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महिला अधिकारों की सुरक्षा और महिला आयोग का योगदान | Protection of women rights and contrubution of women commisson in hindi

महिला अधिकारों की सुरक्षा और महिला आयोग का योगदान | Protection of women right and contrubution of women commisson in hindi

प्रस्तावना 

केस – चंदाकुमारी बनाम पुलिस आयुक्त हैदराबाद [ AIR1998 आंध्रप्रदेश 302 ]

इस मामले में आंध्रप्रदेश उच्चन्यायालय ने कहा है कि – “नारी मात्र एक व्यक्ति ही नहीं अपितु एक शक्ति भी है lनारी के अधिकारों की रक्षा करना हमारा संवैधानिक कर्तव्य है l”

हम एक ऐसी दुनिया में रहते है, जहाँ देवी-देवताओं की पूजा की जाती है और महिलाओ को हर तंग किया किया जाता है प्रताड़ित किया जाता है, दुर्व्यवहार किया जाता है और उनका अपहरण किया जाता है l यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है की दुनिया लगभग सभी समाजों में महिलाओं को पुरुषों से हीनता की सस्थिति का सामना करना पड़ता है l

नारी समाज का एक अभिन्न अंग है, अतीत से नारी का समाज में सर्वोपरि स्थान रहा है l उसे सुख सम्रद्धि का प्रतीक माना जाता है l “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” हमारा कर्तव्य आदर्श रहा है lयह स्थिति बर्षों तक चलती रही लेकिन बीच में कुछ ऐसा समय आया जब मनुष्य ने स्वार्थवस नारी का नारी को भोग विलास की वस्तु मान लिया नारी पर विभिन्न प्रकार के अत्याचार किये जाने लगे lवह शोषण और यातना की शिकार होने लगी l

बीसवीं सदी में नारी के अतीत का गौरव पुनः लगा lनारी स्वंत्रता की लहर चली l समाज और कानून में नारी को सम्मान एवं संरक्षण मिलने लगा l जीवन के हर क्षेत्र में नारी पुरुष के साथ कदम से क़दम मिलाकर आगे बढ़ने लगी l

संविधान के अनुच्छेद 243 (घ) में पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओ के 1/3 स्थान आरक्षित कर दिए गए विधानसभा एवं संसद में भी महिलाओं के लिए 1/3 स्थान आरक्षित किये जाने की मांग की जाने लगी है l जबसे मानव अधिकार संरक्षण कानून बना है और राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन हुआ है समाज में नारी की स्थिति और सुद्रण होने लगी है l

अन्तराष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के अधिकार  

लिंग पर आधारित भेदभाव ऐतिहासिक घटना सदियों से रही, महिलाएं एक समूह के रूप में ऐतिहासिक बंचनाओ की शिकार बहुत बड़े पैमाने पर रही है l

संयुक्त राष्ट्र संघ चार्टर की उद्देशिका में “ पुरुषों और महिलाओ के सामान अधिकार के बारे में बात की गई है l”

 पुरुषों और महिलाओ की समानता को बढ़ावा देने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किये गए उपाय 

स्त्रियों और पुरुषों के बीच समानता को बढ़ावा देने और स्त्रियों की परिस्थिति को सुधारने की प्रेरणा संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकारों की सार्वभौमिकता घोषणा से प्राप्त हुई जिसने गैर भेदभाव की एक समान्य मानक की स्थापना की है l संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने 1975 में ‘अन्तर्रष्ट्रीय महिला वर्ष ‘ के रूप में घोषित किया l

महिलाओ की प्रास्थिति से सम्बंधित अन्तरराष्ट्रीय दस्तावेज 

(1) महिलाओं के राजनीतिक अधिकार का अधिमान्य (1952) 

यह अभिसमय संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र में द्रणतापूर्वक प्रतिपादित “पुरुषों और महिलाओ के समान अधिकार” के सिद्धांत को ठोस रूप प्रदान करता है l इसके अनुच्छेद 1 से 3 में महिलाओं के अधिकारों से सम्बंधित उपबंध है l

