सार (abstract)
- प्रत्येक व्यापार उद्यम के लिए अपना ब्रांड वैल्यू विकसित करने के लिए सार को सर्वोच्च आयात कहा जाता है।
- इस प्रकार ट्रेडमार्क ऐसी पहचान के गठन में प्रमुख भूमिका निभाता है और राजस्व सृजन में मदद करता है।
- यहां यह ध्यान देने की बात है कि यदि व्यापार चिन्ह किसी सफल व्यापार की संभावनाओं को बढ़ाता है तो उसका दुरुपयोग करने अथवा उल्लंघन करने के मामलों में बहुत ही खतरा रहता है।
- उल्लंघन का एक ऐसा तरीका उपभोक्ताओं को भ्रमित करने और पहले से स्थापित व्यापार चिन्ह की सद्भावना को नकदी में करने के लिए पहले से मौजूद व्यापार चिन्ह के लिए”भ्रामक रूप के समान”ट्रेडमार्क बनाने के माध्यम से है।
- यह न केवल मूल व्यापार चिन्ह धारक की प्रतिष्ठा के लिए एक सवाल डालता है बल्कि आर्थिक हानि का भी परिणाम है।
प्रस्तावना(introduction)
- बौद्धिक संपदा अधिकार को लागू करने से लोग अपनी रचनात्मकता और इनोवेटिव गतिविधि के बाहरी क्षेत्रों में ओनरशिप के अधिकारों का दावा उसी तरह करने की अनुमति देते हैं जिस तरह से वे भौतिक संपत्ति का मालिक बन सकते हैं।
- ट्रेडमार्क बौद्धिक संपदा का एक क्षेत्र है और इसका उद्देश्य उत्पादक या उस सेवा की रक्षा करना है।
- ट्रेडमार्क एक विशिष्ट, चिन्ह या सूचक है जो एक व्यक्ति, व्यापार संसूचक, जनसंपर्क या अन्य वैद्य इकाई द्वारा पहचान की गई उपभोक्ता को अभिज्ञात करने के लिए प्रयोग किया जाता है कि ट्रेडमार्क अपीयर्स और यूनिट्स फ्रेम, एक विशिष्ट स्रोत, नामित तेल या सेवा को ट्रेड चिन्ह से उत्पन्न करता है और अन्य संस्थाओं को ट्रेडमार्क में थी उपयोगिता या सेवाओं से पृथक करता है।
- व्यापार चिन्ह का विशेष कार्य केवल कमर्शियल स्रोत या ओरिजिन उत्पाद या सेवा की पहचान करना है, इसलिए व्यापार चिन्ह की सही नाम से प्रसिद्ध व्यापार चिन्ह का ट्रेडमार्क उनके मालिकों को वैधानिक अधिकार प्रदान करता है, जिससे बे दूसरों को confusingly चिन्ह का उपयोग ना कर सके।
भारत में ट्रेडमार्क विधि का इतिहास
- 1877 – भारत में व्यापार चिन्ह कानून की शुरुआत करने की पहली मांग मुंबई सरकार की तत्कालीन सरकार के लिए बॉम्बे मिल मालिक एसोसिएशन ने की थी।
- 1879 – हालांकि इंपीरियल लेजिसलेटिव काउंसिल में एक बिल पेश किया गया था, किंतु इस प्रक्रिया का कोई परिणाम नहीं था।
- हालांकि ट्रेडमार्क शासित कानून को भारतीय दंड संहिता 1860 में कानूनी मान्यता मिली, और स्पेसिफिक रिलीफ एक्ट,1877(जो निषेधाज्ञा के अनुदान द्वारा व्यापार चिन्हों के उपयोग पर अंकुश लगाने के लिए उपबंध है।)
- 1940 – भारत में ब्रिटिश ट्रेडमार्क अधिनियम 1938 को आधार लिया और अधिनियम को 1940 का ट्रेडमार्क अधिनियम के रूप में तैयार किया और पहली बार भारत में ट्रेडमार्क के पंजीकरण और सांविधिक संरक्षण के लिए एक मशीनरी पेश की।
- 1958 – व्यापार और वाणिज्य चिन्ह अधिनियम 1958 मैं ट्रेडमार्क अधिनियम 1940 का स्थान अधिनियम 1958 ने लिया।
इस अधिनियम का उद्देश व्यापार के लिए ट्रेडमार्क के पंजीकरण और बेहतर संरक्षण तथा व्यापारिक वस्तुओं पर धोखाधड़ी के चिन्हों के प्रयोग को प्राथमिकता प्रदान करना था।
- 1999 – भारतीय ट्रेडमार्क कानून को देश के दौरे के दायित्यवो के अनुरूप लाने के लिए एक नया ट्रेडमार्क रेजीम ट्रेडमार्क अधिनियम 1999 शुरू किया गया और अधिनियमित किया गया।
