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माध्यस्थम् करार के आवश्यक तत्वों का विश्लेषण कीजिए

माध्यस्थम् करार के आवश्यक तत्वों का विश्लेषण कीजिए

माध्यस्थम् करार को माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम 1996, की धारा 2 (1) (b) में परिभाषित किया गया है।

धारा 2 (1) (b) माध्यस्थम् करार के अनुसार माध्यस्थम् करार से तात्पर्य ऐसे करार से है जिसे धारा 7 में विनिर्दिष्ट किया गया है –

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम ,1996 की धारा 7(1) के अनुसार, माध्यस्थम् करार का तात्पर्य पक्षकारों द्वारा ऐसे समस्त या कुछ विवाद को माध्यस्थम् को प्रस्तुत करने के करार से है, जो एक संविदात्मक या असंविदात्मक परिभाषित विधिक संबंध के विषय में उत्पन्न हुआ हो या भविष्य में हो सकता हो।

अर्थात् माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 के भाग 1 के प्रयोजन हेतु ‘माध्यस्थम् करार’ से आशय पक्षकारों द्वारा आपस में किए गए ऐसे करार से है जिसके अंतर्गत वे अपने कारोबार के समव्यवहार से उत्पन्न होने वाले सभी या कुछ विवाद, चाहे वह संविदात्मक स्वरूप के हो या न हो निपटाए जाने हेतु मध्यस्थ्/ मध्यस्थों को सौंपने को तैयार हुए हैं।

माध्यस्थम् करार आवश्यक रूप से लिखित में होना चाहिए भले ही वह एक हस्ताक्षरित दस्तावेज के रूप में हो या पत्राचार् या दूरसंचार साधनों के माध्यम से किया गया हो या दावों और प्रतिदावों के आदान-प्रदान के रूप में हो।

माध्यस्थम् करार के आवश्यक तत्व :-

  1. पक्षकारों के मध्य करार
  2. करार में अपने मध्य उत्पन्न होने वाले सभी या कुछ विवाद को माध्यस्थम् के लिए प्रस्तुत करना
  3. विवाद, पारिभाषिक संबंध चाहे वे संविदात्मक हो या नहीं से उत्पन्न हुआ हो।
  4. वर्तमान से या भविष्य में हो सकता है।
  5. माध्यस्थम् करार धारा 7(2) के अनुसार किसी संविदा में माध्यस्थम् खण्ड (Arbitration laws)के रूप में या किसी पृथक करार के रूप में हो सकता है।

निम्नलिखित दशाओं में माध्यस्थम् करार को लिखित माना जाएगा:-

(i) पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित किया गया एक दस्तावेज हो।

(ii) एक ऐसे पत्र, टेलेक्स, टेलीग्राम या दूर संचार के साधन इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों के माध्यम से माध्यस्थम् करार का आदान-प्रदान जो करार के एक अभिलेख का प्रावधान करता है|

(iii) एक ऐसा दावा तथा प्रतिरक्षा के कथनों का आदान-प्रदान जिसमें करार के अस्तित्व का पक्षकार द्वारा अभिकथन किया जाता है तथा दूसरे पक्षकार द्वारा इससे इन्कार नहीं किया जाता हो।

एक माध्यस्थम् खण्ड को अंतर्विष्ट करने वाली संविदा में निर्देश एक माध्यस्थम् करार का गठन करता है, यदि संविदा लिखित में है और निर्देश ऐसा है कि उस माध्यस्थम् खण्ड को संविदा का भाग बनाया जा सकता है।

केस :-बिहार राज्य खनिज विकास निगम बनाम एनकाॅन बिल्डर्स प्रा. लि.(AIR 2003) s.c. 3688.

