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लेजली बनाम शील ,1914 | Leslie v. Sheill (1914) 2 K. B. 607

लेजली बनाम शील ,1914 | Leslie v. Sheill (1914) 2 K. B. 607

लेजली बनाम शील ,1914 | Leslie v. Sheill (1914) 2 K. B. 607

लेजली बनाम शील का वाद प्रत्यास्थापन के साम्या के सिद्धान्त (Doctrine of equitable restitution) से सम्बन्धित है।

यह वाद इस बात से सम्बन्धित है कि यदि कोई अवयस्क (minor) कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन (Fraudulent Misrepresentaion) द्वारा अपने को वयस्क बताकर कुछ लाभ प्राप्त करता है तो क्या उस लाभ को वापस लौटाने को बाध्य किया जा सकता है ?

लेजली बनाम शील वाद के तथ्य तथा विवाद –

इस वाद में प्रतिवादी अवयस्क था तथा उसने कपटपूर्ण मिथ्या व्यपदेशन द्वारा अपने को वयस्क बताकर वादी से दो बार दो-दो सौ पौंड की धनराशियां प्राप्त की प्रस्तुत वाद में वादी उक्त धनराशि को ब्याज सहित (475 पौंड) प्राप्त करने के लिये किया था। प्रतिवादी ने इस वाद का इस तर्क पर विरोध किया कि वह संविदा के समय अवयस्क था, अतः वह उक्त धनराशि को वापस करने का उत्तरदायी नहीं है।

निर्णय:- न्यायालय ने वाद को खारिज कर दिया। इस प्रकार प्रतिवादी के पक्ष में अपना निर्णय दिया।

लेजली बनाम शील वाद में प्रतिपादित नियम –

(1) अवयस्क सामान्यतः अपकृत्य (Tort) के लिये जिम्मेदार होते हैं। परन्तु यदि वह अपकृत्य संविदा से सम्बन्धित है तो अवयस्क को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता, अर्थात् यदि अवयस्क संविदा-भंग का दोषी है तो इसे अपकृत्य में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।

(2) यदि कोई अवयस्क कपट द्वारा अपने को वयस्क बता कर किसी से कोई लाभ प्राप्त करता है तो प्रत्यास्थापन के साम्या सिद्धान्त के अनुसार उसे बाध्य किया जा सकता है कि वह उस लाभ को उस व्यक्ति को लौटाये जिससे कि उसने प्राप्त किया है। परन्तु वयस्क को तभी बाध्य किया जा सकता है जब कि सम्पत्ति जो कि उसने प्राप्त की है, पहचानी (traceable) जा सके। धन सामान्यतः पहचाना नहीं जा सकता है; अतः अवयस्क को उसे लौटाने को बाध्य नहीं किया जा सकता।

नोट- यहाँ पर यह नोट करना आवश्यक है कि यह नियम अब भारत में मान्य नहीं है। भारत में खानगुल बनाम लाखन सिंह (1928) 9 Lah 701 के वाद में प्रतिपादित नियम, जिसे Specific Relief Act. 1963 में भी अपना लिया गया है, ही मान्य है।

(3) यदि जिस व्यक्ति से अवयस्क ने कपट द्वारा धन प्राप्त किया है, उसका उसके साथ न्यस्त प्रकृति का सम्बन्ध है तो उपर्युक्त नियम लागू नहीं होगा।

निष्कर्ष:-

उपर्युक्त सिद्धान्त के आधार पर न्यायालय ने वादी के वाद को खारिज कर दिया तथा कहा कि अवयस्क की कमजोरियों का संरक्षण करना आवश्यक है, चाहे एक-आध अवयस्क इससे नाजायज फायदा ही क्यों न उठायें। 1916 में प्रिवी कौंसिल ने इस सिद्धान्त का अनुमोदन कर दिया। परन्तु भारत में यह सिद्धान्त मान्य नहीं है।

भारत में विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (Specific Relief Act, 1963) की धारा 33 (2) (b) में स्पष्ट रूप से यह प्रावधान कर दिया गया है कि यदि कोई प्रतिवादी इस आधार पर किसी दावे का विरोध करता है कि यह संविदा अधिनियम की धारा 11 के अनुसार शून्य है तो न्यायालय को अधिकार है कि वह आदेश द्वारा प्रतिवादी को बाध्य करे कि उसने जो उक्त संविदा के अन्तर्गत लाभ प्राप्त किये हैं, उन्हें वादी को लौटाये।

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