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अजुध्या प्रसाद बनाम चन्दन लाल, 1937 | Ajudhia Prasad v. Chandan Lal A.I.R. 1937 All. 610 (F.B.)

अजुध्या प्रसाद बनाम चन्दन लाल, 1937 | Ajudhia Prasad v. Chandan Lal A.I.R. 1937 All. 610 (F.B.)

अजुध्या प्रसाद बनाम चन्दन लाल A.I.R. 1937 All. 610 (F.B.)

भूमिका – अजुध्या प्रसाद बनाम चन्दन लाल का वाद अवयस्क द्वारा कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन, संविदा अधिनियम की धारा 64 तथा 65 आदि से सम्बन्धित है।

अजुध्या प्रसाद बनाम चन्दन लाल के वाद में प्रतिपादित नियम –

इस वाद को प्रत्यर्थी ने अपीलार्थी के विरुद्ध किया था। अपीलार्थी ने प्रत्यर्थी के पक्ष में बन्धक-विलेख (Mortgage Deed) निष्पादित किया था। अपीलार्थी ने वाद का विरोध इस तर्क पर किया कि विलेख निष्पादित किये जाने के समय वह अवयस्क था। अपीलार्थी ने अवयस्कता के तथ्य को कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन द्वारा छिपाया था। वह उस समय 18 वर्ष से अधिक था, परन्तु 21 वर्ष से कम था और उसके लिए एक अभिभावक नियुक्त था।

अपीलार्थी ने इस विलेख द्वारा अपने विवाह आदि के लिए धन प्राप्त किया था। निम्न न्यायालय ने निर्णय दिया था कि अपीलार्थी अवयस्क है, क्योंकि वह 21 वर्ष से नीचे है और उसके अभिभावक नियुक्त हैं। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया था कि वह कपटपूर्ण मिथ्या-व्यपदेशन का दोषी था।

लाहौर उच्च न्यायालय के वाद खानगुल बनाम लाखन सिंह (1928) Lah 701] में मुख्य न्यायाधीश शादीलाल द्वारा प्रतिपादित सिधांत को मानते हुए न्यायालय ने अवयस्क के विरुद्ध निर्णय दिया था। इस आदेश के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक अपील की गई।

निर्णय- इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्ण बेंच ने निर्णय दिया कि बन्धक-विलेख को लागू नहीं किया जा सकता है, अर्थात् उन्होंने अवयस्क के पक्ष में अपना निर्णय दिया।

अजुध्या प्रसाद बनाम चन्दन लाल के वाद में प्रतिपादित सिद्धान्त –

(1) इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अंग्रेजी वाद लेजली बनाम शील (Leslie . Sheill) को उचित मानते हुए अपना निर्णय दिया। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि जब कोई अवयस्क कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन द्वारा किसी संविदा में कोई लाभ प्राप्त करता है तो प्रत्यास्थापन के साम्या सिद्धान्त के अनुसार उसे वह लाभ लौटाने के लिए बाध्य किया जा सकता है। परन्तु अवयस्क को तभी ऐसा लाभ वापस करने को बाध्य किया जा सकता है जबकि जो सम्पत्ति उसने प्राप्त की है, वह पहचानी जा सके।

(2) इस मामले में संविदा अधिनियम की धारा 64 तथा 65 को लागू नहीं किया जा सकता है. क्योंकि ये धारायें इस बात की परिकल्पना पर आधारित हैं कि संविदा के पक्षकार संविदा करने के लिए सक्षम है क्योंकि अवयस्क संविदा करने के लिए सक्षम नहीं है अतः उसके सम्बन्ध में ये धारायें लागू नहीं होंगी।

अजुध्या प्रसाद बनाम चन्दन लाल वाद की आलोचना तथा निष्कर्ष- इलाहाबाद उच्च न्यायालय को पूर्ण बेंच ने लेजली बनाम शील में प्रतिपादित सिद्धान्त को उचित घोषित किया तथा खानगुल बनाम लाखन सिंह में प्रतिपादित सिद्धान्त मानने से इन्कार कर दिया। परन्तु इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा इस वाद में दिये गये निर्णय अब मान्य नहीं हैं. क्योंकि विशिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 33 (2) (b) में खानगुल बनाम लाखन में मुख्य न्यायाधीश शादीलाल द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त को उचित माना गया है।

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