इस मामले में माध्यस्थम् करार के आवश्यक तत्वों का उल्लेख करते हुए अभिकथन किया कि एक वैध आवश्यक माध्यस्थम् करार में निम्न तत्वों का होना आवश्यक है-

(1) किसी विचारित मामले के संबंध में कोई विद्यमान या भाव विवाद या मतभेद हो,

(2) अपने मतभेद या विवाद को किसी माध्यस्थ अधिकरण के माध्यम से निपटा लेने का पक्षकारों का आशय अभिव्यक्त किया गया हो।

(3) ऐसे माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा दिए गए पंचाट निर्णय को अनिवार्य रूप से मानने के लिए पक्षकारों ने लिखित स्वीकृति दी हो तथा

(4) माध्यस्थम् के लिए पक्षकारों में आपसी सहमति हो।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि माध्यस्थम् करार के निर्वचन के लिए यह आवश्यक नहीं है कि करार के मसौंदे में माध्यस्थम् शब्द का प्रयोग किया गया हो। यदि करार से यह प्रकट होता है कि पक्षकारों का आशय अपने विवाद या मतभेदों को माध्यस्थम् द्वारा निपटा लिए जाने का था, तो केवल इस आधार पर कि करार में माध्यस्थम् शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है उसे अविधिमान्य नहीं माना जा सकेगा।

माध्यस्थम् करार की वैधता के लिए यह आवश्यक है कि इसमें लिखित शर्तें संदिग्ध, अस्पष्ट या अनिश्चित न हो तथा ऐसे करार से पक्षकारों का माध्यस्थम् संबंधी आशय स्पष्ट रूप से प्रकट होता हो, निष्कर्ष रूप में यह कहा जाता है कि वैध माध्यस्थम् करार में तीन बातों के विषय में निश्चितता होनी आवश्यक है –

  1. पक्षकारों के मध्य विवादों का ब्यौरा,
  2. पक्षकारों का विवरण, तथा
  3. माध्यस्थम् अधिकरण के गठन तथा मध्यस्थों का उल्लेख ज्ञातव्य है कि माध्यस्थ करार में अनिश्चितता मात्र  से करार स्वयमेव शून्य या निष्प्रभावी नहीं हो जाता है क्योंकि उसमें सुधार द्वारा अनिश्चितता को दूर किया जा सकता है।

माध्यस्थम् करार की वैधता के अन्य तत्व :-

1. माध्यस्थम् करार में विवादों संबंधी निश्चितता – 

माध्यस्थम् करार में यह स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए कि कौन से और किस प्रकार के विवाद या विवादों को निपटाने हेतु माध्यस्थम् अधिकरण को सौंपा जाएगा।

केस :-उत्तर प्रदेश राज्य बनाम टिपर चंद(AIR 1980) s.c. 1522

इस वाद में एक करार में पक्षकारों ने यह उपखंड रखा था कि जहां संविदा में अन्यथा विनिर्दिष्ट न हो, नापों, डिजाइनों विनिर्देशनों आदि में संबंधित प्रश्नों के विषय में अधीक्षक मंत्री का निर्णय सभी पक्षकारों के प्रति अंतिम एवं बंधनकारी होगा। इसी प्रकार कौशल कारीगरी या निर्माण सामग्री की गुणवत्ता तथा तसंबंधी दावों एवं कार्यों के निष्पादन या प्रगति के विषय में भी अधीक्षक यंत्री का निर्णय अंतिम तथा ठेकेदारों पर बंधनकारी होगा।

प्रतिवादियों का तर्क था कि करार में उक्त उपखंड होने के कारण यह करार एक माध्यस्थम् करार ही था। यधपि उसमें शब्द ‘माध्यस्थम्’ या ‘माध्यस्थम् करार’ शब्द नहीं लिखा गया था। विचारण न्यायालय और अपीलीय न्यायालय ने प्रतिवादियों के तर्क को स्वीकार किया और Sec. 38 के तहत माध्यस्थम् करार माना। मामले की पुनरीक्षण याचिका पर निर्णय देते हुए s.c. ने माध्यस्थम् करार इसे नहीं माना

