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विधि शासन की प्रासंगिकता | Rule of law and its relevance in hindi

rule of law in hindi

प्रस्तावना:-

विधि‍ शासन (rule of law in hindi) या विधि सम्मत शासन इंग्लैंड के संविधान के मूल सिद्धांतों में से एक सिद्धांत है। इस सिद्धांत को संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत के संविधानों में भी स्वीकार किया गया है। विधिशासन का सिद्धांत प्रशासनिक विधि का सम्पूर्ण आधार है। विधि-शासन की अवधारणा के जनक सर एडवर्ड कोक थे जो जेम्‍स प्रथम के शासन काल में मुख्य न्यायाधिपति थे। राजा के विरुद्ध संग्राम में उन्होंने इस बात को सफलतापूर्वक बनाये रखा कि राजा को ईश्वर और विधि के अधीन होना चाहिए, और इस प्रकार उन्होंने कार्यपालिका के विरुद्ध विधि की सर्वोच्चता को स्थापित किया। कोक के इस सिद्धांत को डायसी ने अपनी प्रतिष्ठित पुस्तक The Law and the constitution (विधि और संविधान), जो 1885 में प्रकाशित हुई, में विकसित किया।1 प्रो. डायसी ने विधि शासन की शास्त्रीय मीमांसा प्रस्तुत किया।
“विधि का शासन” पद फ्रांस के वाक्यांश ‘कॉ प्रिन्सिपल डी लीगलाईट‘ (law principal de legalite) से लिया गया है। जिसका अर्थ होता है, ऐसी सरकार जो कि विधि के सिद्धांतों पर आधारित हो ।2

1) अनुज गुप्ता, प्रशासनिक विधि, विधि भारती (लॉ सक्सेस), माग 3)

2) डॉ. कैलाश रॉय, प्रशासनिक विधि, कतिपय सांविधानिक उपबंध अथवा सिद्धांत और प्रशासनिक विधि, द्वितीय संस्करण 2009,

विधि-शासन का अर्थ:-

“विधि-शासन” पद का अर्थ है कि सरकार मनुष्यों के सिद्धांतों पर नहीं बल्कि विधि के सिद्धांतों पर आधारित है। एच. डब्ल्यू. आर. वेड ने अपनी पुस्तक Administrative Law में कहा है कि विधि शासन का सिद्वांत सरकार की मनमानी करने की शक्ति के विरुद्ध है। साधारण तौर पर विधि-शासन का अर्थ है कि शासन का प्रत्येक कार्य विधि के अनुसार किया जाए। किन्तु इस अर्थ से कोई लाभ तब तक नहीं है जब तक यह न कहा जाये कि विधि शासन में सरकार को अत्यधिक शक्ति नहीं होनी चाहिए। विधिक दृष्टिकोण के सम्‍या भी विधि शासन का अंग है| श्री नगेन्द्र नाथ घोष ने कम्‍पैरेटिव एडमिनिस्ट्रेटिव लॉ में विधि शासन का विवेचन करते हुए कहा है कि इसके अंतर्गत शासक और प्रजा के बीच राज्य की वरीयता का सिद्धांत नहीं रहता। किसी भी व्यक्ति को अवैध कार्य के लिये क्षमा नहीं किया जा सकता तथा सरकारी कर्मचारी और जनता दोनों ही राज्य के नियमों के अधीन समान रूप से उत्तरदायी होते हैं|1
आइवर जेनिंग्‍स के अनुसार “विधि शासन (rule of law in hindi) की यह पहली मांग है कि कार्यकारिणी की शक्तियाँ न केवल विधि से निकली हों वरन वह विधि द्वारा सनियंत्रित भी हो।
गार्नर के अनुसार “विधि-शासन” पद (rule of law in hindi)का प्रयोग देश में व्‍याप्त कार्यकलापों की उस दशा का वर्णन करने में किया जाता है, जिसमें, मुख्यत: विधि का अनुपालन किया जाता है. और व्यवस्था बनाये रखी जाती है। यह एक ऐसा पद है। जो “विधि और व्यवस्था” पद के पर्यायवाची हैं। परंतु लोक विधिज्ञ इसका अर्थ इससे कुछ अधिक लेते हैं।2

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(1) डॉ० जय जय राम उपाध्याय, प्रशासनिक विधि के विकास के विरुद्ध संकल्पनात्मक आक्षेप, प्रशासनिक विधि,
सी०एल० ए०, 10th संस्करण 2014
(2) डॉ. कैलाश राय कतिपय सांविधानिक उपबंध अथवा सिद्धांत और प्रशासनिक विधि प्रशासनिक विधि द्वितीय
संस्करण 2009
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  • .प्रो. वेड के अनुसार, “विधि-शासन” की मुख्य अवधारणा प्रशासन में मनमानापन के आभाव से है।
  • प्रो० गुडहार्ट के अनुसार , “विधि-शासन” का सारांश यह है कि सार्वजनिक अधिकारीगण विधि से प्रशासित हो ।
  • ग्रिफिथ और स्ट्रीट के अनुसार , विधिशासन का अर्थ आंग्ल प्रशासनिक विधि के प्रसिद्ध लेखक ग्रिफिथ और स्ट्रीट ने विधि शासन के पाँच अर्थ निरूपित किये हैं-