- 2003 – ट्रेडमार्क अधिनियम, 1999 सितंबर 15. 2003 को लागू हुआ।
व्यापार संघ अधिनियम, 1999 के तहत नए कानून ने न केवल अनुमानित न्यूनतम संरक्षण मानकों को शामिल करते हुए महत्वपूर्ण परिवर्तन किए, बल्कि विद्यमान विधिशास्त्र को भी शामिल किया।
परिभाषा ( definition)
“भ्रामक समान”को उन ट्रेडमार्क के रूप में जाना जाता है जो समान होते हैं या धोखा देने के लिए मौजूदा ट्रेडमार्क के समान दिखते हैं या उपभोक्ताओं को भ्रम पैदा करने के लिए। व्यापार चिन्ह अधिनियम, 1999 की धारा 2 (1) के खंड (एच) के अनुसार”एक चिन्ह दूसरे चिन्ह के समान भ्रामक माना जाएगा यदि वह दूसरे चिन्ह के जैसा दिखता है या भ्रम उत्पन्न करता है”।
माल के बारे में प्रवंचना या भ्रम तब उत्पन्न होता है जब कोई व्यक्ति माल पर चिन्ह को देखते हुए यह विचार करता है कि यह वही ब्रांड है जिसे वह खरीदना चाहता है लेकिन वस्तुतः ऐसा नहीं होता है आजकल व्यापारिक जगत में यह बहुत सामान्य है।
सरल शब्दों में भ्रामक समानता को ट्रेडमार्क के बीच समानता के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है, जो औसत बुद्धि की आम जनता को यह विश्वास करने के लिए धोखा दे सकता है कि प्रश्न सूचक चिन्ह किसी ना किसी तरह से पंजीकृत या किसी प्रसिद्ध ट्रेडमार्क से जुड़ा हुआ है।
Deception can arise with regard to:-( a) -deception as to good
(b) -deception age to trade origin
(b)-deception as trade connection
Test ground of deceptive similarity case laws:
उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए विभिन्न निर्णयो के अनुसार कई शर्तें हैं जिन पर भ्रामक इसी तरह के अंकों के लिए विचार करने की आवश्यकता है:-
- ध्वन्यात्मक और दृश्य समानता के सिद्धांत ( principle of phonetic and visual similarity)।
- संपूर्णता नियम (rules of intirety)।
- संभावना और भ्रम का परीक्षण (test of likelihood and confusion)।
- सद्भावना(goodwill)।
केस :- essco sanitations वर्सेस मैंस्कट industries ( India) (ए आई आर 1982)।
इस बार में न्यायालय ने ESSCO और OSSO दो प्रतियोगी शब्दों की समरूपता के बारे में विचार व्यक्त किया कि चिन्ह” इतना समरूप जिससे धोखा हो जाए”पद की व्याख्या करते समय निम्नलिखित तत्वों पर ध्यान दिया जाना चाहिए:
- चिन्हों की प्रकृति;
- चिन्ह ध्वन्यात्मक और दृश्य के बीच समरूपता के साथ-साथ विचार में समानता;
- माल जिसके बारे में चिन्ह प्रयुक्त है, या व्यापार चिन्ह के तौर पर उपयोग किया जाना संभव है;
- प्रतिस्पर्धा व्यापारियों के माल की प्रकृति, लक्षण और प्रयोजन में समानता;
- खरीदारों का वर्ग जिनके द्वारा चिन्ह लगे माल का खरीदा जाना संभव है, उनकी शिक्षा और समझ का स्तर और उनके द्वारा माल खरीदते समय सावधानी बरतने की संभावित मात्रा;
- माल को खरीदने या माल का आर्डर देने का ढंग ;और
- आसपास की अन्य परिस्थितियां।
उपर्युक्त मानदंडों को लागू करते हुए न्यायालय ने निर्धारित किया कि मैस्कट इंडस्ट्रीज द्वारा अंगीकृत चिन्ह OSSO रजिस्ट्री कृत व्यापार चिन्ह ESSO के इतना समरूप है कि धोखा हो सकता है।
केस:- बनवारी दास पुगालिया बनाम कॉलगेट पामालिव कंपनी( ए आई आर 1979 कोलकाता)।