केस :-रुकमणी बाई बनाम जिलाधीश, जबलपुर(AIR 1981) s.c. 479

इस वाद द में s.c ने अभिनिर्धारित किया कि चूंकि माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 में माध्यस्थम् करार का कोई विशिष्ट प्रारूप उल्लिखित नहीं है और न यह दर्शाया गया है कि ऐसे करार में ‘माध्यस्थम्’ ‘मध्यस्थ्’ ‘माध्यस्थम्’ अधिकरण आदि शब्दों या शब्द का प्रयोग किया जाना आवश्यक है इसलिए यदि करार की शर्तों से पक्षकारों का यह आशय स्पष्ट परिलक्षित होता है कि वे अपने विवाद माध्यस्थम् द्वारा निपटाए जाने पर सहमत हुए हैं तो ऐसे करार को माध्यस्थम् करार माना जाना चाहिए।

केस :-मेक्डोरमेट इंटरनेशनल इंक्लूसिव बनाम बर्न स्टैंडर्ड कंपनी लि. (2006) 11 s. c. c. 181 (पैरा 99)

इस वाद में s.c. ने भी निश्चित किया कि माध्यस्थम् अधिकरण से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वह संदर्भित विवाद के प्रति यंत्रवत् दृष्टिकोण अपनाते हुए उसका निराकरण कर दें। चूंकि मध्यस्थों के समक्ष प्रेषित किए गए प्रत्येक विवाद में एक पक्षकार द्वारा अपने अधिकारों को प्रज्यापित किया जाना तथा विरोधी पक्ष द्वारा उनका प्रत्याज्यापन किया जाना अंतर्निहित होता है, इसलिए इनका निर्णायन किया जाना आवश्यक होता है।

जैसे ही पक्षकारों द्वारा संविदा को भंग किए जाने का तथ्य पूर्णतः स्थापित हो जाता है, माध्यस्थम् अधिकरण को चाहिए कि वह सैद्धांतिक सूत्रों का अनुसरण करते हुए दावे या प्रतिकर की राशि का निर्धारण समुचित साक्ष्यों तथा प्रकरण के तथ्यों के आधार पर निष्पक्षतापूर्वक करें।

केस :-भारत संघ बनाम राम आयरन फाउंड्री (AIR 1974) s. c.1265 

 इस वाद में प्रतिवादी ने वादी के दावे की राशि का भुगतान इस आधार पर रोके रखा था कि वह इस रकम का समायोजन वाद द्वारा उसे किसी अन्य संविदा के अधीन देय राशि में कर लेगा। वादी द्वारा उसके विरुद्ध स्थगन आदेश की याचना की जाने पर s.c. ने इसे खारिज करते हुए निर्णय दिया कि वादी का दावा संविदा के माध्यस्थम् खंड के अधीन उदभूत होने के कारण यह मामला माध्यस्थम् को निर्देशित किए जाने योग्य था, अतः इसमें स्थगन का कोई औचित्य नहीं है।

2. माध्यस्थम के पक्षकारों के विषय में निश्चितता –

किसी भी माध्यस्थम् करार का दूसरा आवश्यक तत्व है कि उसमें पक्षकारों के संबंध में निश्चित उल्लेख होना चाहिए, अर्थात् पक्षकारों के बीच इस आशय से करार का स्पष्ट संकेत मिलना चाहिए कि विवाद या मतभेद उत्पन्न होने की दशा में वे उसे माध्यस्थम् के पास निपटारे के लिए निर्देशित करेंगे तथा मध्यस्थ या मध्यस्थों का पंचाट उन्हें स्वीकार्य होगा।

माध्यस्थम् को निर्देशित किए जाने के लिए पक्षकारों की पूर्व सहमति होना नितांत आवश्यक है तथापि जहां पक्षकारों ने अपने भावी मतभेद या विवाद मध्यस्थों द्वारा निपटाए जाने पर सहमति व्यक्त की है, वहां विवाद या मतभेद की स्थिति वास्तव में उत्पन्न हो जाने पर उनमें से कोई भी पक्षकार दूसरे से दोबारा सहमति लिए बिना विवाद या मतभेद को माध्यस्थम् को सौंप सकता है। 

