मुस्लिम विधि के स्रोत
मुस्लिम विधि के स्रोतों (muslim vidhi ke srot )को दो भागों में बांटा गया है
- मुस्लिम विधि के स्रोत – प्राथमिक स्रोत
- मुस्लिम विधि के स्रोत – गौण स्रोत
मुस्लिम विधि के स्रोत- प्राथमिक स्रोत कौन से है :-
मुस्लिम विधि के प्राथमिक स्रोत वे पुरातन स्रोत हैं जिन्हें स्वयं पैगंबर मोहम्मद ने विधि के स्रोतों के रूप में स्थापित किया था जो चार रहे हैं।
- कुरान
- सुन्नत
- इज्मा
- कयास
मुस्लिम विधि के स्रोत
1. कुरान:-
कुरान मुस्लिम विधि का प्रथम स्रोत है यह मुस्लिम समुदाय का प्रथम ग्रंथ भी है इसे “बुक ऑफ गॉड” भी कहा जाता है|
कुरान शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के शब्द ‘कुर्रा’ से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है पढ़ना अथवा जो पढ़ना चाहिए। कुरान एक दैवीय उत्पत्ति की पुस्तक है क्योंकि कुरान में स्वयं अल्लाह के शब्दों को समाहित किया गया है। उन्हें सर्वप्रथम दैवीय संदेश 609 ईसवी में प्राप्त हुआ है। इसके बाद समय- समय पर 632 ईसवी में अर्थात इनके जीवन पर्यंत तक उन्हें दैवीय के संदेश प्राप्त होते रहे।
कुरान में दैवीय संदेशों को छंद के रूप में समाहित किया गया है तथा प्रत्येक छंद आयात कहलाती है। कुरान में 6237 आयात तथा समस्त आयातो कुरान को 114 अध्यायों में विभाजित किया गया है प्रत्येक चैप्टर सुरा कहलाता है कुछ प्रमुख सुरा के अध्यायों के नाम:-
- सुरात- उन- फतीहा- जो कि कुरान की प्रस्तावना के बारे में है।
- सुरात- उल- निशा- जो कि महिलाओं के अधिकारों के बारे में है।
- सुरात-उल-तलाक- विवाह विच्छेद के बारे में है।
- कुरान में धर्म, नैतिकता और कानून से संबंधित आयतों का मिश्रण है
- कुरान में कुल 200 आयात जाते हैं जो कि विभिन्न अध्याय में बिखरी हुई है इन आयतों का सीधा संबंध विधि से है हालांकि उन 200 में से केवल 80 आयाते व्यक्तिगत विधि से संबंधित है कुरान स्वयं अल्लाह के शब्दों में है इसलिए यह अपरिवर्तनीय है एवं न्यायालयों के पास इन आयतों का आर्यान्वयन करने का अधिकार नहीं है।
2.सुन्नत और अहादिश ( हदीश- tradition ) :-
मोहम्मद पैगंबर की परंपराओं को सुन्ना कहते हैं|
मोहम्मद पैगंबर के द्वारा एक सामान्य मनुष्य के रूप में जो कहा गया और किया गया वह मोहम्मद साहब को की परंपराओं के रूप में प्रचलित हो गया एवं उनकी सुन्नतों के रूप में पालन किया गया| दैवीय कथन दो प्रकार से अवतरित हुआ।
- प्रत्यक्ष (जाहिद)-जो की स्वयं अल्लाह के शब्दों में है एवं कुरान में समाहित किए गए हैं।
- अप्रत्यक्ष (बातिन)- अर्थात बे कथन जो की दैवीय प्रेरणा से मोहम्मद पैगंबर के द्वारा किए गए।
सुन्नत का वर्गीकरण-
उद्भव की रीति के आधार पर हदीसों को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया है
- सुन्नत- उल -कॉल – अर्थात पैगंबर साहब दी गई व्यवस्था और उनके वचन पैगंबर साहब द्वारा दिए गए उपदेश ऐसी सुन्नत के अंतर्गत आता है
- सुन्नत- उल- फेल – ऐसी परंपराओं में पैगंबर साहब के आचरण सन्निहित है पैगंबर साहब द्वारा किए गए कृत्य ऐसी परंपराओं की श्रेणी में आते हैं।
- सुन्नत- उल -तकरीर – अर्थात जो कुछ उनकी उपस्थिति में बिना उनकी आपत्ति के किया गया।
परम्पराओं का संकलन पैगम्बर साहब की मृत्यु के उपरान्त किया गया। ये परम्परायें राज्य के द्वारा संकलित नहीं की गयीं बल्कि कुछ व्यक्तियों के द्वारा संकलित की गयीं। इसलिये सभी परम्परायें प्रामाणिक नहीं मानी जाती हैं। परम्पराओं की प्रामाणिकता की कसौटी के लिये मुस्लिम विधिवेत्ता एक परीक्षण विधि निर्धारित करते हैं।
