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न्यायिक पृथक्करण क्या है? | हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 10 | judicial sepration in hindi

न्यायिक पृथक्करण

न्यायिक पृथक्करण( judicial separation) क्या हैं?-

न्यायिक पृथक्करण की व्यवस्था हिंदू विवाह अधिनियम के लागू होने के पहले के विवाहों और अधिनियम के पारित होने के बाद के विवाहों पर समान रूप से लागू होती है। यह अनुतोष पति पत्नी दोनों को प्राप्त होता है, अर्थात पति पत्नी दोनों इसके लिए याचिका का प्रस्तुत कर सकते हैं।

न्यायिक पृथक्करण का अर्थ है सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय द्वारा पति पत्नी के साथ-साथ रहने के अधिकार को समाप्त करना परंतु ऐसी डिक्री या आदेश न पक्षकारों की हैसियत को प्रभावित करती है और न ही विवाह बंधन को तोड़ती है। यह ऐसा संबंध विच्छेद है जो पति-पत्नी को एक-दूसरे से अलग रहने के लिए प्राधिकृत करता है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 10 के अनुसार न्यायिक पृथक्करण :-

(1)  विवाह का कोई पक्षकार, चाहे वह विवाह इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व या पश्चात अनुष्ठापित हुआ हो, धारा 13 की उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट किसी आधार पर और पत्नी की दशा में उक्त धारा की उपधारा (2) में विनिर्दिष्ट किसी आधार पर भी, जिस पर विवाह विच्छेद के लिए अर्जी पेश की जा सकती थी, न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए प्रार्थना करते हुए अर्जी पेश कर सकेगा।

(2) जहाँ कि न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित हो गई हो, वहाँ अर्जीदार पर इस बात की बाध्यता ना होगी कि वह प्रत्यर्थी के साथ सहवास करें, किंतु दोनों पक्षकारों में से किसी के भी अर्जी द्वारा आवेदन करने पर तथा ऐसी अर्जी में किए गए कथनों की सत्यता के बारे में अपना समाधान हो जाने पर न्यायालय, यदि वह ऐसा करना न्याय संगत और युक्तियुक्त समझे तो डिक्री को विखंडित कर सकेगा।

न्यायिक पृथक्करण की अवधारणा:-

न्यायिक पृथक्करण अशांत विवाहित जीवन के दोनों पक्षों को आत्म-विश्लेषण के लिए कुछ समय देने के लिए कानून के तहत एक माध्यम है। कानून पति और पत्नी दोनों को अपने रिश्ते के विस्तार के बारे में पुनर्विचार करने का मौका देता है जबकी  साथ ही उन्हें अलग रहने के लिए मार्गदर्शन भी करता है। ऐसा करने से, कानून उन्हें अपने भविष्य के मार्ग के बारे में सोचने के लिए स्वतंत्र स्थान और स्वतंत्रता की अनुमति देता है और यह विवाह के कानूनी टूटने के लिए दोनों पति-पत्नी के लिए उपलब्ध अंतिम विकल्प है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 10  पति-पत्नी दोनों के लिए न्यायिक पृथक्करण प्रदान करती है, जो हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत विवाहित हैं वे एक याचिका दायर करके न्यायिक पृथक्करण की राहत का दावा कर सकते हैं। एक बार आदेश पारित होने के बाद वे सहवास करने के लिए बाध्य नहीं हैं।

न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका कौन दायर कर सकता है? :-

पति या पत्नी कोई भी जो किसी अन्य पति या पत्नी से आहत है,हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 10 के तहत न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका दायर कर सकता है |

न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका कहाँ दायर करे? :-

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 10 के तहत न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका उस जिला न्यायालय में दायर की जा सकती है जहाँ :-

  • हिंदू विवाह अधिनियम के तहत ,पति और पत्नी के बीच जहाँ विवाह को रचाया गया हो ।
  • जहां याचिकाकर्ता ने याचिका दायर की वहाँ प्रतिवादी, अदालत के अधिकार क्षेत्र में निवास करता हो|
  • याचिका दायर करने से पहले पति और पत्नी एक विशेष अवधि के लिए एक साथ रहते थे।

प्रत्येक याचिका, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1973 के आदेश VII नियम 1 के अनुसार, निम्नलिखित विवरणों का खुलासा करना चाहिए और उनका पालन करना चाहिए:-

