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contract law – भागीदारी की परिभाषा, प्रकृति और आवश्यक तत्व | Definition, Nature & Essentials of Partnership in hindi

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परिचय (Introduction) :-

पृथक भागीदारी अधिनियम अधिनियमित किए जाने के पूर्व भागीदारी से सम्बन्धित नियमों को भारतीय संविदा अधिनियम ,1872 के अध्याय ग्यारह (धारा 239 से 266) के अन्तर्गत समाविष्ट किया गया था परन्तु इसे और अधिक स्पष्ट और पूर्ण बनाने के निमित्त 1932 में भारतीय भागीदारी अधिनियम पारित किया गया। पूर्व में भारतीय भागीदारी अधिनियम जम्मू-कश्मीर राज्य को छोडकर शेष भारत में लागू था परंतु जम्मू कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 पारित होने के पश्चात यह अधिनियम संपूर्ण भारत में लागू है। इस अधिनियम की धारा 69 को छोड कर शेष सभी धाराओं को 1 अक्टूबर 1932 से लागू किया गया। धारा 69 को 1 अक्टूबर 1933 से लागू किया गया।

भागीदारी की परिभाषा (Definition of Partnership):-

 भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 4

“भागीदारी” उन व्यक्तियों के बीच का सम्बन्ध है, जिन्होंने किसी ऐसे काराबार के लाभों में अंश पाने का करार कर लिया है जो उन सबके द्वारा या उनमें से ऐसे किन्हीं या किसी के द्वारा जो

उन सब की ओर से कार्य कर रहा है, चलाया जाता है।” अर्थात् भागीदारी व्यावसायिक संगठन का एक सह व्यक्तियों का पारस्परिक संबंध है, जिसमें लाभ कमाने के उद्देश्य से एक

व्यावसायिक उद्यम का गठन किया जाता है। वे व्यक्ति जो एक साथ मिलकर व्यवसाय करते है, उन्हें व्यक्तिगत रूप से ‘भागीदार’ (Partner) और सामूहिक रूप से ‘फर्म’ कहा जाता है।

तथा भागीदारी फर्म का अपना अलग कोई अस्तित्व नहीं होता है । यह भागीदारों का एक संघ है । सदस्यों में अलग एक इकाई के रूप में इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है । केवल आयकर अधिनियम के विनिर्दिष्ट उपबन्धों के कारण आयकर के विनिर्दिष्ट प्रयोजन के लिये भागीदारी का एक पृथक् व्यक्तित्व स्वीकार किया गया है । भागीदारी भागीदारों का एक संघ होता है जो कारबार करता है । भागीदारों से पृथक् इसका कोई व्यक्तित्व नहीं होता है । उपर्युक्त विधिक स्थिति को ध्यान में रखते हुये , क्योंकि इसका कोई पृथक् व्यक्तित्व नहीं होता है , यह एक विधिक व्यक्ति नहीं होता है , फर्म के वास्तविक प्रतिनिधि भागीदार होते हैं , अतः भागीदारों के अनुभव को , फर्म का अनुभव माना जा सकता है।

 

भागीदारी की प्रकृति (Nature of Partnership):-

भारतीय भागीदारी अधनियम की धारा 4 (परिभाषा), धारा 5 (भागीदारी प्रास्थिति से सृष्ट नहीं होती) तथा धारा 6 (भागीदारी के अस्तित्व के अवकारक का ढंग ) से भागीदारी की प्रकृति बहुत कुछ स्पष्ट हो जाती है। इसके अतिरिक्त भागीदारी की प्रकृति की थोड़ी और विवेचना निम्न वादों के माध्यम से करना वांछनीय होगा।

केस – श्री मति  बका एफ. गजधर V. आयकर आयुक्त , (1955)

इस वाद में उच्चतम न्यायालय कहा हैं कि भागीदारी केवल व्यक्तियों का समूह तथा विधि में फर्म का नाम भागीदारों के वर्णन करने का संक्षिप्त ढंग है। इसके विपरीत कंपनी एक पृथक इकाई (separate juristic entity) होती है जो अपने शेयर धारको से भिन्न होती है ।

एक अन्य वाद.