अनुच्छेद -1 पुरुषों के साथ बराबर के स्तर पर मत देने का अधिकार 

(2) महिलाओ के विरुद्ध, सभी प्रकार के भेदभाव के समापन सम्बन्धी अभिसमय [CEDAW] 1979

यह अभिसमय छः भागों और 30 अनुच्छेदों में बंटा हुआ है l

  • अनुo 1- “महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव को परिभाषित करता है l” सेक्स के आधार पर किया गया कोई भी भेदभाव, वहिस्करण या प्रतिबन्ध, जिसका प्रभाव या उद्देश्य महिलाओं द्वारा मान्यता, आनन्द या व्यायाम क्षीण करना या कम करना है l चाहे वे अपने वैवाहिक स्थिति के वावजूद, पुरुषों और महिलाओं की समानता के आधार पर, मानव अधिकारों के आधार पर हो और उसे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नागरिक, या किसी अन्य क्षेत्र में मौलिक स्वतंत्रता l
  • अनुo 10, 11, 12 में शिक्षा नियोजन औए स्वास्थ्य के क्षेत्र में भेदभाव रोकने का उपबंध करता है l
  • अनुo 15- महिलाओं के लिए पुरुषों के समान विधि के समक्ष समता का अधिकार प्रदान करता है l
  • अनुo 16- विवाह और पारिवारिक मामलों में भेदभाव को रोकने की बात करता है l

शिक्षा के भेदभाव के विरुद्ध अभिसमय, 1960

यह अभिसमय सिक्षा के मामले में भेदभाव के लिए लिंग को एक अनुज्ञेय आधार मानता है l

भारतीय स्थिति 

भारतीय समाज में महिला एक महत्वपूर्ण स्थान और बंदनीय स्थान रखती है l भारत में महिलाये सबसे कमजोर वर्ग बनती जा रही है l महिलाओ के खिलाफ हिंसा, यौन उत्पीडन, भ्रूण हत्या आदि l

केंद्र सरकार और राज्यों द्वारा पारित संविधान और विभिन्न अधिनियम महिलाओं को उनकी कमजोर स्थिति से अवगत कराते हुए विशेष सुरक्षा प्रदान करते है l

संवैधानिक प्रावधान 

भारत का संविधान महिलाओं को समनाता के अधिकार की गारंटी देता है l

अनुo 14- प्रस्तावना व्यक्त समानता के विचार का प्रतीक है l

अनुo 15(1) व (2) के अंतर्गत जहाँ धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग व जन्म स्थान के आधार पर विभेद को प्रतिबंधित किया गया है l

अनुo 15(3), अनुo 15(2) में दिए गए नियम का अपवाद है l

केस- मूलर बनाम ओरेगन 

इस वाद में अमेरिकन न्यायलय ने कहा की अस्तित्व के संघर्ष में महिलाओं के शारीरिक बनावट तथा स्त्रीजन्य कार्य उन्हें दुखद स्थिति में कर देते है l अतः इनकी शारीरिक कुशलता का संरक्षण जनहित का उद्देश्य हो जाता है l जिससे जाति, शक्ति, और निपुणता की सुरक्षित रक्षा की  जा सके l

केस – अब्दुल युसूफ अजीज बनाम स्टेट ऑफ़ बम्बई [ AIR1954SC321]

इस मामले में यह कहते हुए चुनौती दी गई थी कि धारता के मामलों में स्त्रियों में उत्तरदायी नहीं मानना असंवैधानिक है l लेकिन उच्च्तम नयायालय ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुये कहा कि स्त्रियों के लिए की गयी यह व्यवस्था केवल लिंग के आधार पर नहीं की जाकर उनके विशेष स्थिति के कारण की गई है l

अनुo 15(3) के ही प्रावधानों का सहारा लेकर संसद ने 1990 में “राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम” पारित किया l

अनुo 16 में लोक नियोजन में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग व जन्म स्थान के आधार पर विभेद का निषेध किया गया है अर्थात “समान कार्य के लिए समान वेतन” संरक्षण प्रदान किया गया है l

