सार संक्षेप (women rights)
स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय महिला की स्थिति में काफी सुधारात्मक परिवर्तन हुए हैं । आजादी के 72 वर्षों के पश्चात हम यदि कानूनी दृष्टिकोण से नारी के प्रति अपराधों को रोकने के लिए बनाए गए अधिनियमो की विवेचना करते हैं तो स्पष्ट परिलक्षित होता है कि हमारे देश में नारी की गरिमामयी स्थिति को बनाए रखने के लिए बहुत सारे कानून बनाए गए हैं ।किंतु पर्याप्त कानूनी शिक्षा के अभाव में कानून की जानकारी उनको नहीं मिल पाती और अधिकतर महिलाओं को पता ही नहीं होता कि उनको कौन – कौन से अधिकार प्राप्त है।
प्रस्तावना –
प्राचीन युग से वर्तमान युग तक नारी के संघर्ष की गाथा बहुत लंबी है कहा जाता है कि 1000 वर्षों से पराधीनता में रहने बाली एकमात्र जाति” नारी “ही है। इसी कारण स्त्री को अंतिम उपनिवेश की भी संज्ञा दी जाती रही है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद स्त्री और पुरुष को समान दर्जा देता है किंतु आंकड़ों से स्पष्ट है कि यह स्थिति कागजों तक ही सीमित है। यदि हमारे देश में घटित होने वाले महिलाओं के प्रति अपराधों का विश्लेषण करें तो स्पष्ट होता है कि प्रति 6 मिनट पर महिलाओं के साथ छेड़छाड़, सार्वजनिक अपमान, हत्या का प्रयास, बलात्कार, उत्पीड़न और अश्लीलता जैसी घटनाएं घटती हैं।
भारत में विभिन्न प्रदेशों की स्थिति को देखें तो महाराष्ट्र में सर्वाधिक फिर मध्यप्रदेश में, आंध्र प्रदेश में, राजस्थान में महिलाओं के प्रति ज्यादा अपराध घटित होते हैं।
ऐसे अपराधों को रोकने के लिए कठोर से कठोर कानून निर्मित किए जा रहे हैं, किंतु जब तक पुरुषों तथा समाज की मानसिकता में सुधार नहीं आएगा ऐसे कानूनों का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा क्योंकि समस्याओं का जन्म समाज से होता है।
भारतीय संविधान द्वारा महिलाओं को बहुत से संवैधानिक एवं विधिक अधिकार प्रदान किए गए हैं, इसके साथ ही इन अधिकारों के उचित क्रियान्वयन स्वयं महिलाओं को उत्पीड़न से बचाने हेतु विभिन्न आयोगों की स्थापना की गई है।
भारतीय संविधान मे महिलायों के अधिकार (constitutional rights of women )
- मौलिक अधिकारों के अंतर्गत महिलाओं के अधिकार (women rights under FR)
- राज्य के नीति निदेशक तत्व के अंतर्गत महिलायों के अधिकार (women rights under DPSP)
- मोलिक कर्तव्य के अंतर्गत महिलायों के अधिकार( women rights under FD)
- अन्य अनुच्छेद के अंतर्गत महिलाओं के अधिकार (women rights in other articles)
1.मौलिक अधिकारों के अंतर्गत महिलाओं के अधिकार (women rights under FR)
एक ऐसे समाज की कल्पना करके जो न्यायोचित समाज हो, जिसमें लिंग पर आधारित भेदभाव ना हो संविधान ने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, सभी के लिए, सुनिश्चित करने की बात की। यही नहीं उसने सबके लिए प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित करने की बात की। इन उद्देश्यों को चरितार्थ करने के लिए संविधान में प्रावधान किए गए ।
अनुच्छेद 14 -विधि के समक्ष समता अथवा विधियों के समान संरक्षण का अधिकार
अनुच्छेद 14 यह उपबंधित करता है कि “भारत राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से अथवा विधियों के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा।”
समानता का तात्पर्य यहां पर यह है कि स्त्री और पुरुष में किसी प्रकार का लिंग भेद नहीं है तथा यह अधिकार स्त्री (women rights) और पुरुष दोनों को समान रूप से प्राप्त है।
केस – एयर इंडिया बनाम नरगिस मिर्जा (एआईआर 1981 सुप्रीम कोर्ट 1829)
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस द्वारा बनाए गए विनियमो को इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया कि उनके अधीन वायुयान परिचारिकाओं को भी सेवा शर्तों को विनियमित करने वाली शर्तें अयुक्तियुक्त और विभेदकारी है तथा अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण करती है।