उनके अनुसार, यदि किसी परम्परा का उल्लेख पैगम्बर साहब की मृत्यु के पश्चात् तीन पीढी के अन्तर्गत हआ है तो ऐसी परम्परा के प्रामाणिक होने की उपधारणा की जाती है, परन्तु यदि परम्परा का उल्लेख पैगम्बर साहब की मृत्यु के तीन पीढ़ी के भीतर नहीं हुआ है, तो परम्परा प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती।
ये पीढ़ियाँ इस प्रकार हैं-
(क) सहयोगियों की पीढ़ी– ऐसे व्यक्ति, जिन्हें पैगम्बर साहब के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हआ था, उन्हें पैगम्बर साहब का सहयोगी (companions) कहा जाता है।
(ख) उत्तराधिकारियों की पीढ़ी- ऐसे व्यक्ति जिन्हें पैगम्बर साहब के साथ रहने का सौभाग्य तो नहीं प्राप्त हुआ था, परन्तु जिन्हें पैगम्बर साहब के सहयोगियों के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, उन्हें उत्तराधिकारी कहा जाता है।
(ग) उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकारी– ऐसे व्यक्ति, जिन्हें न तो पैगम्बर साहब के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, और न सहयोगियों के साथ रहने का अवसर मिला था, परन्तु जिन्हें उत्तराधिकारियों के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हआ था, उन्हें उत्तराधिकारियों का उत्तराधिकारी (Successors of the successors) कहा जाता है।
प्रामाणिकता के आधार पर परम्पराओं को तीन भागों में विभाजित किया जाता है
(1) अहदीस-ए-मतबातिर- ऐसी पराम्परायें, जिनका उल्लेख उपर्युक्त तीन पीढी के असंख्य लोगों ने अनवरत रूप से किया है, इस कोटि में आती हैं। समस्त मुस्लिम समाज ऐसी परम्पराओं को प्रामाणिक मानता है। ऐसी परम्पराओं की संख्या केवल 5–6 तक ही सीमित है। ऐसी पराम्परायें करान की आयतों की भांति प्रामाणिक मानी जाती हैं।
(2) अहदीश-ए-मशहर- ऐसी पराम्परायें जिनका उल्लेख प्रथम पीढी के कुछ सीमित लोगों ने किया हो परन्तु बाद की दोनों पीढ़ियों के असंख्य लोगों ने जिनका उल्लेख किया हो, इस कोटि में आती हैं। अधिकांश मुसलमान ऐसी परम्पराओं को प्रामाणिक मानते हैं।
(3) अहदीस-ए-अहद– ऐसी परम्परायें जिनका उल्लेख तीन पीढियों तक लगातार न हुआ हो आर जिनका उल्लेख कुछ सीमित व्यक्तियों ने किया हो, इस कोटि में आती हैं, अधिकांश मुसलमान ऐसी परम्पराआ को गैर–प्रामाणिक मानते हैं।
3. इज्मा:-
किसी नई समस्या के लिए कुरान या सुन्नतों में कोई नियम ना होने पर विधि बेताओं के मतैक्य के आधार पर नया कानून प्राप्त कर लिया जाता था जिसे कि इज्मा कहा गया।
इज्मा का आधार मोहम्मद पैगंबर की वह सुन्नत है जिसमें उन्होंने कहा”-अल्लाह अपने बंदों को किसी गलत बात पर सहमत नहीं होने देंगे”|
इज्मा को कानून का गतिशील तत्व कहा जाता है जोसेफ शाट्च ने जीवन सुन्नत कहा है क्योंकि इज्मा हमारे द्वारा की पप्रगतिशील समाज की नई समस्याओं का समाधान किया जा सकता है |इज्मा द्वारा विधि प्राप्त करने की प्रक्रिया को इज्तीहार कहा जाता था एवं इस प्रक्रिया में केवल विधि वेत्ताओ जिन्हें की मुज्ताहिद कहा जाता था।
इज्मा का वर्गीकरण:-
1. पैगंबर के साथियों का इज्मा-
पैगंबर मोहम्मद साहब के निकटतम सहयोगी सबसे उच्च कोटि की विधि बेत्ता माने जाते थे इसलिए ऐसे इज्मा जिसमें इन सहयोगियों ने भाग लिया हो उच्च कोटि का इज्मा माना जाता है
2. विधि वेत्ताओं का इज्मा-
