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सीआरपीसी की धारा 167 | 167 CrPC in hindi

सीआरपीसी की धारा 167 :- जब चौबीस घण्टे के अन्दर अन्वेषण पूरा न किया जा सके तब प्रक्रिया —

(1) जब कभी कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया गया है और अभिरक्षा में निरुद्ध है और यह प्रतीत हो कि अन्वेषण धारा 57 द्वारा नियत चौबीस घण्टे की अवधि के अन्दर पूरा नहीं किया जा सकता और यह विश्वास करने के लिए आधार है कि अभियोग या इत्तिला दृढ़ आधार पर है तब पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या यदि अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी उपनिरीक्षक से निम्नतर पंक्ति का नहीं है तो वह, निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को इसमें इसके पश्चात् विहित डायरी की मामले से संबंधित प्रविष्टियों की एक प्रतिलिपि भेजेगा और साथ ही अभियुक्त व्यक्ति को भी उस मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा।

(2) वह मजिस्ट्रेट, जिसके पास अभियुक्त व्यक्ति इस धारा के अधीन भेजा जाता है, चाहे उस मामले के विचारण की उसे अधिकारिता हो या न हो, अभियुक्त का ऐसी अभिरक्षा में, जैसी वह मजिस्ट्रेट ठीक समझे इतनी अवधि के लिए, जो कुल मिलाकर पंद्रह दिन से अधिक न होगी, निरुद्ध किया जाना समय-समय पर प्राधिकृत कर सकता है। तथा यदि उसे मामले के विचारण की या विचारण के लिए सुपुर्द करने की अधिकारिता नहीं है और अधिक निरुद्ध रखना उसके विचार में अनावश्यक है तो वह अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास, जिसे ऐसी अधिकारिता है, भिजवाने के लिए आदेश दे सकता है :

परन्तु —

(क) मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का पुलिस अभिरक्षा से अन्यथा निरोध पंद्रह दिन की अवधि से आगे के लिए उस दशा में प्राधिकृत कर सकता है जिसमें उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करने के लिए पर्याप्त आधार हैं, किन्तु कोई भी मजिस्ट्रेट अभियुक्त व्यक्ति का इस पैरा के अधीन अभिरक्षा में निरोध —  

(i) कुल मिलाकर नब्बे दिन से अधिक की अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ अन्वेषण ऐसे अपराध के सम्बन्ध में है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या दस वर्ष से अन्यून की अवधि के लिए कारावास से दण्डनीय है;

(ii) कुल मिलाकर साठ दिन से अधिक की अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं करेगा जहाँ अन्वेषण किसी अन्य अपराध के सम्बन्ध में है;

और, यथास्थिति, नब्बे दिन या साठ दिन की उक्त अवधि की समाप्ति पर यदि अभियुक्त व्यक्ति जमानत देने के लिए तैयार है और दे देता है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा और यह समझा जाएगा कि इस उपधारा के अधीन जमानत पर छोड़ा गया प्रत्येक व्यक्ति अध्याय 33 के प्रयोजनों के लिए उस अध्याय के उपबन्धों के अधीन छोड़ा गया है;

(ख) कोई मजिस्ट्रेट इस धारा के अधीन पुलिस की अभिरक्षा में अभियुक्त के निरोध को तब तक प्राधिकृत नहीं करेगा जब तक अभियुक्त को उसके समक्ष प्रथम बार सशरीर तथा पश्चात्वर्ती प्रत्येक समय पर जब तक अभियुक्त पुलिस की अभिरक्षा में रहता है, पेश नहीं किया जाता है किन्तु अभियुक्त के सशरीर अथवा इलेक्ट्रानिक वीडियो सम्पर्क के माध्यम से पेश किए जाने पर न्यायिक अभिरक्षा में निरोध को और बढ़ा सकेगा।

(ग) कोई द्वितीय वर्ग मजिस्ट्रेट, जो उच्च न्यायालय द्वारा इस निमित्त विशेषतया सशक्त नहीं किया गया है, पुलिस की अभिरक्षा में निरोध प्राधिकृत न करेगा।

