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लोक उत्‍तरदायित्‍व का सिद्धांत | Theory of Public Accountability in hindi

लोक उत्‍तरदायित्‍व का सिद्धान्‍त | Theory of Public Accountability in hindi

प्रस्‍तावना:-

उत्‍तरदायित्‍व प्रशासनिक व्‍यवहार का एक महत्‍वपूर्ण पहलू है। वर्तमान में प्रशासन तन्‍त्र या नौकरशाही का कार्यक्षेत्र निरंतर बढ़ने के साथ उत्‍तरदायित्‍व निर्धारित करना आवश्‍यक हो गया है। किसी भी अधिकारी को अपने कार्यक्षेत्र में दायित्‍वों के सफल निष्‍पादन हेतु कुछ अधिकार सौंपे जाते हैं इन अधिकारों व शक्‍तियों का प्रयोग करने में वह पूर्णतया स्‍वतंत्र नहीं होता है, ऐसे अधिकार एवं शक्तियॉं सौंपने वाली सत्‍ता के प्रति वह उत्‍तरदायी होता है और इसे ही जवाबदेही भी कहते हैं। जब यह जवाबदेही या उत्‍तरदायित्‍व जनता के प्रति होती है, तो उसे हम लोक प्रशासन की भाषा में ‘’लोक उत्‍तरदायित्‍व का सिद्धांत कहते हैं।

जवाबदेही अथवा उत्‍तरदायित्‍व ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा कोई व्‍यक्ति अधिकारी या संगठन किसी के प्रति जिम्‍मेदार होते है, फिर चाहे ऐसी जिम्‍मेदारी विधिक हो या मौलिक।

लोक उत्‍तरदायित्‍व का सिद्धांत:

लोक उत्तरदायित्व का सिद्धांत प्रशासनिक  उत्‍तरदायित्‍व विधि का उमड़ता हुआ सबसे महत्‍वपूर्ण पहलु है। इस सिद्धांत के उमड़ने के सम्‍बन्‍ध में मूलभूत प्रयोजन प्रशासन द्वारा शक्ति के बढ़ते हुए दुरुपयोग को रोकना, और ऐसी शक्ति के दुरूपयोग से व्‍यथित व्‍यक्ति को त्‍वरित अनुतोष प्रदान करना है। यह सिद्धांत इस आधारवाक्‍य पर प्रतिपादित किया गया है कि प्रशासनिक प्राधीकारियों के हाथ में शक्ति लोक न्‍यास है जिसका प्रयोग लोगों के सर्वोत्‍तम हित में किया जाना चाहिए।

केस :- ‘’ए.जी. ऑफ हांगकांग बनाम रीड’’, [1993wlr,1943]

इस  मामले में प्रिवी काउन्सिल के विख्‍यात निर्णय ने विधिशास्‍त्र के जवाबदेही सिद्धांत के विस्‍तार को लोक विधि नयायनिर्णयन में व्‍यापक रूप में बढ़ा दिया है। इस मामले में लार्ड टेम्पिलेनने कहा कि घूसखोरी में लगना बुरा आचरण है, जो किसी सभ्‍य समाज की नींव को जोखिम में डाल देती है और न्‍यासी द्वारा कर्तव्‍य भंग से प्राप्‍त किया गया लाभ साम्‍य में हितग्राही (राज्‍य) का होता है।

केस :- बिहार राज्‍य बनाम सुभास सिंह [1997scc430]

इस  मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि विभागाध्‍यक्ष अन्तिम रूप से जिम्‍मेदार और उत्‍तरदायी है, जब तक कि उसे उत्‍तरदायित्‍व मुक्‍त करने के लिए विशेष परिस्थितयॉं न हो।

 

लोक प्रशासन में जवाबदेही की आवश्‍यकता  :-

वर्तमान समय में लोक प्रशासन में बढ़ती हुई जवाबदेही अथवा उत्‍तरदायित्‍व को हम निम्‍न कारणों से उत्‍पन्‍न हुई मान सकते हैं –