पैगंबर मोहम्मद के सहयोगीयों के मतैक्य सहमति के अभाव में अन्य विधिशास्त्रियों का इज्मा मान्य हुआ है।
3. जनता का इज्मा-
विधि की दृष्टि में विधिक प्रश्नों का मुस्लिम जनता के इमा का कोई महत्व नहीं है परंतु धर्म (मजहब), नमाज और अन्य बातों में उसे बड़ा महत्व प्राप्त है
4.कयास (Qyas):-
अरबी भाषा का शब्द “कयास” का अर्थ है माप,माप से आशय एक प्रतिमान अर्थात एक प्रतिमान से किसी दूसरी वस्तु की समानता माप करना कि वह किस प्रकार समान है किसी नई समस्या के नियम प्राप्त करने के लिए कुरान अथवा सुन्ना में उसी प्रकार की समस्या से संदर्भित नियम को सीधे कुरान अथवा सुनना के मूल पाठ से निगमित कयास कहलाता है।
कयास द्वारा कानून प्राप्त करने के लिए विधिशास्त्रियों द्वारा निम्नलिखित प्रक्रिया अपनाई जाती है।
- वर्तमान में उत्पन्न हुई समस्याएं एवं कुरान, सुन्नत अथवा इज्मा के मूल पाठ में दी हुई कोई सामान समस्या के मध्य तादम्य स्थापित किया जाएगा| तादम्य स्थापित किए जाने के लिए उन समस्याओं के शब्दों को महत्व न देते हुए समान हेतु जिसे इल्लत कहते हैं को महत्व दिया जाए।
- इल्लत के आधार पर समानता स्थापित हो जाने पर मूल समस्या का समाधान वर्तमान समस्या के संदर्भ में लागू कर दिया जाएगा।
2. मुस्लिम विधि के स्रोत- द्वितीयक (गौण) स्त्रोत कौन से है (Secondary Sources)
- उर्फ (रिवाज अथवा रूढ़ि)–(Custom)
- न्यायिक विनिश्चय (Judicil Decisions)
- विधायन (Legislation)
- न्याय, साम्या और सद्विवेक (Justice, Equity and Good Conscience)
1. उर्फ (रिवाज अथवा रूढ़ि)–(Custom)-
रूढ़ि (रिवाज) को मुस्लिम विधि के स्रोत के रूप में कभी मान्यता नहीं दी गई, यद्यपि अनुपूरक (Supplementary) के रूप में उसका कभी–कभी उल्लेख पाया जाता है।
अब्दुर्रहीम का कहना है कि “मुस्लिम विधिक पद्धति का मूल आधार किसी अन्य विधिक पद्धति के समान ही उन लोगों के रिवाजों और आचारों में पाया जाता है जिनमें उसका विकास हुआ।”
अरब निवासियों की वे रूढियाँ और आचार, जो पैगम्बर साहब के जीवन काल में सुव्यक्त रूप से निरस्त नहीं किये गये थे, पैगम्बर साहब की खामोशी से बनी विधि के द्वारा अनुमोदित माने जाते हैं। यह आमतौर से कहा जाता है कि रूढियों या उर्फ (तअम–उल–अदत) का विधि के स्रोत के रूप में वही स्थान है जो इज्मा का और उनकी मान्यता उन्हीं सूत्रों पर आधारित है जिन पर इज्मा की।
‘हेदाया‘ में यह लेखबद्ध है कि सुव्यक्त सूत्र के अभाव में रूढ़ि का स्थान ‘इज्मा‘ के समान है।
1937 के मुस्लिम व्यक्तिगत विधि (शरीयत) प्रयोग अधिनियम [Mulsim Personal Law (Shariat) Application Act, 1937] की धारा 2 ने ऐसी रूढ़ियों और आचारों को, जिन्होंने मुस्लिम विधि के नियमों को विस्थापित (Displaced) कर दिया था, रद्द कर दिया है।
इस अधिनियम के द्वारा मुस्लिम विधि की अधिकांश रूढ़ियाँ रद्द कर दी गयीं। इस अधिनियम की धारा 2 के अनुसार यदि पक्षकार मुस्लिम हैं तो उनके ऊपर मुस्लिम व्यक्तिगत विधि (शरिअत) ही उत्तराधिकार, महिलाओं की विशिष्ट सम्पदा, विवाह,मैहर, विवाह-विच्छेद, भरण-पोषण, संरक्षकता, दान, वक्फ आर न्यास के मामलों में लागू होंगी। इन दस मामलों में रूढ़ियाँ अब नहीं लागू हो सकती है।
केस-मोहम्मद असलम खाँ बनाम खलीलुर्रहमान
इस वाद में यह धारित किया गया है कि सन् 1937 के शरिअत अधिनियम की धारा 2 का क्षेत्र और प्रयोजन रूढ़ियों और आचारों को, जहाँ तक उन्होंने मस्लिम विधि के नियमों को विस्थापित कर दिया है, रद्द करना है। न्यायालयों के द्वारा मान्यता प्राप्त करने से रूढियों की रक्षा नहीं हो सकती जब तक कि वह किसी अधिनियम में समाविष्ट न कर दिया गया हो।
