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Hindu Law- हिंदू विवाह एक संस्कार क्यों है ? | Nature of Hindu Marriage in hindi

हिंदू विवाह एक संस्कार क्यों है

हिंदू विवाह एक संस्कार क्यों है ?

हिंदू विवाह की परिभाषा:- 

रघुनंदन के अनुसार,“वर के द्वारा कन्या को स्त्री के रूप में ग्रहण करने की स्वीकृति विवाह है”।

जी.पी. मुरडॉक : एक साथ रहते हुए नियमित यौन सम्बन्ध और आर्थिक सहयोग रखने को विवाह कहते हैं। इस तरह विवाह के मूलभूत तत्व है : स्त्री तथा पुरुष के बीच में समाज द्वारा अनुमोदित पति-पत्नी के रूप में नियमित यौन सम्बन्ध, उनका एक साथ रहना, बच्चों का प्रजनन, और आर्थिक सहयोग।

जॉनसन ने लिखा है, विवाह के सम्बन्ध में अनिवार्य बात यह है कि यह एक स्थायी सम्बन्ध है। जिसमें एक पुरुष और एक स्त्री, समुदाय में अपनी प्रतिष्ठा को खोये बिना सन्तान उत्पन्न करने की सामाजिक स्वीकृति प्रदान करते हैं।

 

“हिंदू विवाह एक संस्कार क्यों है ?”(Hindu marriage is a sacrament) :-

हिंदू विधि में विवाह को एक महत्वपूर्ण संस्कार माना जाता है।प्राचीन काल से वर्तमान समय तक स्त्री और पुरुष के संबंधों में विवाह को सर्वाधिक योग्य एवं उपयोगी प्रथा माना गया है। आज भी विवाह से अधिक सार्थक प्रथा मनुष्यों के पास स्त्री और पुरुषों के संबंध को लेकर उपलब्ध नहीं है। प्राचीन हिंदू विधि में विवाह एक संस्कार माना गया है। विवाह को हिंदुओं के सोलह संस्कारों में से एक अत्यंत महत्वपूर्ण संस्कार माना है। धर्म अनुसार मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुत्र की उत्पत्ति आवश्यक है जिसके लिए विवाह का होना अनिवार्य है।

हिंदू विधि में पुत्र को रत्न के समतुल्य माना गया है। पुत्र का अर्थ नर्क से रक्षा करने वाला होता है। पुत्र श्राद्ध आदि कर्मों से पिता की आत्मा को नरक से मुक्ति प्रदान करता है, इसलिए कहा गया है कि पुत्रहीन की गति नहीं होती है। धार्मिक अनुष्ठानों के लिए पत्नी आवश्यक है, वंश को चलाने के लिए भी पुत्र की आवश्यकता पड़ती है अतः विवाह का होना मोक्ष हेतु धर्म अनुसार नितांत आवश्यक था और आज भी है।

हिंदू धर्म में कन्या विवाह की पक्षकार नहीं होती। पक्षकार कन्या का पिता तथा वर होता है जिसको दान में कन्या दी जाती है। हिंदू विधि में कन्या के स्वामित्व का संपूर्ण अधिकार उसके पिता अथवा संरक्षक को प्राप्त होता है। पिता अथवा संरक्षक को ही उसके विवाह को तय करने का अधिकार होता है। कन्या की स्वीकृति अथवा अस्वीकृति कोई महत्व नहीं रखती है। एक बार विवाह बंधन में बंधने के बाद वे एक दूसरे में एकनिष्ठ हो जाते हैं।

वेदों में यह कहा गया है कि” धर्म का आचरण पुरुष अपनी पत्नी के साथ करें।”

मनु कहते हैं कि पति- पत्नी का आपसी विश्वास परम धर्म है।

महाभारत के अनुसार स्त्री पति का अर्ध  भाग है, वह पति का उत्तम मित्र है। पत्नी धर्म ,अर्थ एवं काम की प्रेरणा है तथा मोक्ष का साध्य है। धर्मपत्नी का अर्थ ही है कि वह पुरुष के धार्मिक कार्यों वेद विहित धर्म को अपनी पत्नी के साथ साथ पूर्ण करें।

रामायण में पत्नी (स्त्री)को पति की आत्मा का स्वरूप माना गया है। पति अपनी पत्नी का भरण -पोषणकर्ता तथा रक्षक है।

मनु ने कहा है कि” पति- पत्नी का मिलन जीवन का नहीं अपितु मृत्यु के पश्चात अन्य जन्मों में भी यह संबंध बरकरार रहता है”।

हिंदू विधि शास्त्र के अनुसार स्त्री की रचना मां बनने के लिए की गई है और पुरुष की रचना पिता बनने के लिए, पत्नी अर्धांगिनी है पुरुष अपूर्ण। विवाह संस्कार, द्वारा वह पूर्णता को प्राप्त करता है ।(मनुस्मृति)।

केस:- गोपाल कृष्ण बनाम बैकटसर [(1914)37 मद्रास 237)]

इस मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि विवाह का महत्व इस तथ्य को स्पष्ट होता है कि हिंदू विधि में विवाह को उन 10 संस्कारों में से एक प्रधान संस्कार माना गया है जो शरीर को उनके वंशानुगत दोषों से शुद्ध करता है।

हिंदू विवाह एक संस्कार है- निष्कर्ष 

हिंदू विवाह एक संस्कार है क्योंकि यह कन्या के पिता द्वारा वर को दिया गया एक प्रकार का दान है जो अत्यंत पवित्र एवं महत्वपूर्ण दान माना जाता है। विवाह पति पत्नी के बीच एक जन्म जन्मांतर का अटूट संबंध है। विवाह एक पवित्र बंधन है अनुबंध नहीं है। हिंदू विवाह में किसी प्रकार के प्रतिफल की आवश्यकता नहीं होती है।

