परिचय:-
- उत्तराधिकार से तात्पर्य है कि किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसकी संपत्ति का न्यागमन
- उत्तराधिकार दो प्रकार के होते हैं एक वसीयती उत्तराधिकार और दूसरा निर्वासीयती उत्तराधिकार
- प्राचीन विधि के अंतर्गत उत्तर काल काल्पनिक उत्तराधिकार होता था अर्थात हिंदू विधिशास्त्र में संपत्ति ही उसी को कहते थे जिसका कोई स्वामी होता था व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात विधि के प्रक्रमण से तत्काल ही उसकी संपत्ति दायतो मैं निहित हो जाती है।
- संपत्ति एक बार निहित हो जाने पर अनिहित नहीं हो सकती परंतु इसके दो अपवाद हैं
- गर्भस्थ दायाद और दत्तक पुत्र
- संपत्ति दो प्रकार की होती हैं एक स्वयं अर्जित संपत्ति और दूसरी पुश्तैनी संपत्ति
- सहदायिक दाय की अवधारणा का मूल है – Coparcenary is “unity of title, possession and interest”
- प्रारंभ में उत्तराधिकार का अधिकार केवल पुरुष दाय को प्राप्त था परंतु आधुनिक समय में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 द्वारा इसे विधि का रूप प्रदान किया गया
- यह अधिनियम केवल पुरुष को सहायक संपत्ति में हित का निर्गमन प्राप्त होता था तथा पुत्री को इस अधिनियम में सहायक संपत्ति में अधिकार प्राप्त नहीं था
- इस भेदभाव को दूर करने के लिए लॉ कमीशन ऑफ इंडिया द्वारा 17 वीं रिपोर्ट में इस भेदभाव को दूर करने के लिए 5 मई 2000 न्यायमूर्ति बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में सिफारिश की गई। वर्ष 2005 में हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 पारित किया गया जिसमे पुत्री को पुत्र के समान पैतृक संपत्ति तथा स्वयं अर्जित संपत्ति में समान अधिकार प्रदान किए गए।
- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 6 को परावर्तित कर सहभागी संपत्ति में पुत्री के हित का न्यागमन किया गया।
संशोधन के पूर्व धारा 6 :-
धारा 6-मिताक्षरा सहदायिक की निर्वासीयती की मृत्यु के पश्चात सह दायक संपत्ति में उसका हित का उत्तराधिकार –
अधिनियम की धारा 6 के अनुसार जब कोई हिंदू पुरुष अपनी अपनी मृत्यु के सहदायक संपत्ति में अधिकार होते हुए इस अधिनियम के प्रारंभिक के पश्चात मरता है तब उस संपत्ति में उसका हित सहदायिक के उत्तरजीवी सदस्यों पर उत्तरजीविता के आधार पर में न्यागमन होगा न कि इस अधिनियम के अनुसार।
मृतक मरने के पश्चात निम्न को पीछे छोड़ता है=
(क) किसी नारी संबंधिनी को जो उत्तर अधिकारियों की प्रथम श्रेणी में विनिदष्ट है।
(ख) किसी पुरुष संबंधी को जैसे उत्तराधिकारीओं के प्रथम श्रेणी में विनिष्ट किया गया है, और जो ऐसी नारी संबंधी के माध्यम से उत्तराधिकार की मांग करता है, तो मिताक्षरा सहदायिक संपत्ति मे मृतक का हित इस अधिनियम के अधीन वसीयती या निर्वसियती उत्तराधिकार से, जैसे भी स्थिति हो,न्यागमन होगा ना कि उत्तरजीविता द्वारा।
धारा 6 का स्पष्टीकरण
किसी हिंदू मिताक्षरा सहदायक का संपत्ति में हित , उसका वह अंश समझा जाएगा जो उसे उसकी मृत्यु से ठीक पूर्व यदि विभाजन किया गया होता तो प्राप्त होता, चाहे वह विभाजन की मांग कर सकने का हकदार हो या ना हो अर्थात काल्पनिक विभाजन के आधार पर।
अधिनियम की प्रथम अनुसूची में उत्तराधिकार निम्न है –