केस – उत्तराखण्ड महिला कल्याण परिषद् बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तरप्रदेश [ AIR1992SC1965]

इस मामले में उच्चतम न्यायलय ने कहा कि समान कार्य के लिए वेतन के संदाय में पुरुषों व महिलाओं के बीच भेदभाव नहीं किया जा सकता है l

* अनुo 23 एवं 24 – स्त्रियों के अनैतिक व्यापार, दास प्रथा बेगार, बलातक्षय, बन्धुआ, मजदूरी आदि का निषेद किया गया है l

* अनुच्छेद 21-  न्यायिक निर्णयों द्वारा महिलाओं के लिए सम्मान जनजीवन जीने के लिए अनुकूल बनाया गया है। 

* अनुच्छेद 42 महिलाओं के लिए प्रसूति सहायता की व्यवस्था करता है। संसद में प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम 1961 पारित किया।

*  यह अधिनियम कतिपय स्थानों में शिशू जन्म से पूर्व और पश्चात् भी कतिपय कालावधियांे में महिलाओं के नियोजन की विनियमित करने तथा प्रसूति प्रसुविधा और कतिपय अन्य प्रसुविधाओं का उपवन्ध करने के लिए पारित किया गया।

* अनुच्छेद 43 कामगारों के लिए निर्वाह मजदूरी का प्रावधान करता है, इसमें महिलाऐं भी शामिल है।

* अनुच्छेद 39 ()- पुरूषो और स्त्रियों दोनो के लिऐ समान कार्य के लिए समान वेतन का उपवन्ध करता है। 

संविधान के 73 वे एवं 74 वे संसोधन में जो 1992 में किया गया इसके द्वारा पंचायती राज्य संस्थाओं एवं स्वायत्त स्थानी संस्थाओं मे महिलाओं के लिए एक तिहायी स्थान आरक्षित किए गये अनुसूचित जाति एवं अनूसूचित जनजाति महिलाओं के लिए भी विशेष आरक्षण की व्यवस्था की गयी। 

अपराधो के विरुद्ध महिलाओं को संरक्षण प्रदान करने के लिए यद्धपि भारतीय दंड सहिंता ,1860 में कई व्यव्स्थ्यायें पहले से ही कर दी गई थी लेकिन 20वी सदी में इसमें और कई नए प्रावधान कर महिलाओं के अपराधों से संरक्षण प्रदान किया गया l महिलाओं के प्रति बढ़ते हुए क्रूरता पूर्ण व्यव्हार का निवारण करने के लिए सन 1983 में भारतीय दंड संहिता में एक नयी धारा 498 जोड़ी गई l स्त्री के साथ क्रूरता पूर्ण व्यवहार करने वाले व्यक्ति के लिए 3 बर्ष तक अवधि के कारावास सजा का प्रावधान किया गया l यह व्यवस्था खास तौर से दहेज़ के पीछे स्त्रियों के साथ किये जाने वाले निर्दयता पूर्ण व्यवहार को रोकने के लिए की गई है 

केस – पवन कुमार बनाम स्टेट ऑफ़ हरियाणा [AIR1998SC958]

इस मामले में वधु को ताने मारने, वधु के साथ दुर्व्यवहार करने तथा उसे मानसिक पीड़ा पहुँचाने आदि को निर्दयतापूर्ण व्यवहार माना गया है l

केस -अकूला रविन्द्र बनाम स्टेट ऑफ़ आँध्रप्रदेश [AIR1991SC1142]

इस मामले में पति द्वारा पत्नी को अक्सर परेशांन करने तथा उससे दहेज़ की मांग करने की उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्दयतापूर्ण व्यवहार माना गया है l

1968 में भारतीय दंड संहिता में एक नयी धारा 304(ख) अन्तः स्थापित की गई l यह धारा दहेज़ म्रत्यु के बारे में प्रावधान करती है इसमें साफ तौर पर यह व्यवस्था की गई है की पत्नी के विवाह के 7 वर्ष के भीतर असामान्य परिस्थितियों में म्रत्यु हो जाने पर यह माना जायेगा कि उसकी म्रत्यु पति अथवा रिश्तेदारों के कारण हुई है यदि यह साबित हो जाता है कि उस अवधि में दहेज़ की मांग को लेकर पति व उसके रिश्तेदारों द्वारा पत्नी को सताया या परेशान किया गया था l