निर्णय दिया गया कि पहली बार गर्भवती होने पर सेवा से पद मुक्ति की शर्तें अत्यंत अयुक्तियुक्त और विभेदकारी हैं और अनुच्छेद 14 का सरासर अतिक्रमण करती है।
केस -रणधीर सिंह बनाम भारत संघ (एआईआर 1982 supreme Court 879)।
इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यद्यपि “समान कार्य के लिए समान वेतन”एक मूल अधिकार नहीं है किंतु अनुच्छेद 14, 16 और 39 ( ग) के अधीन निश्चित ही वह एक संविधानिक लक्ष्य है और यदि दो व्यक्तियों के बीच इस मामले में विभेद किया जाता है जिसका कोई ठोस आधार नहीं है तो इससे अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण होता है।
केस -विजयलक्ष्मी बनाम पंजाब विश्वविद्यालय (एआईआर 2003 सुप्रीम कोर्ट 3331)
इस मामले में विश्वविद्यालय कैलेंडर के एक नियम के अंतर्गत महिला विद्यालयों में प्रिंसिपल के पद पर केवल महिलाओं की नियुक्ति का प्रावधान किया गया था।
उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह नियम अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 63 का उल्लंघन नहीं करता है क्योंकि इसके अधीन किया गया वर्गीकरण युक्तियुक्त है और इसका उस उद्देश्य से संबंध है जिसे पूरा किया जाना है अर्थात महिलाओं की सुरक्षा।
अनुच्छेद 15
इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 15 (3) के अधीन राज्य सरकार को स्त्रियों के लिए विशेष उपबंध बनाने की शक्ति प्राप्त है और न्यायालय अनुच्छेद 15 (3) के अधीन राज्य द्वारा लिए गए नीतिगत निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
- स्त्रियों तथा बच्चों के लिए विशेष उपबंध (अनुच्छेद 15 (3) )
अनुच्छेद 15 (3), अनुच्छेद 15 (1) और अनुच्छेद 15 (2) में दिए गए सामान्य नियम का अपवाद हैं।
यह अनुच्छेद उपबंध करता है कि अनुच्छेद 15 की कोई बात राज्य को स्त्रियों और बालकों के लिए कोई विशेष उपबंध बनाने से नहीं रुकेगी। स्त्रियों और बालकों की स्वाभाविक प्रकृति ही ऐसी होती है जिसके कारण उन्हें विशेष संरक्षण की आवश्यकता होती है। भारत में स्त्रियों की दशा बड़ी सोचनीय थी। वे अपनी सामाजिक कुरीतियों; जैसे – बाल- विवाह, बहु – विवाह आदि की शिकार थी और पूर्ण रूप से पुरुषों पर आश्रित थीं, इसी कारण राज्य को उनके लिए विशेष कानून बनाने का अधिकार प्रदान करना उचित है।
स्त्रियों के प्रति इस वैधानिक सहानुभूति के आधार के बारे में अमेरिका के न्यायालय ने “मूलर बनाम ओरेगन” के मामले में कहा कि अस्तित्व के संघर्ष में स्त्रियों की शारीरिक बनावट तथा उनके स्त्रीजन्य कार्य उन्हें दुखद स्थिति में कर देते हैं। अत: उनको शारीरिक कुशलता का संरक्षण जनहित का उद्देश्य हो जाता है जिससे नारी शक्ति और निपुणता को सुरक्षित रखा जा सके।
इसी प्रकार भारत के संविधान की उद्देशिका जो बिना भेदभाव के सभी नागरिकों की बात करती है, को भी ले सकते हैं।
केस- मध्य प्रदेश राज्य बनाम पी. बी. विजय कुमार (ए आई आर 1995 सुप्रीम कोर्ट 1648)।
इस केस में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि राज्य को सरकारी नौकरियों में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को प्राथमिकता देने की शक्ति प्राप्त है, अर्थात यदि महिला व पुरुष समान रूप से अर्ह है किंतु स्थान सीमित है, सभी की नियुक्ति नहीं हो सकती है तो महिलाओं को वरीयता दी जा सकती है। यह प्राथमिकता की सकारात्मक कार्रवाई है और अनुच्छेद 15 ( 3) की परिधि में है।
इसमें आंध्र प्रदेश राज्य ने एक नियम बनाया था जिसे “आंध्र प्रदेश और अधीनस्थ सेवाएं” नियम कहा जाता था। उसमें नियम 22 (क) जोड़ा गया जिसके अनुसार पदों के प्रत्यक्ष चयन के मामले में जहां महिलाएं पुरुषों से अधिक उपयुक्त पाई जाती हैं, वहां प्राथमिकता महिलाओं को दी जाएगी।
उच्चतम न्यायालय ने माना कि यह नियम आरक्षण का उपबंध नहीं करता।
अनुच्छेद 15 (3) के ही प्रावधानों का सहारा लेकर संसद ने 1990 में” राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम” पारित किया।