उत्तरजीविता का सिद्धांत (doctrine of survivorship):-
यदि कोई मिताक्षरा सहदायिक पुत्र,पौत्र, प्रपोत्र छोड़कर मरे तो मृतक का उत्तरजीविता के नियम से बचे हुए सहायिकाओं को प्राप्त होगा और हिंदू उत्तराधिकार नियम लागू नहीं होंगे । लेकिन यदि सह दायक मरने से पहले पुत्र व पुत्री को छोड़कर जाए तो मिताक्षरा सहदायिकी मैं संपत्ति में उसका हित अधिनियम के अंतर्गत उत्तराधिकार के नियम से शासित होगा।
वाद– रमेश वर्मा बनाम राजेश सक्सेना (1998)
इस बाद में मध्य प्रदेश न्यायालय ने निर्णय किया कि अधिनियम के प्रवर्तित होने के बाद एक हिंदू पति , पुत्र पुत्री व विधवा को छोड़कर निर्वासीयती मर गया। मत व्यक्त किया की उपरोक्त तीनों उत्तराधिकारी अनुसूची प्रथम के अंतर्गत आते हैं अतः मृतक की संपत्ति में पुत्री अन्य लोगो के साथ बराबर हिस्सा प्राप्त करेगी । इस प्रकार इस बाद में उत्तरजीविता का सिद्धांत निष्प्रभावी हो गया
केस – बाशा बली गम्मा बनाम सारा दम्मा (1994)
निर्णय–पुत्र की विधवा को संपत्ति में बराबर हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार है।
केस – भानु बाई बनाम सरस्वती (1980)
यदि कोपार्सनर का पुत्र हिंदू ज्वाइंट फैमिली अलग रहने लगा है तो उसकी पत्नी संपत्ति में अपना अधिकार प्राप्त नहीं कर सकती है
संशोधन के पश्चात धारा 6:-
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 6 के स्थान पर हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 द्वारा लिंग के आधार पर भेदभाव को दूर किया गया एवं धारा 6 को पूर्ण रूप से बदल दिया गया जिसमें पुत्री को पुत्र के समान अधिकार प्राप्त हुए
धारा 6 (1) हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम के प्रारंभ से ही मितक्षरा विधि द्वारा शासित किसी संयुक्त हिंदू परिवार में किसी सहदायिक की पुत्री-
(क) जन्म से ही अपने स्वयं के अधिकार से उसी रीति से सहदायिक बन जाएगी जैसे पुत्र होता है,
(ख) सहदायिकी संपत्ति में उसे वही अधिकार प्राप्त होंगे जो तब वह पुत्र होती तो होते,
(ग) सहदायिकी संपत्ति में उसे भाई दायित्व के अधीन होगी, जैसे पुत्र का दायित्व है, और हिंदू मिताक्षरा सहदायिक का कोई निर्देश से यह समझा जायेगा कि उसमें सदा एक पुत्री के प्रति कोई निर्देश सम्मिलित हैं।
परंतु-इस उप धारा में अंतरविष्ट कोई चीज संपत्ति के किसी विभाजन या वसीयती विन्यास को जो दिसंबर 2004 , 20 बे दिन के पूर्व किया गया है प्रभावित नहीं करेगा।
(2) कोई संपत्ति, जिसके लिए हिंदू नारी उप धारा (१) एक के आधार पर हकदार बन जाती है, उसके द्वारा सहदायिकी स्वामित्व की घटना के साथ धारण की जाएगी और इस अधिनियम या तत्समय प्रवर्तित किसी अन्य विधि मे अंतर्विस्ट किसी बात के होते हुए भी वसीयती व्ययन द्वारा उसके द्वारा व्ययन किए जाने योग्य संपत्ति मानी जाएगी।
(3) जहां किसी हिंदू की म हेंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के प्रारंभ के बाद होती है, वहां मिताक्षरा विधि द्वारा संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में उसका हित इस अधिनियम के अधीन वसीयती और निर्वासिती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत हो जाएगा परंतु उत्तरजीविता के आधार पर नहीं और सहदायिकी संपत्ति इस प्रकार विभाजित की गईसमझी जाएगी मानो विभाजन हो चुका था और