  1. लोक सेवकों को व्‍यक्तिगत नहीं वरन् सार्वजनिक हित को महत्‍व देना चाहिए।
  2. लक्ष्‍य की प्राप्ति हेतु सरल मानक निर्धारित किए जाने चाहिए एवं उन मानकों को द्रढ़तापूर्वक व्‍यवहार में लाना चाहिए।
  3. निर्धारित लक्ष्‍य को निश्चित समय में पूर्ण करने को प्रयास  करना चाहिए।
  4. प्रशासनिक संस्‍थानों के प्रति जनसाधारण के विश्‍वास को बढ़ाना आदि।

उत्‍तरदायित्‍व के प्रकार: –

उत्‍तरदायित्‍व एक ऐसी शक्ति है जो प्रशासनिक अधिकारियों को लोक सेवा सम्‍बन्‍धी गति‍विधियों को सुचारू रूप से चलाने के लिए दवाब उत्‍पन्‍न करती है। सामान्‍यतया उत्‍तरदायित्‍व के निम्‍न प्रकार देखने को मिलते है

  1. राजनीतिक उत्‍तरदायित्‍व: सभी प्रकार के लोकतन्‍त्रों में लोक प्रशासन, राजनीतिक सत्‍ता की सर्वोच्‍चता को स्‍वीकार करने के लिए बाध्य  होता है।
  2. वैधानिक उत्‍तरदायित्‍व :– प्रशासन को अपने दायित्‍वों का निर्वाह-निर्धारित नीतियों एवं कानूनों के अन्‍तर्गत ही करना होता है। ऐसा न करने पर न्‍यायिक कार्यवाही की जा सकती है।
  3. सांगठनिक जवाबदेही :– पारम्‍परिक रूप से प्रचलित पदसोपानीय व्‍यवस्‍था में प्रत्‍येक नीचे का पद के प्रति उत्‍तरदायी होता है। इसमें संगठन का प्रत्‍येक सदस्‍य अपने से उच्‍च पद पर बैठे अधिकारी के प्रति उत्‍तरदायी होते हैं, न कि सीधे संगठन के अध्‍यक्ष के प्रति।
  4. नैतिक जवाबदेही: – प्रशासनिक व राजनीतिक भ्रष्‍टाचार बढ़़ने के साथ-साथ लोक प्रशासन पर नैतिक जवाबदेही की मांग को लेकर दबाव बढ़ रहा है। इसमें व्‍यक्ति मुख्‍यतया लोक पद पर होने के कारण नैतिक तौर पर जनता के प्रति उत्‍तरदायी होता है।
  5. व्‍यवसायिक जवाबदेही वर्तमान में प्रशासन का कार्यक्षेत्र अत्‍यंत विस्‍तृत  हो गया है। ऐसे में अक्‍सर व्‍यावसायिक विशेषज्ञों की भी सलाह लेनी पड़ती है, जनहित के सम्‍बन्‍ध में परामर्श देते समय इन विशेषज्ञों का दृष्टिकोण अपने सम्‍बन्धित व्‍यवसायिक क्षेत्र से प्रभावित होता है।

किसके प्रति उत्‍तरदायी:

 कोई भी व्‍यक्ति या प्रशासनिक अधिकारी किसके प्रति उत्‍तरदायी होते है, इसे समझने के लिए इसे हम दो वर्गों में बॉंट सकते है

(1) बाह्य उत्‍तरदायी  बाह्य उत्‍तरदायित्‍व में निम्न  के प्रति दत्‍तरदायित्‍व रहता है:-