1) विधि शासन (rule of law in hindi) का अर्थ है मनमानी करने की शक्ति के विपरीत सामान्य विधि की पूर्ण सर्वोचता या वरिष्ठता
2) विधि शासन(rule of law in hindi) के अधीन लोग केवल विधि द्वारा ही शासित होते हैं। किसी भी व्यक्ति को विधि का उल्लघन करने पर ही दंडि़त किया जा सकता है।
3) यदि किसी व्यक्ति को विधि के परिवर्तन के कारण अथवा सामान्य हित में विवेकाधिकार के प्रयोग के कारण नुकसान उठाना पड़ता है तो राज्य उस व्यक्ति को प्रतिकर देता है।
4) प्रशासन की शक्ति के स्रोत अधिनियम हैं। इन स्रोतों से प्राप्त शक्ति के आभाव में व्यक्ति के अधिकारों का अतिलंघन नहीं किया जा सकता है।
(5) प्रशासन विधि से आबद्ध है।1

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1 डॉ. जय जय राम उपाध्याय, प्रशासनिक विधि के विकास के विरुद्ध “संकल्‍पनात्‍मक आक्षेप, प्रशासनिक विधि, सी०एक०ए०, 10th संस्करण,2014
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डायसी के अनुसार विधि शासन का अर्थ :-

प्रो0 डायसी ने विधि शासन(rule of law in hindi) की शास्‍त्रीय मीमांसा प्रस्‍तुत की और उनका मत विधि जगत में काफी प्रभावशाली रहा। डायसी की विवेचना के अनुसार विधि शासन की संकल्‍पना में तीन सिद्वांत सन्निहित हैं-

  1. विधि की सर्वोच्‍चता
  2. विधि के समक्ष समता
  3. विधियां मानवीय अधिकारों के परिणाम स्‍वरूप न कि स्रोत के रूप में विधिक भावना की प्रबलता या न्‍यायाधीश निर्मित संविधान।

1) विधि की सर्वोच्‍चता :-

डायसी ने इस सिद्वांत को कॉमन‍ विधि का ‘’केन्‍द्रीय और अति विशिष्‍ट लक्षण’’ कहा है। विधि शासन से अभिप्रेत है ’’नियमित विधि की आत्‍यांतिक सर्वोच्‍चता या प्रधानता जो मनमानी शक्‍ति के प्रभाव के विरूद्व है और मनमानीपन के, परमाधिकार के या सरकार के भी व्‍यापक विवेकाधिकार के अस्‍तित्‍व का अपवर्जन करता है।‘’ डायसी का यह विचार था कि जहां कहीं भी विवेकाधिकार है वही मनमानी करने की गुंजाइश रहती है, जो नागरिकों के विधिक स्‍वातंत्र को असुरक्षा की और ले जाती है।1
डायसी ने यह मत व्‍यक्‍त किया है कि कोई भी व्‍यक्‍ति केवल उस दशा को छोड़कर जबकि देश की सामान्‍य न्‍यायालय के समक्ष सामान्‍य विधिक तरीके से विधि का विशिष्‍ट उल्‍लंघन स्‍थापित कि जा चुका है, दंण्‍ड योग्‍य नहीं होगा।

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1 डॉ. जय जय राम उपाध्याय, प्रशासनिक विधि के विकास के विरुद्ध “संकल्‍पनात्‍मक आक्षेप, प्रशासनिक विधि, सी०एक०ए०, 10th संस्करण,2014
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इस प्रकार किसी व्‍यक्‍ति को दण्‍ड का पात्र तभी माना जा सकता है अथवा विधिपूर्वक उसे दंडित तभी किया जा सकता जबकि सामान्‍य न्‍यायालय के समक्ष सामान्‍य विधिक तरीके से यह स्‍थापित हो चुका है कि उसने किसी विधि का सुस्‍पष्‍ट उल्‍लंघन किया है। यह स्‍पष्‍ट करता है कि कोई भी व्‍यक्‍ति केवल विधि के उल्‍लंघन पर ही दंण्‍ड का पात्र होगा अन्‍यथा नहीं तथा किसी व्‍यक्‍ति को विधि के उल्‍ंघन के लये दंडित करने के पूर्व सामान्‍य प्रक्रिया के अनुसरण में अभियोग को सिद्व करना आवश्‍यक है।1

