कंपनी का अर्थ, परिभाषा और अनिवार्य तत्व
1:परिचय (Introduction):-
कम्पनी अधिनियम, 2013 कम्पनी (संशोधन) विधेयक, 2011 के आधार पर पारित किया गया अधिनियम है जिसमें 29 अध्याय , 470 धाराएँ तथा सात अनुसूचियाँ हैं जबकि पूर्ववर्ती कम्पनी अधिनियम, 1956 में कुल 658 धाराएं तथा पाँच अनुसूचियाँ थीं । इस प्रकार वर्तमान अधिनियम में 188 धाराएँ कम कर दी गयी है तथा अनुसूचियों की संख्या पांच से बढ़ाकर सात कर दी गयी है । इस अधिनियम का मूल उद्देश्य कम्पनियों से सम्बन्धित विधि को पूर्ण रूप से संशोधित तथा समेकित करके ऐसी व्यवस्था तैयार करना था जो वर्तमान विश्व व्यापार व्यवस्था के अनुरूप उद्यमियों को सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित कर सके तथा विश्व व्यापार से उद्भूत उनको विभिन्न समस्याओं का निराकरण कर सके।
2: कंपनी का अर्थ (Meaning of Company): –
‘कम्पनी‘ शब्द लैटिन भाषा से लिया गया है तथा इसका उत्पत्ति दो लैटिन शब्दो ‘कम‘ (Com) और ‘पेनिस‘ (Pabis) के मेल से हुई है, जिनका अर्थ क्रमशः ‘ साथ – साथ‘ तथा ‘रोटी‘ है।
प्रारम्भ में ‘ कम्पनी‘ शब्द से आशय ऐसे व्यक्तियों के समूह से था जो भोजन के लिए एकत्रित हुए हो । अल्फ्रेड पामर (Alfred Palmer) के अनुसार प्राचीन समय में व्यापारी वर्ग के लोग सामूहिक भोजनादि के कार्यक्रमों में ही अपनी व्यावसायिक योजनाओं तथा समस्याओं पर विचार – विमर्श करने का अच्छा अवसर समझते थे । कालान्तर में ‘कम्पनी ‘ शब्द का प्रयोग ऐसे व्यक्तियों के समूह या संगठनों के लिए भी किया जाने लगा जो किसी सामान्य उद्देश्य (common object) की पूर्ति हेतु एकत्रित हुए हों। इस प्रकार कम्पनी शब्द का प्रयोग व्यापारिक तथा गैर – व्यापारिक , दोनों ही प्रकार के संघों के लिए किया जा सकता था । परंतु विधि – क्षेत्र में कम्पनी शब्द का अर्थ इससे भिन्न है तथा इसे एक कृत्रिम व्यक्ति (Artificial person) माना गया है, जिसके विधिक कर्तव्य एवं अधिकार होते हैं तथा जिसका अस्तित्व उसके सदस्यों से पूर्णत : भिन्न होता है ।
उल्लेखनीय हैं कि नये कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 2 की उपधारा (62) में एकल व्यक्ति कम्पनी को भी सांविधिक मान्यता प्रदान कर दी गयी है इसलिये अब कंपनी को ‘व्यक्तियों का समूह मानने की धारणा का कोई औचित्य नहीं रह गया है। ‘एकल व्यक्ति कम्पनी’ एक ऐसी कंपनी होती है जिसमें सदस्य के रूप में एकमात्र व्यक्ति ही होता हैं।
3: कंपनी की परिभाषा(Definition of Company):-
विभिन्न विधिशास्त्रियों ने ‘कंपनी‘ शब्द की परिभाषाएं विभिन्न प्रकारों से की हैं जिनमे मुख्य रूप से निम्न परिभाषाएँ है –––
Lord Lindley:- ” कम्पनी से तात्पर्य अनेक व्यक्तियों के ऐसे संघ से है जिसकी संयुक्त पूँजी में वे अपना धन या कोई अन्य सम्पत्ति लगाते हैं तथा उसका प्रयोग किसी सामान्य उद्देश्य के लिए करते हैं। इस प्रकार एकत्रित की गयी पूँजी धन (money) में व्यक्त की जाती है तथा यही कम्पनी की पूँजी होती है । वे व्यक्ति, जो इस पूँजी में अंशदान करते हैं या पूँजी जिनसे सम्बन्धित होती है, कम्पनी के सदस्य होते हैं । पूँजी का वह आनुपातिक भाग जिसका प्रत्येक सदस्य अधिकारी होता है, उसका अंश कहलाता है।”
