उपेक्षा क्या है ?
उपेक्षा के अपकृत्य से अभिप्रेत है बगैर ऐसी युक्तियुक्त सावधानी बरतते हुए कार्य करना जो एक विवेकी व्यक्ति ऐसी परिस्थिति में बरतता।
विन्फील्ड ने उपेक्षा को इस प्रकार परिभाषित किया है “उपेक्षा एक अपकृत्य के रूप में सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का अंग है, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिवाद के न चाहते हुए भी वादी को क्षति पहुँचती है।”
सामण्ड ने उपेक्षा को सदोष असावधानी के रूप में परिभाषित किया है।
केस:-मलय कुमार गांगुली बनाम डॉ. सुकुमार मुखर्जी, (2009) 9 एस.सी.सी. 221
इस मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णयानुसार विधि में उपेक्षा उस कार्य को करने का लोप है जो कि किया जाना था एवं उस कार्य का किया जाना है जो कि नहीं किया जाना था।
उपेक्षा के संबंध में दो सिद्धान्त हैं :–
(1) आत्मनिष्ठ सिद्धान्त (Subjective Theory)।
(2) वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त (Objective Theory)
(1) आत्मनिष्ठ सिद्धान्त (Subjective Theory):
इस सिद्धान्त के अनुसार उपेक्षा मस्तिष्क की। एक दोषपूर्ण अवस्था है। इस सिद्धान्त के समर्थक डॉ सामण्ड, जॉन आस्टिन आदि हैं जो उपेक्षा को एक मानसिक अवस्था मानते हैं।
(2) वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त (Objective Theory) :
इस सिद्धान्त के अनुसार उपेक्षा को व्यवहार का स्वरूप समझा जाता है जिसमें सावधानी बरतने के कर्त्तव्य का उल्लंघ किया गया हो। इस सिद्धान्त के समर्थक पोलक, क्लार्क, लिण्डसे आदि हैं।
उपेक्षा हेतु वादी को निम्नलिखित बातें सिद्ध करना होती हैं :–
(1) प्रतिवादी का सावधानी बरतने का कर्तव्य था।
(2) प्रतिवादी का वादी के प्रति सावधानी बरतने का कर्त्तव्य था ।
(3) प्रतिवादी द्वारा कर्तव्य का उल्लंघन किया गया।
(4) परिणामस्वरूप वादी को क्षति या हानि कारित हुई।
केस:- किशोर लाल बनाम चेयरमेन, ई. एस. आई. कारपोरेशन, ए.आई. आर. 2007 एस. सी. 1819
उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि उपेक्षा का वाद हेतु केवल तब उत्पन्न होता है जब क्षति हुई हो | अतः दावेदार को साक्ष्य द्वारा उपेक्षा के तीन घटक सिद्ध करने होते हैं भी प्रतिवादी उपेक्षा के लिये उत्तरदायी होता है, वे तीन घटक हैं-
(1) सावधानी बरतने के कर्तव्य का होना,
(2) मानक अनुसार सावधानी बरतने में विफलता; एवं
(3) कर्तव्य के भंग के कारण क्षति होना।
केस:- डोनोघ बनाम स्टीवेन्सन, (1932) ए.सी. 562
इस वाद में ‘अ’ ने अपीलकर्ता के लिये जिन्जर बियर की एक बोतल खरीदी। उसने गिलास में डालकर उक्त बोतल का कुछ भाग अपीलकर्ता को दिया जो उसने पी लिया। जब बियर को बोतल में से दुबारा गिलास में उड़ेला गया तो बोतल में घोघे (स्नेल) का सड़ा हुआ शरीर निकला। अपीलकर्ता ने अभिकथन किया कि उसको पीने की वजह से उसका स्वास्थ्य गम्भीर रूप से खराब हो गया।
उसने बोतल के निर्माता के विरुद्ध नुकसानी प्राप्त करने के लिये वाद दायर किया। प्रतिवादी ने अपनी प्रतिरक्षा में कहा कि वह वादी के प्रति सावधानी बरतने का कर्तव्य धारण नहीं करता था तथा वादी उसके निमित्त संविदा के पक्षकार के रूप में नहीं थी अतः उसकी कार्यवाही वाद योग्य नहीं है। न्यायालय ने उपभोक्ता को उसके निर्माता के विरुद्ध, जिनके बीच कोई संविदा नहीं थी, अपकृत्य की कार्यवाही को मान्यता प्रदान की। अतः इस मामले से यह निष्कर्ष निकला कि किसी वस्तु के उपयोग या उपभोग से उपभोक्ता को होने वाली सभी हानियों के लिये निर्माता दायित्वाधीन होगा।’
केस:- रूरल ट्रांसपोर्ट सर्विस बनाम बेजलुम बीबी (ए. आई. आर. 1980) कल.165
इस वाद में एक अत्यन्त लदी हुई बस के कण्डक्टर ने कुछ यात्रियों को बस की छत पर यात्रा करने के लिये आमंत्रित किया। रास्ते में बस एक बैलगाड़ी से आगे निकल जाने के प्रयास में पथ से दाई ओर गई, जिसके परिणामस्वरूप बस की छत पर बैठा एक यात्री ताहिर शेख, एक वृक्ष की लटकती डाल से झटका लग जाने के कारण छत से नीचे गिर पड़ा और उसे सिर, छाती आदि पर अनेकों चोटें भी लगीं जिसके परिणामस्वरूप उसको मृत्यु हो गई।
मृतक की माँ वेलजुम बीबी द्वारा की गई में यह धारित किया गया कि बस के ड्राइवर और कण्डक्टर दोनों व्यक्तियों की ओर से बस के संचालन में उपेक्षा बरती गई थी और प्रतिवादी उसके लिये उत्तरदायी थे।
केस:- बुकर बनाम बेनवॉर्न (1962)
इस वाद में प्रतिवादी एक रेलगाड़ी में तब सवार हुआ जबकि रेलगाड़ी उसी समय चली थी। उसने डिब्बे का दरवाजा बन्द नहीं किया। वादी जो एक कुली था, प्लेटफार्म के किनारे पर खड़ा था। उसे दरवाजे का धक्का लगा और वह क्षतिग्रस्त हो गया। यह धारित किया गया कि प्रतिवादी उत्तरदायी था, क्योंकि वह व्यक्ति, जो एक गति पकड़ती रेलगाड़ी में सवार हो रहा है रेलगाड़ी के समीप प्लेटफार्म पर खड़े व्यक्ति के प्रति सावधानी बरतने का कर्तव्य रखता है।
केस:- सुषमा मित्रा बनाम मध्य प्रदेश स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन (ए आई आर 1974) MP 68
के वाद में वादी मध्य प्रदेश सड़क परिवहन निगम की एक बस से यात्रा कर रही थी। उसने अपनी कुहनी खिड़की के तलदण्ड पर रखी। बस राजमार्ग पर नगर क्षेत्र से बाहर निकल रही थी। विपरीत दिशा से आ रही एक ट्रक बस के इतना निकट आ गई कि वादी की कुहनी में ठोकर लग गई जिसके परिणामस्वरूप उसकी कुहनी गम्भीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गई।
इस बात को ध्यान में रखकर कि बस में बैठने पर सामान्यतः लोग अपनी कुहनी खिड़की के तलदण्ड पर एक आदत के रूप में रख देते हैं, यह धारित किया गया कि यद्यपि ऐसे आचरण उपेक्षा और मूर्खता से परिपूर्ण होते हैं फिर भी एक युक्तियुक्तक चालक को इस प्रकार की आदतों का पूर्वानुमान करना चाहिये था।
बस और ट्रक के चालक दोनों ही वादी के प्रति सावधानी बरतने के कर्तव्य से युक्त थे, उनका यह कर्तव्य था कि वादी की सुरक्षा के लिये सावधानी बरतते और अपने बस तथा ट्रक को सड़क पर इतने अन्तर के साथ चलाते कि यदि किसी यात्री का साधारण अनुक्रम में शरीर का कोई भाग बस से कुछ बाहर होता तो उसे कुछ क्षति न होती। बस और ट्रक के दोनों ही चालकों के प्रति उपेक्षा की परिकल्पना उत्पन्न होती है। प्रतिवादी उपेक्षा की इस परिकल्पना का खण्डन करने में सफल नहीं हो सके थे। अतः प्रतिवादियों को उत्तरदायी माना गया।
केस:- ग्लासगो कारपोरेशन बनाम म्योर (1943) ए. सी.448
इस वाद में प्रतिवादी नियम की प्रबन्धिका ने 30 से 40 व्यक्तियों को एक पिकनिक पार्टी को जो वर्षा के कारण संकटग्रस्त थी, चाय कक्षों में अपना भोजन करने की अनुमति दी। इस पिकनिक पार्टी के दो सदस्य एक बहुत बड़ा चायदान जिसमें छ: से नौ गैलन तक चाय भरी हुई थी, लेकर ऐसे मार्ग से होकर चल रहे थे, जहां कुछ बच्चे मिठाइयाँ और आइसक्रीम खरीद रहे थे।
अचानक एक व्यक्ति के हाथ से चायदान का हत्या पकड़ से छूट गया और छः बच्चे, जिसमें वादी एलीनर म्योर भी सम्मिलित था, क्षतिग्रस्त हो गये। यह धारित किया गया कि प्रबन्धिका इस बात का पूर्वानुमान नहीं कर सकती थी कि उस रास्ते से चायदान ले जाने के परिणामस्वरूप इस प्रकार की घटना घटित हो जायेगी, अतः वह ऐसा कोई भी कर्तव्य धारण नहीं करती थी कि इस प्रकार की घटना घटित होने का अनुमान करके वह उसके लिये सुरक्षात्मक व्यवस्था सुनिश्चित करती। अतः यह धारित किया गया कि न तो प्रबन्धिका ही और न ही निगम घटित क्षति के लिये उत्तरदायी थे।
युक्तियुक्तक पूर्वकल्पनीयता का तात्पर्य दूरवर्ती सम्भाव्यता नहीं है –
केस:-वोल्टन बनाम स्टोन (1951)ए.सी.850
के वाद में प्रतिवादी एक समिति और एक क्रिकेट क्लब के सदस्य थे। एक बल्लेबाज ने गेंद मारा जो क्रिकेट पिच से 17 फिट ऊपर और एक बाड़ से सात फीट ऊपर चला गया और संलग्न सड़क पर जाकर वादी को क्षतिग्रस्त कर दिया। विकेट, जहाँ से गेंद मारा गया था, बाड़ से लगभग 78 गज दूर और वादी के पास से 100 गज दूर था।
यह मैदान लगभग 90 वर्षों से क्रिकेट के निमित्त प्रयुक्त होता था और पिछले 30 वर्षों की अवधि में लगभग छः बार गेंद ठोकर खाकर पर चला गया था, परन्तु उसे कोई व्यक्ति क्षतिग्रस्त नहीं हुआ था, हाउस ऑफ लाईस ने यह धारित किया कि प्रतिवादीगण उपेक्षा के, लिये उत्तरदायी न थे। इस निर्णय का कारण यह बतलाया गया था कि इतनी लम्बी अवधि में क्रिकेट की गेंद से किसी व्यक्ति को क्षतिग्रस्त होने का अवसर अत्यन्त कम था, यहाँ तक कि जोखिम की सम्भाव्यता भी सारवान नहीं थी। उपेक्षा के लिए
केस:- ब्लिथ बनाम बरमिंघम वाटर वर्क्स कम्पनी(1856)
इस वाद में प्रतिवादी द्वारा एक प्लग (Plug) संस्थापित किया गया था जो 25 वर्षों से संतोषजनक कार्य कर रहा था। सन् 1885 ई० में असाधारणतः गम्भीर पाला (Frost) पड़ा जिससे वह प्लग क्षतिग्रस्त हो गया, जिसके परिणामस्वरूप पानी बाहर निकलने लगा और वादी का परिसर वादग्रस्त हो गया।
यह धारित किया गया कि प्रतिवादियों ने पाले (Frost) से बचाव के लिये ऐसी व्यवस्था की थी जो कि एक सतर्क व्यक्ति, अनुभव के आधार पर ऐसे पाले से बचने के लिये कर सकता था। प्रतिवादीगण उपेक्षा के लिये दोषी नहीं माने गये, क्योंकि उनकी सन् 1885 ई० के असाधारण रूप से गम्भीर पाले के विपरीत, जो इतनी गहराई तक पहुँच गया था जितना ध्रुव क्षेत्र के दक्षिण में साधारणतया नहीं होता, संरक्षाएँ अपर्याप्त सिद्ध हुई थीं।
चिकित्सीय उपेक्षा (Medical Negligence)
प्रत्येक व्यवसाय में लगे व्यक्ति से उस क्षेत्र में निपुणता एवं कर्तव्यों के निर्वहन में सतर्कता और सावधानी बरतने की अपेक्षा की जाती है। विगत कुछ वर्षों से चिकित्सीय उपेक्षा के मामलों में वृद्धि हुई है। चिकित्सक द्वारा रोगी के प्रति सावधानी के निम्न कर्तव्यों का पालन किया जाना चाहिये :-
(1) सर्वप्रथम इस बात का निर्धारण कि किस रोगी को इलाज के लिये लेना है और किसको नहीं।
(2) सावधानीपूर्वक इस निष्कर्ष पर पहुँचना कि रोगी का इलाज क्या होना चाहिये।
(3) इलाज करते समय सम्यक् सावधानी बरती जानी चाहिये।
केस:- डॉ. टी. टी. थामस बनाम एलीसर, ए.आई. आर. 1987 केरल 42
केरल उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संकटकाल में रोगी की जान बचाने के लिये डाक्टर द्वारा शल्यक्रिया (operation) करने से इन्कार करना ‘डॉक्टर की उपेक्षा माना जायेगा। इस मामले में आँत के पुच्छ की सूजन (appendicitis) से गम्भीर रूप से ग्रस्त रोगी को डॉक्टर ने शल्य क्रिया करने से इन्कार कर दिया तथा समय पर उपयुक्त इलाज के अभाव में रोगी की मृत्यु हो गई, उसके लिये डॉक्टर को उपेक्षा का दोषी ठहराया गया।
केस:- स्टेट ऑफ गुजरात बनाम जयन्तीलाल सिक्लीगर ,ए.आई. आर. 2000 गुजरात 180.