केस – श्री मति शान्ति बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा [AIR1991SC1226]

इस मामले में पति व परिजनों द्वारा पत्नि से दहेज की मांग करने पत्नि को परेशान करने तथा पत्नि के सात वर्ष के भीतर मर जाने को उच्चतम न्यायालय द्वारा धारा 304 (ख) के अन्र्तगत दहेज मृत्यू का मामला माना गया। तथा कथित मृत्यू की उपधारणा के संबंध में साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 113 (ख) में व्यवस्था की गयी यह धारा 1986 में जोड़ी गयी।

स्त्रियों की लज्जा भंग,अपहरण,व्यहरण,बलात्कार, अप्रक्रातिक मैथुन आदि के बारे में व्यवस्था भारतीय दंड संहिता में पहले से मिलती है। सन् 1983 के संसोधन द्वारा भारतीय दंड संहिता में नई धारायंे 376 (क), 376 (ख),376(ग),376 (घ) आदि को जोड़कर स्त्रियों की अस्मिता की रक्षा का भार ढ़ोने वाले लोकसेवकों द्वारा बलात्कार किये जाने पर उनकों कठोंर दंड की व्यवस्था की गई।

केस -स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र बनाम प्रकाश [AIR1992SC1257]

इस मामले में एक पुलिस कर्मी द्वारा श्रमिक महिला के साथ बलात्कार किए जाने की घटना कों उच्चयतम न्यायालय ने गंभीरता से लिया।

भारतीय दंड संहिता की धारा 354 में ऐसें यौंन उत्पीड़न के लिए व्यवस्था की गई है।

केस -स्टेट ऑफ़ पंजाब बनाम गुरमीत सिंह [AIR1996SC1393]

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह राय व्यक्त की गई बलात्संग जैसे मामलों की सुनवाई यथा संभव महिला न्यायाधीशों द्वारा की जानी चाहिए।

केस – विशाका बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान [AIR1997SC3011]

उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कामगार महिला का यौंन उत्पीड़न लैंगिंक समता का अधिाकार तथा प्राण और स्वतंत्रता का अधिकार का उल्लघन है।

दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 में ऐसी उपेक्षित महिलाओं के लिए भरण-पोषण का प्रावधान किया गया।

केस -डॉ. रणजीत कुमार भट्टाचार्य बनाम श्रीमति सावित्री भट्टाचार्य [AIR1996SC301]

इस मामले में  उच्चतम न्यायालय में यहाॅ तक कह दिया कि कोई भी व्यक्ति किसी स्त्री के साथ पति के रूप में रहकर अंततः भरण-पोषण से कह कर मुकर नही सकता कि वह उसकी विवाहिता पत्नि नहीं है।

किसी समय असहाय एवं अवला समझी जाने वाली नारी आज पूर्णतया सुरक्षित है उसके हित सुरक्षित है। कानून के अंतर्गत महिला हितो को पूर्ण संरक्षण प्रदान किया गया है।

केस – चन्दा राजकुमारी बनाम फलिश आयुक्त हैदराबाद [AIR1998AP302]

इस मामलें में यह कहा गया हैं कि नारी केवल एक व्यक्ति ही नही अपितु एक शक्ति भी है उसके हितो की रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है महिला हितो के संरक्षण से जुड़े मुख्य-मुख्य कुछ कानून निम्न प्रकार है-

लज्जा भंग से संरक्षण – 

भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 354 में स्त्री की लज्जा भंग को दंडनीय अपराध घोषित किया गया है। स्त्री की लज्जा भंग से अभिप्रायः लज्जा भंग के आशय से उस पर किऐ जाने वाले हमले अथवा अपराधिक वल प्रयोग से है किसी स्त्री को निर्वस्त्र कर देना , उसे गिरा देना ,उसके किसी अंग को छूना लज्जा भंग है।