केस :-वृंदावन बनाम बिश्वेशर लाल (AIR 1938) कलकत्ता 10

इस वाद में करार के माध्यस्थम् खंड में यह प्रावधान रखा गया था कि माल की मांग से संबंधित उत्पन्न होने वाले विवाद की दशा में विक्रेता को यह विकल्प होगा कि वह क्रेता को करार से मुक्त करके अपना माल वापस ले सकेगा या विवाद को माध्यस्थम् हेतु निर्देशित कर सकेगा। कलकत्ता H.C. ने यह इस माध्यस्थम् करार को वैध मानते हुए निर्णय दिया कि यदि विक्रेता अपने विकल्प का प्रयोग करते हुए क्रेता को करार मुक्त न करने का निर्णय लेता है, तो ऐसी दशा में वह विवाद को माध्यस्थम् को निर्देशित करने हेतु बाध्य था तथा क्रेता उसके इस निर्णय से आबद्ध था।

केस :-एम. दयानंद रेड्डी बनाम इंडस्ट्रियल इंफ्रास्ट्रक्चर का. लि. 2 तथा अन्य (AIR 1993) s. c. 2268.

इस वाद में अभिनिर्धारित किया कि माध्यस्थम् अधिनियम के अंतर्गत केवल ऐसे माध्यस्थम् करार को मान्यता प्राप्त है जो लिखित हो तथा स्पष्ट हो कि वह किन पक्षकारों के मध्य है तथापि इसके लिए निश्चित प्रारूप निर्धारित नहीं किया गया है। यह भी आवश्यक नहीं है कि करार की सभी शर्तें एक ही दस्तावेज में लिखित हो, वे विभिन्न पत्रों के पत्रकार द्वारा भी संचित की जा सकती है।

केस :-मेसर्स जिवराज मोटर्स बनाम मेसर्स गुआनेलियन सोसाइटी(AIR 2011) s. c. 2826

इस वाद में यद्यपि संयुक्त विकास से संबंधित करार में माध्यस्थम् का प्रावधान था परंतु प्रत्यर्थी सोसाइटी उक्त संयुक्त विकास करार की प्रत्यक्ष: पक्षकार नहीं होने के कारण उसके द्वारा धारा 11 के अंतर्गत मध्यस्थ की नियुक्ति हेतु पिटीशन की पोषणीयता को चुनौती दी गई थी। इस प्रकरण में संयुक्त विकास के पक्षकारों में एक फादर ए. जॉन बॉस्को नाम का व्यक्ति था, तथा दूसरा विकास कार्य का निर्माण करने वाला कांट्रेक्टर था।

फादर बॉस्को ने करार पर हस्ताक्षर सोसायटी के अध्यक्ष की हैसियत से किए थे न कि व्यक्तिगत पक्षकार के तौर पर। अतः H.C. ने अपीलार्थी की अपील को खारिज करते हुए उसे प्रत्यार्थी को 25,000 रू. खर्चे के रूप में दिए जाने हेतु आदेशित किया क्योंकि माध्यस्थम् की नियुक्ति की पोषणीयता को बिना कारण चुनौती देकर उसने माध्यस्थम् कार्यवाही से लगभग डेढ़ वर्ष विलंब कारित किया था।

3. माध्यस्थम् अधिकरण तथा उसके गठन के बारे में निश्चितता – 

माध्यस्थम् करार की वैधता का एक आवश्यक तल यह भी है उसमें माध्यस्थम् मंच के बारे में निश्चितता होनी चाहिए जिसे पक्षकारों के विवाद निर्देशित किए जाने हैं। माध्यस्थम् फोरम के चुनाव संबंधी खंड को माध्यस्थम् करार का आवश्यक अंग माना गया है। ऐसे करार में पक्षकारों द्वारा मध्यस्थ/ मध्यस्थों के नाम या नामों का उल्लेख किया जाना चाहिए। वह किसी नामोधिष्ट अधिकारी को मध्यस्थों की नियुक्ति हेतु प्राधिकृत भी कर सकते हैं।

केस :-भारत संघ बनाम ओम प्रकाश(AIR 1987) All. 138.