  • संविधान के प्रति संविधान किसी भी राष्‍ट्र के शासन संचालन का महत्‍वपूर्ण स्‍त्रोत है। सभी प्रशासनिक व्‍यवस्‍थाऍं संविधान के प्रावधानों पर आधारित होती है, अत: संविधान के प्रति जवाबदेही या उत्‍तरदायित्‍व रहता है।
  • कार्यपालिका के प्रति शासन व्‍यवस्‍था संस्‍दात्‍मक हो या अध्‍याक्षात्‍मक दोनों शासन का कार्यपालिका के प्रति समान उत्‍तरदायित्‍व रहता है।
  • न्‍यायपालिका के प्रति न्‍यायपालिका को प्रशासनिक कार्यों की वैधानिकता की जॉंच का अधिकार होता है। नागरिकों के हितों और अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय  हर संभव कदम उठा सकता है। इस प्रकार प्रशासन न्‍यायपालिक के प्रति भी जवाबदेह होता हैं।
  • मीडिया के प्रति मीडिया को शासन का चौथा स्‍तम्‍भकहा जाता है। मीडिया प्रशासनिक धोखेबाजी व घोटालों का पर्दाफाश करता है, अत: वर्तमान समय में शासन-प्रशासन मीडिया के प्रति भी उत्‍तरदायी होता है।
  • जनता के प्रतिलोकतन्‍त्र में प्रशासन जनता के प्रति उत्‍तरदायी होता है। संसदीय व्‍यवस्‍था में शासन अप्रत्‍यक्ष रूप से जनता के प्रति उत्‍तरदायी होता है। उसकी जवाबदेही जनता के साथ-साथ जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों के प्रति भी होती है|

(2)आन्‍तरिक उत्‍तरदायी आन्‍तरिक उत्‍तरदायित्‍व निम्‍न के प्रति होता है-

    1. संगठन में उच्‍चाधिकारियों के प्रति,
    2. व्‍यक्तिगत कुशलता के प्रति,
    3. अंतरात्मा  के प्रति।

लोक उत्‍तरदायित्‍व का सिद्धांत की आवश्‍यकता :–

भ्रष्‍टाचार उतना ही पुराना है, जितना कि सार्वजनिक/लोक प्रशासन। जब देश एक कल्‍याणकारी राज्‍य बनने का प्रयास करते हैं, तब नौकरशाही का भी आकार अनिवार्य रूप से बढ़ता है। इस विस्‍तार के परिणामस्‍वरूप प्रशासनिक अधिकारियों के लिए भी भारी मात्रा में दायित्‍व आ जाते हैं और जिनका निर्वहन वे अपने विवेक और शक्ति का उपयोग द्वारा किया जाता है। किसी भी अधिकारी के पास विवेक और शक्ति हमेशा उनके दुरूपयोग की संभावना के साथ आते हैं।

विधि आयोग ने अपनी 14वीं रिपोर्ट में भारत में प्रशासनिक कार्यवाही की गड़बड़ी की मात्रा पर जोर दिया था। जो बिना किसी उत्‍तरदायित्‍व के अपनी विवेकाधीन शक्तियों का उपयोग करने के कारण अनियंत्रित हो सकती है। रिपोर्ट में प्रशासनिक न्‍यायाधिकरणों में वृद्धि से स्‍पष्‍ट प्रशासनिक अनुमान की संख्‍या में वृद्धि पर भी प्रकाश डाला। लोक उत्‍तरदायित्‍व का मुद्दा कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र प्रत्‍यायोजित विधान और अधिनिर्णय के मुद्दों से जुड़ा हुआ है।

लोक उत्‍तरदायित्‍व को लागू करने वाला सबसे महत्‍वपूर्ण निकाय CBI (केन्‍द्रीय जाँच ब्‍यूरो) है। इससे पहले, यह कार्यकारी के तहत् अस्तित्‍व में था, लेकिन स्‍वतंत्रता के आभाव के कारण एवं सरकार के प्रति उत्‍तरदायी होने से उद्देश्‍यों के पालन में कठिनाई के कारण उच्‍चतम नयायालय द्वारा इसे अलग कर दिया गया और केन्‍द्रीय सतर्कता आयोग के अधीन कर दिया। CBI के उद्देश्‍य को सुनिश्चित करने के लिए और इसे सरकारी कार्यों में पारदर्शिता लागू करने वाला प्रधान निकाय बनाने के लिए न्यायायालय द्वारा अन्‍य निर्देश दिए गए थे।