स्पष्टीकरण 1 –– शंकाएँ दूर करने के लिये इसके द्वारा यह घोषित किया जाता है कि पैरा (क) में विनिर्दिष्ट अवधि समाप्त हो जाने पर भी अभियुक्त व्यक्ति तब तक अभिरक्षा में निरुद्ध रखा जाएगा जब तक कि वह जमानत नहीं दे देता है।

स्पष्टीकरण 2 — यदि यह प्रश्न उठता है कि क्या कोई अभियुक्त व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया था जैसा कि खण्ड (ख) के अधीन अपेक्षित है, तो अभियुक्त व्यक्ति की पेशी को यथास्थिति, निरोध प्राधिकृत करने वाले आदेश पर उसके हस्ताक्षर से साबित किया जा सकता है या इलेक्ट्रानिक वीडियो सम्पर्क के माध्यम से अभियुक्त व्यक्ति की पेशी के सम्बन्ध में मजिस्ट्रेट द्वारा प्रमाणित आदेश से साबित किया जा सकता है।

परन्तु यह और कि 18 वर्ष से कम आयु की स्त्री के मामले में प्रतिप्रेषण गृह या मान्यता प्राप्त सामाजिक संस्था की अभिरक्षा में निरोध को प्राधिकृत किया जाएगा।

(2क) उपधारा (1) या उपधारा (2) में किसी बात के होते हुए भी, पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या अन्वेषण करने वाला पुलिस अधिकारी, यदि उपनिरीक्षक से निम्नतर पंक्ति का नहीं है तो, जहाँ न्यायिक मजिस्ट्रेट न मिल सकता हो, वहाँ कार्यपालक मजिस्ट्रेट को जिसको न्यायिक मजिस्ट्रेट या महानगर मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, इसमें इसके पश्चात् विहित डायरी की मामले से संबंधित प्रविष्टियों की एक प्रतिलिपि भेजेगा और साथ ही अभियुक्त व्यक्ति को भी उस कार्यपालक मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा और तब ऐसा कार्यपालक मजिस्ट्रेट लेखबद्ध किए जाने वाले कारणों से किसी अभियुक्त व्यक्ति का ऐसी अभिरक्षा में निरोध, जैसा वह ठीक समझे, ऐसी अवधि के लिए प्राधिकृत कर सकता है जो कुल मिलाकर सात दिन से अधिक नहीं हो और ऐसे प्राधिकृत निरोध की अवधि की समाप्ति पर उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा, किन्तु उस दशा में नहीं जिसमें अभियुक्त व्यक्ति के आगे और निरोध के लिए आदेश ऐसे मजिस्ट्रेट द्वारा किया गया है जो ऐसा आदेश करने के लिए सक्षम है और जहाँ ऐसे आगे और निरोध के के लिए आदेश किया जाता है वहाँ वह अवधि, जिसके दौरान अभियुक्त व्यक्ति इस उपधारा के अधीन किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट के आदेशों के अधीन अभिरक्षा में निरुद्ध किया गया था, उपधारा (2) के परन्तुक के पैरा (क) में विनिर्दिष्ट अवधि की संगणना करने में हिसाब में ली जाएगी ।

परन्तु उक्त अवधि की समाप्ति के पूर्व कार्यपालक मजिस्ट्रेट, मामले के अभिलेख, मामले से संबंधित डायरी की प्रविष्टियों के सहित जो, यथास्थिति, पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी या अन्वेषण करने वाले अधिकारी द्वारा उसे भेजी गई थी, निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजेगा ।

(3) इस धारा के अधीन पुलिस अभिरक्षा में निरोध प्राधिकृत करने वाला मजिस्ट्रेट ऐसा करने के अपने कारण अभिलिखित करेगा।

(4) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट से भिन्न कोई मजिस्ट्रेट जो ऐसा आदेश दे अपने आदेश की एक प्रतिलिपि आदेश देने के अपने कारणों के सहित मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजेगा।