Prof. Haney:-” एक निगमित संघ जो एक कृत्रिम व्यक्ति है जिसे विधि द्वारा एक शाश्वत उत्तराधिकार और एक सामान्य मुहर के साथ एक अलग इकाई बनाया गया है।”
Sec. 2 (20) of Companies Act, 2013:- ” कम्पनी से तात्पर्य इस अधिनियम अथवा पूर्ववर्ती किसी अन्य कंपनी विधि के अंतर्गत निगमित कंपनी है।” ।
उपरोक्त सभी परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता हैं कि कम्पनी एक ऐसा कृत्रिम व्यक्ति है जिसका वास्तविक कारोबार जीवित व्यक्तियों द्वारा कुछ जीवित व्यक्तियों के हित या लाभ के लिये किया जाता है।
4: कंपनी की अनिवार्य तत्व(Essentials of Company):-
उपर्यक्त परिभाषाओ से स्पष्ट हैं कि विद्वानों ने ‘कंपनी‘ शब्द को परिभाषित करते समय उसके विभिन्न वैधानिक पहलुओ पर विशेष बल दिया है। इस आधार पर निगामित कंपनी के कुछ मुलभूत तत्वों का उल्लेख करना आवश्यक हैं। कंपनी के आवश्यक तत्व निम्नानुसार हैं —––
1. विशिष्ट कॉर्पोरेट अस्तित्व (Distinct Corporate Existence )
2. शाश्वत उत्तराधिकार (Perpetual Succession)
3.शेयरों की हस्तांतरणीयता (Transferability of Shares)
4. मुकदमा करने या मुकदमा करने की क्षमता (Capacity to sue or be sued)
5. सीमित दायित्व (Limited Liability)
6. सामान्य मुहर (Common Seal )
1: विशिष्ट कॉर्पोरेट अस्तित्व (Distinct Corporate Existence): –
किसी निगमित कम्पनी का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि निगमित होने के पश्चात् उसे स्वतन्त्र वैधानिक अस्तित्व प्राप्त हो जाता है जो उन सदस्यों से भिन्न होता है जिन्होंने उस कम्पनी का निर्माण किया है । विधि की दृष्टि से कम्पनी को वैधानिक व्यक्तित्व प्राप्त होने के परिणामस्वरूप वह स्वयं के नाम से सम्पत्ति का क्रय –
विक्रय , संविदा अथवा अन्य व्यवहार स्वतंत्र रूप से कर सकती है। कम्पनी अपने व्यवहारों के लिये सामान्य व्यक्ति की भांति स्वतन्त्र रूप से उत्तरदायी होती है । इसी कारण उसे कृत्रिम व्यक्ति ( artificial person) कहा गया है । निगमित कम्पनी को पृथक् वैधानिक अस्तित्व प्राप्त होने का एक लाभ यह भी है कि उसके अंशधारी कम्पनी के व्यवहारों के प्रति व्यक्तिगत रूप से दायी नहीं होते हैं। किसी भी अंशधारी या सदस्य की मृत्यु या उसके दिवालिया हो जाने पर भी कम्पनी का अस्तित्व यथावत् बना रहता है तथा उसके कार्य में किसी प्रकार की बाधा नहीं पड़ती है।
कम्पनी के पृथक् व्यक्तित्व के सिद्धान्त को सर्वप्रथम न्यायिक मान्यता इंग्लैण्ड के हाउस ऑफ लॉर्ड्स द्वारा सालोमन V. सालोमन एण्ड कम्पनी लिमिटेड के वाद में सन् 1897 में दी गई थी।
केस- सालोमन V. सालोमन एण्ड कम्पनी लिमिटेड,1897
Facts: अरोन सालोमन (Aron Salomon) नामक एक व्यक्ति बूट और जूता का थोक व्यापारी था । उसका कारोबार अच्छी स्थिति मे था तथा दायित्वो के अतिरिक्त उसके पास पर्याप्त आस्तियाँ (Assets) थी । व्यापार को बढ़ाने के उद्देश्य से सालोमन ने सन् 1892 सालोमन एण्ड कम्पनी लिमिटेड‘ नामक एक कम्पनी निगमित की। सीमा – नियम (Memorandum or Association) के अनुसार कम्पनी में पूंजी लगाने वाले ( subscriber) सात व्यक्ति थे जिनमे सालोमन स्वयं , उसकी पत्नी, पुत्री तथा चार पुत्र सम्मिलित थे।
