हमारा कानून

बिना हानि के क्षति क्या है ?- अपकृत्य विधि | Injuria Sine Damnum in Hindi -Tort

बिना हानि के क्षति

“बिना हानि के क्षति” (Legal injury without damage) का अर्थ है कोई ऐसी क्षति जिससे वादी के किसी विधिक अधिकार का अतिलंघन तो हुआ हो परंतु इससे उसको कोई हानि कारित न हुई हो तथा वादी प्रतिवादी के विरुद्ध वाद ला सकता है ।

केस ऐशबी बनाम हाइट, (1703) 2 एल. डी. रेम. 938

यह वाद “बिना हानि के क्षति” सूत्र का स्पष्टीकरण करता है। इस मामले में वादी संसदीय निर्वाचन में एक मतदाता था,उसका मत निर्वाचन अधिकारी (प्रतिवादी) ने लेने से इन्कार कर दिया। ऐसा करने से हालांकि वादी को कोई हानि नहीं हुई क्योंकि वादी जिसे अपना मत देना चाहता था वह चुनाव में जीत गया। परंतु चूँकि मत देने के वादी के विधिक अधिकार का अतिलंघन हुआ था इसलिये वादी बाद मे सफल हुआ। इस प्रसिद्ध वाद का निर्णय मुख्य न्यायाधीश होल्ट ने सुनाया था।

केस :- मरजट्टी बनाम विलियम्स, (1803) 1 वी. एण्ड एड. 415

मामले में बैंक में पर्याप्त राशि जमा होने पर भी प्रतिवादी बैंक ने वादी को चैक का भुगतान करने से इंकार कर दिया। वादी द्वारा अपकृत्य विधि के अन्तर्गत दायर वाद को स्वीकार कर लिया गया यद्यपि वादी को कोई हानि नहीं हुई थी।

“बिना क्षति के हानि”(Damage without legal injury)

“बिना क्षति के हानि” (Damage without legal injury) का अर्थ है वादी को कोई ऐसी हानि होना जिससे उसके किसी विधिक अधिकार का अतिलंघन न हुआ हो।

ग्लोसेस्टर ग्रामर स्कूल का मामला “बिना क्षति के हानि” के विषय में विस्तृत प्रकाश डालता है। इस प्रकरण में प्रतिवादी जो कि एक अध्यापक था, उसने वादी की प्रतिद्वन्द्विता में एक नया विद्यालय खोला। अपने विद्यालय में बच्चों को बनाए रखने के लिए वादी को शुल्क में भारी कमी करनी पड़ी जिससे उसे हानि हुई। परन्तु न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि हालांकि वादी को हानि हुई है लेकिन उसे कोई उपचार नहीं मिल सकता।

केस – मुगल स्टीमशिप कंपनी बनाम मैकग्रेगर, (1892) ए.सी. 25

इस मामले में कई शिपिंग कंपनियों संयुक्त रूप से जहाज से भेजे जाने वाले माल के भाड़े में कमी कर दी। उनका उद्देश्य वादी को व्यवसाय की प्रतिस्पर्धा से बाहर करना था। इस मामले में हाउस ऑफ लॉर्डस ने निर्णय दिया कि वादी के पास कार्यवाही करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि प्रतिवादियों ने उनके व्यापार को बचाने और उसके विस्तार के लिये विधिपूर्ण कार्य किया था।

केस:- सीतारमैया बनाम महालक्षम्मा (AIR 1958)A.P.103

इस वाद में चार प्रतिवादियों ने एक जल प्रवाह से आने वाली जलधारा को अपनी भूमि में न आने देने के लिये अपनी ही भूमि में एक खाई खोदकर बांध बना दिया। पाँचवें प्रतिवादी ने भी इसी प्रकार स्वतन्त्र रूप से अपनी भूमि पर एक बांध बनवाया, ताकि जल प्रवाह उसकी भूमि में भी न आ सके। पाँचों प्रतिवादियों ने इन कार्यों के परिणामस्वरूप वर्षा का जल, वादी की भूमि में प्रवाहित होने लगा जिसके परिणामस्वरूप उसे हानि भी कारित हुई।