  • विवाह की तिथि और स्थान।
  • हलफनामे के अनुसार व्यक्ति का हिंदू होना आवश्यक है।
  • दोनों पक्षों का नाम, स्थिति, पता
  • बच्चों का नाम, जन्मतिथि और लिंग (यदि कोई हो)।
  • न्यायिक अलगाव या तलाक के लिए डिक्री दाखिल करने से पहले मुकदमेबाजी के सभी आवश्यक विवरण।
  • न्यायिक पृथक्करण के लिए, सबूतों को उसी के लिए ऊपर बताए गए आधारों को साबित करना होगा।

न्यायिक पृथक्करण के आधार (Grounds of judicial separation):-

न्यायिक पृथक्करण के आधार वही है जो कि तलाक के है। पति या पत्नी न्यायिक पृथक्करण के निम्नलिखित आधारों पर याचिका दायर कर सकते हैं :-

  • A. जारता (Adultery) 
  • B. क्रूरता (Cruelty) 
  • C. अभित्याग( Desertion) 
  • D. धर्म परिवर्तन (Conversion):- 
  • E. मस्तिष्क – विकृतता (Unsoundness of mind)
  • F. कोढ़( Leprosy)
  • G. रतिजन्य रोग (Venereal Disease) 
  • H. संसार परित्याग (Renunciation of the world)
  • I. प्रकल्पित मृत्यु (Presumed death)

 

1.जारता (Adultery):- जहां, प्रतिपक्षी ने विवाह संपन्न होने के बाद स्वेच्छा से किसी अन्य व्यक्ति के साथ लैंगिक संभोग किया है। पीड़ित पक्ष राहत का दावा कर सकता है लेकिन वह संभोग विवाह के बाद किया जाना चाहिए।

केस- रेवती बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य 

इस मामले में, कोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 497 की तरह तैयार किया गया है, एक पति पत्नी पर व्यभिचार के आरोप में विवाहित बंधन की पवित्रता को अपवित्र करने के लिए मुकदमा नहीं चला सकता है।

कानून अपराध करने वाली पत्नी के पति को अपनी पत्नी पर मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं देता है और पत्नी ने भी अपमानजनक पति पर उसके प्रति विश्वासघाती होने के लिए मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी है। इसलिए पति-पत्नी दोनों को एक-दूसरे पर आपराधिक कानून के हथियार से वार करने का कोई अधिकार नहीं है।

2.क्रूरता(Cruelty):- जब याची के साथ एक दूसरे पक्ष ने क्रूरता का व्यवहार किया है।

केस- श्यामसुंदर बनाम संतादेवी 

इस मामले में शादी के बाद पत्नी को उसके पति के रिश्तेदारों ने बुरी तरह से प्रताड़ित किया और पति भी अपनी पत्नी की रक्षा के लिए कोई कदम न उठाते हुए आलस्य से खड़ा रहा।

कोर्ट ने माना कि अपनी पत्नी की रक्षा के लिए जानबूझकर उपेक्षा करना पति की ओर से क्रूरता है।

3.अभित्याग(Desertion):- जब याची का दूसरे पक्ष ने 2 वर्ष पूर्व तक लगातार अभित्याग किया हो ,यह समय याचिका के दायर करने की तिथि से 2 वर्ष पूर्व तक माना जाएगा धारा (19- ए)।

केस:- लाभकौर बनाम नारायण सिंह (ए आई आर 1978 )पंजाब एवं हरियाणा 317।

इस मामले में न्यायालय ने निर्धारित किया कि अभित्याग का अर्थ विवाह के दूसरे पक्षकार का आशय स्थाई रूप से त्याग देना तथा उसके साथ निवास छोड़ देने का है जो कि बिना उसकी स्वीकृति तथा युक्तियुक्त कारण के होता है।

4.धर्म परिवर्तन(Conversation):- यदि याची धर्म परिवर्तन द्वारा हिंदू नहीं रह गया है तो याची इस आधार पर न्यायिक पृथक्करण की आज्ञप्ति प्राप्त कर सकता है।

केस:- दुर्गा प्रसाद राव बनाम. सुदर्शन स्वामी  

इस मामले में यह देखा गया कि प्रत्येक धर्म परिवर्तन के मामले में, धर्म की औपचारिक अस्वीकृति या यज्ञ समारोह का संचालन आवश्यक नहीं है। इसलिए धर्मांतरण के मामले में तथ्य का सवाल खड़ा हो गया।

5.मानसिक विकृतता (Unsoundness of mind):- यदि प्रतिपक्षी(याची) का दिमाग असाध्य रूप से विकृत हो चुका है या वह लगातार या बीच-बीच में इस प्रकार की दिमागी अव्यवस्था से पीड़ित हो रहा है की आवेदक से युक्तियुक्त रूप से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वह प्रतिपक्षी के साथ रहे।