ये सातों व्यक्ति कम्पनी के सदस्य भी थे । कम्पनी के निदेशक – मंडल ( Board of Directors) में सालोमन तथा उसके दो पुत्र थे। सालोमन ने अपना व्यापार इस कम्पनी को 40,000 पौड में बेच दिया। नकद राशि देने के बजाय कम्पनी ने सालोमन को । भुगतानस्वरूप एक – एक पौड के बीस हजार पौंड के पूर्ण चुकता अंश ( fully paid shares ) और दस हजार पौंड के ऋण – पत्र (debeatures) जारी किये । बाकी दस हजार पौंड नगद राशि में भुगतान किये गये थे जिसमें से एक हजार पौंड छोड़कर शेष सालोमन ने पूर्व ऋण एवं दायित्वों का भुगतान करने हेतु स्वयं के पास रखे । दूसरे शब्दों में बीस हजार पौंड पूर्ण चुकता अंशों के रूप में प्राप्त हुए तथा कम्पनी दस हजार पौंड की अभी भी सालोमन को ऋणी थी , जो एक सुरक्षित ऋण था । अन्य छ : सदस्यों में प्रत्येक के पास एक पौंड का अंश था । कुछ ही दिनों बाद कम्पनी को अवनति के कारण इसका विघटन करना पड़ा । कम्पनी के परिसमापन के समय उसके पास 600 पौंड का आस्तियाँ ( assets ) थी जबकि उसका दायित्व 17,000 पौंड था जिसमें 10,000 पौंड सालोमन को ऋण के रूप में चुकाने थे तथा बाकी 7000 पौंड अप्रति – भूत लेनदारों ( unsecured creditors) को देने थे । परिणामस्वरूप, ऋणपत्रधारी सालोमन को भुगतान करने के पश्चात् कम्पनी के पास अन्य लेनदारों को देने के लिए कुछ भी शेष नहीं बचता था।
अत : असुरक्षित लेनदारों ने यह दावा किया कि उनका धन उन्हें पहिले भुगतान किया जाना चाहिये क्योंकि वास्तव में सालोमन एण्ड कम्पनी लिमिटेड नामक कम्पनी कभी स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व में ही नहीं आई थी क्योंकि यह कम्पनी और सालोमन नामक व्यक्ति वास्तव में एक ही व्यक्ति थे, अत : सालोमन स्वयं का ऋणदाता नहीं हो सकता था । इसके अतिरिक्त, उस कम्पनी का प्रबन्ध निर्देशक सालोपन स्वयं ही था तथा उसके अन्य दो निदेशक भी उसके पुत्र ही थे जो उसके पूर्ण नियन्त्रण में थे । परिणामस्वरूप वास्तविक स्थिति यह थी कि सालोमन एण्ड कम्पनी का पूर्ण मालिक स्वयं सालोमन ही था । अत : यह कम्पनी एक धोखा और कपट मात्र थी तथा यह व्यवस्था कम्पनी अधिनियम के उपबन्धों के प्रतिकूल थी।
इसके विपरीत , सालोमन ने यह तर्क दिया कि निगमित कम्पनी होने के कारण सालोमन एण्ड कम्पनी लि . का स्वतन्त्र अस्तित्व था जो उसके सदस्यों से पूर्णत: भिन्न था ; अत: उक्त कम्पनी का ऋणपत्रधारी होने के नाते अन्य लेनदारों की तुलना में ऋण की राशि के भुगतान में उसे प्राथमिकता दी जाना उचित था ।
Judgement : इस मामले में अपना निर्णय देते हुए इंग्लैंड के हाउस ऑफ लाईस (House of Lords) ने अभिनिर्धारित किया कि वैधानिक दृष्टि से सालोमन एण्ड कम्पनी लि . एक स्वतंत्र कम्पनी थी जिसका अस्तित्व उसके सदस्यों से पूर्णत: भिन्न था । यह बात अलग है कि निगमन के पश्चात् उसका कारोबार पूर्व की भांति ही रहा हो तथा वे ही व्यक्ति उसके प्रबन्धक रहे हों तथा लाभ भी केवल उन्हीं व्यक्तियों ने प्रात किया हो।
विद्वान् न्यायाधीश Lord MCNaughton ने यह निर्णय दिया कि सुस्थापित अधिनियम में यह उल्लेख कहीं भी नहीं है कि सीमा – नियम (Memorandum of Association) पर हस्ताक्षर करने वाले सदस्य असंबद्ध ( unconnected ) होने चाहिये या वे रुचि या इच्छा से कार्य करें या कम्पनी के निर्माण में उनके अधिकारों का संतुलन हो।