वादी ने न्यायालय से निवेदन किया कि आज्ञापक व्यादेश (mandatory injunction) जारी करके प्रतिवादियों द्वारा अपनी भूमि में बनाये गये बांधों को तोड़वा दिया जाये, तथा खाइयों को भरवा दिया जाये। उनसे स्थायी व्यादेश की भी मांग की जिसमें उसने भविष्य में प्रतिवादियों द्वारा खाई और बांध बनवाने से निवारित करने का निवेदन किया। उसकी भूमि में जल प्रवाह के कारण उसे जो हानि हुई थी, उसकी पूर्ति के निमित्त उसने 300 रुपये के क्षतिमूल्य की माँग की।

उच्च न्यायालय ने यह धारित किया कि किसी नदी के समीप भूस्वामी को यह अधिकार है कि वह अपनी भूमि पर बाँध बनवाकर नदी के जल प्रवाह को मोड़कर अपनी हानि का निवारण करे, चाहे भले ही उसके ऐसे कार्य के परिणामस्वरूप नदी का प्रवाह मुड़कर पड़ोसी की भूमि पर चला जाये और उसको हानि कारित करे। यह चूंकि बिना क्षति के हानि (Damnum Sine Injuria) सूत्र के अन्तर्गत आने वाला एक स्पष्ट वाद था, अतः वादी को कारित हानि के लिये प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं ठहराये गये।

केस:- उषाबेन बनाम भाग्यलक्ष्मी चित्र मन्दिर ,AIR 1978 

इस वाद में वादी- अपीलकर्ता ने प्रतिवादी- प्रत्युत्तरदाता के प्रतिकूल स्थायी व्यादेश (permanent injunction) जारी करने के लिये वाद संस्थित किया कि उसे ‘जय संतोषी माँ‘ नामक चलचित्र का प्रदर्शन करने से रोक दिया जाये। वादी ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि इस चलचित्र ने वादी की धार्मिक भावना को चोट पहुँचायी है, क्योंकि उसमें सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती को ईर्ष्यालु बताया गया है तथा उनका उपहास किया गया है। यह धारित किया गया कि किसी की धार्मिक भावना को चोट पहुँचाना विधिक अपकार के रूप में मान्यकृत नहीं है।

बात यह है कि किसी व्यक्ति को यह विधिक अधिकार नहीं प्राप्त है कि अपनी धार्मिक भावना का प्रवर्तन वह किसी अन्य व्यक्ति पर करे या उसे कोई विधिपूर्ण कार्य करने मात्र से इस आधार पर रोके कि उसका कार्य उसके धर्म विशेष की मान्यता के अनुसार नहीं है। वादी का, चूंकि कोई विधिक अधिकार अतिलंघित नहीं हुआ था, अतः व्यादेश जारी करने का उसका निवेदन अस्वीकृत कर दिया गया।

केस:- ग्लोसेस्टर ग्रामर स्कूल (1410)

इस वाद में प्रतिवादी ने, जो एक अध्यापक था, वादी की प्रतिद्वन्दिता में एक नया विद्यालय स्थापित किया। प्रतियोगिता के कारण वादी को छात्रों के शुल्क में अत्यन्त कमी करनी पड़ी। जहाँ वह प्रति छात्र तिमाही शुल्क के रूप में 40 पेंस लेता था, वहीं इस नयी परिस्थिति के कारण उसे प्रति छात्र तिमाही शुल्क 12 पेंस ही निर्धारित करना पड़ा। यह धारित किया गया कि इस हानि के लिये वादी को कोई उपचार नहीं मिल सकता।

न्यायाधीश हेन्कफोर्ड ने अभिमत व्यक्त किया कि हानि (Damnum) यदि किसी ऐसे कार्य के परिणामस्वरूप होती है जो विशुद्ध प्रतियोगिता के अन्तर्गत अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुये किया गया है, तो वह अवैध नहीं है, चाहे भले ही ऐसे कार्य के परिणामस्वरूप दूसरे पक्ष को हानि उठानी पड़ी हो। ऐसे कार्यों को निरपेक्ष अपकृति (abseque injuria) की संज्ञा दी जा सकती है।

