

        अभिलेख की परीक्षा प्रमाणित प्रतियों से की जा सकती है।”। 

  1. धारा 13(1)(ग) के अधीन अपराध के संबंध में आरोप की विशिष्टियां – दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी, जब किसी अपराधी पर धारा 13 की उपधारा (1) के खंड (ग) के अधीन किसी बात का आरोप है, तब उसे आरोप में उस संपत्ति को, जिसके संबंध में अपराध का किया जाना अभिकथित है और उन तारीखों को जिनके बीच अपराध का किया जाना अभिकथित है, विशिष्ट मदों या निश्चित तारीख को विनिर्दिष्ट किए बिना, वर्णित करना पर्याप्त होगा और इस प्रकार विरचित आरोप उक्त संहिता की धारा 219 के अर्थ में एक अपराध का आरोप समझा जाएगा : 

परंतु ऐसी तारीखों में से प्रथम और अंतिम तारीख के बीच का समय एक वर्ष से अधिक नहीं होगा। 

  1. रिश्वत देने वाले का उसके कथन पर अभियोजित न होना – तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में किसी बात के होते हुए भी धारा 7 से धारा 11 या धारा 13 या धारा 15 के अधीन किसी अपराध के लिए किसी लोक सेवक के विरुद्ध किसी कार्यवाही में किसी व्यक्ति के इस कथन से कि उसने उस लोक सेवक को (वैध पारिश्रमिक से भिन्न) कोई परितोषण या कोई मूल्यवान चीज देने की प्रस्थापना की थी या प्रस्थापना करने के लिए समहति दी थी, ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध धारा 12 के अधीन कोई अभियोजन नहीं हो सकेगा। 
  2. सेना, नौसेना और वायुसेना संबंधी या अन्य विधियों का प्रभावित नहीं होना- (1) इस अधिनियम की कोई बात सेना अधिनियम, 1950 (1950 का 45), वायु सेना अधिनियम, 1950 (1950 का 46), नौसेना अधिनियम, 1957 (1957 का 62), सीमा सुरक्षा बल अधिनियम, 1968 (1968 का 47), तटरक्षक अधिनियम, 1978 (1978 का 30) और राष्ट्रीय सुरक्षक अधिनियम, 1986 (1986 का 47) के अधीन किसी न्यायालय या अन्य प्राधिकारी द्वारा प्रयोक्तव्य अधिकारिता को, या उसको लागू होने वाली प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करेगी। 

           (2) शंकाओं के निराकरण के लिए घोषित किया जाता है कि ऐसी विधि के प्रयोजनार्थ जो उपधारा (1) में निर्दिष्ट है, विशेष न्यायाधीश का न्यायालय सामान्य दांडिक न्याय का न्यायालय समझा जाएगा। 

  1. 1952 के अधिनियम 46 के अधीन नियुक्त विशेष न्यायाधीशों का इस अधिनियम के अधीन नियुक्त विशेष न्यायाधीश होना – किसी क्षेत्र या किन्हीं क्षेत्रों के लिए दंड विधि (संशोधन) अधिनियम, 1952 के अधीन नियुक्त किया गया और इस अधिनियम के प्रारंभ पर पद धारण कर रहा प्रत्येक विशेष न्यायाधीश उस क्षेत्र या उन क्षेत्रों के लिए इस अधिनियम की धारा 3 के अधीन नियुक्त किया गया विशेष न्यायाधीश समझा जाएगा और ऐसे प्रारंभ से ही प्रत्येक ऐसा न्यायाधीश, तदनुसार, ऐसे प्रारंभ पर उसके समक्ष लंबित सब कार्यवाहियों का निपटारा, इस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार करता रहेगा। 
  2. अपील और पुनरीक्षण- इस अधिनियम के उपबंधों के अधीन रहते हुए उच्च न्यायालय, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अधीन, उच्च न्यायालय को प्रदत्त अपील और पुनरीक्षण की सभी शक्तियों का प्रयोग, जहां तक वे लागू हो सकती हैं, कर सकता है, मानो विशेष न्यायाधीश का न्यायालय उच्च न्यायालय की स्थानीय सीमाओं के भीतर मामलों का विचारण करने वाला सेशन न्यायालय है। 
  3. अधिनियम का किसी अन्य विधि के अतिरिक्त होना – इस अधिनियम के उपबंध तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अतिरिक्त होंगे न कि उसका अल्पीकरण करेंगे, और इसमें की कोई बात किसी लोक सेवक को किसी ऐसी कार्यवाही से छूट नहीं देगी जो, इस अधिनियम के अतिरिक्त, उसके विरुद्ध संस्थापित की जा सकती है। 
  4. 1944 के अध्यादेश सं0 38 का संशोधन- दंड विधि संशोधन अध्यादेश, 1944 में