केस- श्रीमति रूपन देवल बनाम के.पी.एस गिल [AIR1996SC309]

इस मामले में किसी स्त्री के कूल्हे पर हाथ मारने को स्त्री की लज्जा भंग माना गया है।

बलात्कार से संरक्षण – 

भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 376 बलात्कार को दंडनीय अधिकार घोषित करती है। बलात्कार से अभिप्रायः है- किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरूद्ध या उसकी सहमति के विना या उसे धमकी देकर अथवा दबाव या प्रलोभन द्वारा सहमति प्राप्त कर उसे मृत्यू या उपक्षति या भय बताकर या उसे स्वंय को अपना मिथ्या पति बताकर लैंगिक संभोग (मैथुन) करना। यदि स्त्री की आयू 16 वर्ष से कम है तो उसकी सहमति कोई दर्ज नही है।

केस- जसवंत सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब [AIR1996SC309]

इस मामले उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि अभियुक्त द्वारा अभियोक्ति को घर से बुलाकर – फुसलाकर ले जाना और उसके साथ बार-बार बलात्कार करना एक गंभीर अपराध है ऐसे मामलों में सजा में कमी किया जाना न्यायोचित नहीं है।

यौंन उत्पीड़न से संरक्षण- 

कामकाजी महिलाओं का यौंन उत्पीड़न से संरक्षण उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय की महत्वपूर्ण देंन है।

केस -विशाका बनाम राजस्थान राज्य [AIR1997SC3011]

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा राज्यों से यह कहा गया हैं कि वे कामकाजी महिलाओं के साथ यौंन उत्पीड़न के निवारण के लिए कानून बनाए किसी कामकाजी महिला से शारीरिक संपर्क करना या संपर्क करने का प्रयास करना , उसके समक्ष यौंन संपर्क का प्रस्तव रखना , अश्लील टिप्पणियाॅ करना , उसे कामोत्तेजक चित्र बताना आदि को यौंन उत्पीड़न बताया गया है।

देह शोषण अथवा प्रदर्शन से संरक्षण – 

आज नारी देह शोषण अथवा देह प्रदर्शन की शिकार है विज्ञापनों एवं सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के नाम पर नारी का देह शोषण एवं देह प्रदर्शन किया जा रहा है। महिमाओं का अशिष्ट रूपण (निषेध) अधिनियम 1986 की धारा 6 में इसे अधिकतम 5 वर्ष तक की अवधि के कारावास अथवा 1 लाख रूप्ये तक जुर्माने से दंड़नीय अपराध घोषित किया गया है किसी स़्त्री की आक्रति अथवा शरीर को अशिष्ट रूप से प्रदशित करना ,उसके चरित्र को कलंकित करने वाला कोई चित्र, विज्ञापन आदि प्रस्तुत करना नारी अशिष्ट रूपण माना गया है।

केस- चन्दा राजकुमारी बनाम पुलिश आयुक्त हैदराबाद [AIR1996SC309]

इस मामले में आन्ध्रप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि -सौन्दर्य प्रतियोगिता के नाम पर नारी का देह-शोषण अथवा देह-प्रदर्शन नही किया जा सकता। सौन्दर्य का प्रदर्शन बुरा नही है। लेकिन आपत्तिजनक रूप् में प्रस्तुत किया जाना दण्डनीय अपराध है।

घरेलू हिंसा संरक्षण – 

अब नारी घरेलू हिंसा से भी पुर्णतया सुरक्षित है। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 महिलाओं को शारीरिक,भावनात्मक,लैंगिक एवं आर्थिक हिंसा के विरूद्ध संरक्षण प्रदान करता है। घरेलू हिंसा से पीड़ित महिला अधिनियम की धारा 12 के अन्तर्गत संरक्षण एवं उपचार हेतु मजिस्ट्ेट से आवेदन कर सकती है। धारा 18 से 22 तक के अन्तर्गत मजिस्ट्रेट घरेलू हिंसा से पीड़ित नारी के संरक्षण ,निवास,आर्थिक सहायता ,अभिरक्षा ,प्रतिकर आदि के बारे में आदेश दे सकेगा। ऐसे आदेश की पालना नही करने वाले व्यक्ति के लिए धारा 31 के अन्तर्गत एक वर्ष तक की अवधि के कारावास अथवा 20,000/रू तक जुर्माना का प्रावधान है।