2. न्यायिक विनिश्चय (Judicil Decisions)-
इसमें प्रिवी काउन्सिल, उच्चतम न्यायालय और भारत के उच्च न्यायालयों के विनिश्चय आते हैं। वादों का विनिश्चय करने में न्यायमूर्ति विधि को प्राख्यापित (enunciate) करते हैं। ये विनिश्चय भविष्य के वादों के लिये दृष्टान्त समझे जाते हैं। दृष्टान्त केवल विधि के साक्ष्य ही नहीं, बल्कि उनके स्रोत भी होते हैं और विधि के न्यायालय दृष्टान्तों का अनुसरण करने लिये बद्ध होते हैं।
3. विधायन (Legislation)–
भारतीय विधान–मण्डल के अधिनियमों मे , जैसे कौसीद (Usurious) ऋण अधिनियम, धार्मिक सहनशीलता अधिनियम, धर्म–स्वातन्त्र्य अधिनियम 1850, संरक्षण और प्रतिपाल्य अधिनियम 1890, मुसलमान वक्फ मान्यता अधिनियम, 1913, मुसलमान वक्फ अधिनियम, 1930, बाल विवाह निग्रह अधिनियम, 1929, शरिअत अधिनियम, 1937, मुस्लिम विवाह–विच्छेद अधिनियम, 1939, भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 और मुस्लिम महिला (विवाह–विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 ने मुस्लिम विधि को काफी सीमा तक प्रभावित, अनुपूरित और संशोधित किया है।
4. न्याय, साम्या और सद्विवेक (Justice, Equity and Good Conscience)–
न्याय, साम्या और सद्विवेक भी मुस्लिम विधि के एक स्रोत समझे जा सकते हैं। सुन्नियों के हनफी शाखा के संस्थापक अबू हनीफा ने यह सिद्धान्त स्पष्ट किया कि किसी विशेष वाद की अपेक्षाओं की पूर्ति के लिये उदार अन्वयन (Constrution) या विधिशास्त्रीय अधिमान (Preference) के द्वारा न्यायाधीश सादृश्यता (Analogy) पर आधारित विधि के नियम को अपास्त कर सकता है। मुस्लिम विधि के इन सिद्धान्तों को ‘इस्तिहसन‘ या ‘विधिशास्त्रीय साम्य‘ कहते हैं।
केस- हमीरा बीबी बनाम जुबैदा बीबी
के वाद में प्रिवी काउन्सिल के विद्वान न्यायाधीशों ने निम्नलिखित अवलोकन किया
“मुस्लिम विधि के ग्रन्थों में काज़ी के कर्तव्यों (अदब) के अध्याय से यह सुस्पष्ट है कि मुस्लिम पद्धति इंगलैण्ड के न्यायालयों (Chancery Courts) द्वारा सामान्यतः मान्यताप्राप्त साम्य और साम्यपूर्ण निरूपण के नियमों से परिचित है और तथ्यत: वादों के न्यायनिर्णयन में उनका निर्देश और आह्वान (Invoked) किया जाता
शिखा शाखा के अनुसार मुस्लिम विधि के स्रोत हैं
(1) कुरान,
(2) अहादिस
(3) इजमा।
सुन्नीयों के समान ही शिया लोग भी ‘कुरान‘ को मुस्लिम विधि का प्रथम स्रोत मानते हैं। शिया लोग उसी अहादिस को प्रामाणिक समझते हैं जो पैगम्बर या उनके वंशजों से आयी है और इस सम्बन्ध में वे लोग बहुत कट्टर हैं। इसी कारण शिया सम्प्रदाय की अहादिस की संख्या बहुत कम है। जब ‘कुरान‘ और अहादिस से सहायता नहीं मिलती तो शिया लोग तर्क का सहारा लेते हैं और विशेष तौर पर जबकि इमाम से परामर्श नहीं हो सकता था। शिया लोग क़यास को मान्य स्रोत की तरह स्वीकार नहीं करते और इमाम की उपस्थिति में साम्य, लोक नीति या तर्क को कोई स्थान नहीं देते हैं।
संदर्भ-
- पारस दीवान – मुस्लिम विधि
- अकील अहमद – मुस्लिम विधि
- मुस्लिम विधि के स्रोत-https://www.legalbites.in/sources-of-muslim
- मुस्लिम विधि के स्रोत -https://blog.ipleaders.in/preliminary-sources
- मुस्लिम विधि के स्रोत-https://en.wikipedia.org/wiki/Muslim_personal_law
- मुस्लिम विधि के स्रोत – https://indiankanoon.org/doc/976981/