व्यापार उत्पत्ति के बारे में प्रबंचना या भ्रम तब उत्पन्न होता है जब कोई व्यक्ति माल पर चिन्ह को देखते हुए यह समाधान कर लेता है कि माल उसी विनिर्माता द्वारा उत्पादित है जिससे वह परिचित है जबकि वह चिन्ह अन्य विनिर्माता द्वारा उत्पादित माल पर अंकित होता है।
Held – बनवारी दास के बाद में कोलकाता उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम इस बारे में कोई मानक निर्धारित नहीं करता है कि किस बात से प्रवंचना या भ्रम कारित होना संभाव्य है, इसलिए प्रत्येक वाद विशिष्ट तथ्यों पर निर्भर करता है। इस बात पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि धारा वास्तविक भ्रम को नहीं बल्कि भ्रम की संभाव्यता को कसौटी मानती है।
केस:- पार्ले प्रोडक्ट्स बनाम जे.पी. एंड कंपनी, मैसूर (ए आई आर 1972 सुप्रीम कोर्ट)।
Held- पारले प्रोडक्ट के बाद में न्यायालय ने निर्धारित किया कि इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कि क्या एक चिन्ह दूसरे से इतना समरूप है कि धोखा हो जाए ,दोनों के व्यापक और सारभूत लक्षणों पर विचार होना चाहिए। यह देखने के लिए कि दोनों डिजाइनो में भिन्नता है दोनों को पास -पास रखना आवश्यक नहीं है।
केस:- करनप्रोडक्ट रिफायनिंग कंपनी बनाम संग्रीला फूड प्रोडक्ट्स लिमिटेड (ए आई आर 1960 सुप्रीम कोर्ट)
इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि दोनों शब्द GLUCOVITA और GLUVITA समरूप हैं और कोई भी भारतीय एक दूसरे के बारे में भूल कर सकता है। ये शब्द असावधान खरीदारों के मस्तिष्क में प्रवंचना और भ्रम कारित कर सकते हैं। न्यायालय ने आगे विचार व्यक्त किया कि दो चिन्हों के बीच समरूपता का प्रश्न निर्धारित करते समय औसत समझ वाले व्यक्ति के दृष्टिकोण और त्रुटिपूर्ण स्मरण – शक्ति पर विचार किया जाना चाहिए। ऐसे व्यक्ति के लिए समस्त संरचनात्मक और ध्वन्यात्मक समरूपता और दोनों चिन्हों के बीच विचार की समरूपता के कारण युक्तियुक्त तौर पर भ्रम कारित होना संभाव्य है।
केस:- अमृतधारा फार्मेसी बनाम सत्यदेव गुप्ता (ए आई आर 1963 सुप्रीम कोर्ट)।
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने “अमृतधारा “और “लक्ष्मण धारा “शब्दों पर विचार करते हुए अभिनिर्धारित किया कि शब्दों मैं समग्र संरचनात्मक और ध्वन्यात्मक समरूपता है। न्यायालय ने आगे अभिनिर्धारित किया कि व्यापार चिन्ह एक संपूर्ण विषय है, संपूर्ण शब्द पर विचार करना होगा।
केस:-कैडिला हेल्थ केयर लिमिटेड बनाम कैडिला फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड(ए आई आर 2001 सुप्रीम कोर्ट)
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यह भी महत्वपूर्ण है कि चिन्हों की संपूर्ण रूप से तुलना की जानी चाहिए। यह उचित नहीं होगा कि शब्द का एक अंश ले और कहे कि शब्द का अमुक अंश दूसरे शब्द के तत्समान अंश से भिन्न है इसलिए धोखा कारित के लिए पर्याप्त समरूपता नहीं है।
उपर्युक्त सभी मामलों में ध्वन्यात्मक समरूपता को एकमात्र निर्णायक कारक के रूप में नहीं लिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने “अमृतधारा फार्मेसी “के वाद में ‘समग्र संरचनात्मक और ध्वन्यात्मक समरूपता ,परीक्षण, कैडिला के वाद में”चाक्षुष और ध्वन्यात्मक”परीक्षण को लागू करने की आवश्यकता पर बल दिया। इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने ‘पारले प्रोडक्ट’ के मामले में”व्यापक और सारभूत लक्षण”परीक्षण को लागू किया।