केस -श्रीमति गायत्री बनाम एल.आर.जय रमन [AIR2010NOC412]

इस मामले में अभिनिर्धाति किया गया है कि घरेलू हिंसा के मामले में पति की महिला नातेदार प्रत्यर्थी हो सकता है।

बाल विवाह से संरक्षण 

महिलाओं को बाल विवाह से निजात दिलाने के लिए भी कानूनी संरक्षण प्रदान किया गया है। ’’बाल विवाह (निषेद) अधिनियम 2006 के अन्तर्गत बाल विवाह

को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है। नये अधिनियम में बाल विवाह को शून्यकरणीय भी बना दिया गया है। अब बाल विवाह का पीड़ित व्यक्ति ऐसे विवाह को शून्य घोषित करा सकता है। बालक से बाल विवाहज को रोकने के लिए धारा 13 के अन्तर्गत न्यायालय से आदेश भी प्राप्त किया जा सकता है। बालक से अभिप्राय यहा पुरूष की दशा में 21 एवं स्त्री की दशा में 18 वर्ष से कम आयू से है।

केस – डॉ. शिवकुमार बनाम इन्सपेक्टर ऑफ़ पुलिस तिरूवेलूर पुलिश स्टेशन [AIR2012मद्रास62]

इस मामले में बाल विवाह को मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा शून्यीकरण माना गया है। 

दहेज से संरक्षण – 

दहेज समाज पर एक कलंक है तथा महिलाओं के लिए अभिशाप है। दहेज के कारण आज अनेक महिलाए अकाल मृत्यू की शिकार हो रही है अतः दहेज की रोकथाम के लिए दहेज प्रतिषेद अधिनियम,1961 में दहेज की मांग को दंडनीय अपराधा घोषित किया गया है। इतना ही नही भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 304 (ख) में दहेज मृत्यू को एक गम्भीर अपराध मानते हुये इसे आजीवन कारावास से दंडनीय बनाया गया है। दहेज के पीछे आत्म-हत्या को भी दहेज-मृत्यू माना गया है।

केस- प्रदीपसिंह बनाम झारखण्ड राज्य [AIR2007SC2154]

क्रूरतापूर्ण आचरण से संरक्षण- 

महिलाओं के साथ क्रूरतापूर्ण आचरण अथवा व्यवहार आज एक सामान्य बात हो गई है। शारीरिक एवं मानशिक यातनाऐं देने की घटनायें प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति में ऐसे क्रूरता पूर्ण आचरण अथवा व्यवहार को रोकने के लिए भारतीय दंड संहिता ,1860 में एक नई धारा 498 (क) जोड़कर इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है। निर्दयतापूर्ण आचरण से अभिप्राय ऐसे किसी भी आचरण अथवा व्यवहार से है। जो किसी स्त्री के शरीर,स्वास्थ,अथवा जीवन को संम्………… बना दे इसके लिए तीन वर्ष तक की अवधि के कारावास का प्रावधान है। 

केस – अमलेटू पाल बनाम स्टेट आॅफ वेस्ट बंगाल [AIR2012मद्रास62]

इस मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है पत्नी द्वारा पति को दूसरा विवाह करने के लिए अनुमति नही दिये जाने पर पति द्वारा पत्नी के साथ क्रुरतापूर्ण व्यवहार किया जाना धारा 498 (क) के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध है।

सती निवारण अधिनियम (1987)- 

सती निवारण अधिनियम सती के अत्याधिक प्रभावी ढंग से निवारण और उससे सम्बंधित मामलों के लिए उपबन्ध करने हेतू, अधिनियम किया गया है। ज्ञातव्य है कि सती प्रथा को भारत में अंग्रेजो ने विधि द्वारा 1829 में प्रतिबन्धित कर दिया है।