2) विधि के समक्ष समता:-

इसका तात्‍पर्य यह कि सभी व्‍यक्‍ति विधि के समक्ष समान हैं। डायसी की यह प्रतिपादना थी कि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति एक ही विधि के अधीन है। कोई भी व्‍यक्‍ति विधिे के उपर या विधि से परे नहीं है। इस परिप्रेक्ष्‍य में डायसी ने विधि शासन तथा फ्रांस की ड्रायट एडमिनिस्‍ट्रेटिव में भेद अभिदर्शित किया। उन्‍होंने फ्रांस में स्‍थित ड्रायट एडमिनिस्‍ट्रेटिव की कटु आलोचना की क्‍योंकि वहॉ शासन तथा नागरिकों के बीच विबादों के विनिश्‍चय के लिये पृथक रूप से प्रशासनिक अधिकरणों का उत्क्रम है। उन्‍होंने यहा तक कह डाला कि उनके देश में प्रशासनिक विधि की सत्‍ता ही नहीं है।2
डायसी का यह मत है कि सभी व्‍यक्‍ति (उसका पद अथवा ओहदा चाहे जो भी हो) देश की सामान्‍य विधि और सामान्‍य न्‍यायालय के अध्‍याधीन है। ’’विधि शासन’’ (rule of law in hindi)किसी भी अधिकारी अथवा अन्‍य व्‍यक्‍ति को अन्‍य नाग‍रिकों को नियंत्रित करने वाली विधि के अनुपालन

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1 डॉ. कैलाश रॉय, प्रशासनिक विधि, कतिपय सांविधानिक उपबंध अथवा सिद्धांत और प्रशासनिक विधि, द्वितीय संस्‍करण, 2009
2. डॉ. जय राम उपाध्‍याय प्रशासनिक विधि के विकास के विरूद्ध संकल्‍पनात्‍मक आक्षेप, प्रशासनिक विधि, सी.एल.ए., 10वॉं संस्‍करण, 2014

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अथवा सामान्‍य न्‍यायाधिकरण के क्षेत्राधिकार से टूट प्रदान करने को वर्जित करता है।1
डायसी ने यह घोषणा की, कि ’’इंग्‍लैण्‍ड में प्रधानमंत्री से पुलिस कांस्‍टेबिल या कर समाहर्ता बिना किसी विधिक औचित्‍य के अपने कार्य के लिये उसी प्रकार उत्‍तरदायी हैं जिस प्रकार कोई अन्‍य नागरिक है।’’
डायसी के अनुसार, न्‍यायालयों की अधिकारिता का कोई अतिक्रमण और जनता की उन तक पहुँच पर कोई निर्बन्‍धन उसके अधिकारों को निश्चित रूप से जोखिम में डाल सकता है। लॉर्ड डेनिंग के शब्‍दों में ‘’हमारी अंग्रेज़ी विधि किसी लोक अधिकारी को फ्रांस की प्रशासनिक विधि (ड्रायट एडमिनिस्‍ट्रेटिव) के पीछे आश्रय की अनुमति नहीं देती है।’’

3) विधियॉं मानवीय अधिकारों के परिणमस्‍वरूप न कि स्‍त्रोत के रूप में, या विधिक भावना की प्रवलता या न्‍यायाधीश निर्मित संविधान:-

प्रो. डायसी का यह मानना है कि इंग्‍लैण्‍ड में लोगों को जो अधिकार मिले हैं वह अभिसमय, प्रथा या रूढि़ द्वारा दिए गए, तथा इन अधिकारों की रक्षा न्‍यायापालिका करती है।2 विधियॉं न्‍यायालयों द्वारा परिभाषित एवं मानवीय अधिकारों के स्‍त्रोत के रूप में नहीं वरन्‍ परिणाम है इसका अर्थ है मानवीय अधिकार संवैधानिक विधि से परे है और स्‍वतंत्र है।
वास्‍तव में यह तीसरा संघटक किसी सिद्वांत की प्रतिपादना नहीं करता है बल्‍कि ब्रिटिश संविधानिक पद्धति के एक पहलू की विवेचना करता है जहॉं लोगो की मूल स्‍वतंत्रताओं का स्‍त्रोत कॉमन लॉ है। अधिकार न्‍यायिक निर्णयों के परिणाम हैं जिनकी उत्‍पत्‍ति पक्षकारों के बीच वास्‍तविक मामलों से होती है।

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(1) डॉ. कैलाश राय कतिपय सांविधानिक उपबंध अथवा सिद्धांत और प्रशासनिक विधि प्रशासनिक विधि द्वितीय
संस्करण 2009
(2) डॉ० जय जय राय उपाध्याय, प्रशासनिक विधि के विकास के विरुद्ध संकल्पनात्मक आक्षेप, प्रशासनिक विधि,
सी०एल० ए०, 10th संस्करण 2014
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संवधिान लोगों के अधिकारों का स्‍त्रोत नहीं है बल्‍कि परिणाम है। इस प्रकार अधिकारों के संरक्षण की परम महत्‍ता है।1