केस:-मैसर्स अरविंद लैबोरेटरीज बनाम एम. ए. रहीम (ए आई आर 2007 मद्रास)।
इस मामले में”IRIS”और” EYETEX”शब्दों की तुलना करते हुए रजिस्ट्रार ने पाया दोनों में संरचनात्मक या समग्र या चाक्षस समरूपता नहीं है यद्यपि जहां तक शब्दों के प्रथम अंश ‘ I’ और ‘EYE’ का प्रश्न है दोनों में ध्वन्यात्मक समरूपता है। चिन्ह न तो एक दूसरे के समान है न ही इतने समरूप है कि धोखा हो जाए।
केस:-केवल कृष्ण कुमार बनाम मैसर्स रोड़ी रोलन फ्लोर मिल्स प्राइवेट लमिटेड (एआईआर 2008 NOC दिल्ली)।
इस मामले में अपीलार्थी आटा का कारोबारी था और उसका रजिस्ट्री कृत व्यापार चिन्ह “शक्ति भोग” था। प्रत्यर्थी का व्यापार चिन्ह” शिवशक्ति” था।
न्यायालय ने निर्धारित किया की ‘शक्ति ‘शब्द के संबंध में किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता है इसलिए वादी के व्यापार चिन्ह का अतिलंघन नहीं हुआ है। (धारा 30)।
केस-: मुंबई आयल इंडस्ट्री प्राइवेट लिमिटेड बनाम बल्लालपुर इंडस्ट्रीज लिमिटेड ( AIR 1989) दिल्ली।
इस मामले में वादी ने यह भी कथित करते हुए वाद दायर किया कि प्रतिवादी ने अपने उत्पाद के लिए SHAPOLA शब्द का उपयोग करते हुए उस के रजिस्ट्रीकृत व्यापार चिन्ह SAFFOLA का अतिलंघन कारित किया है। वाद पत्र के प्रकथनों के अनुसार रजिस्ट्रीकृत व्यापार चिन्ह SAFFOLA का स्वामी है। वादी के अनुसार SAFFOLA और SHAPOLA दोनों शब्द ध्वन्यात्मक रूप से समान है, क्योंकि दोनों शब्दों के उपसर्ग और प्रत्यय समान हैं और F और P अक्षर मिलती-जुलती ध्वनि उत्पन्न करते हैं।
न्यायालय ने निर्धारित किया कि ” धारा 28″ के प्रावधानों के अधीन व्यापार चिन्ह का रजिस्ट्रीकरण स्वत्व धारी इसके उपयोग का अनन्य अधिकार रखता है। यदि कोई व्यक्ति व्यापार के अनुक्रम में ऐसे चिन्ह का उपयोग करता है। जो रजिस्ट्री कृत व्यापार चिन्ह के तदरूप या इतना समरूप है कि धोखा हो जाए तो ऐसे चिह्न का अतिलंघन होता है। चिन्हों को पूरी तरह देखने पर इस बात की पूरी संभावना बनती है कि दोनों चिन्ह भ्रम उत्पन्न कर सकते हैं क्योंकि दोनों ध्वन्यात्मक रूप तदरूप (similar) है।
NOTE :- अधिनियम की धारा 27 और 28 के अंतर्गत व्यापार चिन्ह के अतिलंघन की दशा में रजिस्ट्रीकृत व्यापार चिन्ह के स्वत्वधारी द्वारा वाद संस्थित करने के अधिकार का उल्लेख किया गया है।
धारा 29 यह अभिकथित करती है कि जब किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा रजिस्ट्रीकृत व्यापार चिन्ह का उपयोग किया जाता है जो विधि के अधीन चिन्ह का ऐसा उपयोग करने के लिए अधिकृत नहीं होता है तो व्यापार चिन्ह का अतिलंघन होता है।
केस-:मैसर्स जॉन ओके एंड मोहन लिमिटेड बनाम मैसर्स मिलियन abrasive s प्राइवेट लिमिटेड (ए आई आर 1994) दिल्ली।
इस मामले में कहा गया कि जहां पर रजिस्ट्रीकरण के लिए प्रस्तावित चिन्ह नितांत भिन्न एवं असमरूप है और जनता तथा उत्पाद के खरीदारों के बीच भ्रम या प्रवंचना कारित होना संभव नहीं है तो ऐसे प्रस्तावित व्यापार चिन्ह का रजिस्ट्रीकरण अवैध नहीं होता है।
केस-: निरमा केमिकल वर्क्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम निर्माण हाई स्कूल (ए आई आर 2011) NOC 1 2 5 Delhi।