केस -महारानी मंडलसा देवी V. राम नारायण प्रा. लि. (1965)

इस वाद में उच्चतम न्यायालय में अभिनिर्धारित किया कि केवल कुछ प्रयोजनों के लिए विधि ने भागीदारों को सीमित दायित्व प्रदान किया है तथा इस विधिक परिकल्पना (legal fiction) का प्रसार अधिक नहीं किया जा सकता है। भागीदारी विधिक इकाई (legal entity) नहीं है। वह व्यक्ति जो व्यष्टितः भागीदार कहलाते हैं सामहिक रूप से फर्म कहलाते है।

कर लगाने के प्रयोजन के लिए भागीदारी को सीमित व्यक्तित्व प्रदान किया गया है।

केस – वॉटसन और इवरिट V. बलंदें , (1934

इस वाद मे न्यायमूर्ति रोमर (Romer. L. J.) ने अपने निर्णय में कहा था कि कर लगाने के प्रयोजनों के लिए भागीदारी को फर्म निर्मित करने वाले व्यक्तियों से भिन्न इकाई माना जाता है।

इस निर्णय का अनुमोदन हाऊस ऑफ लॉर्ड्स ने सिटी ऑफ लंदन के लिए आयकर आयुक्त V. गिब्स (1942) के वाद में कर दिया। भारत में भी आयकर अधिनियम, 1922 के सम्बन्ध में सही विधि के रूप में स्वीकार किया।

भागीदारी के आवश्यक तत्व (Essentials of Partnership):-

अनेक वादों में भागीदारी के 2 या 3 आवश्यक तत्व बताये गये है ।

केस- रघुनाथ साहू v. त्रिनाथ दास ,(1985)

इस वाद  में ओडिशा उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने अपने निर्णय में 3 तत्व बताए —

1.सम्बन्धित व्यक्तियों के मध्य एक करार होना चाहिये,

2. यह किसी कारबार के लाभ के अंश पाने के लिये होना चाहिये तथा

3. कारबार या तो सभी व्यक्तियों द्वारा किया जाना चाहिये अथवा उनमें से किसी एक व्यक्ति द्वारा सबकी ओर से किया जाना चाहिये।

पहला तत्व भागीदारी की प्रकृति से सम्बन्धित है । दूसरा तत्व हेतु (motive) अर्थात् लाभ प्राप्त करना बताता है जिसके लिये भागीदारी स्थापित की जाती है । तीसरे तत्व से यह स्पष्ट होता है कि जो व्यक्ति कारबार चलाते हैं वह सभी भागीदारों के एजेंट के रूप में कार्य करते है।

केस- मो.हफीज खान  V. राज्य परिवहन एप्लेट ट्रिब्यूनल ग्वालियर, (1978)

के वाद में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने भी यही तीन आवश्यक तत्व बताये है।

केस- प्रतिभा रानी v. सूरज कुमार ,(1985)

उच्चतम न्यायालय ने 2 आवश्यक तत्व बताये —

1.दो व्यक्तियों द्वारा कोई वास्तविक या भौतिक बाह्य कृत्य किसी कारबार को प्रारम्भ करने हेतु , तथा

2. यदि सभी भागीदार या उनमें से कोई कारबार चलाता है तो कारबार के लाभ के अंश भागीदारों को भागीदारी करार में वर्णित अनुपात में प्राप्त होंगे।

भागीदारी अधिनियम की धारा 4 का जरा विस्तार से विश्लेषण करने पर तथा अध्ययन को सुविधा को द्रष्टि से हम कह

सकते हैं कि भागीदारी के पाँच आवश्यक तत्व होते है—

  1. दो या दो से अधिक व्यक्ति (Two or more persons)
  2. क़रार (An agreement)
  3. कारबार (Business)
  4. लाभांश प्राप्त करना (Sharing of Profits)
  5. पारस्परिक अभिकरण (Mutual Agency)