विधि शासन की परम आदर्श के रूप में अवधारणा-अंतर्राष्ट्रीय विधिवेत्ता आयोग के अनुसार:-

विधि शासन की संकल्पना को परम आदर्श के रूप में इंटरनेशनल कमीशन आफ ज्यूरिस्ट ने अपनी 1959 की दिल्ली घोषणा में विस्तृत रूप से प्रतिपादित किया है। विधिवेत्ताओं की इस घोषणा के अंतर्गत विधि शासन को स्वतंत्र समाज के लिये एक आदर्श के रूप में निरूपित किया गया है। इसके अनुसार विधि शासन के तीन तत्व है:-

  1. विधि शासन(rule of law in hindi) के अधीन एक स्वतंत्र समाज में विधान मंडल का कार्य ऐसी परिस्थितियों को स्थापित और कायम रखना है जो मानव की गरिमा को एक व्यक्ति के रूप में बनाये रखती है। इस गरिमा के अंतर्गत सिविल और राज नैतिक अधिकारों की मान्यता के अलावा व्यष्टिक व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिये सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और सांस्क्रतिक परिस्थितियों का निर्माण अपेक्षित है।
  2. विधि शासन कार्यपालिका द्वारा शक्ति के दुरूपयोग के विरूद्ध पर्याप्त सुरक्षोपायों के उपबंध पर ही नहीं, बल्कि विधि और व्यवस्था बनाये रखने और समाज के निमित्त जीवन की पर्याप्त आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को सुनिश्चित करने में समर्थ शासन की सत्ता पर भी निर्भर करता है। इन परिस्थितियों के अंतर्गत राष्टीय स्वास्थ्य योजना, सामाजिक सुरक्षा, विधि न्यायालय में पहुंच और निर्वाह मजदूरी के अधिकार है।

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(1) डॉ० जय जय राम उपाध्याय, प्रशासनिक विधि के विकास के विरुद्ध संकल्पनात्मक आक्षेप, प्रशासनिक विधि,
सी०एल० ए०, 10th संस्करण 2014
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  1. स्वतंत्र न्यायपालिका और स्वतंत्र विधि वृत्ति विधि-शासन के आधीन स्वतंत्र समाज की अपरिहार्य अपेक्षित वस्तुएं हैं।1

विधि-शासन की आधुनिक संकल्पना :-

डायसी की विधि शासन की संकल्पना सन् 1885 में भी जब कि उन्होनें इसका प्रतिपादन किया पूर्णतः अंगीकृत नहीं थी क्योंकि इस समय भी प्रशासनिक विधि और प्रशासनिक प्राधिकारी विद्यमान थे। कल्याणकारी राज्य के युग में आज डायसी के विधि शासन के सिद्धांत को पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता है। डेविस ने एडमिनिस्‍ट्रेटिव लॉ में विधि शासन का सात प्रमुख अर्थ बताया है-

  1. विवेकाधिकार की व्यवस्था,
  2. निश्चित नियम,
  3. विवेकाधिकार का विलोपन,
  4. विधि की संम्यक प्रक्रिया या ऋजुता,
  5. नैसर्गिक न्याय या नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतो का अनुपालन,
  6. कार्यपालक प्राधिकारी और प्रशासनिक अधिकरण के मुकाबले में न्यायाधीशों और साधरण न्यायालयों को अधिमान,
  7. प्रशासनिक कार्यो का न्यायिक पुनर्विलोकन। 1

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(1) डॉ० जय जय राम उपाध्याय, प्रशासनिक विधि के विकास के विरुद्ध संकल्पनात्मक आक्षेप, प्रशासनिक विधि,
सी०एल० ए०, 10th संस्करण 2014
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विधि की संकल्पना परिवर्तनशील है। इसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक मूल्यों में परिवर्तन के साथ परिवर्तन होता है। किंतु मर्मभूत तत्व व्पष्टिक व्यक्तित्व का पूर्णतम विकास समाज के हितों को ध्यान में रखते हुए बना रहना है। आधुनिक क्रांतिकारी न्यायिक सक्रियतावाद का जन्म संवैधानिक न्यायालयों द्वारा विधि शासित समाज की स्थापना के लिये ही है जिसका तात्पर्य यह है कि कोई व्यक्ति कितना भी ऊॅंचा क्यों न हो, विधि उसके ऊपर है। न्यायालयों द्वारा ऐसे तरीकों का विकास किया जा रहा है जिनसे सरकार को समाज में ऐसी दशाओं की स्थापना के लिये बाध्य किया जा सके जिनमें लोग अपने अधिकारों का उचित और सार्थक रूप से प्रयोग करने की योग्यता का विकास कर सकें।