अनुच्छेद 16
अनुच्छेद 16 यह उपबंध करता है कि राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की क्षमता होगी।
केस – सी.बी. मुथम्मा बनाम भारत संघ (एआईआर 1974 सुप्रीम कोर्ट 1868)।
सरकारी महिला कर्मचारी के विवाह की अनुमति की अपेक्षा
इस मामले में एक सेवा नियम के अधीन विवाहित महिला कर्मचारी को उच्च पदों पर प्रोन्नत ना किए जाने का प्रावधान था। पिटिशनर को भारतीय विदेश सेवा (आई एफ एस ) grade 1 के पद पर इसी आधार पर प्रोन्नति नहीं दी गई क्योंकि वह एक विवाहित महिला थी।
न्यायालय ने उक्त नियमों को विभेदकारी बताते हुए असंवैधानिक घोषित कर दिया। किंतु न्यायालय ने यह भी कहा कि पुरुष और स्त्री कर्मचारी सभी पेशो और सभी परिस्थितियों में समान होते हैं। कुछ मामलों को छोड़कर जहां अंतर स्पष्ट है , समता का नियम ही सर्वमान्य नियम है।
अनुच्छेद 19
अनुच्छेद 19 में महिलाओं को स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है,ताकि वह स्वतंत्र रूप से भारत के क्षेत्र में आवागमन, निवास एवं व्यवसाय कर सकती हैं।स्त्री लिंग होने के कारण किसी भी कार्य से उनको वंचित करना मौलिक अधिकार का उल्लंघन माना गया है तथा ऐसी स्थिति में कानून की सहायता हो सकेगी।
अनुच्छेद 21
किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वाधीनता सेवा विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।
प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता सभी अधिकारों में श्रेष्ठ हैं और अनुच्छेद 21 इसी अधिकार को संरक्षण प्रदान करता है।
केस – महाराष्ट्र राज्य बनाम मधुकर नारायन(ए आई आर 1991 सुप्रीम कोर्ट 207)
चरित्रहीन महिलाओं को एकांतता का अधिकार
इसमें सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि एक चरित्रहीन महिला को भी एकान्तता का अधिकार प्राप्त है और उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
तथ्य – एक पुलिस इंसपेक्टर एक महिला बनुबई के घर गया और उससे लैंगिक संबंध स्थापित करना चाहा किंतु उसने इंकार कर दिया। बलपूर्वक ऐसा प्रयास किए जाने पर उसने हल्ला मचाया और वह पकड़ा गया। पुलिस वाले ने तर्क दिया कि वह महिला चरित्रहीन महिला है अतः उसका साक्ष्य मान्य नहीं हुआ। न्यायालय ने उसके तर्क को अस्वीकार कर दिया और उसे उस महिला के अनुच्छेद 21 के द्वारा प्रदत्त एकान्तता के अधिकार के उल्लंघन करने के लिए दोषी ठहराया और दंडित किया।
केस – लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (ए आई आर 2006 सुप्रीम कोर्ट 2522)
बालिका को स्वेच्छा से अंतर्जातीय विवाह का अधिकार
तथ्य – इसमें एक 27 वर्ष की लड़की पिता की मृत्यु के बाद अपने भाई के साथ रह रही थी।
१) वह अपने भाई का घर छोड़ कर ब्रह्मानंद गुप्ता से आर्य समाज मंदिर में शादी कर लेती है।
२) भाई ने बहन के गायब होने की रिपोर्ट लिखाई।
३) पुलिस बहन व उसके पति को गिरफ्तार कर लेती है।
४) उसका भाई जो अंतरजातीय विवाह से नाराज था उसने उसके पति को बहुत मारा और उसे जान से मारने की धमकी भी दी।
निर्णय – सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर गंभीर चिंता व्यक्त की और यह अभिनिर्धारित किया कि पिटीशनर(याचिकाकर्ता) वयस्क थी और उसे अपनी स्वेच्छा से किसी भी व्यक्ति के साथ विवाह करने का अधिकार था।उसके विरुद्ध मजिस्ट्रेट के न्यायालय द्वारा चलाया गया आपराधिक मामला अभिखंडित कर दिया गया।प्रशासन को निर्देश दिया कि उसे परेशान ना करें तथा उसे पूर्ण सुरक्षा प्रदान करें।यह अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रदत्त उसके व्यक्तित्व स्वतंत्रता का अधिकार है जिसका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता।
अनुच्छेद 23 – 24