उक्त निर्णय के परिणामस्वरूप यह विनिश्चित किया गया कि सालोमन को अप्रतिभूत लेनदारों की तुलना में ऋण के भुगतान की प्राथमिकता का अधिकार था।
2: शाश्वत उत्तराधिकार (Perpetual Succession): –
निगमित कम्पनी का एक अन्य आवश्यक तत्व यह है कि उसका अस्तित्व चिरस्थायी होता है। इसका तात्पर्य यह है कि कम्पनी के अंश अन्तरणीय होने के कारण चाहे उसके सभी सदस्य बदल जाय परन्तु कम्पनी का अस्तित्व यथावत् बना रहेगा । दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है, कि किसी कम्पनी के सदस्यों की मृत्यु, दिवालियापन या अंश – अन्तरण से कम्पनी के अस्तित्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तथा वह अपना मूल अस्तित्व यथावत बनाये रखती है । इसका मुख्य लाभ यह है कि कम्पनी दीर्घकालीन बनी रहती है तथा लम्बे समय के लिये व्यापार सम्बन्धी संविदा सुविधापूर्वक कर सकती है ।
कम्पनी अधिनियम, 2013 की धारा 9 के अनुसार निगमन की तिथि से ही कम्पनी को शाश्वत उत्तराधिकार प्राप्त हो जाता है ।
कंपनी के शाश्वत उत्तराधिकार के विषय में प्रो ० गोवर (Gower) ने एक रोचक दृष्टान्त दिया है....
युद्धकाल में किसी प्राइवेट कम्पनी के सभी सदस्य बम द्वारा उस समय मारे गये जब कम्पनी की बैठक चल रही थी , फिर भी कम्पनी का अस्तित्व बना रहा तथा हाइड्रोजन बम भी उसे समाप्त नहीं कर सका।
एक अन्य उदाहरण के रूप में यह कहा जा सकता है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय सन् 1857 में अस्तित्व में आया और उसके सभी छात्र एवं प्राध्यापक , जो उस समय इस विद्यालय से सम्बद्ध थे, आज जीवित नहीं हैं , फिर भी इस विश्वविद्यालय का अस्तित्व बना हुआ है और वह भविष्य में भी बना रहेगा।
3: शेयरों की हस्तांतरणीयता (Transferability of Shares):-
कंपनी के सदस्यों (अंशधारियों) को उसको वास्तविक व्यवस्था या कार्यों से कोई सरोकार नहीं रहता है । इसी प्रकार, कंपनी का प्रबन्ध – कार्य संचालन निदेशकों के हाथ में होने के कारण सामान्य जनता को कंपनी के अंशधारियों को आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ता से कोई सरोकार नहीं रहता है । इसके अतिरिक्त , किसी भी कंपनी में लगाई गई जी उसके परिसमापन (winding – up) के पूर्व नहीं निकाली जा सकती है । इससे यह स्पष्ट है कि कंपनी के अंशों के अन्तरण से उसके अस्तित्व या प्रबन्ध पर किसी प्रकार का विपरीत परिणाम नहीं पड़ता है तथा अंशधारी अपने अंश किसी अन्य व्यक्ति को अन्तरित करके कंपनी की सदस्यता से मुक्त हो सकते हैं। सन् 1993 के कंपनी संशोधन अधिनियम द्वारा अंश – अंतरण की प्रक्रिया को अधिक सुगम एवं सरल बनाया गया
कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 44 यह सिद्धांत प्रदान करती है कि सदस्यों द्वारा रखे गए शेयर चल संपत्ति हैं और लेख द्वारा प्रदान किए गए तरीके से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में स्थानांतरित किए जा सकते हैं।
4: मुकदमा करने या मुकदमा करने की क्षमता (Capacity to sue or be sued):-
विधि की दृष्टि से वैधानिक व्यक्तित्व प्राप्त होने के कारण कंपनी अपने नाम मे न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर सकती है या उसके विरुद्ध बाद प्रस्तुत किया जा सकता है । कंपनी को वाद दायर करने का अधिकार तब उत्पन्न होता है जब कंपनी को कुछ नुकसान होता है, यानी संपत्ति या कंपनी के व्यक्तित्व को इसलिए, कंपनी परिवाद या बदनामी में नुकसान के लिए वाद दायर करने की हक़दार होती है।
5:सीमित दायित्व (Limited Liability): –
कंपनियों में सीमित दायित्व का सिद्धान्त प्रतिपादित करके अंशधारियों के हितों की रक्षा की गई है । नि : सन्देह ही यह कंपनी व्यवस्था का सर्वश्रेष्ठ लाभ है । सीमित दायित्व का आशय यह है कि कम्पनी को हानि होने की दशा में अंशधारियों को अधिक से अधिक हानि उनके अंशों पर देय धनराशि तक ही हो सकती है, उससे
अधिक नहीं । फलतः कंपनी में पूंजी लगाने वाले उतने नहीं हिचकिचाते जितने कि अन्य व्यापारिक संस्थाओं में लगाने के लिये हिचकिचाते हैं।
उल्लेखनीय है कि सन् 1857 के पूर्व कंपनियों केवल असीमित दायित्व के सिद्धान्त के अनुसार ही स्थापित की जा सकती थी । लेकिन सन् 1857 के ज्वाइंट स्टाक कम्पनी अधिनियम द्वारा भारत में सर्वप्रथम सीमित दायित्व के सिद्धान्त को विधिक मान्यता प्राप्त हुई।
6:सामान्य मुहर( Common Seal): –
प्रत्येक कम्पनी की एक सार्वमुद्रा होती है, जो विधिक एवं सामूहिक अस्तित्व का प्रतीक है । कम्पनी के निगमन के साथ ही उसे सार्वमुद्रा के अधिकार प्राप्त हो जाते हैं । कम्पनी के अंशधारी अनेक स्थानों पर रहते हैं । इस सार्वमुद्रा को अंकित किये बिना कम्पनी के किसी भी अनुबन्ध प्रलेख अथवा अन्य परिपत्रों को विधिक मान्यता प्राप्त नहीं हो सकती । कम्पनी में प्रतिनिधिक व्यवस्था होती है। उसका कार्य – संचालन अंशधारियों की ओर से कुछ व्यक्तियों द्वारा किया जाता है जो संचालक कहलाते हैं
कंपनी की सार्वमुद्रा का बहुत महत्व है। यह कंपनी के आधिकारिक हस्ताक्षर के रूप में कार्य करती है। चूंकि कंपनी का कोई भौतिक रूप नहीं है, इसलिए वह अनुबंध पर अपना नाम नहीं लिख सकती है। कंपनी का नाम सार्वमुद्रा पर उत्कीर्ण होना चाहिए।
सार्वमुद्रा का उपयोग करने के लिए अधिकृत व्यक्ति को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इसे उसकी निजी हिरासत में रखा गया है और इसका उपयोग बहुत सावधानी से किया जाता है क्योंकि किसी भी विलेख, उपकरण या एक दस्तावेज जिसमें सार्वमुद्रा अनुचित रूप से या धोखे से चिपका हुआ है, कंपनी को कानूनी कार्यवाही में शामिल करेगा।
5:निष्कर्ष (Conclusion): –
कंपनी एक कृत्रिम या विधिक व्यक्ति है जो विभिन्न उद्देश्यों जैसे कि दान, कला, अनुसंधान, धर्म, वाणिज्य या व्यवसाय को बढ़ावा देने के लिए विधि द्वारा बनाई जाती है। कंपनी के पास भी जैसे एक प्राकृतिक व्यक्ति के पास समान अधिकार होते हैं और उसके समान दायित्व होते हैं, लेकिन उसका न तो कोई दिमाग होता है और न ही उसका कोई शरीर होता है। कंपनी अधिनियम, 2013 के पारित होने के बाद, पिछले कंपनियों के अधिनियमों 1850, 1866, 1882,1913 और 1956 में पारित कंपनी संबंधी विधियों को निरस्त कर दिया गया है।
संदर्भ (References) –
1: Gower, the principles of modern company law (1979) page 97
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यह आर्टिकल Lokesh Namdev के द्वारा लिखा गया है जो की LL.B. IInd से मेस्टर Dr. Harisingh Gour central University,sagar के छात्र है | |