संघनन आयोग ने भारत में भ्रष्‍टाचार की समस्‍या पर प्रकाश डाला था, एक गवाह ने बताया कि कैसे पार्टियों द्वारा सरकार की ओर से खरीद, निर्माण, बिक्री और अन्‍य व्‍यवस्‍था के लेनदेन में एक निश्चित प्रतिशत का भुगतान कैसे किया जाता है। जब तक लोक प्रशासन में सरकारी कामकाज की पद्धति में व्‍यवस्थित परिवर्तन नहीं किया जाता है, तब तक भ्रष्‍टाचार के खिलाफ लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती है। सरकार की सफलता या विफलता की दर लोक प्रशासन की दक्षता पर बहुत हद तक निर्भर है, हालांकि अगर इसे नियमित रूप से दखल दिया जाए और प्रशासन को उत्‍तरदायी बनाया जाए।

लोक प्रशासन में पारदर्शिता लाने के लिए भ्रष्‍टाचार निवारण अधिनियम, 1988 लाया गया। ‘’पी.वी. नरसिम्‍हा राव बनाम राज्‍य’’ में अदालत ने कहा कि भ्रष्‍टाचार निवारण अधिनियम के अन्‍तर्गत लोक सेवक, संसद सदस्‍य और विधानसभा के सदस्‍य भी आएंगे। भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 105 के तहत् इन व्‍यक्तियों को प्रतिरक्षा प्रदान नहीं की जानी चाहिए।

लोक उत्‍तरदायित्‍व का सिद्धांत को लागू करने के लिए एक उपकरण के रूप में R.T.I :–

आम जनता द्वारा भागीदारी की अनुपस्थिति को सरकारी प्रक्रिया के बारे में जानकारी की कमी के लिए जिम्‍मेदार ठहराया जा सकता है। सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने ‘’एस.पी. गुप्‍ता बनाम भारत के राष्‍ट्रपतिके वाद में राय देते हुए कहा कि सरकार के खुलेपन की मांग इस कारण से सामने आती है कि उनके अधिकार का प्रयोग वोट दें, अगले पॉंच वर्षों के लिए अपने, नेताओं को चुनना और फिर सरकार में बिना किसी रूची के निष्‍क्रियता में लौटना लोकतंत्र नहीं है।

राजनारायण मामलें में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से, राइट टू इन्‍फॉर्मेशन अधिनियम, 2005 में लागू करने का अधिकार तक देश ने एक लम्‍बा सफर तय किया है। इस अधिनियम के पारित होने से एक नई प्रशासनिक संस्‍कृति का निर्माण हुआ और लोकतंत्र को बढ़ावा मिला। भारत के मुख्‍य सूचना आयुक्‍त ने जनता की प्रतिक्रिया के अनुसार कानून को उत्‍कृष्‍ट और अभूतपूर्व माना। आर.टी.आई. अधिनियम में सभी केन्‍द्रीय राज्‍य और स्‍थानीय सरकारे और सार्वजनिक प्राधिकरण हैं। इसमें नयायपालिका और विधायिका पर प्रयोज्‍यता भी है। सूचना को कार्य, दस्‍तावेजों और अभिलेखों के निरीक्षण के अधिकार के रूप में परिभाषित किया गया है जो सरकार द्वारा आयोजित किए जाते हैं और सत्‍यापन के लिए प्रमाणित नमूनों की निकासी की अनुमति भी देते हैं। भ्रष्‍टाचार से निपटने के लिए आर.टी. आई. लगातार एक कारगर उपकरण साबित हो रहा है। सूचना के उपयोग सरकार को उत्‍तरदायी रखने के लिए किया जा सकता है, हालांकि यह भी स्‍पष्‍ट है कि इस पर अभी और काम किए जाने की आवश्‍यकता हैं।