वादी अपनी गलग्रन्थि (thyroid gland) में खराबी के कारण काफी दर्द और कष्ट का अनुभव कर रही थी तथा उसे कुछ भी निगलने में भी काफी कष्ट होता था। वह गोधरा स्थित सिविल अस्पताल में इलाज के लिये गई। वहाँ उसकी गलग्रन्थि के इलाज हेतु शल्यक्रिया (operation) की गई।
शल्य चिकित्सक की असावधानी के कारण गले की एक नस कट जाने से कण्ठ में स्वरयन्त्र (voice box) का पक्षाघात (paralysis) हो गया। ऑपरेशन से पहले तथा उसके दौरान उचित सावधानी न बरतने के लिये शल्य चिकित्सक को असावधानी का दोषी पाया गया। वादी को 1,20,000 रुपये के मुआवजे तथा उस पर वाद की तिथि से 12% प्रति वर्ष की दर से ब्याज पाने का अधिकारी ठहराया गया।
केस:- हक्स बनाम कोले, (1968) 118 न्यू एल. जे. 469
इस मामले निर्णय दिया गया कि चिकित्सक को केवल तब उत्तरदायी ठहराया जा सकता है जब उसका आचरण युक्तियुक्त रूप से सक्षम चिकित्सा व्यवसायी के मानक से उसके क्षेत्र में कम होता है।
उपेक्षा के मामले में बचाव (Defence in Case of Negligence)
उपेक्षा के मामले में प्रतिवादी को निम्नलिखित बचाव उपलब्ध होते हैं :-
(1) प्रतिवादी की ओर से कोई असावधानी नहीं बरती गई ।
(2) क्षति का कारण प्रतिवादी की असावधानी नहीं।
(3) खतरा उठाने के लिए बादी ने सहमति दी थी।
(4) संविदा द्वारा क्षति के दायित्व को पृथक् किया गया था।
(5) वादी भी अंशदायी उपेक्षा का दोषी
(6) क्षति ईश्वरीय कृत्य का परिणाम
(7) अवश्यम्भावी दुर्घटना।
स्वयं प्रमाण या परिस्थितियाँ स्वयं बोलती हैं (Res ipsa loquitur)
Res ipsa loquitur (रेस इप्सा लोक्यूटर) का अर्थ है ‘स्वयं प्रमाण’ या ‘परिस्थितियाँ स्वयं बोलती है’। आमतौर पर वादी को प्रतिवादी की उपेक्षा सिद्ध करनी होती है परन्तु कई बार दुर्घटना का सही कारण केवल प्रतिवादी को ज्ञात होता है ऐसी स्थिति में वादी दुर्घटना होना तो सिद्ध कर देता है परन्तु उक्त दुर्घटना कैसे हुई यह सिद्ध नहीं कर पाता। रेस इप्सा लोक्यूटर का सिद्धान्त इस कठिनाई को दूर करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार दुर्घटना स्वयं बोलती है या स्वयं अपनी कहानी बताती है।
वादी को केवल दुर्घटना होना सिद्ध करना होता है फिर यह प्रतिवादी पर है कि वह यह सिद्ध करे कि दुर्घटना उसकी उपेक्षा के कारण नहीं हुई। इस सिद्धान्त का उद्देश्य वादी को अन्याय एवं कठिनाइयों से बचाना है। यह दायित्व के निर्धारण का नियम नहीं बल्कि साक्ष्य का एक नियम है।
केस:- म्युनिसिपल कारपोरेशन ऑफ देहली बनाम सुभागवन्ती, ए.आई. आर. 1966 एस.सी. 1750
दिल्ली के मुख्य बाजार चाँदनी चौक में टाउनहॉल के सामने स्थित घण्टाघर ढह गया। इससे कई लोग मर गए। घण्टाघर दिल्ली नगर निगम की सम्पत्ति था और उसी के एकमात्र नियन्त्रण में था। उसकी आयु 80 वर्ष थी किन्तु उसके निर्माण में प्रयुक्त सामग्री के आधार पर उस निर्माण की संरचना का प्रसामान्य जीवन काल 42-45 वर्ष ही हो सकता था।
