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दांपत्य अधिकारों का पुनर्स्थापन क्या है? | Restitution of conjugal rights in hindi

दांपत्य अधिकारों का पुनर्स्थापन

दांपत्य अधिकारों का पुनर्स्थापन (Restitution of conjugal rights) :-

जब दो पक्षकार आपस में विवाह संपन्न करते हैं तो ऐसे विवाह के संपन्न होने के पश्चात उन दोनों के भीतर कुछ सामाजिक अधिकार तथा दायित्वों का जन्म होता है।विवाह के दोनों पक्षकारों के साथ रहते हुए समय के साथ कुछ विवाद भी होते हैं। कभी-कभी विवाद बढ़ जाते हैं और विवाह के विच्छेद की परिस्थिति सामने आकर खड़ी हो जाती है।

ऐसी परिस्थितियों में संतान का पालन पोषण बहुत कष्ट कारक हो जाता है। विवाह से उत्पन्न होने वाली संतान का पालन पोषण विवाह के दोनों पक्षकार पति और पत्नी पर आता है। दोनों पक्षकारों का यह दायित्व होता है कि वह साथ रहते हुए अपनी संतान का पालन पोषण करें।

हिंदू विवाह अधिनियम,1955 के माध्यम से यह प्रयास किया गया है कि जहां तक हो सके विवाह के पक्षकारों के मध्य विवाह का विच्छेद न हो, विवाह के पक्षकार साथ रहें। विवाह के पक्षकारों को साथ रखने के उद्देश्य से ही इस अधिनियम के अंतर्गत धारा 9 का समावेश किया गया है।

हिंदू विवाह अधिनियम , 1955 की धारा 9 के अंतर्गत दांपत्य  अधिकारों की पुनर्स्थापना का  प्रावधान किया गया है। इस धारा के अनुसार दांपत्य अधिकारों के  की पुनर्स्थापन की स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब पति पत्नी में कोई एक पक्ष किसी युक्तियुक्त कारण के बिना सहवास से अलग हो गया हो तथा न्यायालय इस बात से पूर्णरूपेण संतुष्ट हो गया हो कि कोई ऐसा विधि का आधार नहीं है जिसके अनुसार पुनर्स्थापन की डिक्री नामंजूर की जा सकती है।

ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर पीड़ित पक्ष जिला न्यायालय में याचिका द्वारा  दांपत्य अधिकारों के पुनर्स्थापन के लिए आवेदन कर सकता है।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के अनुसार :- दांपत्य अधिकारों का पुनर्स्थापन

‘जबकि पति या पत्नी ने अपने को दूसरे के साहचर्य से किसी युक्तियुक्त प्रतिहेतु के बिना प्रत्याहृत कर लिया हो तब व्यथित पक्षकार दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिए  जिला न्यायालय में अर्जी द्वारा आवेदन कर सकेगा और न्यायालय ऐसी अर्जी में किए गए कथनों के सत्य के बारे में तथा इस बात के बारे में कि इसके लिए कोई वैध आधार नहीं है कि आवेदन मंजूर क्यों न कर लिया जाए अपना समाधान हो जाने पर  दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन डिक्री(आज्ञप्ति) कर सकेगा।”

 स्पष्टीकरणजहां यह प्रश्न उठता है कि क्या साहचर्य के प्रत्याहरण के लिए युक्तियुक्त प्रतिहेतु है वहां युक्तियुक्त प्रतिहेतु साबित करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जिसने साहचर्य से प्रत्याहरण किया है।

इस प्रकार इस धारा के अनुसार दांपत्य अधिकार की पुनर्स्थापना के लिए न्यायालय तभी आज्ञप्ति (डिक्री) दे सकता है,जब-

  1. दोनों में से किसी पक्ष ने बिना युक्तियुक्त कारण के दूसरे के साथ रहना त्याग दिया हो।
  2. दांपत्य अधिकार की पुनर्स्थापना के लिए दिए गए प्रार्थना पत्र से न्यायालय संतुष्ट हो गया हो।
  3. प्रार्थना पत्र अस्वीकृत किए जाने के लिए कोई वैध आधार ना हो।

उपचार :- धारा 9 के अंतर्गत दिया गया अधिकार विवाह के ऐसे पक्षकार के पक्ष में है जो विवाह को समाप्त नहीं करना चाहता और न ही न्यायिक पृथक्करण चाहता है।