इस मामले में वादी और प्रतिवादी दोनों शैक्षणिक संस्थान संचालित कर रहे हैं। Nirma वादी का रजिस्ट्रीकृत व्यापार चिन्ह। प्रतिवादियों द्वारा Nirman चिन्ह का उपयोग Nirma के इतना समरूप नहीं माना जा सकता कि धोखा हो जाए।
अतः प्रतिवादियों द्वारा प्रयुक्त Nirman शब्द न तो वादी के व्यापार चिन्ह और ना ही वादी के चिन्ह के प्रतिलिप्याधिकार का अतिलंघन है।
न्यायालय ने वादी के पक्ष में व्यादेश जारी करने से इंकार कर दिया।
- प्रतिवादी द्वारा चिन्ह का उपयोग अतिलंघन नहीं है या प्रतिवादी द्वारा चिन्ह का उपयोग अधिनियम की धारा 30 के प्रावधानों के अंतर्गत संरक्षित है जो उन कार्यों को सूचीबद्ध करता है जिससे अतिलंघन नहीं होता है।
केस-:मैसर्स लक्ष्मन दास बिहारी लाल बनाम घनश्याम दास जेठानंद एवं अन्य (AIR 2008) NOC दिल्ली।
इस मामले में वादी ही फर्म ‘स्वामी ‘व्यापार चिन्ह के अंतर्गत सुंघनी (snuff) के निर्माण और विक्रय का कारोबार करती थी। प्रतिवादी का लेवल चिन्ह इतना समरूप था कि धोखा हो जाए। प्रतिवादी द्वारा प्रयोग किया गया रंग -विन्यास वस्तुतः एक ही था।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने वादी के व्यापार चिन्ह का अतिलंघन मानते हुए उसके पक्ष में व्यादेश और क्षतिपूर्ति का आदेश जारी किया।
केस-:विक्रम स्टोर्स एवं अन्य बनाम एस.एन.परफ्यूम मरी (ए आई आर 2008 गुजरात)।
इस मामले में वादी और प्रतिवादी दोनों अगरबत्ती का कारोबार करते थे। वादी का रजिस्ट्रीकृत व्यापार चिन्ह “रंगोली” था जबकि प्रतिवादी द्वारा प्रयुक्त व्यापार चिन्ह”रंगीली “था। समग्र संरचनात्मक (रंग, आकार ,लंबाई ,चौड़ाई और लिखावट) तथा ध्वन्यात्मक समरूपता थी।
अतः न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि प्रतिवादी द्वारा प्रयुक्त व्यापार चिन्ह वादी के व्यापार चिन्ह का अतिलंघन है और प्रतिवादी को “रंगीली” चिन्ह का प्रयोग करने से रोकने के लिए वादी के पक्ष में व्यादेश जारी किया।
NOTE:- अधिनियम की धारा 135 (1) के अनुसार, धारा 134 में निर्दिष्ट अतिलंघन के लिए या चला देने के लिए बाद में न्यायालय द्वारा अनुदत्त किए जाने वाले अनुतोष में व्यादेश ( ऐसे निबंधनों के अधीन, यदि कोई हो, जैसा न्यायालय उचित समझे) और वादी के विकल्प पर क्षतिपूर्ति या लाभ लेखा, इसके साथ या बिना, अतिलंघनकरी लेबलों और चिन्हों को भी नष्ट करने या मिटाने के लिए परिदान किए जाने का आदेश सम्मिलित है।
निष्कर्ष (Conclusion):-
ट्रेडमार्क उल्लंघन के मामले में भ्रामक समानता के सिद्धांत का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। व्यापार में ट्रेडमार्क महत्व का होने और इसकी साख का होने के कारण उसे दुरुपयोग और अतिलंघन से बचाने की अति आवश्यकता है। न्यायपालिका ने बौद्धिक संपदा के मामलों में गहरी दिलचस्पी ली है और विभिन्न न्यायिक निर्णयों के जरिए कई सिद्धांतो और दिशानिर्देशों की व्याख्या की गई है ताकि ट्रेडमार्क उल्लंघन के मामलों का अत्यधिक सुगमता से न्यायनिर्णय न किया जा सके। न्यायालय ने उन समस्याओं की भी जांच की है जो उत्पन्न हो सकती हैं यदि भ्रामक समानता के निर्धारण के लिए कठोर मानदंड बनाए गए हैं।
संदर्भ (Reference)
Book:- S.K.Singh
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यह आर्टिकल Nandini Singh के द्वारा लिखा गया है जो की LL.M. Istसेमेस्टर Dr. Harisingh Gour central University,sagar की छात्रा है | |