खानगुल बनाम लाखन सिंह,1928
खानगुल बनाम लाखन सिंह का वाद अवयस्क द्वारा कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन से सम्बन्धित है।
खानगुल बनाम लाखन सिंह वाद के तथ्य तथा विवाद –
इस वाद में वादी ने उस भूमि के कब्जे के लिए वाद किया था जो कि प्रतिवादी ने उसे 17,500 रुपये में बेंची थी। प्रतिवादी ने भूमि बेचते समय कपट करके अपने को वयस्क बताया था जबकि वास्तव में वह एक अवयस्क था। प्रतिवादी ने उक्त वाद का विरोध इस आधार पर किया कि संविदा के समय वह अवयस्क था। चूंकि अवयस्क द्वारा की गयी संविदा शून्य होती है अतः उक्त संविदा को रद्द किया जाना चाहिये। वादी की तरफ से यह तर्क दिया गया कि चूंकि संविदा करते समय प्रतिवादी ने अपने को वयस्क बताया था
अतः वह यह तर्क नहीं कर सकता कि उस समय वह अवयस्क था। इसके अतिरिक्त उसने यह भी तर्क किया कि विशिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 41 के अन्तर्गत प्रतिवादी को बाध्य किया जाय कि उसने जो धन उक्त संविदा के द्वारा प्राप्त किया है, उसे वह वापस लौटाये। परीक्षण न्यायालय ने प्रतिवादी के विरुद्ध निर्णय दिया था तथा अपने निर्णय में कहा था कि चूंकि प्रतिवादी ने संविदा करते समय अपने को वयस्क बताया था, अब उसे अनुमति नहीं दी जा सकती थी कि वह यह तर्क करे कि वह उस समय अवयस्क था। उक्त आदेश के विरुद्ध अपील की गयी।
खानगुल बनाम लाखन सिंह वाद का निर्णय –
लाहौर उच्च न्यायालय को पूर्ण बेंच ने यह निर्णय दिया कि प्रतिवादी संविदा के अन्तर्गत प्राप्त किये हुए लाभ को लौटाने के लिए बाध्य है।
खानगुल बनाम लाखन सिंह वाद में प्रतिपादित नियम –
(1) अवयस्क द्वारा की गयी संविदा शून्यकरणीय न होकर पूर्ण रूप से शून्य होती है।
(2) प्रत्यास्थापन का साम्या सिद्धान्त (Equitable Doctrine of restitution) इस बात पर आधारित है कि न्यायालय न्याय करे तथा दोनों पक्षकारों को उस स्थिति में लाने को चेष्टा करे जिस स्थिति में वे होते, यदि संविदा न की गयी होती अतः सम्पत्ति लौटाने और धन लौटाने में कोई अन्तर नहीं है।
न्यायाधीश शादी लाल ने यह भी कहा कि विशिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 41 में यह कहिं भी नहीं कहा गया कि सम्पत्ति लौटाई जा सकती है, परन्तु धन नहीं लौटाया जा सकता; तथा भारत में न्यायाधीशों में अनेक मामलों में अवयस्क को धन लौटाने को बाध्य किया है।
(3) जहाँ तक भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act. 1872) की धारा 112 में वर्णित विबन्ध के सिद्धान्त का प्रश्न है, न्यायाधीश शादीलाल ने कहा कि यह अवयस्क के प्रति लागू नहीं होगा। निर्णय को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि जब कभी विधि के किसी विशेष प्रावधान का संघर्ष किसी- सामान्य प्रावधान से होता है तो विशेष प्रावधान ही अधिक मान्य होता है। विबन्ध सामान्य विधि है जो सभी लोगों पर लागू होता है, लेकिन संविदा विधि को धारा 11 एक विशेष विधि है जिसके अन्तर्गत यह कहा गया है कि अवयस्क द्वारा की गई संविदा शून्य होगी। अतः यह प्रावधान सामान्य प्रावधान से अधिक मान्य होगा।
खानगुल बनाम लाखन सिंह वाद का निष्कर्ष-
उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर न्यायालय ने निर्णय दिया कि जब कभी कोई अवयस्क कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन द्वारा कोई लाभ या धन प्राप्त करता है तो उसे उस लाभ या धन को लौटाने को बाध्य किया जा सकता है।