विधि शासन का उद्देश्य एवं महत्व:-

विधि शासन’’ का उद्भव या प्रारंभ सर एडवर्ड कोक ने किया था। उन्होने यह मत व्यक्त किया कि राजा को अवश्य ही ईश्वर और विधि के अधीन होना चाहिए। इसका उद्वभव या प्ररंभ सरकार की निरंकुश शक्ति को अपवर्जित करने तथा सरकार के अवैध कृत्यों से व्यक्तियों को संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से किया गया।
विधि का शासन प्रशासनिक विधि में अत्यंत महत्व का है इसे प्रशासनिक प्राधिकारियों को नियंत्रित करने वाले अस्त्र के रूप में भी समझा जा सकता है । प्रशासनिक अधिकारियों के मनमानापन को रोकने में इसका अत्यंत महत्व है। प्रशासनिक प्राधिकारियों के मनमाने पूर्ण कृत्य से जनता को यह संरक्षण प्रदान करता है। वर्तमान समय में संविधानवाद पर विशेष बल दिया जाता है जिसके अनुसार सरकार की शक्तियां सीमित होनी चाहिए ताकि मानव अधिकारों की सुरक्षा हो सके। वास्तव में संविधानवाद विधि द्वारा शासित सरकार की स्थापना करता है। यह ऐसी सरकार की स्थापना करने पर बल देता है जो नियम द्वारा शासन करे न कि मनमाने आदेशों के द्वारा। सरकार भी विधि का पालन करें और उसके अनुसार शासन करें । संविधानवाद विधि की सर्वोच्ता और विधि के समक्ष सभी नागरिकों की समानता पर बल देता है। इस प्रकार विधि का शासन स्थापित किये बिना संविधानवाद की अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं हो सकती।1

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(1) डॉ. कैलाश राय कतिपय सांविधानिक उपबंध अथवा सिद्धांत और प्रशासनिक विधि प्रशासनिक विधि द्वितीय
संस्करण 2009
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डायसी के मत की आलोचना:-

डायसी ने विधि शासन की जो परिभाषा दी है उसकी आलोचना निम्न आधारों पर की जा सकती है-

  1. डायसी ने प्रशासन को विवेकाधिकार प्रदान करने का विरोध किया है। डायसी के मत में वैवेकिक अधिकार प्रदान करना मनमानेपन के लिये स्थान सृजित करना है और मनमानापन व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये गंभीर खतरा है। परंतु वर्तमान समय में प्रशासन को विवेकाधिकार प्रदान करना अनिवार्य हो गया है। वर्तमान समय में राज्य अनेकों कार्य करता है। कल्याणकारी राज्य की स्थापना के कारण राज्य का कार्य केवल सेना की व्यवस्था करना, विधि और व्यवस्था को बनाये रखना और कर -संकलन करना ही नहीं है, बल्कि यह अनेकों सामाजिक आर्थिक और वातव्य कार्य करता है। शिक्षा और जनता के स्वास्थ्य इत्यादि की व्यवस्था करना भी राज्य के प्रमख कार्यो में सम्मिलित है। इन कार्यो को प्रभावी ढंग से सम्पन्न करने के लिये प्रशासन को विवेकाधिकार प्रदान करना अनिवार्य हो गया है। डायसी ने सरकार की परिवर्तित अवधारणा को ध्यान में नहीं रखा है और उसका विचार समय के अनुसार न होकर पुराना है जो कि सरकार के कार्यो को सीमित कर देता है।

वास्तव में, विवेकाधिकार और मनमानी करने की शक्ति में भेद करने में डायसी असफल रहे है। मनमानी करने की शक्ति को ‘’विधि-शासन’’ की अवधारणा के विरूद्व माना जा सकता है। परंतु विवेकाधिकार जो कि उचित मार्गदर्शक के साथ प्रदान किया जाता है, विधि शासन की अवधारणा के विरूद्व नहीं माना जाता है।

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  1. डॉ. कैलाश राय कतिपय सांविधानिक उपबंध अथवा सिद्धांत और प्रशासनिक विधि प्रशासनिक विधि द्वितीय संस्करण 2009