केस – सरदार सैय्यदना ताहिर सैफुद्दीन बनाम स्टेट ऑफ़ बम्बई [AIR1962SC853]

इस मामले में इस प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाने वाली विधि सवैधानिक है। राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम-ः यह अधिनियम राष्ट्रीय महिला आयोग साबित करने के लिए और इससे सम्बधित अथवा संमाश्विक मामलों के बारे में उपबन्ध करने हेतु अधिनियम किया जाता है।

यह अधिनियम राष्ट्रीय महिला आयोग के गठन का उपबन्ध करता है तद्नुसार एक राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन किया गया है यह एक संविधिक संस्था है इसके कार्यो को विस्तृत सूची अधिनियम की धारा 10 में दी गई है

महिला संरक्षण अधिनियम 1990 की धारा 10 में आयोग के कृत्यो का वर्णन-

1.महिलाओं के लिए संविधान और अन्य विधियों के अधीन उपबंधित संस्थाओं से संबधित सभी विषयों का अन्वेषण और परीक्षण करना ।

2.इन रक्षापालों के कार्यकरण के बारे में प्रतिवर्ष,और ऐसे अन्य समय पर जो आयोग ठीक समझे केन्द्रीय सरकार को रिपोर्ट देगा।

3.ऐसी रिपोर्टो में महिलाओं की दशा सुधारने के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा इन रक्षापालों के प्रभावी क्रियान्यवयन के लिए सिफारिस करना।

4.संविधान और अन्य विधियों के उपवन्धों के महिलाओं से सवंधित के मामलों को समुचित प्राधिकारियों के समक्ष उठाना।

5.संघ और राज्य के अधाीन महिलाओं के विकास की प्रगति मूल्याकंन करना।

6.किसी जेल,सुधार ग्रह महिलाओं की संस्था या अभिरक्षा के अन्य स्थान का जहाक्र महिलाओं कों बंदी के रूप् में या अन्यथा रखा जाता है, निरीक्षण करना या करवाना और उपचारी कार्यवाही के लिए

 यह आयोग,साम्या,समानता और न्याय प्राप्त करने लिए प्रयत्न करता है। 

निष्कर्ष- 

कानून में महिलाओं के क्षेत्र में बहुत सारे सामाजिक वदलाव लाए है जैस हम जानते है कि हर सिक्के के दो पहलू होते है। इसलिए अभी भी ऐसे हाल है जहाँ सुधार लाने की आवश्यकता है कानून हमेशा समाज में बदलाव में योगदान नही देता है। लेकिन कभी-कभी समाज को पहल करनी चाहिए हर महिला पुरूषों के रूप समाज में अपनी स्थिति और स्थिति में बृद्धि की इच्छा रखती है। इस तरह के बदलाव के लिए एक स्वास्थ वातावरण की आवश्यकता है। जो अभी भी हमारे देश में उपलब्ध नहीं है। हाॅलाकि हमारे देष में पर्यावरण में सुधार के लिए कई संरचनात्मक और वैधानिक परिवर्तन समय के साथ किए गये है यह देखा जा सकता है कि प्रत्येक महिला समाज में स्वतं़त्रता ,समानता और स्थिति को तोड़ रही है।

इस प्रकार अब नारी पूर्णतया सुरक्षित है। उसके हितोू के संरक्षण के लिए उनेक कानून विद्यमान है संविधान में नारी हितो को पर्याप्त संरक्षण प्रदान किया गया है।

 सन्दर्भ

* विधि एवं सामजिक परिवर्तन- डॉ. बसन्ती लाल बावेल

* मानव अधिकार – डॉ. टी.पी. त्रिपाठी

* भारत का संविधान – डॉ. जय नारायण पाडेंय

* https://Ipleaders.in

 

यह आर्टिकल Nandini Singh के द्वारा लिखा गया है जो की LL.M. Istसेमेस्टर Dr. Harisingh Gour central University,sagar की  छात्रा है |