(5) यदि समन मामले के रूप में मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय किसी मामले में अन्वेषण, अभियुक्त के गिरफ्तार किए जाने की तारीख से छह मास की अवधि के भीतर समाप्त नहीं होता है तो मजिस्ट्रेट अपराध में आगे और अन्वेषण को रोकने के लिए आदेश करेगा जब तक अन्वेषण करने वाला अधिकारी मजिस्ट्रेट का समाधान नहीं कर देता है कि विशेष कारणों से और न्याय के हित में छह मास की अवधि के आगे अन्वेषण जारी रखना आवश्यक है।

(6) जहाँ उपधारा (5) के अधीन किसी अपराध का आगे और अन्वेषण रोकने के लिए आदेश दिया गया है वहाँ यदि सेशन न्यायाधीश का उसे आवेदन दिए जाने पर या अन्यथा, समाधान हो जाता है कि उस अपराध का आगे और अन्वेषण किया जाना चाहिए तो वह उपधारा (5) के अधीन किए गए आदेश को रद्द कर सकता है और यह निदेश दे सकता है कि जमानत और अन्य मामले के बारे में ऐसे निदेशों के अधीन रहते हुए जो वह विनिर्दिष्ट करे, अपराध का आगे और अन्वेषण किया जाए।

राज्य संशोधन

 मध्यप्रदेश — धारा 167 की उपधारा (2) में :

(एक) परन्तुक में, पैरा (ख) के स्थान पर, निम्नलिखित पैरा स्थापित किया जाए, अर्थात् :

(ख) कोई भी मजिस्ट्रेट इस धारा के अधीन अभिरक्षा में निरोध तब तक प्राधिकृत नहीं करेगा जब तक कि उसके समक्ष अभियुक्त को, व्यक्तिश: प्रथमबार तथा पश्चात्वर्ती प्रत्येक बार जब तक अभियुक्त पुलिस की अभिरक्षा में रहता है, पेश नहीं किया जाता है, परन्तु मजिस्ट्रेट अभियुक्त को या तो व्यक्तिश: या इलेक्ट्रानिक वीडियो लिंकेज के माध्यम से पेश किये जाने पर न्यायिक अभिरक्षा में निरोध को आगे बढ़ा सकेगा;”

(दो) स्पष्टीकरण दो के स्थान पर, निम्नलिखित स्पष्टीकरण स्थापित किया जाए, अर्थात् :

स्पष्टीकरण दो — यदि यह प्रश्न उद्भूत होता है कि क्या कोई अभियुक्त व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया गया था, जैसा कि पैरा (ख) के अधीन अपेक्षित है, तो अभियुक्त व्यक्ति के पेश किये जाने को, यथास्थिति, निरोध प्राधिकृत करने वाले आदेश पर उसके हस्ताक्षर द्वारा या अभियुक्त व्यक्ति को इलेक्ट्रानिक वीडियो लिंकेज के माध्यम से पेश किये जाने के मजिस्ट्रेट द्वारा प्रमाणित आदेश द्वारा साबित किया जा सकेगा।’

.[ देखें दण्ड प्रक्रिया संहिता (मध्यप्रदेश संशोधन) अधिनियम, 2007 (क्रमांक 2 सन् 2008)।, मध्यप्रदेश राजपत्र (असाधारण) दिनांक 22-2-2008 पृष्ठ 157-158 पर प्रकाशित ।]

छत्तीसगढ़ — (1) मूल अधिनियम की धारा 167 की उपधारा (2) के खण्ड (ख) में शब्द “किसी” के स्थान पर शब्द “पुलिस” स्थापित किया जाए।

(2) मूल अधिनियम की धारा 167 की उपधारा (2) के खण्ड (ख) के पश्चात् निम्नलिखित नया खण्ड (खख) जोड़ा जाए, अर्थात् :

“(खख) कोई मजिस्ट्रेट इस धारा के अधीन पुलिस अभिरक्षा से भिन्न अभियुक्त व्यक्ति को निरोध, तब तक प्राधिकृत नहीं करेगा जब तक अभियुक्त या तो व्यक्तिगत रूप से या इलेक्ट्रानिक विडियो लिंकेज के माध्यम से उसके समक्ष पेश नहीं किया जाता एवं उसके अधिवक्ता द्वारा न्यायालय में उसका प्रतिनिधित्व नहीं किया जाता।”