1.दो या दो से अधिक व्यक्ति (Two or more persons)-

भागीदारी के निर्माण के लिए कम से कम दो व्यक्ति होने आवश्यक है। भागीदारी के अधिकतम संख्या के बारे में भागीदारी अधिनियम के अन्तर्गत कोई उपबन्ध नहीं मिलता है परन्तु कम्पनी अधिनियम, 2013 में इसके सम्बन्ध में उपबन्ध मिलता है। कम्पनी अधिनियम की धारा 464 के अनुसार भागीदारी की दशा में सदस्यों की अधिकतम संख्या 50 कर दी गई है | यदि इससे अधिक संख्या हो जाती हैं तो इसे कम्पनी अधिनियम के अन्तर्गत कम्पनी के रूप में पंजीकृत कराना आवश्यक है, अन्यथा वह अवैध संगठन हो जायेगा।

2. क़रार (An agreement)-

भागीदारी दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच का संबंध है, जो क़रार द्वारा सृजित होता है।

धारा 4 में यह स्पष्ट किया गया है कि ‘भागीदारी’ ऐसे व्यक्तियों के बीच का सम्बन्ध है जिन्होंने किसी कारबार के लाभों में अंश प्राप्त करने का करार किया है। धारा 5 में इसी बात को और स्पष्ट करके कहा गया है कि भागीदारी प्रास्थिति (Status) से सृष्ट नहीं होती | धारा 5 के अनुसार, भागीदारी सम्बन्ध संविदा से उद्भूत होता है, प्रास्थिति से नहीं, और विशेषकर हिन्दू अविभक्त कुटुम्ब के सदस्य जो उस हैंसियत में कौटुम्बिक कारबार चलाते, या बर्मी बौद्ध पति और पत्नी जो उस हैसियत में कारबार चलाते हैं ऐसे कारबार में भागीदार नहीं हैं।

केस- उपायुक्त बिक्री कर (कानून) V. सुश्री के.के.केलुकुट्टी ,(1985)

के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है कि भागीदारों का सम्बन्ध उनके मध्य करार पर आधारित होता हैं। अत: भागीदारी तथा फर्म का आधार भागीदारी करार है। भागीदारी का स्रोत भागीदारी करार होता है; यह अन्य तत्वों की अभिव्यक्ति करता है। यह कहा जा सकता है कि भागीदारी करार भागीदारों को उत्पन्न करता है तथा उसके सम्बन्ध को परिभाषित करता है। अत: यह फर्म का अभिज्ञान या पहचान करता है।

भागीदारी के लिये करार होना आवश्यक होता है परन्तु यह आवश्यक नहीं होता है कि करार लिखित अथवा औपचारिक हो। यह भी आश्यक नहीं है कि करार सदैव व्यक्त हो। यह विवक्षित अथवा निहित (implied) हो सकता है अथवा इसका निष्कर्ष पक्षकारों के आचरण से निकाला जा सकता है।

केस- अब्दुल  v.सेंचुरी वुड इंडस्ट्रीज , (1954)

के वाद में पिता की मृत्यु के बाद दो भाइयों ने उत्तराधकार में सम्पत्ति प्राप्त किया। उन सम्पत्तियो में एक बाग भी था। उन्होंने बाग बेच दिया और विक्रय से प्राप्त धन को एक पृथक लकड़ी के कारबार में लगा दिया। उनके मध्य भागीदारी के निर्माण हेतु कोई औपचारिक करार नहीं किया गया था।

परन्तु न्यायालय ने पक्षकारों के आचरण और परिस्थितियों के आधार पर उनके मध्य भागीदारी का विवक्षित करार माना और इस प्रकार उस कारबार के सम्बन्ध में उन्हें भागीदारी माना गया।

3. कारबार (Business) :-

भागीदारी के निर्माण के लिए कारबार का होना आवश्यक है, क्यांकि बिना कारबार के भागीदारी नहीं हो सकती। ‘कारबार’ की बड़ी ही व्यापक परिभाषा भागीदारी अधिनियभ की धारा 2 (b) में दी गई है।