इस वाद में Allahabad H.C. ने विनिश्चित किया कि कभी-कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है जब नामोदिष्टि प्राधिकारी जिसे माध्यस्थम् की नियुक्ति हेतु प्राधिकृत किया गया था, उसका पद समाप्त कर दिया हो या अन्य किसी कारण से उसका अस्तित्व न रह गया हो, तो ऐसी दशा में मध्यस्थ की नियुक्ति न्यायालय द्वारा की जा सकेगी। 

केस:- भारत पेट्रोलियम क. लि. बनाम दि ग्रेट ईस्टर्न ट्रेडिंग कंपनी (2007) (12) स्केल 247.

इस वाद में H.C. ने विनिश्चित किया कि संविदा में उल्लिखित माध्यस्थम् खंड के अनुसार माध्यस्थम् द्वारा विवादों को निपटाने की अवधि सीमा समाप्त हो जाने पर भी यदि पक्षकारों ने अपने सम्व्यवहारों को उन्हीं शर्तों के अनुसार जारी रखा है, तो ऐसी स्थिति में विवाद को माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा निपटाया जा सकता है, भले ही माध्यस्थम् खंड में उल्लिखित परिसीमा अवधि की तारीख बीत चुकी हो।

इस वाद में माध्यस्थम् खंड की वैधता की तारीख 31 अगस्त, 1998 रखी गई थी लेकिन उक्त तारीख बीत जाने के पश्चात् भी पक्षकारों ने अपने सम्व्यवहार संविदा की शर्तों के अनुसार यथावत् जारी रखे थे। अतः माध्यस्थम् की वैधता की तिथि बीत चुकी होने पर भी न्यायालय ने पक्षकारों को अपना विवाद माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा निपटा लेने हेतु निर्देशित किया।

केस :-मेसर्स बिल्ड इंडिया कंस्ट्रक्शन सिस्टम बनाम भारत संघ (AIR 2002) s.c. 2308

इस वाद में माध्यस्थम खंड में संविदा संबंधी सामान्य शर्तों का उल्लेख था। जिनमें यह नहीं कहा गया था कि मध्यस्थ अपना पंचाट कारणों सहित देगा। तत्पश्चात सरकार ने दिसंबर 4-9-86 को उक्त शर्तों को एक पक्षीय परिवर्तित करके माध्यस्थम् खंड में यह जोड़ दिया कि यदि दावे या प्रतिवादे की रकम 1 लाख से अधिक होगी, तो मध्यस्थ को अपने पंचाट निर्णय में कारणों का उल्लेख भी करना होगा। ठेकेदार ने सरकार को ऐसे एकपक्षीय परिवर्तन की शक्ति नहीं दी थी। मध्यस्थ ने 1 लाख रु. से अधिक दावे के निपटान हेतु दिए गए पंचाट में कारणों का उल्लेख नहीं किया था।

अतः सरकार ने पंचाट की वैधता को इस आधार पर चुनौती दी कि यह माध्यस्थम् खंड के उल्लंघन में दिया गया था| s.c. ने अपील खारिज करते हुए निर्णय दिया कि मध्यस्थ मूल माध्यस्थम् खंड के आधार पर दिए गए पंचाट में कारणों का उल्लेख करने के लिए बाध्य नहीं था क्योंकि नियोजक द्वारा मूल माध्यस्थम् खंड में किए गये एकतरफा परिवर्तन को भूतलक्षी प्रभाव नहीं दिया जा सकता है।

4. माध्यस्थम् करार के प्रति प्रथक्करणीयता का सिद्धांत लागू होना –

जहां माध्यस्थम् करार विभिन्न खंडों में से हो, तो किसी एक खंड के आपत्तिजनक या विधि के विपरीत होने मात्र से पूरा करार विखंडित हुआ नहीं माना जाएगा। केवल उस आपत्तिजनक या अविद्यिमान्य खंड को हटाते हुए शेष खंडों सहित माध्यस्थम् करार वैध बना रहेगा।