(3) स्पष्टीकरण 2 में शब्द “पेश किया गया था” के पूर्व शब्द “पुलिस अभिरक्षा से जोड़ा जाए।

(4) स्पष्टीकरण 2 के पश्चात् निम्नलिखित नया स्पष्टीकरण जोड़ा जाए :

“3. यदि यह प्रश्न उठता है क्या कोई अभियुक्त व्यक्ति, पुलिस अभिरक्षा से भिन्न व्यक्तिगत रूप से या इलेक्ट्रानिक विडियो लिंकेज के माध्यम से किसी मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया था जैसा कि पैरा“(खख)” के अधीन अपेक्षित है तो अभियुक्त व्यक्ति की पेशी को निरोध प्राधिकृत करने वाले आदेश पर उसके या उसके अधिवक्ता के हस्ताक्षर से सिद्ध किया जा सकता है।”  

[छ.ग. राजपत्र (असाधारण) पृष्ठ 166-166(2) पर प्रकाशित। (दिनांक 13-3-2006 से प्रभावी)]

उत्तरप्रदेश — धारा 167 के पश्चात् अग्रलिखित धारा अन्तःस्थापित करें, अर्थात् :

167-क, गिरफ्तारी पर मजिस्ट्रेट द्वारा प्रक्रिया — शंकाओं के अपवर्तन के लिए एतद्द्वारा यह घोषित किया जाता है कि धारा 167 के उपबंध जहाँ तक हो सके, एक मजिस्ट्रेट चाहे वह कार्यपालक या न्यायिक हो, के आदेश या निर्देश के तहत गिरफ्तार व्यक्ति के संबंध में भी लागू होंगे।”

[देखें उत्तरप्रदेश एक्ट संख्या 18 सन् 1978, धारा 2 (5-11-1977 से भूतलक्षी प्रभाव से प्रभावशील)]

राजस्थान — धारा 167 की उपधारा (2) के परंतुक में :

(i) विद्यमान पैराग्राफ (ख) के स्थान पर, निम्नलिखित पैराग्राफ प्रतिस्थापित किये जाएँ, अर्थात् :

(ख) जहाँ अभियुक्त पुलिस अभिरक्षा में हो, तो कोई मजिस्ट्रेट, जब तक कि अभियुक्त उसके समक्ष व्यक्तिगत रूप से पेश नहीं किया जाता, इस धारा के अन्तर्गत किसी अभिरक्षा में निरोध प्राधिकृत नहीं करेगा;

(खख) जहाँ अभियुक्त न्यायिक अभिरक्षा में हो, तो कोई मजिस्ट्रेट, जब तक कि अभियुक्त उसके समक्ष या तो व्यक्तिगत रूप से या इलेक्ट्रानिक विडियो लिंकेज के माध्यम से पेश नहीं किया जाता;”

(ii) विद्यमान स्पष्टीकरण II के स्थान पर, निम्नलिखित स्पष्टीकरण प्रतिस्थापित किया जाए, अर्थात् :

“स्पष्टीकरण II — यदि कोई प्रश्न उठता है कि क्या पैराग्राफ (ख) और (खख) के अन्तर्गत अपेक्षित अनुसार कोई अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया था तो अभियुक्त व्यक्ति का पेश करना सिद्ध किया जा सकता है– 

(i) निरोध प्राधिकृत करने के आदेश पर उसके हस्ताक्षर द्वारा, यदि वह व्यक्तिगत रूप से पेश किया जाता है, या

(ii) इस बारे में किसी प्रमाण-पत्र द्वारा कि निरोध प्राधिकृत करने के आदेश पर मजिस्ट्रेट द्वारा अभिलिखित इलेक्ट्रानिक विडियो लिंकेज के माध्यम से वह पेश किया गया था यदि वह इलेक्ट्रानिक विडियो लिंकेज के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।”

[देखें राजस्थान अधिनियम संख्या 16 सन् 2005, धारा 2]


167 CrPC in hindi :- Procedure when investigation cannot be completed in twenty-four —

(1) Whenever any person is arrested and detained in custody and it appears that the investigation cannot be completed within the period of twenty-four hours fixed by section 57 and there are grounds for believing that the accusation or information is well-founded, the officer in charge of the police station or the police officer making the investigation, if he is not below the rank of sub-inspector, shall forthwith transmit to the nearest Judicial Magistrate a copy of the entries in the diary hereinafter prescribed relating to the case and shall at the same time forward the accused to such Magistrate.