धारा 2 (b) के अनुसार, ‘कारबार’ के अन्तर्गत हर व्यापार, उपजीविका और वृत्ति होती हैं। इसे शाब्दिक अर्थों में न लेकर व्यावहारिक अर्थ में लिया जाना चाहिए। यह आवश्यक नहीं है कि कारबार लम्बा तथा स्थायी हो। केवल एक वाणिणज्यिक संव्यवहार कारबार हो सकता है।

लिन्डले (Lindley) के अनुसार, यदि वे व्यक्ति जो कारबार के भागीदार नहीं हैं किसी एक विशिष्ट संव्यवहार के लाभ तथा हानि विभाजित करते हैं या अंश लेते हैं, तो वह उस संव्यवहार के भागीदार हो सकते हैं।

 

केस-कोटपल्ली जगैया V. कोकमुनु वेंकट सत्यनारायण, (1984)

लिन्डले द्वारा व्यक्त उपर्यक्त विचार का अनुमोदन आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस के वाद में किया है।उक्त विचार का अनुमोदन करते हुये उच्च न्यायालय ने कहा कि-

इस प्रकार परीक्षण यह है कि क्या कोई ऐसा कार्यकलाप (activity) है जिसे उस संव्यवहार के लिये कारबार कहा जा सकता है । यह आवश्यक नहीं है कि एक से अधिक संव्यवहार हो। यह काफी है यदि एक संव्यवहार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के चलाने के योग्य हो। अत: सरकार के साथ केवल एक संविदा भागीदारी का विषय-वस्तू हो सकती है। भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 की धारा 8 में भी स्पष्ट किया गया है कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति का विशिष्ट प्रोद्यामों अथवा उपक्रमों में भागीदार बन सकता है।

 

लाभांश प्राप्त करना (Sharing of Profits):-

भागीदारी के निर्माण के लिए यह आवश्यक हैं कि भागीदारी करार के अंतर्गत भागीदारों के मध्य लाभ के बंटवारे का उपबन्ध हो। कारबार से प्राप्त लाभ को भागीदारो के मध्य बांटने की व्यवस्था होना भागीदारी के निमाण के लिए आवश्यक है।

लाभ से तात्पर्य शुद्ध लाभ (Net profit) से है। इस प्रकार भागीदारी-निर्माण के लिए भागीदारों को कारबार से प्राप्त शुद्ध लाभ में हिस्सा लेने का अधिकार होना चाहिये।

 

पारस्परिक अभिकरण (Mutual Agency) :-

जिस कारबार के लाभ में अंश पाने का करार किया गया है वह कारबार उन सबके द्वारा या उनमें से किन्हीं या किसी के द्वारा जो उन सबकी ओर से कार्य कर रहा हैं, चलाया जाना चाहिए। इस प्रकार भागीदारी सम्बन्ध की स्थापना के लिए कारबार सभी भागीदार द्वारा या उनमे से किसी के द्वारा सभी को ओर से चलाया जाना चाहिए। अत: भागीदारी के निर्माण के लिए ‘पारस्परिक अभिकरण का होना भी आवश्यक है।

प्रत्येक भागीदार स्वामी और अभिकर्ता होता है। दूसरे भागीदारों का अभिकर्ता होने के कारण फर्म के कारबार के प्रयोजन हेतु किया गया उसका कार्य सभी भागीदारी अर्थात फर्म पर बन्धनकारी होता है। इस प्रकार लाभ में हिस्सा लेना ही भागीदारी की स्थापना के लिए आवश्यक नहीं हैं। यह भी देखना चाहिए कि, क्या कारबार सभी भागीदारों द्वारा या उनमे से किन्ही या किसी के द्वारा सभी की ओर से चलाया जा रहा हैं। यदि ऐसा नहीं होता है तो पारस्परिक अभिकरण के अभाव में भागीदारी का संबंध स्थापित नहीं होता है।

इस संबंध में निम्न वाद विशेष रूप से उल्लेखनीय है……..

केस- कॉक्स v. हिचमैन ,(1860)

Facts: दो व्यक्ति भागीदारी में लोहे का कारबार करते थे। अर्थिक संकट होने पर उन्होने ऋण लिया। तत्पश्चात ऋण न अदा कर पाने पर उन्होने लेनदार के पक्ष एक न्यास विलेख (trust deed) निष्पादित किया । लेनदारों मे काक्स (Cox) तथा वीट क्राफ्ट (Wheat Craft) भी सम्मिलित थे। विलेख के अन्तर्गत सम्पत्ति न्यासियों को समनुदेशित कर दी गई तथा उन्हें कारबार चलाने हेतु तथा सभी आवश्यक संविदाएं तथा लिखत निष्पादित ‘करने हेतु तथा लेनदारों के मध्य लाभों को विभाजित् करने के लिये शक्ति प्रदान की गई हो। यह विलेख उक्त दोनो भागीदारों को ऋण से मक्ति दिलाने हेतु था। ऋण के भुगतान के पश्चात सम्पत्ति उक्त दोनों व्यक्तियों को पुनः मिलनी थी।

काक्स ने न्यासी के रूप में कभी कार्य नहीं किया तथा अवकाश प्राप्त कर लिया। वीट क्राफ्ट (Wheat Craft) में भी कुछ समय पश्चात अवकाश ग्रहण कर लिया। अन्य न्यासी जो कारबार चला रहे थे, हिकामेन के ऋणी हो गये | उन्होंने हिकमैन से माल लिया था तथा हुन्डी (Bil of Exchange) दी। हुन्डी का भुगतान न होने पर हिकमैन ने न्यासियों के विरुद्ध वाद किया तथा माल के विक्रय तथा परिदत्त करने के लिये धन की मांग की।

यहां पर यह उल्लेखनीय है कि न्यासी उसी दशा में दायी हो सकते थे यदि वह भागीदार होते |

Held: ‘न्यायालय ने निर्णय दिया कि वह भागीदार नहीं थे। यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी कारबार के लाभ में हिस्सा तो ले रहे हैं, परंतु कारबार सभी द्वारा या सभी की ओर से किसी के द्वारा चलाया नहीं जा रहा है तो वे लाभ मे हिस्सा लेने के उपरांत भी भागीदार नहीं माने जाएंगे। अत: वह दायी नहीं थे।

निष्कर्ष (Conclusion):-

एक भागीदारी एक महत्वपूर्ण विधिक अवधारणा है जो इस संघ के घटकों को, अर्थात्, भागीदारों को उत्तरदायी बनाती है, जबकि वे अपनी व्यक्तिगत क्षमता बनाए रखते हैं। हालांकि एक विधिक इकाई को व्यवसाय पर ले जाने का सामूहिक कार्य नहीं बनाया जाता है, इससे फर्म के लिए जीवित रहना संभव हो जाता है। भारतीय भागीदारी अधिनियम मुख्यतः अंग्रेजी विधि पर आधारित है परन्तु कई बातों में यह अंग्रेजी विधि से भिन्न है। फर्म के सुनाम या साख (Good will) का वर्णन अंग्रेजी भागीदारी अधिनियम में नहीं मिलता है जबकि भारतीय भागीदारी अधिनियम में इसके सम्बन्ध में स्पष्ट उपबन्ध मिलता हैं। इसी प्रकार भारतीय भागीदारी अधिनियम में फर्म का पंजीकरण कराना ऐच्छिक है जबकि अंग्रेजी विधि में इसके लिए शास्ति का प्रावधान है। अंग्रेजी विधि में भागीदारी के लाभ में अवयस्क के प्रवेश के सम्बन्ध में उपबन्ध नहीं मिलता है जबकि भारतीय भागीदारी अधिनियम में अवयस्कों का भी प्रवेश हो सकता

संदर्भ (References):-

1: Kailash Roy, Indian Partnership Law, 7th edn. (Allahabad 2007)

2: legalbites.in

यह आर्टिकल Lokesh Namdev के द्वारा लिखा गया है जो की LL.B. IInd से मेस्टर Dr. Harisingh Gour central University,sagar के छात्र है |