इस प्रकार हिंदू विधि में विवाह एक धार्मिक आवश्यकता है न कि किसी भौतिक वासना का साधन।

 

हिंदू विवाह संविदा क्यों है ? (contractual form of Hindu marriage):- 

हिंदू विवाह अधिनियम की कुछ धाराओं ने विवाह के स्वरूप की धारणा में परिवर्तन कर दिया है तथा विवाह को संविदात्मक रूप दे दिया है।

वर्तमान हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5, धारा 11 और धारा 12 अर्थात वैध विवाह के लिए आवश्यक शर्तें, शून्य विवाह और शून्यकरणीय विवाह यही स्थापित करते हैं कि विवाह एक संविदा है, संस्कार नहीं। यह संविदा की भांति ही अनियमित और अवैध हो सकता है। इन आधार पर शून्य और शून्यकरणीय हो सकता है। 

धारा 13 के अनुसार विवाह का विच्छेद भी किया जा सकता है जो विवाह एतदपूर्व वैध विवाह रहा है। दोनों पक्षों में संताने भी उत्पन्न हुई हैं फिर भी एक पक्ष के द्वारा कोई वैवाहिक रोग उत्पन्न हो जाने पर इसे विवाह विच्छेद की आज्ञप्ति द्वारा तोड़ा जा सकता है।

धारा 5 के अनुसार हिंदू अब केवल एक विवाह कर सकता है बहु विवाह का प्रतिषेध किया गया है। यदि विवाह के पक्षकारों की सहमति स्वतंत्र नहीं है तो विवाह शून्यकरणीय होगा। धारा 5 में विवाह के लिए आयु का उल्लेख किया गया है ,विवाह के लिए लड़की की आयु 18 वर्ष तथा लड़के की आयु 21 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए।

धारा 12 (ग) के प्रावधानों के अनुसार, यदि विवाह की अनुमति बल या का कपट से ली गई है तो विवाह शून्यकरणीय होगा। विवाह विच्छेद तथा न्यायिक पृथक्करण के आधारों को समाप्त कर विवाह को संविदात्मक रूप पूर्ण रूप से प्रदान कर दिया गया है।

हिंदू विवाह एक  संविदा के रूप मे – निष्कर्ष 

हिंदू विवाह के अधीन बहुपत्नी वर्तमान हिंदू विवाह अधिनियम 1955 हिंदुओं को बहुपत्नी को वैध नहीं मानता, परंतु शास्त्रीय विधि के अधीन हिंदू विधि में पुरुष के लिए एक से अधिक पत्नी रखने की अनुमति थी। कितनी ही पत्नियां एक साथ हो सकती थी। बहुपत्नी प्रथा हिंदुओं में प्रचलित थी। इस प्रथा का पूर्ण रूप से समापन हिंदू विवाह अधिनियम के लागू होने पर हो गया है। हिंदू विवाह एक अटूट और आमोद बंधन माना जाता था। इस प्रकार विवाह विच्छेद जैसी कल्पना भी हिंदू विवाह के अधीन नहीं थी। विधवा पुनर्विवाह वर्तमान हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अधीन हिंदू विधवा स्त्री को पुनर्विवाह करने की मान्यता प्राप्त है। परंतु शास्त्रीय विधि के अनुसार विधवा को पुनर्विवाह की मनाही थी। हिंदू विवाह पुनर्विवाह अधिनियम 1955 द्वारा विधवा विवाह को विधिमान्य कर दिया गया है। विधवा पुनर्विवाह आजकल अनुज्ञात है किंतु जैनी के प्राधिकारी आज भी इसकी अवहेलना करना ठीक समझते हैं। इनका कहना है कि जंगमो में यह प्रतिषिद्ध है और लिंगायत में यह रूढ़ि का विकास है। इसका यह भी कहना है लिंगायतओं में विधवा पुनर्विवाह का आम प्रचलन है और विवाह विच्छेद अनुज्ञेय है।

निष्कर्ष:-

हिंदू विवाह अब भी संस्कार है, क्योंकि संस्कारिक विवाह से तात्पर्य है, अटूट विवाह, जो विवाह विघटित नहीं हो सकता, जो जन्म जन्मांतर का संबंध है, जो पवित्र बंधन है। हिंदू विवाह अधिनियम ने धारा 13 के अधीन विवाह विच्छेद का प्रावधान करके विवाह के संस्कारत्मक स्वरूप को नष्ट कर दिया तथा दूसरा तत्व सन 1856 में हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम ने नष्ट कर दिया। तीसरा अंश कुछ हद तक विद्यमान है कि धार्मिक अनुष्ठान अब भी अनिवार्य है परंतु अनुष्ठानिक भाग हिंदू विवाह का सबसे कम महत्वपूर्ण अंग है।

अर्थात हम  सकते हैं कि हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के पश्चात हिंदू विवाह न ही संस्कार रहा है और न ही संविदात्मक। इसमें दोनों का आभास है। इसमें संविदा का आभास इसलिए है क्योंकि हिंदू विवाह अधिनियम स्वेच्छा को थोड़ा सा महत्व देता है। संस्कार का आभास इसलिए है क्योंकि अधिकांश हिंदू विवाह के लिए आज भी धार्मिक अनुष्ठान अनिवार्य है।

 

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