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आधुनिक समय में अमेरिका, इंग्लैण्ड और भारत सहित सभी देशों में सरकार अथवा प्रशासन को विवेकाधिकार प्रदान किया जाता है। यदि प्रशासन या सरकार को विवेकाधिकार प्रदान करना ” विधि-शासन” के विरूद्ध है तो किसी भी देश में (इंग्लैण्ड सहित) विधि शासन का अस्तित्व नहीं है। वर्तमान समय में सरकार या प्रशासन को विवेकाधिकार प्रदान किया जाता है परंतु जिस संविधि द्वारा इसे प्रदान किया जाता हैउसमे उस मार्गदर्शक का भी उल्लेख कर दिया जाता है जिसके अनुसार विवेकाधिकार का प्रयोग किया जाना है। वास्तव में प्रशासनिक विधि विवेकाधिकार को नियंत्रित करने हेतु नवीन तरीकों की खोज करने और विद्यमान तरीकों को और अधिक प्रभावकारी बनाने में संलग्न है।

2) डायसी के अनुसार विधि का शासन यह अपेक्षा करता है कि प्रत्येक व्यक्ति देश के सामान्य न्यायालय के अधीन हो । प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह गरीब हो अथवा धनवान और उसका पद अथवा स्थिति चाहे जो भी हो, एक ही विधि और देश के एक ही न्यायालय के अधीन होना चाहिए। डायसी ने यह दावा किया कि इंग्लैण्ड में सरकारी सेवकों के विचारण के लिये पृथक विधि अथवा न्यायालय नहीं है। उसने फ्रांस में व्याप्त ड्रायट एडमिनिस्ट्रेटिव की आलोचना की ओर इसका विरोध किया। डायसी का मत था कि प्रशासन से संबंधित विवाद के निपटारा हेतु प्रशासनिक न्यायालयों की स्थापना सरकारी अधिकारियों को संरक्षण प्रदान करने के लिये की गयी है। इसी आधार पर उसने मत व्यक्त किया कि फ्रांस में ‘’ विधि-शासन’’ नहीं है। बाद में उसने स्वंय महसूस किया कि फ्रांस में स्थापित प्रशासनिक न्यायालयों के बारे में उसका मत गलत था।

प्रशासनिक अधिकारियों को नियंत्रित करने में प्रशासनिक न्यायालयों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इन न्यायालयों ने बवैध प्रशासनिक कृत्यों के विरूद्ध नागरिकों को तीव्र और प्रभावकारी उपचार प्रदान किया है। इसके अतिरिक्त इंग्लैण्ड में भी विशिष्ट मामलों को विश्चित करने हेतु विशिष्ट न्यायालयों की स्थापना की गयी है। उदाहरण के लिये मेडिकल पेशा के सदस्यों के दुराचरण के मामलों के विचारण हेतु जनरल मेडिकल कौंसिल की स्थापना की गयी है। सैन्य विधि के विरूद्ध अपराध करने वालों के विचारण हेतु सेना न्यायालय की स्थापना की गयी है। सैन्य विधि के विरूद्ध अपराध करने वालों के विचारण हेतु सेना न्यायालय(कोर्ट मार्शल) की स्थापना की गई है। धर्म संबंधी विधि का क्रियान्वयन धर्म संबंधी न्यायालय द्वारा किया जाता है।
गार्नर ने भी मत व्यक्त किया है कि इंग्लैण्ड में भी प्रशासन से संबंधित समस्त विवाद का निपटारा सामान्य न्यायालय से नहीं होता है। बहुत से मामले विशिष्ट स्वतंत्र अधिकरण को निस्तारण हेतु सौपे जाते है हालांकि ऐसी दशा में सामान्यतः विधि के बिन्दु पर न्यायालय में अपील की व्यवस्था होती है।

इसे भी पढ़ें – हिन्दू विधि के स्रोत | Sources Of Hindu Law In Hindi

3) डायसी के अनुसार विधि शासन के लिये आवश्यक है कि सभी व्यक्ति देश की सामान्य विधि के अधीन हो और किसी भी व्यक्ति को (प्रशासनिक प्राधिकारी सहित) विशेष सुविधा न हो। परंतु डायसी की यह धारणा इंग्लैण्ड के संदर्भ में भी ठीक नहीं है। इंग्लैण्ड में भी अनेकों व्यक्तियों को विशेषाधिकार प्राप्त है। उदाहरण के लिये public Authorities 1893 द्वारा अधिकारियों को विशेष संरक्षण प्रदान किया गया है। न्यायालय के समक्ष विदेशी राजनयिकों को विशेष सुविधाएं प्रदान की गयी हैं। ब्रिटिश सम्राट सेवकों की सेवा समाप्त कर सकता है और वह संविदा में उल्लिखित व्यक्त शतों से भी बाध्य नहीं है। इसी प्रकार अन्य विशेष सुविधाएं भी ब्रिटिश सम्राट को प्रदान की गयी । कस्टम कान्सोलिडेशन एक्ट 1866 और इंग्लैण्ड रिवेन्यू एक्ट, 1890 पदीय कर्तव्यों के सम्पादन में किये गये कार्यों के संबंध में आबकारी आफिसरों को संरक्षण प्रदान करता है। अतः विधि शासन का जो अर्थ डायसी ने किया है वह पूर्ण रूप से संतोषजनक नहीं है।