यदि विवाह का वह पक्षकार, जिसके  विरुद्ध दांपत्य अधिकार की पुनर्स्थापना संबंधी आज्ञप्ति पास हो गई है, आज्ञप्ति का पालन 1 वर्ष अथवा अधिक समय के लिए नहीं करता तो दूसरे पक्षकार को धारा 13(1A)(i) के अधीन विवाह विच्छेद की याचिका दायर करके विवाह समाप्त करवाने का अधिकार प्राप्त हो जाएगा।

केस:- साधु सिंह बलवंत सिंह बनाम श्रीमती जगदीश कौर (ए.आई. आर. 1969 राज.139।

इस मामले में न्यायालय ने यह कहा कि धारा 9 के अंतर्गत डिक्री प्राप्त करने के लिए दो बातें साबित करनी आवश्यक है-(1) प्रत्युत्तरदाता ने याची के साथ रहना छोड़ दिया है, तथा (2) साथ रहने का कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है।

केस:- अन्नासाहेब बनाम ताराबाई, (ए. आई. आर. 1970 मध्य प्रदेश 36)

इस मामले में यह निरूपित किया गया है कि इस धारा में अनुतोष उसी दशा में प्रदान किया जाएगा जब न्यायालय इस बात से संतुष्ट हो जाएगा कि विवाह का दूसरा पक्षकार बिना किसी युक्तियुक्त कारण के अलग हो गया है। युक्तियुक्त कारण की व्याख्या कहीं नहीं की गई है।

केस:- शांति देवी बनाम रमेश चंद्र रायकर,(ए. आई. आर. 1969 पटना 27।)

इस मामले में कहा गया है कि दांपत्य जीवन की पुनर्स्थापना की याचिका पक्षकार को शीघ्रातिशीघ्र दायर कर देनी चाहिए। जहां पति ने पत्नी के विरुद्ध पत्नी के 10 वर्ष अलग रहने के बाद पुनर्स्थापना की याचिका प्रस्तुत की और इस विलंब के लिए कोई उचित कारण नहीं बताया ,न्यायालय ने याचिका को खारिज कर दिया।

केस:-सानिया देवी बनाम प्रशांत कुमार झा,( ए. आई. आर. 2014 एन.ओ.सी. 586 पटना)।

इस मामले में यह कहा गया है कि जहां किसी पुरुष का अपहरण करके नशे की हालत में किसी स्त्री के साथ जबरदस्ती विवाह संपन्न कराया गया हो वहां पक्षकार धारा 9 का लाभ प्राप्त करने का हकदार नहीं होगा।

हिन्दू विवाह अधिनियम ,1955 की धारा 9  की संवैधानिकता:-

केस:-  टी. सरीथा बनाम वेंकट सुब्बाया (ए आई आर 1983 आंध्र प्रदेश 356)।

इस मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने हिंदू विवाह अधिनियम ,1955 की धारा 9 को असंवैधानिक घोषित किया क्योंकि यह धारा स्त्री की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के खिलाफ एवं उसकी इच्छा के विरुद्ध पति से सहवास करने के लिए बाध्य करती है। धारा 9 के अधीन डिक्री स्त्री की व्यक्तिगत स्वतंत्रता (अनुच्छेद 21) पर एक कुठाराघात है।

इस निर्णय को उच्चतम न्यायालय ने “सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार”(ए आई आर 1984 सुप्रीम कोर्ट 1962) के मामले में उलट दिया और कहा कि भारत में पति पत्नी का एक दूसरे के साथ रहने का अधिकार किसी कानून की ही देन नहीं है बल्कि विवाह जैसी अवधारणा में अंतर्निहित  है। धारा 9 के ही अंतर्गत इसका किसी अत्याचार का माध्यम होने से बचाने के लिए रक्षा का उपाय प्रदान किया गया है। अतः धारा 9 में दिया गया प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं करता है।