6.कोढ़ (Leprosy):- जब दूसरा पक्ष याचिका दायर करने के 1 वर्ष पहले घोर कोढ़ से पीड़ित रहा हो (धारा 10-सी)। (विवाह विधि संशोधन अधिनियम 1976 के अनुसार)

उदाहरण- ‘ए’ एक असामान्य बीमारी से पीड़ित है और ‘बी’ ‘ए’ की पत्नी है। यदि ‘क’ ऐसी बीमारी से पीड़ित है जो लाइलाज है और डॉक्टर भी उस बीमारी को नहीं समझ सकता है। इस मामले में, ‘बी’ न्यायिक अलगाव के लिए याचिका दायर कर सकती है यदि वह अपने पति के साथ जारी नहीं रहना चाहती है।

7.रतिजन्य रोग(Venereal disease):- यदि विवाह के किसी पक्षकार को किसी प्रकार की बीमारी है जो लाइलाज और दूसरे को लगने वाली है और पति या पत्नी को विवाह के समय इस तथ्य के बारे में पता नहीं है, तो यह न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका दायर करने के लिए पति या पत्नी के लिए एक वैध आधार है।

उदाहरण- ‘ए’ एक असामान्य बीमारी से पीड़ित है जो संचार द्वारा फैलती है। वह रोग जो अपरिवर्तनीय है। इस मामले में, ‘ए’ की पत्नी ‘बी’ अपने दोनों बच्चों के भविष्य के लिए सद्भाव में न्यायिक अलगाव के लिए याचिका दायर कर सकती है।

8.संसार परित्याग(Renunciation of the world):- विवाह का कोई पक्षकार जब संसार का परित्याग करके सन्यास धारण कर लेता है तो दूसरा पक्षकार न्यायिक पृथक्करण कि आज्ञप्ति प्राप्त कर सकता है।

दृष्टांत यदि ‘क’ अपना धर्म बदल कर कहीं चला गया, जहाँ लोग भी उसे नहीं पा सकते। यह समाचार सुनकर ‘क’ की पत्नी ‘ब’ को बहुत दुख हुआ। इसलिए वह न्यायिक अलगाव दायर कर सकती है।

9.प्रकल्पित मृत्यु(Presumed Death):- यदि विवाह के किसी पक्षकार के बारे में 7 वर्ष या इससे अधिक समय से उन लोगों के द्वारा इसका जीवित होना नहीं सुना गया है जो उसके विशेष संबंधी हैं और जिन्हें, यदि वह व्यक्ति जीवित होने का ज्ञान होता , तो विवाह के दूसरे पक्ष कार को न्यायिक पृथक्करण की आज्ञप्ति प्राप्त करने का आधार प्राप्त हो जाता है।

उदाहरण ‘ए’ और ‘बी’ 4 साल से पति-पत्नी हैं और अचानक करीब 8 साल के लिए पति गायब हो गया। ‘बी’ ने अपनी पत्नी के रूप में इन 8 वर्षों में अपने पति को खोजने की पूरी कोशिश की लेकिन वह उसे नहीं ढूंढ पाई। ‘बी’ इस मामले के लिए न्यायिक अलगाव दायर कर सकता है।

न्यायिक पृथक्करण की याचिका दायर करने के लिए पत्नी को निम्नलिखित अतिरिक्त आधार प्राप्त है:-

  • A. बहु- विवाह (Bigamy)
  • B. पति द्वारा बलात्कार(Rape), गुदामैथुन(Sodomy) अथवा पशुगमन(Bestiality)
  • C. भरण पोषण की डिक्री (Decree of maintenance)
  • D. यौवन का विकल्प (option of puberty)

1.पति द्वारा बहु विवाह :-

इस अधिनियम के लागू होने के पहले संपन्न हुए विवाह की दशा में पति ने इस अधिनियम के लागू होने के पहले ही दूसरा विवाह फिर से किया था या इस अधिनियम के लागू होने के पूर्व की उसकी विवाहिता पत्नी आवेदक के साथ विवाह के समय जीवित थी।

परंतु ,यह कि किसी भी दशा में दूसरी पत्नी याचिका प्रस्तुत करते समय जीवित है।

उदाहरण ‘ए’ और ‘बी’ 5 साल से पति-पत्नी हैं और वे अपने परिवार के साथ खुश हैं। अचानक ‘ए’ ने अपनी पहली पत्नी ‘बी’ की सहमति के बिना दूसरी महिला ‘सी’ से दोबारा शादी कर ली और ‘सी’ को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि ‘ए’ पहले शादीशुदा है। जब ‘बी’ और ‘सी’ को इस बारे में पता चला। ‘बी’ न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका दायर कर सकता है।