4) डायसी ने विधि शासन का जो तीसरा अर्थ किया है उस अर्थ में संविधान सामान्य सिद्धांत न्यायालय द्वारा उसके समक्ष लाये गये विशिष्ट वादों में प्राईवेट व्यक्तियों के अधिकारों को विनिश्चित करने हेतु दिये गये यों का परिणाम है। यह मत, वास्तव में, ब्रिटिश संविधान के विशिष्ट प्रकृति और लक्षण पर आधारित है। ब्रिटेन का संविधान लिखित नहीं है और इसमें न्यायालयों के निर्णयों द्वारा विकसित सिद्धांत समाविष्‍टहैं। अत: ब्रिटेन का संविधान न्‍यायालय के निर्णयो द्वारा विकसित सिद्धांतो का परिणाम है। परंतु यह मत भारत और अमेरिका के संदर्भ में सही नहीं है। उदाहरण के लिये भारत का संविधान लिखित है और इसे न्यायालय के निर्णयो द्वारा विकसित सिद्धांतों का परिणाम नहीं माना जा सकता।

भारतीय संविधान में विधि शासन:-

भारत में विधि शासन का अर्थ अल्पंत व्यापक है। भारतीय उच्चतम न्यायालय ने श्रीमती इन्दिरा नेहरू गांधी V राजनारण, 1975 S.C. में यह अभिकथित किया है कि विधि शासन संविधान के मूल संरचना का भाग है और इसे संसद विधि बनाकर श्री नष्ट या समाप्त नहीं कर सकती । विधि शासन के संदर्भ में उच्च्तम न्यायालय ने विभिन्न वादों में निम्नलिखित मत व्यक्त किया है –
केस :- बोर्ड आफ हाईस्कूल एण्ड इंटरमीडिएट एजुकेशन V कु0 चित्रा, 1970 S.C.
इस मामले में कहा गया है कि वर्तमान समय में विधि-शासन नैसर्गिक न्याय का भाग है।
केस :- बच्चन सिंह V स्टेट ऑफ पंजाब, 1982 S.C.
इस मामले कहा गया है कि विधि शासन वास्तव में सम्पूर्ण संविधान में व्याप्त है।

विधि का शासन भारतीय संविधान में निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है। 1

1) संविधान की सर्वोच्चता:-

केस :- ए0के0गोपालन V मद्रास राज्य 1950 S.C.
इस मामले में धारण किया गया है संविधान सर्वोच्च है। संविधान की प्रस्तावना में संम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना की संकल्पना की गयी है।
केस :- बच्चन सिंह V पंजाब, राज्य, 1982 S.C.
इस मामले में न्‍यायमूर्ति पी0एन0 भगवती द्वारा निर्णय दिया गया कि विधि शासन किसी भी व्यक्ति को विधि के ऊपर होने का दावा करने के लिये अनुमति नहीं देता हैं।

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(1) डॉ० जय जय राम उपाध्याय, प्रशासनिक विधि के विकास के विरुद्ध संकल्पनात्मक आक्षेप, प्रशासनिक विधि,
सी०एल० ए०, 10th संस्करण 2014
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2) समता की संवैधानिक अपेक्षा:-

भारतीय संविधान के Art.14 में विधि के समक्ष समता को स्‍वीकार किया गया है। सतीश चन्‍द्र V भारत संघ के बाद में उच्‍चतम न्‍यायालय ने निर्णीत किया कि Art.14 का तात्‍पर्य हैकि समान परिस्‍थितियों में सभी व्‍यक्‍तियों और वस्‍तुओं को उन्‍मुक्‍तियों और दायित्‍वों के आधार पर समान माना जायेगा।
इंदिरा नेहरू गांधी V राजनाराण के बाद में उच्‍चतम न्‍यायालय ने अभिकथित किया कि संविधान के अंतर्गत विधि शासन की संकल्‍पना विवेकाधिकार के विरूद्ध नहीं हैं। किंतु उच्‍चतम न्‍यायालय नें पन्‍नालाल बिजराज V भारत संघ के बाद में कहा कि विवेकाधिकार का आशय मनमानी करने के अधिकार से नहीं है।
केस :- एस.पी.गुप्‍ता V भारत के राष्‍ट्रपति, 1982 SC
इस बाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधि-शासन की यह मान्‍यता है- आप कितने ही ऊँचे हो, विधि आपसे ऊपर है।

3) अधिकारों को संवैधानिक संरक्षण :-

भारतीय संविधान व्‍यक्‍तियों एवं नागरिकों को मूल अधिकार प्रदान करता है ये अधिकार राज्‍य या किसी निकाय के द्वारा अपनी शक्‍ति के दुरूपयोग पर नियंत्रण स्‍थापित करते हैं। भारतीय संविधान के Art.32 एवं Art.226 के अधीन पीडि़त व्‍यक्‍ति उपचार प्राप्‍त कर सकते हैं।