वादिनी का पति उस घण्टाघर के ढह जाने से मर गया था, उसने नगर निगम के विरुद्ध नुकसानी के लिए वाद संस्थित किया। उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि घण्टाघर का गिरना स्वयं ही अपनी कहानी कहता है कि उसकी मरम्मत की आवश्यकता थी और इस कहानी से प्रतिवादी के लापरवाह होने का अनुमान बनता है। चूँकि प्रतिवादी अपनी उपेक्षा न होना सिद्ध नहीं कर पाया इसलिये उत्तरदायी माना गया।
केस:- मध्यप्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम बनाम सुधाकर, ए.आई. आर. 1968 एम.पी. 47
के मामले में बस का ड्रायवर बस को 50 मील प्रति घण्टा की रफ्तार से साफ और खुली सड़क पर चला रहा था। अचानक वह बस एक पेड़ से टकराई जो उखड़ गया पुनः एक अन्य पेड़ से टकराई और पलट गई। इस दुर्घटना में कुछ व्यक्तियों की मृत्यु हुई और कुछ घायल हुए। मामले में न्यायालय ने रेस इप्सा लोक्यूटर (परिस्थितियाँ स्वयं बोलती हैं) का सिद्धान्त लागू किया और बस के ड्रायवर को उपेक्षा एवं उतावलेपन से बस चलाने का दोषी पाया।
केस:- आर. एस. ई. बी. बनाम जयसिंह, ए. आई. आर. 1997 राजस्थान 141
विद्युत के तार एक पर के ऊपर से होकर जा रहे थे। तारों की चिंगारी से घर की छत पर रखी घास ने आग पकड़ ली। तार नीचे गिर गए और आग खेतों तक जा पहुँची। आग बुझाने में खेतों के स्वामी की करंट लगने से मृत्यु हो गई। वही तार पहले भी टूटे प्रतिवादियों ने गठान लगाकर जोड़ने के अलावा कुछ नहीं किया था। न्यायालय ने प्रतिवादियों के विरुद्ध रेस इसा लोक्यूटर (परिस्थितियाँ स्वयं बोलती है) का सिद्धान्त लागू किया।
केस:- चेयरमैन मध्य प्रदेश इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड, जबलपुर बनाम भजन गौंद, ए.आई.आर. 1998 एम.पी. 17
इस वाद में प्रतिवादी द्वारा देखभाल किये जाने वाले विद्युत प्रवाहित तार टूट कर एक खेत में गिर गया तथा उनके सम्पर्क में आने से वादी की पत्नी की विद्युत के करेंट से मृत्यु हो गई। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि यदि प्रतिवादी द्वारा बिजली के तारों की सही देख रेख की गई होती तो यह दुर्घटना न होती। अतः बिजली बोर्ड उसके लिये दावेदार को क्षतिपूर्ति प्रदान करने का उत्तरदायी ठहराया गया।
केस:- अपर्णा दत्ता बनाम अपोलो हास्पिटल, मद्रास, ए.आई.आर. 2000 मद्रास 340
के मामले में गर्भाशय का ऑपरेशन करते समय चिकित्सक की उपेक्षा के कारण पट्टी की गढ़ी महिला के पेट में रह गई जिसका पता तब लगा जब उस महिला को पेट में दर्द होने लगा और बैचेनी महसूस होने लगी। इस मामले में स्वयं प्रमाण का सिद्धा लागू किया गया तथा चिकित्सक तथा अस्पताल अधिकारियों को उत्तरदायी ठहराया गया एवं 5,80,000 प्रतिकर दिये जाने का आदेश दिया गया।
यह सिद्धान्त केवल तभी लागू होता है जब यह निष्कर्ष निकले के दुर्घटना केवल प्रतिवादी की उपेक्षा के कारण ही हो सकती थी। जब दो परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकल रहे हों तब प्रतिवादी की उपेक्षा की उपधारणा नहीं की जा सकती।
संदर्भ-