(2) The Magistrate to whom an accused person is forwarded under this section may, whether he has or has not jurisdiction to try the case, from time to time, authorise the detention of the accused in such custody as such Magistrate thinks fit, for a term not exceeding fifteen days in the whole; and if he has no jurisdiction to try the case or commit it for trial and considers further detention unnecessary, he may order the accused to be forwarded to a Magistrate having such jurisdiction :

Provided that’ 

(a) the Magistrate may authorise the detention of the accused person, otherwise than in the custody of the police, beyond the period of fifteen days, if he is satisfied that adequate grounds exist for doing so, but no Magistrate shall authorise the detention of the accused person in custody under this paragraph for a total period exceeding 

 (i) ninety days, where the investigation relates to an offence punishable with death, imprisonment for life or imprisonment for a term of not less than ten years;

 (ii) sixty days, where the investigation relates to any other offence, and, on the expiry of the said period of ninety days, or sixty days, as the case may be, the accused person shall be released on bail if he is prepared to and does furnish bail and every person released on bail under this sub-section shall be deemed to be to released under the provisions of Chapter XXXIII for the purposes of that Chapter;

(b) no Magistrate shall authorise detention of the accused in custody of the police under this section unless the accused is produced before him in person for the first time and subsequently every time till the accused remains in the custody of the police, but the Magistrate may extend further detention in judicial custody on production of the accused either in person or through the medium of electronic video linkage;

(c) no Magistrate of the second class, not specially empowered in this behalf by the High Court, shall authorise detention in the custody of the police.

Explanation I – For the avoidance of doubts, it is hereby declared that, notwithstanding the expiry of the period specified in paragraph (a), the accused shall be detained in custody so long as he does not furnish bail.

Explanation II — If any question arises whether an accused person was produced before the Magistrate as required under clause (b), the production of the accused person may be proved by his signature on the order authorising detention or by the order certified by the Magistrate as to production of the accused person through the medium of electronic video linkage, as the case may be

Provided further that in case of a woman under eighteen years of age, the detention shall be authorised to be in the custody of a remand home or recognised social institution.

(2A) Notwithstanding anything contained in sub-section (1) or sub-section (2), the officer-in-charge of the police station or the police officer making the investigation, if he is not below the rank of a sub-inspector, may, where a Judicial Magistrate is not available, transmit to the nearest Executive Magistrate, on whom the powers of a Judicial Magistrate or Metropolitan Magistrate have been conferred, a copy of the entry in the diary hereinafter prescribed relating to the case and shall, at the same time, forward the accused to such Executive Magistrate and thereupon such Executive Magistrate, may, for reasons to be recorded in writing, authorise the detention of the accused person in such custody as he may think fit for a term not exceeding seven days in the aggregate and on the expiry of the period of detention so authorised, the accused person shall be released or bail except where an order for further detention of the accused person has been made by a Magistrate competent to make such order and where an order for such further detention is made, the period during which the accused person was detained in custody under the orders made by an Executive Magistrate under this sub-section, shall be taken into account in computing the period specified in paragraph (a) of the proviso to sub-section (2):

Provided that before the expiry of the period aforesaid, the Executive Magistrate shall transmit to the nearest Judicial Magistrate the records of the case together with a copy of the entries in the diary relating to the case which was transmitted to him by the officer in charge of the police station or the police officer making the investigation, as the case may be.

(3) A Magistrate authorising under this section detention in the custody of the police shall record his reasons for so doing.

(4) Any Magistrate other than the Chief Judicial Magistrate making such order shall forward a copy of his order, with his reasons for making it, to the Chief Judicial Magistrate.