केस:-  सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्‌ढा

सुप्रीम कोर्ट के इस मामले में पत्नी की याचिका पर वैवाहिक अधिकारों की बहाली की थी। पत्नी को पति के घर से निकाल दिया गया था। ऐसे में निचली कोर्ट ने पत्नी के पक्ष में डिक्री दी, लेकिन पति उसे अमल में नहीं लाया। ऐसे में धारा 9 की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठ गया। यह भी कहा जाने लगा कि क्या यह अनुच्छेद 14 या 21 का उल्लंघन तो नहीं है। अंतत: धारा 9 के तहत सुप्रीम कोर्ट ने इस डिक्री को लागू कराया। जस्टिस सब्यसाची मुखर्जी ने व्यवस्था दी कि हिंदू विवाह कानून की धारा 9 किसी भी तरह से अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 21 का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता। एक तरह से यह सामाजिक पक्ष को हल कर रहा है, ताकि शादियों को टूटने से रोका जा सके।

धारा 9 का सामाजिक और कानूनी पक्ष भी यह है कि किसी भी तरह से दोनों पक्षों को अलग होने से बचाया जा सके। वैवाहिक अधिकारों में प्रेम और भावनात्मक लगाव एक अहम पक्ष है और यह धारा उसे परिपूर्ण करने में पूरी मदद करती है।

युक्तियुक्त कारण :-

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 9 के अंतर्गत विवाह के किसी पक्षकार को एक पक्षकार द्वारा जब छोड़कर जाया जाता है तो इस छोड़कर जाने के पीछे कोई युक्तियुक्त कारण होना चाहिए। इस अधिनियम की धारा 9 के अंतर्गत युक्तियुक्त कारण पर बल दिया गया है। युक्तियुक्त कारण क्या होगा यह हर एक मामले की परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है ।

केस:- विजय दा बनाम श्रीमती आलोक दा,( 1969 कल.477)।

इस वाद में कहा गया है कि जहां पति ने पत्नी के विरुद्ध चारित्रिक दोष का आरोप लगाया हो तो वहां पत्नी को अलग रहने का युक्तियुक्त एवं पर्याप्त कारण हैं जिसके आधार पर पति के दांपत्य अधिकार की पुनर्स्थापन याचिका खारिज कर दी जाएगी।

केस :- चंद्र बनाम सरोज (एआईआर 1975 राजस्थान 88)।

इस मामले में कहा गया है कि यदि पत्नी नशा नहीं करती है और मांस नहीं खाती है और फिर भी पत्नी को शराब पीने दी जा रही है और उसे नशा करने को कहा जा रहा है तो या घर छोड़ने का युक्तियुक्त कारण होगा।

केस:- एन. आर. राधाकृष्णन बनाम  एन. धनलक्ष्मी,( ए.आई. आर.1957 मद्रास 337)।

इस मामले में मद्रास हाई कोर्ट ने यह कहा कि यदि पत्नी एक अच्छी नौकरी में हो, किंतु पति से दूर रहती हो तो उस स्थिति में पत्नी का अलग रहना एक युक्तियुक्त कारण होगा और पति का दांपत्य-अधिकार पुनर्स्थापना संबंधी प्रार्थनापत्र खारिज कर दिया जाएगा।

केस:- अन्ना साहब बनाम ताराबाई ,(एआईआर 1970 मध्य प्रदेश 36 )

इस मामले में यह कहा गया है कि धारा 9 की उपधारा (1) के अनुसार अनुतोष उसी दशा में प्रदान किया जाएगा, जब न्यायालय इस बात से संतुष्ट हो जाएगा कि विवाह का दूसरा पक्षकार बिना किसी युक्तियुक्त कारण के अलग हो गया है।

युक्तियुक्त कारण सहचार्य छोड़ने वाले व्यक्ति को ही सिद्ध करना होगा।

निष्कर्ष :-

” घोड़े को पानी के तालाब में लाया जा सकता है लेकिन पीने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता” ( कहावत)

पुनर्स्थापना की अवधारणा दाम्पत्य अधिकारों के सिद्धांत के समान प्रतीत होती है। जब कोई व्यक्ति भावनात्मक रूप से दूसरे से अलग हो जाता है, तो उन्हें एकजुट करना वाकई मुश्किल हो जाता है। इस प्रकार, दाम्पत्य अधिकारों की बहाली एक ऐसा वैवाहिक उपाय है, जो व्यक्ति को विवाह को बचाने के लिए मजबूर करेगा, लेकिन यह इसकी प्रभावशीलता की गारंटी नहीं दे सकता है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यह प्राकृतिक कानून सिद्धांत की अवधारणा के खिलाफ है

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