4) आधिकारिक संरचना का भाग :-

विधि शासन संविधान का आधारभूत ढॉंचा है और इसे संशोधन द्वारा समाप्‍त नहीं किया जा सकता है।
केशवानंद भारती V केरल राज्‍य, 1973 SC के प्रकरण में न्‍यायालय द्वारा निर्णय दिया गया कि विधि शासन संविधान का अधारभूत ढाँचा है जिसे संशोधन द्वारा नष्‍ट नहीं किया जा सकता है तथा इसकी पुष्टि श्रीमति इंदिरा नेहरू गांधी V राजनारायण,1975 SC के मामले में की गयी।

5) मनमानापन का अपवर्जन विवेकाधिकार का नहीं:-

भारतीय संविधान में विवेकाधिकार को स्‍वीकार किया गया किन्‍तु मनमानेपन को अपवर्जित कर दिया गया हैं।
इंदिरा नेहरू गांधी V राजनारायण 1975 SC के प्रकरण में न्‍यायालय द्वारा धारित किया गया कि राज्‍य में विवेकाधिकार की शक्‍तियां है किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि इस शक्‍ति का प्रयोग मनमानापूर्वक किया जाय।
ई.पी. रोयप्‍पा V तमिलनाडु राज्‍य SC. जस्‍टिस पी. एन. भगवती ने स्‍पष्‍ट रूप से यह बता दिया कि जहां किसी प्रधिकारी का कार्य मनमाना होगा, वहॉं समता का उल्‍लंघन माना जायेगा क्‍योंकि समता और मनमानापन एक दूसरे के शत्रु है और पुन: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विवेकाधिकार का अपर्वजन न करके मनमानेपन का संविधान अपवर्जन करता है।

6) विधिक अपेक्षा का पालन:-

विधि शासन के लिये विधिक अपेक्षा का पालन आवश्‍यक है।
पी.सम्‍बामूर्ति V आंध्रप्रदेश राज्‍य,1987 SC. के मामले में सर्वोच्‍च न्‍यायालय द्वारा निर्णय दिया गया कि विधि शासन संविधान का आधारभूत लक्षण है। कार्यपालिका या किसी अन्‍य प्राधिकारी द्वारा शक्‍ति का प्रयोग केवल संविधान द्वारा अनुबंधित नहीं किया जाना चाहिए अपितु न्‍यायिक पुनर्विलोकन की शक्‍ति एवं विधि के अनुसार किया जाना चाहिए।

7) औचित्‍य निर्धारण:-

विधि शासन का एक आवश्‍यक तत्‍व है कि प्रशासनिक शक्‍ति का प्रयोग उचित तरीके से हो।
केस :- शीला बारसे V महाराष्‍ट्र राज्‍य,1983 SC
इस प्रकरण में न्‍यायालय द्वारा पुलिस अधिकारी को कैदियों विशेषकर महिला कैदियों से उचित व्‍यवहार करने का निर्देश दिया गया।

8) लोकहित का संरक्षण:-

विधि शासन में लोकहित संरक्षित होना चाहिए।
केस :- बीना सेठ V बिहार राज्‍य, 1983
इस मामले में न्‍यायालय द्वारा धारण किया गया कि विधि शासन की पहुंच गरीब, निरक्षर, पिछड़ों तथा अनभिज्ञ तक होनी चाहिए और इस प्रकार संविधानवाद पर अधिक बल दिया गया।

निष्‍कर्ष:-

लोकतांत्रिक सरकार के लिये विधि-शासन एक आधारभूत अपेक्षा है। विधि शासन को बनाये रखने के लिये स्‍वतंत्र और निष्‍पक्ष न्‍यायपालिका अपरिहार्य है। यह धारणा विधि-शासन की संकल्‍पना में सन्निहित है कि विधि के समक्ष समानता सभी नागरिकों को सुनिश्‍चित की जाये, और प्रत्येक नागरिक को राज्‍य द्वारा शक्‍ति के मनमाने प्रयोग के विरूद्ध संरक्षण प्रदान किया जाये।
विधि शासन प्रशासनिक शक्‍ति के युक्‍तियुक्‍त प्रयोग का मार्गदर्शन करता है। यह किसी भी शासन व्‍यवस्‍था में जनकल्‍याण का साधन है। अत: विधि शासन और प्रशासनिक विधि में कोई विरोध नहीं है।

यह आर्टिकल Awadesh kumar shukla के द्वारा लिखा गया है जो की LL.M. Ist सेमेस्टर Dr. Harisingh Gour central University,sagar के छात्र है |