(5) If in any case triable by a Magistrate as a summons-case, the investigation is* not concluded within a period of six months from the date on which the accused was arrested, the Magistrate shall make an order stopping further investigation into the offence unless the officer making the investigation satisfies the Magistrate that for special reasons and in the interests of justice the continuation of the investigation beyond the period of six months is necessary.

(6) Where any order stopping further investigation into an offence has been made under sub-section (5), the Sessions Judge may, if he is satisfied, on an application made to him or otherwise, that further investigation into the offence ought to be made, vacate the order made under sub-section (5) and direct further investigation to be made into the offence subject to such directions with regard to bail and other matters as he may specify.

STATE AMENDMENTS

Madhya Pradesh — In sub-section (2) of Section 167 :

(i) in the proviso, for paragraph (b), the following paragraph shall be substituted, namely :

“(b) no Magistrate shall authorise detention in any custody under this section unless the accused is produced before him in person for the first time and subsequently every time till such time the accused remains in the custody of police, but the Magistrate may extend further detention in judicial custody on production of accused either in person or through the medium of electronic video linkage;”

(ii) for Explanation II, the following Explanation shall be substituted, namely :

“Explanation II — If any question arises whether an accused person was produced before the Magistrate as required under paragraph (b), the production of the accused person may be proved by his signature on the order authorising detention or by the order certified by the Magistrate as to production of the accused person through the medium of electronic video linkage, as the case may be.

[Vide The Code of Criminal Procedure (Madhya Pradesh Amendment) Act, 2002 (No. 2 of 2008). Published in M.P. Rajpatra (Asadharan) dated 22-2-2008 Page 158-158(1).] 

Chhattisgarh – (1) In clause (b) of sub-section (2) of Section 167 of the Principal Act, for the word “any” the word “police” shall be substituted. सीआरपीसी की धारा 167

(2) After clause (b) of sub-section (2) of Section 167 of the Principal Act, the following new sub-clause (bb) shall be added, namely :

“(bb) No Magistrate shall authorise detention of the accused person other than in the custody of the police under this section unless the accused is produced before him either in person or through the medium of electronic video linkage and represented by his pleader in the Court.”

(3) In explanation II, after words “was produced” the words “from police custody” shall be added.

(4) After explanation II, the following new explanation shall be added :

“III. If any question arises whether an accused person was produced from otherwise than in the custody of the police in person or (as the case may be) through medium of electronic video linkage before the Magistrate as required under paragraph (bb), the production of the accused person may be proved by his or his pleader’s signature on the order authorising detention.”

[Published in C.G. Rajpatra (Asadharan) dt. 13-3-2006 (w.e.f. 13-3-2006)].

Uttar Pradesh — After section 167, insert the following section namely :

167- A. Procedure on arrest by Magistrate – For the avoidance of doubts, it is hereby declared that the provisions of section 167 shall so far as may be, apply also in relation to any person arrested by, or under any order or direction of, a Magistrate, whether executive or judicial.” सीआरपीसी की धारा 167

[Vide Uttar Pradesh Act 18 of 1978, sec. 2 (w.r.e.f. 5-11-1977)].

Rajasthan — In proviso to sub-section (2) of section 167 :

(i) for the existing paragraph (b), the following paragraph shall be substituted, namely :

“(b) where the accused is in police custody, no Magistrate shall authorise detention in any custody under this section unless the accused is produced before him in person;

(bb) where the accused is in judicial custody, no Magistrate shall authorise detention in any custody under this section unless the accused is produced before him either in person or through the medium of electronic video linkage;” सीआरपीसी की धारा 167

(ii) for the existing Explanation II, substitute the following Explanation, namely :

“Explanation II — If any question arises whether an accused person was produced before the Magistrate as required under paragraph (b) and (bb), the production of the accused person may be proved

(i) by his signature on the order authorising detention, if he is produced in person; or

(ii) by a certificate to the effect that he was produced through the medium of electronic video linkage recorded by the Magistrate on the order authorising detention, if he is produced through the medium of electronic video linkage”.

[Vide Rajasthan Act 16 of 2005, sec. 2].

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