(क) पुत्री को वही अंश आवंटित किया जाता है जो पुत्र को आवंटित किया जाता है।
(ख) पूर्व मृत पुत्र या पूर्व मृत पुत्री का अंश , जिसे वे भी प्राप्त करते, यदि वे विभाजन के समय जीवित रहते, ऐसे पूर्व मृत पुत्र के या ऐसे पूर्व मृत पुत्री के उत्तरजीवी संतान को आवंटित किया जाएगा।
(ग) किसी पूर्व मृत पुत्र के या पूर्व मृत पुत्री के पूर्व मृत संतान का अंश, जैसे ऐसी संतान प्राप्त करता है यदि वह विभाजन के समय जीवित रहता या रहती, पूर्व मृत पुत्र या पूर्व मृत पुत्री के यथा स्थिति के पूर्व मृत संतान आवंटित किया जाएगा
स्पष्टीकरण-इस उप धारा के प्रयोजनों के लिए हिंदू मिताक्षरा सहदायिक का हित संपत्ति में वह अंश समझा जाएगा जो उसे विभाजन में मिलता, यदि उसकी अपनी मृत्यु में अव्ययहित पूर्व संपत्ति का विभाजन किया गया होता इस बात का विचार किए बिना यह विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं
(4) हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ के बाद कोई न्यायालय पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध उसके पिता, पितामह, प्रीति पितामह से किसी बकाया ऋण की वसूली के लिए एकमात्र हिंदू विधि के अधीन पवित्र कर्तव्य के आधार पर किसी ऋण का उन्मोचन करने के लिए ऐसे पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र के हिंदू विधि के अधीन पवित्र आबध्यता के आधार पर कार्रवाई करने के किसी अधिकार को मान्यता नहीं देगा।
परंतु हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के प्रारंभ के पूर्व लिए गए किसी ऋण के मामले मे उप धारा के अंतर्विष्ट कोई
(क) पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र के विरुद्ध यथास्थिति, कार्यवाही करने के लिए किसी लेनदार के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा।
(ख) किसी ऐसे ऋण के संबंध में या ऋण की पुष्टि में किए गए किसी अन्य संक्रमण को प्रभावित नहीं करेगा और कोई ऐसा अधिकार या अन्य संक्रमण उसी ढंग में और उसी विस्तार तक पवित्र कर्तव्य के नियम के अधीन प्रवर्तनीय होगा जैसे यह होता है।
स्पष्टीकरण– खंड‘क‘प्रयोजनों के लिए पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र पद से समझा जाएगा की वह यथा स्थिति ऐसे पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र प्रति निर्देश हैं। जो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 के प्रारंभ के पूर्व पैदा हुआ था या दत्तक ग्रहण किया गया था।
(5) इस धारा में अंतर्विष्ट कोई बात ऐसे विभाजन को लागू नहीं होगी 20 दिसंबर 2004 के पूर्व किया गया है।
स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजन के लिए“विभाजन” से रजिस्ट्रीकरण अधिनियम 1908 से विभाजन एवं न्यायालय पार्टी डिग्री पर आधारित विभाजन है।
प्रमुख बाद :-
केस -शांति लाल साहू बनाम सावित्री साहू (2008)
संशोधन अधिनियम लागू होने के पश्चात पुत्री का पुश्तैनी संपत्ति में अंश प्राप्त करने की क्षमता प्राप्त होती है
केस- के.एम. थांगनवेल बनाम के. टी. उदय कुमा
यदि पिता 9 सितंबर 2005 संशोधन के समय जीवित है तो सह दायक मानी जाएगा, यदि इसके पूर्व पिता की मृत्यु हो चुकी है तो पुत्री सहदायिक नहीं माननी जाएगी
केस – श्रीमती लीला बाई बनाम दगदुआ (2014)
विवाहित पुत्री का सदायिक संपत्ति में उत्तराधिकार –हिस्से की हकदारी पुत्र के समान
केस -सुशांत सिंह बनाम सुंदर श्याम ( 2013)
यदि विवादास्पद संपत्ति, निजी संपत्ति थी तो यह मृतूक पिता के पुत्र पर अपने पिता के मृत्यु के पश्चात उसकी व्यक्तित्व क्षमता में हस्तांतरित नहीं होगी।
केस- परेश दामोदर दास बनाम अरुण दामोदर ( 2014)
धारा 6 के अनुसार संपत्ति के स्वामी की मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार द्वारा संपत्ति का अंतरण होगा ना कि उत्तरजीविका के आधार पर।
केस – शंकर भंडारी बनाम ओम प्रकाश भंडारी (2014)
इस वाद में धारित किया गया की धारा 6 सभी जीवित पुत्रियां जिनका जन्म संशोधन के पूर्व या पश्चात हुआ है लागू होगा परंतु यह उपबंध तब लागू नहीं होगा जिस पिता की मृत्यु संशोधन के पूर्व हो गई हो
केस – प्रकाश बनाम फूलवती 2015 RCR (civil)952
पैतृक संपत्ति में बेटी के अधिकार को वर्ष 2005 में कानून में हुए संशोधन के मामले में नहीं मिलेगा – हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 की धारा 6 के अनुसार बेटी को संपत्ति में बराबर अधिकार प्राप्त है परंतु यह अधिकार बेटी को तब प्राप्त होगा जब संपत्ति का बंटवारा 20 दिसंबर 2004 के बाद हुआ हो । –पिता तथा पुत्री को 9 सितंबर 2005 के बाद जीवित है तभी बेटी को संपत्ति में अधिकार प्राप्त हुआ
केस – गंडुरी कोटेश्वरम्मा बनाम चकीरियानादी (2011)
न्यायालय ने वर्ष 2005 के संशोधन अधिनियम की धारा 6 का हवाला देते हुए कहा कि यदि हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 के लागू होने से पहले विभाजन को लेकर अंतिम डिक्री पारित नहीं की गई तो पुत्रियों को हिस्से को देखते हुए प्रारंभिक डिग्री में संशोधन किया जाना होगा
केस – दानम्मा सुमन सुरपुर बनाम अमर एवं अन्य (2018)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कि अधिनियम की धारा 6 के अनुसार कोई सहस्वामी अपने पीछे अधिनियम की अनुसूची के वर्ग 1 की महिला को छोड़ जाता है तो अभाज्य संपत्ति सिर्फ जीवित रहने वाले पुरुषों की नहीं होती बल्कि उनके उत्तराधिकारी एवं द्वारा निर्वाचित उत्तराधिकार के अनुसार महिला भी उसकी हकदार होती है
निष्कर्ष –
पुत्र एवं पुत्री का पैतृक संपत्ति में समान अधिकार होता है जोकि विधि के समक्ष समता जोकि अनुच्छेद 14 से हमें संविधान से प्राप्त है |
यदि यदि संपत्ति का बंटवारा 20 दिसंबर 2004 के पूर्व नहीं हुआ है तो पुत्री का पैतृक संपत्ति में समान अधिकार प्राप्त होगा।
पुत्री एवं पिता का हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के समय जीवित रहना आवश्यक है। यदि यदि न्यायालय में 2004 से पूर्व बंटवारे की डिक्री पारित नहीं
की गई तो फिर महिला अपना हक पाने की हकदार है यदि पुत्री का जन्म 1956 अधिनियम के पूर्व हुआ है परंतु आज जीवित है तो भी वह धारा 6 के अंतर्गत सहदायिकी संपत्ति प्राप्त कर सकती है |
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यह आर्टिकल Rohit Sahu के द्वारा लिखा गया है जो की LL.B. IIIrd सेमेस्टर Dr. Harisingh Gour central University,sagar के छात्र है | |