           (क) धारा 2 की उपधारा (1), धारा 9 की उपधारा (1), धारा 10 के खंड (क) और धारा 11 की उपधारा (1) और धारा 13 की उपधारा (1) में राज्य सरकार” शब्दों के स्थान पर, जहां भी वे आते हैं, यथास्थिति, “राज्य सरकार या केंद्रीय सरकारशब्द रखे जाएंगे

           (ख) धारा 10 के खंड (क) में तीन मासशब्दों के स्थान पर एक वर्ष” शब्द रखे जाएंगे; (ग) अनुसूची के

                 (i) पैरा 1 का लोप किया जाएगा

                 (ii) पैरा 2 और पैरा 4 में

                         (क) स्थानीय प्राधिकरण” शब्दों के पश्चात् या किसी केंद्रीय, प्रांतीय या राज्य अधिनियम द्वारा या उसके अधीन स्थापित कोई निगम, या सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण के अधीन या उससे सहायता प्राप्त कोई प्राधिकरण या निकाय, या कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) की धारा 617 में यथापरिभाषित कोई सरकारी कंपनी या ऐसे निगम, प्राधिकरण, निकाय या सरकारी कंपनी द्वारा सहायता प्राप्त कोई सोसाइटीशब्द और अंक अंत:स्थापित किए जाएंगे। 

                        (ख) या प्राधिकरणशब्दों के पश्चात् या निगम या निकाय या सरकारी कंपनी या सोसाइटीशब्द अंत:स्थापित किए जाएंगे। 

                (iii) पैरा 4अ के स्थान पर, निम्नलिखित पैरा रखा जाएगा, अर्थात् : 

                      “4अ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन दंडनीय अपराध ।” ; 

                (iv) पैरा 5 में मद 2, मद 3 और मद 4” शब्दों और अंकों के स्थान पर मद 2, मद 3, मद 4 और 4अ” शब्द, अंक और अक्षर रखे जाएंगे। 

  1. निरसन और व्यावृत्ति- (1) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 (1947 का 2) और दंड विधि संशोधन अधिनियम, 1952 (1952 का 46) निरसित किए जाते हैं। 

         (2) ऐसे निरसन के होते हुए भी, किंतु साधारण खंड अधिनियम, 1897 (1897 का 10) की धारा 6 के लागू होने पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना इस प्रकार निरसित अधिनियमों के अधीन या उनके अनुसरण में की गई या किए जाने के लिए तात्पर्यित कोई बात या कोई कार्रवाई जहां तक कि वह इस अधिनियम के उपबंधों से असंगत नहीं है, इस अधिनियम के तत्स्थानी उपबंधों के अधीन या उनके अनुसरण में की गई बात या कार्रवाई समझी जाएगी। 

       *31. 1860 के अधिनियम सं0 45 की कुछ धाराओं का लोप- भारतीय दंड संहिता की धारा 161 से धारा 165क तक का (जिसमें ये दोनों धाराएं सम्मिलत हैं) लोप किया जाएगा, और साधारण खंड अधिनियम, 1897 (1897 का 10) की धारा 6 ऐसे लोप को लागू होगी, मानो उक्त धाराओं का लोप किसी केंद्रीय अधिनियम द्वारा किया गया हो।