2.पति द्वारा बलात्कार, गुदामैथुन या पशुगमन :-

यदि पति बलात्कार, गुदामैथुन अथवा पशुगमन के अपराध का दोषी हो तो इन आधारों पर पत्नी तलाक की आज्ञप्ति प्राप्त कर सकती है।

उदाहरण ‘ए’ और ‘बी’ 3 साल से पति-पत्नी हैं, अगर पति ‘ए’ ने किसी अन्य महिला से बलात्कार किया है और वह उसके लिए दोषी पाया गया, तो इस मामले में पत्नी ‘बी’ न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका दायर कर सकती है। 

3.पोषण की डिक्री या आदेश:- 

“हिंदू दत्तक- ग्रहण तथा भरण पोषण अधिनियम, 1956” की धारा 18 के अंतर्गत दायर किए गए मामलों में या दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अंतर्गत दायर कार्यवाही के अंतर्गत पति के विरुद्ध पत्नी के पक्ष में भरण पोषण के लिए आज्ञप्ति अथवा आदेश पास कर दिया गया है|इस प्रकार की आज्ञप्ति अथवा आदेश पास हो जाने के बाद विवाह के पक्षकारों में सहवास 1 वर्ष अथवा और अधिक वर्षों से नहीं हुआ है।

4.यौवन का विकल्प:-

यदि उसका विवाह 15 वर्ष की आयु पूरा होने के पहले संपन्न हुआ है और उसने 15 वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद किंतु 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने के पहले विवाह को विखंडित कर दिया है।

न्यायिक पृथक्करण की विवाह विच्छेद से भिन्नता:-

न्यायिक पृथक्करण विवाह विच्छेद से भिन्न होता है।

न्यायिक पृथक्करण तथा विवाह विच्छेद में अंतर:- 

न्यायिक पृथक्करणविवाह विच्छेद
न्यायिक पृथक्करण में संबंध स्थगित हो जाते हैं समाप्त नहीं होते।विवाह विच्छेद में पति पत्नी के संबंध समाप्त हो जाते हैं।
इसमें पति पत्नी के वैवाहिक अधिकार एवं कर्तव्यों को कुछ समय के लिए निलंबित किया जाता है।विवाह विच्छेद में विवाह को हमेशा के लिए विघटित कर दिया जाता है।
न्यायिक पृथक्करण के दौरान दूसरा विवाह नहीं किया जा सकता।विवाह विच्छेद के बाद पक्षकारों को दूसरा विवाह करने का अधिकार उत्पन्न हो जाता है अर्थात पक्षकार दूसरा विवाह करने के लिए स्वतंत्र होते हैं।
न्यायिक पृथक्करण के दौरान पक्षकारों की हैसियत पति-पत्नी की ही रहती है।विवाह विच्छेद के बाद पक्षकार पति पत्नी नहीं रहते।

न्यायिक पृथक्करण को पक्षकार स्वयं समाप्त कर सकते हैं।
विवाह विच्छेद को पक्षकार स्वयं समाप्त नहीं कर सकते हैं।
न्यायिक पृथक्करण के दौरान यदि किसी एकपक्ष कार की मृत्यु हो जाती है तो दूसरा पक्षकार उसकी संपत्ति को उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त कर सकता है।विवाह विच्छेद के बाद पक्षकारों का एक दूसरे की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता है।

व्यभिचार एक बहुत बड़ा आधार है, जिसके द्वारा कोई भी याचिका दायर करता है।
पति और पत्नी को एक व्यभिचारी संबंध में रहना चाहिए, तभी कोई पक्ष तलाक के लिए फाइल कर सकता है।
न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका विवाह के बाद किसी भी समय दायर की जा सकती है।विवाह के एक या अधिक वर्षों के बाद ही विवाह विच्छेद के लिए याचिका दायर की जा सकती है।
न्यायिक पृथक्करण का प्रावधान हिंदू विवाह अधिनियम,1955 की धारा 10 के अंतर्गत किया गया है।विवाह विच्छेद का प्रावधान हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 के अंतर्गत किया गया है।

निष्कर्ष:-

अर्थात,अब हम कह सकते हैं कि ,हिंदू विवाह अधिनियम बिना किसी वैध कारण के किसी रिश्ते को छोड़ने की अनुमति नहीं देता है। ऐसे विशेष आधार होने चाहिए जिन पर पति या पत्नी न्यायिक पृथक्करण या तलाक के लिए मामला दायर कर सकते हैं।

संदर्भ:-