ऐतिहासिक निर्णय:-

‘’मेडिकल काउन्सिल ऑफ इण्डिया केस केतन देसाई बनाम स्‍टेट (2016) के बाद में केतन देसाई, मेडिकल काउन्सिल आफ इण्डिया के अध्यक्ष के खिलाफ एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें पुणे, गाजियाबाद और पंजाब के मेडिकल कॉलेजो के बड़े पैमाने पर दाखिले के साथ-साथ उन्हें मान्यता प्रदान की गई थी। एक आयकर छापे का विवरण याचिका में प्रस्‍तुत किया गया था, जिसमें इसने पत्नी के बेटी के नाम पर बैंक ड्राफ्ट के मध्यम से 6.5 मिलियन रुपये की अस्‍पष्‍टीकृत प्राप्ति का अस्तित्व दिखाया था।

इसके निर्णय में कहा गया कि चूँकि मेडिकल काउंसिल का उद्देश्य परिषद के समान मानकों को बनाए रखने और ऐसे मानकों के आधार पर मेडिकल कॉलेज को मान्यता देना, देसाई की कार्यवाही सीधे एक लोक सेवक के दायरे में आते हैं। यह फैसला सुनाया गया कि केतन देसाई ने अपनी स्थिती का फायदा उठाया और ऐसी शक्ति का दुरुपयोग किया। उन्हें पद से से हटाने के साथ-साथ जुर्माने और कारावास से दण्डित किया गया। इस तरह की घटनाओ के माघ्‍यम से जनता को धोखा दिया जाता है।

इसी प्रकार कॉमन वेल्‍थ केस में लोक सेवकों के दुर्व्‍यवहार के कारण सरकार को लागत का 1000% की दर से बोझ वहन करना पड़ा था. जो मूल रूप से लागत की तुलना में अधिक है। करदाताओं को धोखा दिया गया और उत्‍तरदायित्‍व के लिए कीमत चुकानी होगी। न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे अपराधी अपने कार्यो के लिए स्‍वयं भुगतान करें। 

इसी प्रकार एक लोक हित वाद याचिका से “कामान काल बनाम भारत संघ’’ का मामला उठा जिसमें संबंधित मंत्री द्वारा मनमाने ढंग से पेट्रोल पंप के आवंटन की बात न्यायालय के समझ लाई न्यायालय ने  सभी आवंटनों को रद्द कर दिया और लोक सेवकों पर 50 लाख रुपयों का जुर्माना लगाया। किन्तु पुर्नवलोकन याचिका में न्यायालय ने अपने निर्णय को पलटते हुए कहा कि सरकार के मंत्रीगण यदि आशंका से कार्य करेंगे कि न्यायालय में उनके विरुद्ध कार्यवाही की जा सकती है या इस भय के प्रभाव में कार्य करेंगे कि उन पर जुर्माना लगाया जा सकता है, तो वे रक्षात्‍मक रुख विकसित करेंगे जो प्रशासन के हित में नहीं होगा एवं निर्णय से भारी विवाद खड़ा हुआ था।

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निष्कर्ष:-

सरकार का काम संस्‍थानों, कानूनों और उपायों को बनाने के बाद समाप्त नहीं होता है, यह तब है, जब सुनिश्चित करने का असली काम प्रभावी हो। भारतीय न्‍यायपालिका लोक प्रशासन और लोक उत्‍तरदायित्‍व सिद्वांत के विकास के क्षेत्र में सक्रीय रही है।

आर.टी.आई कानून को पारित करके सरकार ने सुशासन स्थापित करने के अपने इरादे को संभव बनाया है। लेकिन इस पर अभी और कार्य करने की आवश्‍यकता है। करदाताओं के पैसों का सही उपयोग और सरकार की पारदर्शिता हेतु प्रशासकों का लोक के प्रति उत्‍तरदायी होना आवश्‍यक है।