अनुच्छेद 23 – 24 द्वारा महिलाओं के विरुद्ध होने वाले शोषण को नारी गरिमा के लिए उचित नहीं मानते हुए महिलाओं की खरीद बिक्री वेश्यावृत्ति के लिए जबरदस्ती करना, भीख मंगवाना आदि को दंडनीय माना गया है। इसके लिए सन 1956 में “सुपरेशन ऑफ इम्मोरल ट्रेफिक इन विमेन एंड गर्ल्स एक्ट”भी भारतीय संसद द्वारा पारित किया गया ताकि महिलाओं के विरुद्ध होने वाले सभी प्रकार के शोषण को समाप्त किया जा सके।
2.राज्य के नीति निदेशक तत्व के अंतर्गत महिलायों के अधिकार (women rights under DPSP)
अनुच्छेद 39
आर्थिक न्याय प्रदान करने हेतु अनुच्छेद 39 (क) में स्त्री को जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार एवं अनुच्छेद 39( द) में समान कार्य के लिए समान वेतन का उपबंध है।
अनुच्छेद 39 (द) के निर्देशों के अनुपालन में संसद ने समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 पारित किया।
अनुच्छेद 42
अनुच्छेद 42 महिलाओं के लिए प्रसूति सहायता की व्यवस्था करता है। इस अनुच्छेद के अनुसार राज्य काम की न्याय संगत और मनवोचित दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए प्रसूति सहायता के लिए उपबंध करेगा।
- राज्य के नीति निदेशक तत्व को क्रियान्वित करने के लिए संसद में प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम 1961, पारित किया। न्याय अधिनियम कतिपय स्थापनो में शिशु जन्म से पूर्व और पश्चात भी कतिपय कालावधियो में महिलाओं के नियोजन को विनियमित करने तथा प्रसूति प्रसुविधा और कतिपय अन्य प्रसुविधाओं का उपबंध करने के लिए पारित किया गया।
इस अधिनियम में कई प्रकार की सुविधाओं की व्यवस्था है, जैसे – किसी स्त्री की मृत्यु की दशा में प्रसूति प्रसुविधा का संदाए (धारा 7), चिकित्सीय बोनस का संदाये (धारा 8), गर्भपात आदि की दशा में छुट्टी (धारा 9), ट्यूब कटोरी (बंध्याकरण) ऑपरेशन के लिए मजदूरी के साथ छुट्टी, (धारा 9 क), गर्भावस्था प्रसव समय पूर्व शिशु जन्म या गर्भपात से पैदा होने वाली रुग्णता के लिए छुट्टी (धारा 10) तथा तथा पोषणार्थ विराम (धारा 11) आदि।
अनुच्छेद 46
अनुच्छेद 46 इस बात का आवाहन करता है कि राज्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा तथा अर्थ संबंधी खेतों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा तथा सामाजिक अन्याय एवं सब प्रकार के शोषण से संरक्षा करेगा।
3. मोलिक कर्तव्य के अंतर्गत महिलायों के अधिकार( women rights under FD)
अनुच्छेद 51A ( e)
संविधान के भाग 4A के अनुच्छेद 51A ( e) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हमारा दायित्व है कि हम हमारी संस्कृति की गौरवशाली परंपरा के महत्व को समझें तथा ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो कि स्त्रियों के सम्मान के खिलाफ हो।
4. अन्य अनुच्छेद के अंतर्गत महिलाओं के अधिकार (women rights in other articles)
संविधान का 73 वां और( भाग 9 ( क)) 74वां संशोधन जो 1992 में किया गया था। इसके माध्यम से, पंचायतों और नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए स्थान का आरक्षण किया गया है।
अनुच्छेद 243 ( द)( 3)
इस अनुच्छेद में प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे गए स्थानों की कुल संख्या के 1/ 3 स्थान स्त्रियों के लिए आरक्षित रहेंगे और चक्रानुक्रम से पंचायत के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में आवंटित किए जाएंगे।
अनुच्छेद 325
अनुच्छेद 325 के अनुसार निर्वाचक नामावली में महिला एवं पुरुष दोनों को ही समान रूप से सम्मिलित होने का अधिकार प्रदान किया गया है, अनुच्छेद 325 द्वारा संविधान निर्माताओं ने यह दर्शाने की कोशिश की है कि भारत में पुरुष और स्त्री को समान मतदान अधिकार दिए गए हैं।
निष्कर्ष –
समय-समय पर संविधान में महिलाओं की स्थिति को मजबूत करने के लिए संशोधन किए जाते रहे हैं, क्योंकि इस पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर किए जा रहे भेदभाव को समाप्त करने के लिए उनके अधिकारों को ना केवल सुनिश्चित करना जरूरी है बल्कि उन अधिकारों का क्रियान्वयन भी आवश्यक है।