केस :- शिव सेटेलाइट पब्लिक कंपनी लि. बनाम मेंसर्स जैन स्टूडियोज लि.(AIR 2006) s. c. 963

इस वाद त में माध्यस्थम् करार के विभिन्न भाग बताये गए हैं जो निम्न है-

  1. प्रथम खंड में यह उल्लेख था कि पक्षकारों के मध्य विवाद उत्पन्न होने की स्थिति में उसे माध्यस्थम् द्वारा निपटाया जाएगा।
  2. यह कि उक्त माध्यस्थम के लिए UNCITRAL नियम अपनाए जाएंगे।
  3. यह कि माध्यस्थम् का स्थान दिल्ली होगा और वह अंग्रेजी भाषा में संचालित होगा,
  4. यह की माध्यस्थम् खर्च दोनों पक्षकार समान रूप से वहन करेंगे।

केस :- हार्मोनी इन्नोवेशन शिपिंग लि. बनाम गुप्ता कोल इंडिया लि.(AIR 2015) s c. 1504

इस वाद में अभिकथन किया कि जहां पक्षकारों के मध्य हुए करार से यह अनुबंधित हो कि उनके बीच हुई संविदायें इंग्लिश विधि के अंतर्गत प्रशासित होंगी तथा 50,000 अमेरिकन डॉलर से कम मूल्य की संविदाओं के दावे लंदन सामुद्रिक माध्यस्थम् के संक्षिप्त दावे प्रक्रिया के अनुसार तय किए जाएंगे, तो इससे यह स्पष्ट्: गर्भित है कि इन सुविधाओं से उदभूत विवादों के निपटारे के लिए भारतीय न्यायालय को अधिकारिता नहीं होगी।

केस :-विजय कुमार उर्फ मंजू बनाम रघुनंदन शर्मा उर्फ बाबूराम (2010) 2 s.c.c. 486

इस वाद में न्यायालय के समक्ष विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या किसी वसीयतकर्ता द्वारा अपनी वसीयत में यह उल्लेख किया जाना कि यदि वसीयत के बाबत कोई विवाद उत्पन्न होता है, तो विवादीगण उसे वसीयतकर्ता के एडवोकेट मित्र यू. एस. भंडारी को निराकरण हेतु निर्देशांकित करेंगे और श्री भंडारी इस प्रकरण के लिए एकल मध्यस्थ होंगे और उनका पंचाट निर्णय विवादी पक्षकारों के प्रति अंतिम एवं बाध्य होगा और ऐसे माध्यस्थम को अधिनियम की धारा 2 (घ) को धारा 7 के साथ सहपाठित प्रावधानों के अनुसार पूर्ण वैधता प्राप्त होगी।

इस वाद में न्यायमूर्ति आर. वी. रवींद्रन ने निर्णय देते हुए अभिकथन किया कि वसीयत में इस प्रकार एकतरफा की गई माध्यस्थम् की घोषणा तथा मध्यस्थ की नियुक्ति को किसी भी अर्थ में वैध माध्यस्थम् करार नहीं माना जा सकता।

केस :-एनरकोन (इंडिया) लि. एवं अन्य बनाम एनरकोन जी. एम. वी. एच. एवं अन्य(AIR 2014) s.c. 3152

इस वाद  में माध्यस्थम् खंड में यह उपबंधित था कि माध्यस्थम् हेतु तीन मध्यस्थों को नियुक्त किया जाएगा परंतु यह उल्लेख नहीं था कि प्रत्येक पक्षकार द्वारा नियुक्त किया गया मध्यस्थ संयुक्त रूप से तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति करेंगे इस आधार पर माध्यस्थम् खंड में यह पंक्ति नहीं लिखी गई थी कि “दोनों पक्षकारों द्वारा नियुक्त मध्यस्थ रूप से मिलकर तीसरा मध्यस्थ नियुक्त करेंगे”। परंतु फिर भी माध्यस्थम् खंड में यह उल्लेख कि माध्यस्थम् के लिए तीन मध्यस्थों की नियुक्ति किया जाएगा, गर्भित रूप से यह मानने के लिए पर्याप्त आधार था कि उक्त अलिखित पंक्ति करार में अप्रत्यक्ष: मौजूद थी। अतः इसे वैध एवं शून्य माध्यस्थम् खंड न मानते हुए वैध एवं प्रवर्तनीय माध्यस्थम करार माना गया।

वाद बिंदु :- 

केस :-वेलिंगटन एसोसिएट लि. V. कीर्ति मेहता

इस मामले में धारा 7(a) क्षेत्र में प्रसार का निर्णय करते हुए मत व्यक्त किया गया कि यदि पक्षकारों ने सहमति दिया है कि वह वाद दायर कर सकते हैं या मध्यस्थता के लिए जा सकते हैं तो ऐसे खंड को माध्यस्थम् खंड नहीं माना जा सकता।

s.c. ने आगे यह मत भी व्यक्त किया की धारा 7(a)  के अंतर्गत पक्षकारों द्वारा माध्यस्थम् को प्रस्तुत करने को करार का तात्पर्य ऐसे करार का उपबंध करने से है जो अनिर्वायत: है माध्यस्थों की नियुक्ति की अपेक्षा करता है।

केस :-पी. आनंद गजपति राजू बनाम पी. वी. गजपति राजू

इस मामले में s.c. ने धारा 7 (a) के क्षेत्र की व्याख्या करते हुए कहा कि किसी माध्यस्थम् करार के वैध होने के लिए आवश्यक है कि धारा की अपेक्षाओं को पूरा किया जाए तथा यह जरूरी नहीं है कि माध्यस्थम् करार पक्षकारों द्वारा वाद दायर करने के पहले अस्तित्व में आए वरन् यह करार वाद या अपील के दौरान भी अस्तित्व में लाया जा सकता है, जबकि न्यायालय धारा 8 के अंतर्गत मामले को माध्यस्थम् के लिए निर्दिष्ट कर रहा हो।

केस :-इंपीरियल मैटल इंडस्ट्री बनाम अमूल यूनियन ऑफ इंजीनियरिंग वर्कर्स

इस मामले में s.c. ने कहा कि माध्यस्थम् करार को पक्षकारों के बीच हुए पत्र- व्यवहार के माध्यम से भी निर्वचित किया जा सकता है यदि पत्र- व्यवहार की भाषा यह है अभिकथित करती है कि पक्षकार उस माध्यस्थम् करार की शर्तों के अंतर्गत थे जिसका अस्तित्व पत्र- व्यवहार के द्वारा आया है, परंतु कोई भी न्यायालय पत्र- व्यवहार की भाषा की सीमा का उल्लंघन करते हुए किसी करार को बाध्यकारी प्रभाव नहीं दे सकती।

केस :-Modern Building V. Limmers

इस वाद में s c. ने कहा कि जब माध्यस्थम् करार में ऐसा प्रावधान हो कि वे करार खंड के संदर्भ में किसी अन्य करार अस्तित्व के खंड को स्वीकार करेंगे तो उस खंड को संपूर्ण रूप में माध्यस्थम् करार में लाया जाएगा जब तक कि पक्षकारों का कोई अन्यथा आशय न रहा हो।

केस :-नेशनल एग्रीकल्चरल कं. मार्केटिंग फेडरेशन

इस वाद में s.c. ने कहा कि किसी अन्य करार के खंड को ग्रहण करने की बात अभिव्यक्त होनी चाहिए। इस प्रकार ग्रहण किया जाने वाला खंड पूर्ण होना चाहिए एवं ग्रहण किए गए खंड तथा मुख्य माध्यस्थम् करार के मध्य विरोधाभास नहीं होना चाहिए।

माध्यस्थम् करार खंड एवं संविदा के अन्य खंडों के मध्य अंतर करते हुए लॉर्ड मैकमिलर ने Heyman बनाम Dawarkins  के वाद में यह निर्धारित किया कि सामान्य संविदा के पक्षकारों का दायित्व संविदा के तत्वों को प्रवर्तित करता है, जिसके भंग होने का परिणाम प्रतिकर है वहीं दूसरी ओर माध्यस्थम् खंड को माध्यस्थम् अधिनियम के अंतर्गत विशेष रुप से लागू किया जा सकता है। जिसके भंग होने का परिणाम प्रतिकर नहीं है, वरन् प्रवर्तन कराना है। 