उदाहरण के लिये, मेरे पास एक मिल है, और मेरा पड़ोसी भी एक नये मिल की स्थापना करता है, जिसके परिणामस्वरूप मेरे मिल का लाभ कम हो जाता है। मैं इस हानि के होते हुये भी अपने पड़ोसी के विपरीत कोई कार्यवाही नहीं कर सकता, परन्तु यदि वह मिल वाला मेरे मिल में आने अथवा जाने वाले पानी को व्यवधानित करता है, या इसी प्रकार का कोई अपदूषण करता है, तो मैं विधि द्वारा प्राधिकृत कार्यवाही करने का अधिकारी हैं।

केस:- मुगल स्टीमशिप कम्पनी बनाम मैकग्रेगर (1892) ए.सी.25 

इस वाद में अनेकों पोत (Shipping) कम्पनियों ने संयुक्त रूप से जहाजों द्वारा भेजे जाने वाले माल के भाड़े में कमी कर दी। माल भाड़े की दर से कमी करने का मुख्य उद्देश्य वादी को चीन के चाय परिवहन व्यापार क्षेत्र से निकाल देना था, हाउस ऑफ लाईस ने धारित किया कि वादी के पास कार्यवाही करने का कोई कारण नहीं है, क्योंकि प्रतिवादियों ने अपने व्यापार के संरक्षण तथा विस्तार के लिये वैधपूर्ण रीति से कार्य किया था।

केस:- टाउन एरिया कमेटी बनाम प्रभुदयाल (AIR 1975)

इस वाद में वादी के एक भवन की पुरानी नीवों पर 16 दुकानों का निर्माण किया। यह निर्माण कार्य भवन निर्माण के आशय की सूचना दिये बिना ही किया गया, जिसकी कि उत्तर प्रदेश नगरपालिका अधिनियम की धारा 178 के अन्तर्गत अपेक्षा की गई थी। इसी अधिनियम की धारा 180 की अपेक्षाओं के अनुरूप भवन निर्माण की आवश्यक स्वीकृति भी नहीं ली गई। प्रतिवादियों ने इस निर्माण को ध्वस्त कर दिया।

प्रतिवादियों के विरुद्ध निर्माण ध्वस्त के प्रतिकर के दावे में वादी ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि प्रतिवादियों का कार्य अवैध था, क्योंकि वह विद्वेषपूर्ण था। यह धारित किया गया कि प्रतिवादी किसी हानि के लिये उत्तरदायी नहीं थे, क्योंकि कोई विधिक क्षति (Injuria) साबित नहीं की जा सकी। यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया कि यदि व्यक्ति अवैधतः किसी भवन का निर्माण करता है, तो नगरपालिका के प्राधिकारियों द्वारा ऐसे भवन का ध्वस्त किया जाना सम्पत्ति के स्वामी के विरुद्ध कोई विधिक क्षति (Injuria) कारित नहीं करता।

संदर्भ- 

बिना हानि के क्षति FAQ

  1. बिना हानि के क्षति क्या है ?

    “बिना हानि के क्षति” (Legal injury without damage) का अर्थ है कोई ऐसी क्षति जिससे वादी के किसी विधिक अधिकार का अतिलंघन तो हुआ हो परंतु इससे उसको कोई हानि कारित न हुई हो तथा वादी प्रतिवादी के विरुद्ध वाद ला सकता है ।

  2. बिना क्षति के हानि क्या है ?

    “बिना क्षति के हानि” (Damage without legal injury) का अर्थ है वादी को कोई ऐसी हानि होना जिससे उसके किसी विधिक अधिकार का अतिलंघन न हुआ हो।

  3. ऐशबी बनाम हाइट, किससे संबंधित केस हैं ?

    बिना हानि के क्षति से |

  4. ग्लोसेस्टर ग्रामर स्कूल किससे संबंधित केस हैं ?

    बिना क्षति के हानि से |

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *