भूमिका :- रिष्टि का नियम
मनुष्य के विचारों को पूर्णता एवं स्पष्टता से प्रकट करने के लिए मुख्य साधन भाषा है। संकेतों तथा अंग संचालन से अपूर्ण एवं सीमित अभिव्यक्ति परिलक्षित होती है। प्रत्येक पूर्ण विचार को वाक्य तथा भावना को शब्द कहते हैं।विधि सृजन की निश्चितता एवं निरंतरता भाषा के माध्यम से ही संभव है, इसलिए भाषा सरल एवं बोधगम्य रूप में प्रयोग की जानी चाहिए। इसलिए कानूनों के निर्वाचन में भाषा का विश्लेषण एवं आर्थिक निर्धारण निर्वचन की कला का प्रथम सोपान है। शाब्दिक अर्थ लगाना अर्थान्वयन की न्यायिक कुंजी है।
इस संदर्भ में एक maxim है- “Absolute sentatia expositure non indiget” अर्थात् सरल एवं एकार्थी शब्दों के लिए निर्वचन की आवश्यकता नहीं है, परंतु दुर्भाग्य यह है कि जहां शब्द क्लिष्ट या अनेकार्थी है वहां निर्वचन जरूरी है।अर्थात् विधियों के निर्वचन की व्याख्या सार्थक होनी चाहिए, जिससे पूर्ण न्याय हो सके।
निर्वचन :-
सामण्ड के उद्देश्य के अनुसार, निर्वचन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा न्यायाधीश विधि में प्रयुक्त शब्दों का प्राधिकृत अर्थ बतलाते हैं।
निर्वाचन के दो मुख्य घटक होते हैं।
- मौलिक सिद्धांत
- मार्गदर्शक नियम
विधि की व्याख्या निम्न उद्देश्यों के लिए किया जाता है
जिनमें तीन प्रमुख हैं –
- विधायिका के आशय को ध्यान में रखें
- संविधि को समग्र रूप से पढ़ें
- संविधि की व्याख्या इस प्रकार करें कि वह प्रभावी एवं क्रियाशील हो।
निर्वाचन का उद्देश्य –
निर्वाचन के निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्य हैं –
- विधि के क्षेत्र में स्थायित्व लाना
- तकनीकी के शब्दों की व्याख्या
- रिक्तता की पूर्ति
- संस्थागत मत भिन्नता
अतः न्यायालयों द्वारा संविधि की भाषा एवं अभिव्यक्तियों के अर्थ- निर्धारण की प्रक्रिया ही संविधियों का निर्वचन है।
निर्वचन की आवश्यकता :-
विधायिका शब्दों एवं अभिव्यक्तियों को एक प्राधिकारिक सूत्र के रूप में व्यक्त करती है। न्यायालय को संदर्भित मामले में इन्हीं प्राधिकारिक सूत्रों को लागू करना होता है। इन्हें लागू करने में कभी- कभी संविधि या अधिनियम में प्रयुक्त शब्दों की व्याख्या करनी पड़ती है, जिसके निम्न कारण है –
(1)विधिक दस्तावेज के निर्वचन की महती आवश्यकता विभिन्न एवं परस्पर विरोधी हितों को सुलझाने के प्रयास के कारण उत्पन्न होती है।
(2) निर्वचन की आवश्यकता संस्थागत सम्मान संसदीय विधि निर्माण के प्रति सम्मान और न्यायिक विधिक मान्यता की प्रगाढ़ता न्यायधीश विधायिका का आशय ढूंढकर मामले का निपटारा करते हैं, के कारण प्रतीत हुई।
(3) निर्वाचन की आवश्यकता ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में उत्पन्न हुई।
निर्वचन की विषयवस्तु :-
निर्वचन या अर्थान्वयन की विषय वस्तु सदैव कोई अधिनियम या परिनियम होता है, जिस में प्रयुक्त किए गए शब्द और अभिव्यक्तियों को संदर्भित विवाद के प्रसंग में न्यायाधीश सब अवलोकित करता है तदुपरांत उनका कोई निर्णायक अर्थ निकलता है। आज के युग में व्यक्ति के चतुर्दिक कानूनी जाल का विस्तार व्याप्त है। कानून ही आज लोगों के व्यवहारों,अधिकारों और कर्तव्यों का प्रतिक्षण निर्धारण करता है।
निर्वचन का तात्पर्य :-
निर्वचन का सामान्य अर्थ है ‘अर्थ निर्धारण’ ग्रे महोदय के अनुसार निर्वचन एक विज्ञान है जिसके द्वारा अधिनियम में प्रयोग किए गए शब्दों का वही अर्थ लगाया जाता है जो विधायिका का आशय रहा हो या अनुमानत आशय हो।
मैक्सवेल महोदय के अनुसार , निर्वचन वह पद्धति है जिसके द्वारा न्यायपालिका अधिनियम में प्रयोग किए शब्दों का अर्थ निर्धारित करती है।
केस :- जक बनाम ठाकुर गंगा सिंह (AIR 1960) s. c. 356
इस वाद में निर्वचन के संदर्भ में H.C. ने निम्न मत व्यक्ति किए हैं- निर्वचन एक ऐसा ढंग है जिसके द्वारा किसी शब्द या उपबंध के सही भाव या अर्थ को समझा जाता है।
उपरोक्त समीक्षा के आधार पर कहा जा सकता है ‘न्यायालयों द्वारा संविधियों की भाषा शब्दों एवं अभिव्यक्तियों के अर्थ निर्धारण की प्रक्रिया ही संविधियों की निर्वचन है।’ ‘निर्वाचन एक कला है।’
रिष्टि का नियम :-
इस नियम को जानने से पहले हमें शाब्दिक नियम और स्वर्णिम नियम को जानना चाहिए।
शाब्दिक नियमकी उत्पत्ति प्रिवी कौंसिल के द्वारा क्राफोर्ड बनाम स्पू्नर प्रिवी कौंसिल 1846 तथा ग्रे. V. प्रियसेन हाउस ऑफ़ लौर्ड ,1857 में किया गया। लार्ड चांसलर विस्काउंट हाल्डेन ने प्रिवी कौंसिल के निर्णय में कहा था कि “प्राकृतिक अर्थ लगाने के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं विचारण कर सकते। जब तक संपूर्ण अधिनियम के अवलोकन के पश्चात् इसकी आवश्यकता का अनुभव न हो रहा हो।”
अतः अर्थान्वयन का प्रथम और सर्वाधिक प्रारंभिक नियम यह है कि कानून में प्रयुक्त किए गए शब्दों का तब तक साधारण अर्थ लगाया जाय जब तक कि वह विधानमंडल के आशय से भिन्न दिखाई न दे या उससे स्पष्टत: कोई गलत अर्थ न निकले।
दूसरा नियम स्वर्णिम का नियम है। इस नियम को लार्ड वॉन्सलेडेल द्वारा प्रतिपादन
केस :- वारवर्टन V. लवलैण्ड (1828)
इस वाद में स्वर्णिम निर्वाचन के नियम के रूप में लागू किया गया, यह नियम निर्वचन की उस प्रक्रिया का नाम है जिसमें शाब्दिक अर्थ को अधिनियम के उद्देश्य एवं विषय वस्तु के संदर्भ में सीमित मात्रा में संशोधित परिमार्जित विस्तृत अथवा सीमित किया जाता है, जब कभी भी शाब्दिक निर्वचन करने से यह प्रतीत होता है कि ऐसा निर्वचन अतार्किक असंगत या मूर्खतापूर्ण है तो हम ऐसी असंगतता को दूर करने के लिए जिस प्रक्रिया को अपनाते हैं वह प्रक्रिया स्वर्णिम नियम कहलाती है। इसे गोल्डन रूल को subject + object + rule भी कहा जाता है।
तीसरा नियम रिष्टि का नियम है। रिष्टि के नियम को विभिन्न नामों तथा हेडेन नियम या अनिष्ट परिहार नियम के नाम से भी जाना जाता है। निर्वचन के इस नियम को सोद्देश्य का अर्थ निर्धारण के एक पक्ष के रूप में समझा जा सकता है।
अर्थात् जिस तरह स्वर्णिम नियम में शाब्दिक निर्वचन की संदिग्धता की परिस्थिति में संविधि और विधायिका की आशय और उद्देश्य की खोज की जाती है, ठीक उसी प्रकार रिष्टि के नियम में निर्वचनकर्ता यह देखने के लिए प्रेरित हो जाता है कि समाज की किन बुराई को मिटाने के लिए विधायिका द्वारा पहल किया गया था। अनिष्ट परिहार नियम में देश-काल की परिस्थिति, बढ़ते हुए कदाचार की प्रवृत्ति और विद्यमान विधि की व्याख्या का समीक्षात्मक स्वरूप देखा जाता है।
इस नियम का प्रतिपादन सर्वप्रथम 16वीं शताब्दी के अंत में सन् 1584 में चांसरी कोर्ट द्वारा निर्णय एक मामले में किया गया था, ब्रिटिश शासन प्रणाली में सम्राटीय संप्रभु की विशालता और व्यापकता के समक्ष कॉमन लॉ के सिद्धांतों की व्यापकता का वर्चस्व था, जिसकी झलक इस नियम से संदर्भित बहुचर्चित ‘हेडेन वाद’ (1881) 76 E.R. 637 में परिलक्षित होती है।
इस मामले में एक्सचेकर बैरेन्स ने यह प्रस्तावित किया कि सामान्य रूप में सभी कानूनों का सच्चा निर्वचन करते समय 4 बातों का पहचान करना और उन पर विचार करना आवश्यक है, जो अग्र है –
- संबाधित अधिनियम को पारित करने के पूर्व कॉमन लाॅ क्या था?
- वह कौन सा दोष या रिष्टि था जिसका कॉमन लाॅ में कोई प्रावधान नहीं था?
- प्रस्तावित अधिनियम ने कौन सा उपचार सुझाया है?, और
- इस प्रकार के उपचार का वास्तविक कारण क्या है?
केस :-हारक्स बनाम स्टेट ऑफ यू.पी. तथा अन्य A.w.c. 2000 All 2975
इस मामले में न्यायालय ने कहा कि जब संशोधित विधि के किसी को निर्वचन करते समय हेडेन वाद में प्रतिपादित सिद्धांतों को लागू किया जाना चाहिए, जिससे कि सोधोश्यपरक अर्थान्वयन या रिष्टि के नियम के नियम के नाम से भी जाना जाता है। इस मामले में न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की निश्चित व वास्तविक व्याख्या करते समय निम्न चार बातों पर विचार किया जाना चाहिए चाहे वे दांडिक हो या लाभदायक सामान्य विधि को प्रतिबंधित करने वाली हो या उसे विस्तृत करने वाली हो-
- अधिनियम के पूर्व सामान्य विधि क्या थी?
- वह कौन सी रिष्टि या दोष था, जिसके लिए सामान्य विधि में कोई उपबंध नहीं था?
- उस रिष्टि या दोष को दूर करने के लिए संसद ने क्या उपचार स्थापित किए?
- ऐसे उपचार का वास्तविक कारण क्या है?
उपरोक्त बातों पर विचार करने के बाद यह नियम न्यायाधीशों को एक बात का निर्देश देता है कि वह ऐसा अर्थन्वयन करें जिससे रिष्टि को दूर करके उपचार को प्रभावित किया जा सके तथा कानून के वास्तविक उद्देश्य को क्रियान्वित किया जा सके।
जस्टिस होम्स के शब्दों में – शब्द कोई स्फटिक (क्रिस्टल) नहीं है जो पारदर्शी तथा अपरिवर्तनशील हो। शब्द तो स्वन्दनशील विचार की त्वचा है और जिन परिस्थितियों तथा जिस समय उसका प्रयोग किया गया हो उसके अनुसार उसका आभास तथा उसकी अंतर्वस्तु बहुत कुछ भिन्न हो सकती है।
केस :-आर.एम.डी चमारबागवाल बनाम भारतसंघ(AIR 1957 )s. c. 648
इस वाद में संसद ने कुछ राज्यों द्वारा अनुच्छेद 252 के अंतर्गत प्रस्ताव करने पर पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम ,1955 पारित किया। अधिनियम के कुछ उपबंधों एवं उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों को चुनौती देते हुए, साथियों ने जो भारत के विभिन्न राज्यों में प्रतियोगिताएं करा रहे थे, मुख्य रूप से यह तर्क दिया कि उपयुक्त अधिनियम की धारा 4 एवं 5 तथा उसके अंतर्गत पारित नियम संविधान द्वारा प्रदत्त स्वतंत्र व्यापार करने के अधिकार मात्र व्यवहार को ही विनियमित नहीं करते बल्कि उन पर कुठाराघात करते हैं।
इसके अतिरिक्त यात्रियों का यह भी तर्क था कि धारा 2(घ) में पुरस्कार प्रतियोगिता की परिभाषा न केवल ऐसी प्रतियोगिता जिसकी सफलता अवसर पर निर्भर करती है बल्कि ऐसी प्रतियोगिता सारभूत रूप से बुद्धि पर निर्भर करती है – सम्मिलित होगी। उक्त तर्कों को s.c. ने अस्वीकार करते हुए निर्णय दिया कि अधिनियम की धारा 2(घ) को, अधिनियम को पारित करने के इतिहास एवं रिष्टि जिससे वह समाप्त करना चाहता था, के संदर्भ में निर्वाचित किया जाना चाहिए इन सब बातों का ध्यान रखते हुए ऐसा कोई उद्देश्य नहीं हो सकता कि अनुच्छेद 252 के अंतर्गत अधिनियम पारित करने का एकमत रहे। उद्देश्य जुए वाली प्रकृति की इनामी प्रतियोगिता को नियंत्रित एवं विनियमित करना था।
केस :-आलम गीर बनाम बिहार राज्य [AIR 1959) s.c. 436
इस वाद में अपीलार्थी पर IPC, 1860 की धारा 498 की अंतर्गत आरोप लगाया गया, जिसके अनुसार “जो कोई किसी स्त्री को जो किसी अन्य पुरुष की पत्नी है जिसका वह अन्य पुरुष की पत्नी होना वह जानता है या विश्वास करने का कारण वह रखता है उस पुरुष के पास जो उस पुरुष की ओर से उसकी देख- रेख करता है इससे आशय से ले जा ले जाएगा या फुसलाकर ले जाएगा कि वह किसी व्यक्ति के साथ आयुक्त संभोग करें या इस आशय से किसी स्त्री को छिपाएगा या निरुद्ध करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि 2 वर्ष तक की हो सकेगी जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जाएगा।”
केस :-स्मिथ बनाम स्नूज
इस वाद में प्रश्न यह है था कि क्या वे वेश्याएं जो झरोखें या खिड़कियों से ग्राहकों को आकर्षित करती थीं। स्ट्रीट ऑफन्सेज एक्ट,1959 की धारा 1(1) के अधीन सड़क में (स्ट्रीट) याचना कर रही थी। रिष्टि के नियम को लागू करते हुए यह अनिर्धारित किया गया कि वे वेश्याएं वास्तव में सड़क में (इन ए स्ट्रीट) याचना ना कर रहीं थी कि वह किस स्थान से ऐसा कर रही थीं। यह महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि उक्त अधिनियम का आशय सड़कों को ऐसी परिस्थितियों से बचाकर रखना था ताकि लोग वेश्याओं के द्वारा बगैर छेड़छाड़ या याचना के सरलता से सड़कों पर आना जाना कर सकें।
केस :-प्रादेशिक भविष्य आयुक्त बनाम. श्री कृष्ण मैन्युफैक्चरिंग कंपनी
इस वाद में प्रत्यार्थी के कारखाने में 4 भिन्न- भिन्न इकाइयां प्रथम- पीतल एवं तांबा जिनसे चादर एवं बर्तन बनाए जाते थे, द्वितीय- धान की चक्की तृतीय- आटा चक्की चतुर्थ- आया मिल थी। प्रत्यार्थी से कहा गया कि वह कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम 1952 के उपबंधों का पालन करें। प्रत्यार्थी ने तर्क दिया कि उपयुक्त अधिनियम की धारा 3 (क) अनुसूची में वर्णित केवल उन्हीं उद्योगों पर लागू होती है जहां कम से कम 50 व्यक्ति कार्यरत हो और चूंकि उपर्युक्त केवल मिल में 50 से कम व्यक्ति कार्यरत हैं।
इसलिए वह अधिनियम के उपबंधों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है। s.c. ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया और कहा कि प्रत्यार्थी अधिनियम के उपबंधों द्वारा बाध्य है, क्योंकि उपबंध में उद्योग शब्द नहीं बल्कि कारखाना शब्द प्रयोग किया गया। प्रत्यार्थी द्वारा दिया गया तर्क स्वीकार कर लिया जाए तो अधिनियम रिष्टि को समाप्त करने के उद्देश्य से पारित किया गया है वह उद्देश्य ही समाप्त हो जायेगा।
केस :-कंवर सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन (AIR 1965) s.c. 871
इस वाद में प्रत्यर्थी के अधिकारी जब आवारा पशुओं को पकड़ने का प्रयास कर रहे थे अपीलार्थीयों, जो पशुओं के मालिक थे, के द्वारा पीटा गया। अपीलार्थीयों पर IPC की धारा 323 के अंतर्गत अभियोग चलाया गया। अपीलार्थीयों ने संपत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा का तर्क दिया उनका तर्क यह भी था कि पशुओं को दिल्ली नगर अधिनियम ,1957 की धारा 418 के अंतर्गत परिव्यक्त नहीं कहा जा सकता, क्योंकि परिव्यक्त का तात्पर्य पूर्णतः अपने दायित्व से मुक्त हो जाना अर्थात् मालिक विहिन हो जाना होता है s.c. ने उपयुक्त तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि जब अधिनियम का संदर्भ ऐसा न हो कि शब्दकोश सदैव मानना आवश्यक नहीं है अतः परिव्यक्त शब्द का अर्थ खुला छोड़ना या बिना देखरेख के छोड़ना है।
केस :-रणजीत बनाम महाराष्ट्र राज्य (AIR 1965) s.c. 881
इस वाद में अपिलार्थी को IPC की धारा 292 के अधीन ‘लेडी चैटर्लीच लवर’ नामक अश्लील पुस्तक बेचने का दोषी पाया गया। उसका तर्क था कि अभियोजन को उसके विरुद्ध दोषपूर्ण मस्तिष्क था साबित करना चाहिए। उसने यह भी तर्क दिया कि पुस्तकों की दुकानों में बहुत सारी पुस्तक होती हैं और विक्रेता के लिए यह असंभव है कि वह हर पुस्तक को जानने के लिए कि वह अश्लील है या नहीं पढ़ें। s.c. ने इन तर्कों से असहमति व्यक्त किया और कहा कि Sec. 292 की भाषा स्पष्ट है एवं अश्लील साहित्य बेचना अथवा बेचने के लिए रखना इस उपबंध के लिए दोषपूर्ण है। इस रिष्टि के उपचार के लिए ही यह उपबंध पारित किया गया है इसलिए अपिलार्थी का तर्क निरर्थक है।
केस :-प्यारेलाल बनाम महादेव रामचंद्र
वाद के अपीलार्थी के विरुद्ध खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम,1954 के अंतर्गत मामला दाखिल किया गया। उसके विरुद्ध प्रतिबंधित कृत्रिम मीठा करने के पदार्थ द्वारा मीठा सुपारी बेचने व बेचने के रखने का आरोप था। अपीलार्थी का तर्क था कि अधिनियम के अंतर्गत सुपारी खाद्य नहीं है। s.c. ने इस तर्क को न मानते हुए यह तर्क निर्धारित किया सुपारी खाद्य है इस अधिनियम के अंतर्गत खाद्य की परिभाषा बहुत व्यापक है एवं इसके अंदर भी सभी पदार्थ जो खाद्य हैं, सम्मिलित हैं एवं साथ ही खाद्य के अंदर मिलाए जाने वाले सभी घटक जैसे सुगंध के लिए, रंग के लिए मिलाए जाने वाले तत्व सम्मिलित हैं।
न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि शब्द खाद्य का निर्वचन इस बात पर निर्भर करता है कि यह अधिनियम किस अनिष्ट को दबाने के लिए एवं कौन सा उपचार पारित करने के लिए अग्रसर किया गया है।
केस :-एन.सी. सिंपल बनाम भारत संघ
इस वाद में s.c. ने कहा कि जहां किसी उपबंध के एक से अधिक अर्थ निकलते हो वहां उन अर्थों को जो विधि को निष्क्रिय एवं अव्यवहारिक बनाते हुए स्वीकार किया जाना चाहिए तथा न्यायालय को उसी अर्थ को ठीक मानना चाहिए जिससे विधि की व्यवहारिकता बनी रहे एवं जो विधियों को बनाने की भावना एवं आशय के निकट हो।
केस :-ग्लेक्सो लेबोरेटरीज बनाम पीठासीन अधिकारी (AIR 1987) s.c. 505
इस वाद में s.c. ने कहा कि निर्वाचन का उद्देश्य विधायिका के आशय को लागू करना होता है और इस कारण जब तक व्याकरणिक निर्वचन निर्थक न हो यही प्रभाव बना रहना चाहिए। यदि किसी उपबंध के दो अर्थ निकलते हो तो वह अर्थ जो विद्यान के आशय को अग्रसर करता है एवं रिष्टि का उपचार करता है उसे स्वीकार किया जाना चाहिए। औद्योगिक नियोजन अधिनियम,1976 श्रमिकों की दशा सुधारने के लिए पारित किया गया था। अतः उसके अंतर्गत सेवा शर्तों का ऐसा निर्वचन होना आवश्यक है जिससे अधिनियम की आशय को बल मिले एवं अनिष्ट की समाप्ति हो।
केस :-उत्तर प्रदेश भूदान यज्ञ समिति बनाम ब्रिज किशोरी (AIR 1988) s.c. 2239
इस वाद में भूमिहीन मजदूरों को जो कृषि कार्य में संलग्न रहे हैं और जिनकी जीविका का अन्य स्रोत नहीं था उनको भूमि वितरण किया जाना था। अधिनियम की धारा 14 में ऐसे व्यक्तियों के लिए भूमिहीन श्रमिक न लिखकर भूमिहीन व्यक्ति लिखा था।s.c. ने रचनात्मक और सोधेस्य निर्वचन करते हुए भूमि व्यवसायी को भूमिहीन व्यक्ति नहीं माना।
केस :- न्यू इंडिया सुगर मिल्स लि. बनाम विक्रीकर कमिश्नर (AIR 1963) s.c. 1207
इस वाद में न्यायाधीश शाह ने संप्रेक्षित किया कि संविधियों के निर्वचन का यह एक प्रमुख नियम है कि उस में प्रयुक्त शब्दों और अभिव्यक्तियों को संविधि के उद्देश्य और आशय के तदात्मय में निर्वाचित किया जाय।
केस :-वर्कमेन डीमा कूची टी स्टेट(AIR 1958) s.c. 353
इस वाद में s.c. ने अभिव्यक्ति किया कि निर्वचन में शब्दों का सटीक अर्थ व्याकरणीय निर्वचन या प्रचलित प्रयोग में जैसा किया जाता है उससे अधिक सटीक अर्थ संविधि का अवश्य देखने से परिलक्षित होता है। इस प्रकार की टिप्पणी शाब्दिक अर्थान्वयन की अपेक्षा स्वर्णिम निर्वचन की प्रधानता को आलोकित करता है।
केस :-दिनेश चंद्र जमनादास गांधी बनाम गुजरात राज्य (AIR 1986) s.c. 111
इस मामले में खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम,1954 के संदर्भ में सुपारी पान मसाले में जाने के लिए अरेका ताड़ के वृक्ष के फस से तैयार किया जाता है जो वास्तव में उक्त अधिनियम की धारा के नियम 29 (f) के अंतर्गत भोजन में प्रयुक्त फलोत्पादन नहीं है फिर भी s.c. ने इसके तकनीकी और वैधानिक अर्थान्वयन को अस्वीकार करते हुए समझ के अनुरूप निर्वचन किया है।
केस :-पंजाब राज्य बनाम कैसर जहाॅ बेगम (AIR 1963) s.c. 1604
इस मामले में प्रत्यर्थी की भूमि, भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अंतर्गत, अधिग्रहित कर ली गई थी। प्रतिकर हेतु आपत्ति उठाने का अवसर उक्त अधिनियम की धारा 18 के अंतर्गत छः महीने के भीतर तक दी गई थी। उसने दीवानी न्यायालय में अपनी जानकारी के वाद आपत्ति किया जो समय बाधित था फिर भी s.c. ने न्यायोचित एवं समुचित मानते हुए उसे उनके जानकारी के बाद से 6 महीने के भीतर किए गए रेफरेंस को समय बाधित नहीं माना यह निर्वचन सोधेश्य एवं स्वर्णिम नियम का उदाहरण है। यदि केवल अधिनियम की भाषा की कटूरता पर विचार किया गया होता तो उसको रेफरेंस का लाभ नहीं प्राप्त होता।
संदर्भ सूची:-
- भट्टाचार्य प्रो.टी. +कानूनों का निर्वचन” सेंट्रल लॉ एजेंसी 10th संस्करण 2017-रिष्टि का नियम
- मिश्र देवेंद्र नाथ “संविधियों का निर्वचन” इलाहाबाद लॉ एजेंसी पब्लिकेशंस 4th संस्करण 2014-रिष्टि का नियम
- प्रो.डी. के. मिश्रा सर व डॉ. डोली सिंह मैम द्वारा दिया गया कक्षा व्याख्यान-रिष्टि का नियम
- https://en.wikipedia.org/wiki/Mischief_rule-रिष्टि का नियम