केस :- के. के. मोदी V. के. एन. मोदी

इस मामले में न्यायाधीश सुजाता मनोहर ने Mustil & boyd की पुस्तक का संदर्भ देते हुए यह विचार व्यक्त किया कि अधिनियम की धारा 7 माध्यस्थम् करार के संदर्भ में निम्न लक्षणों की अपेक्षा करती है –

(1) माध्यस्थम् करार में यह शर्त अवश्य होनी चाहिए कि अधिकरण द्वारा दिया गया पंचाट पक्षकारों पर बाध्यकारी होगा।

(2) पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण अधिकरण द्वारा किया जाएगा एवं यह क्षेत्राधिकार या तो पक्षकार सहमति से प्रदान कर सकते हैं, या न्यायालय या अधिनियम द्वारा प्रदत्त किया जा सकता है, जिसकी शर्तों में यह स्पष्ट रूप से प्रावधान होना चाहिए की कार्यवाही माध्यस्थम् कार्यवाही हो।

(1) माध्यस्थम् करार से यह प्रकट होना चाहिए कि पक्षकारों के सारवान् अधिकारों का निर्धारण सहमति के आधार पर बनाए गए अधिनियम द्वारा किया जाएगा।

(2) आधिनियम पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण निष्पक्ष एवं न्यायिक तरीके से करेगा, जिसके अंतर्गत अधिकरण का यह कर्तव्य होगा कि वह दोनों पक्षकारों के प्रति समान व्यवहार करे।

(3) करार के अंतर्गत यह प्रकट रूप से प्रावधान होना चाहिए कि विवाद को अधिनियम को निर्दिष्ट करने से पूर्व पक्षकारों द्वारा उसे सूचीबद्ध कर लिया जाए।

संदर्भ- सूची

  • पराजये डॉ. विनय एन. – “माध्यस्थम् सुलह तथा वैकल्पिक विवाद निवारण विधि” (सेंट्रल लॉ एजेंसी 6th  संस्करण 2016)
  • कक्षा व्याख्यान – डॉ. लक्ष्मण सिंह रावत सर।

“यह आर्टिकल Aryesha Anand के द्वारा लिखा गया है जो की  LL.B.(hons.) Vth सेमेस्टर  BANARAS HINDU UNIVERSITY (BHU) की छात्रा है |”

FAQ

  1. माध्यस्थम् करार को किस धारा में पारिभाषित किया गया है ?

    माध्यस्थम् करार को माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम 1996, की धारा 2 (1) (b) में परिभाषित किया गया है।

  2. माध्यस्थम् करार क्या है ?

    ध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम ,1996 की धारा 7(1) के अनुसार, माध्यस्थम् करार का तात्पर्य पक्षकारों द्वारा ऐसे समस्त या कुछ विवाद को माध्यस्थम् को प्रस्तुत करने के करार से है, जो एक संविदात्मक या असंविदात्मक परिभाषित विधिक संबंध के विषय में उत्पन्न हुआ हो या भविष्य में हो सकता हो।

  3. माध्यस्थम् करार के आवश्यक तत्व क्या है ?

    1. पक्षकारों के मध्य करार
    2. करार में अपने मध्य उत्पन्न होने वाले सभी या कुछ विवाद को माध्यस्थम् के लिए प्रस्तुत करना
    3. विवाद, पारिभाषिक संबंध चाहे वे संविदात्मक हो या नहीं से उत्पन्न हुआ हो।
    4. वर्तमान से या भविष्य में हो सकता है।
    5. माध्यस्थम् करार धारा 7(2) के अनुसार किसी संविदा में माध्यस्थम् खण्ड (Arbitration laws)के रूप में या किसी पृथक करार के रूप में हो सकता है।