परिचय ( Introduction):-
आपराधिक कानून के क्षेत्र में जाने के दौरान सबसे आसान शब्दों में से एक है, जमानत। फ्रांसी , फ्रांसीसी शब्द (baliera) से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है -किसी को मुक्त करना। जमानत एक आपराधिक मामले में आरोपी की रिहाई या अनंतिम आधार पर दीवानी है।
जमानत एक ऐसा तंत्र है जो अभियुक्तों को कोई अनुचित लाभ दिए बिना उसकी स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। हालांकि यह देखा गया है कि जमानत देने की प्रथा काफी अस्थिर और अस्पष्ट है। जमानत किसी भी आपराधिक न्याय प्रणाली का एक मूलभूत पहलू है जो आरोपी को निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की गारंटी देता है।
जमानत देने की प्रथा स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की रक्षा करने की आवश्यकता से विकसित हुई। किसी भी व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से तब तक, वंचित नहीं किया जाएगा जब तक कि ऐसा उचित निष्पक्ष और न्याय संगत प्रक्रिया द्वारा निर्धारित न किया जाए।
जमानत किसी भी आपराधिक न्याय प्रणाली का एक मूलभूत पहलू है जो आरोपी को निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की गारंटी देता है। जमानत बांड राशि, जमानत देने के लिए विचार और जमानत बाद लगाई गई शर्तें जैसे कारक शामिल है ऐसे कई फैसले हैं जिनमें शीर्ष अदालत ने कहा है कि जमानत देने से पहले प्रत्येक मामले की उसके तथ्यों और परिस्थितियों की जांच की जानी चाहिए।
ऐतिहासिक विकास (Historical development) :-
जमानत के बारे में 399 ईसा पूर्व में अनुमान लगाया जा सकता है। जब प्लेटो ने पहली बार सुकरात को मुक्त करने के लिए एक बंधन बनाने की कोशिश की थी |मध्ययुगीन काल में ब्रिटेन ने सर्किल अदालतों में जमानत की व्यवस्था बनाई। आधुनिक जमानत की अवधारणा मुख्य रूप से इसे नियंत्रित करने वाले सभी मध्ययुगीन कानूनों से उत्पन्न हुई है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में यह भी उल्लेख किया गया है कि पूर्व परीक्षण निरोध से बचना आदर्श था, इसलिए जमानत की अवधारणा प्राचीन भारत में भी किसी तरह प्रचलित थी। 17 वी शताब्दी के दौरान जो मुगल काल था जमानत की प्रथा “मुचलका” और जमानत’ के रूप में प्रचलित थी।
वर्तमान में जमानत दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (इसके बाद अधिनियम के रूप में संरर्मित) द्वारा शासित है। हालांकि इस अधिनियम में कहीं भी जमानत को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है लेकिन धारा 2(a) के तहत जमानती अपराध और गैर -जमानती अपराधों को परिभाषित किया गया है धारा 436 से 450 तक अधिनियम 1973 में जमानत से संबंधित प्रावधानों को नियंत्रित करती है यह उन अपराधो को निर्दिष्ट करता है जिनके लिए जमानत दी जा सकती है और नहीं दी जा सकती है जो अपराध की तीव्रता और गंभीरता पर निर्भर करती है।
अपराध और व्यक्ति की आर्थिक स्थिति के आधार पर जमानत राशि तय करना, अदालत का विवेकाधिकार है। भारत में जमानत मुख्यतः तीन प्रकार की होती है – नियमित, अंतरिम, और अग्रिम जमानत,|
भारतीय कानून में कहीं भी जमानत शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है। हालांकि यह व्यापक रूप से माना जाता है कि यह प्रणाली अंग्रेजी और अमेरिकी जमानत प्रणाली को देखकर अस्तित्व में आई|
केस:-सुप्रीम कोर्ट ने कमलापति बनाम पश्चिम बनाम राज्य
इस मामले में जमानत को इस प्रकार परिभाषित किया था- “एक तकनीकी जो मानव मुख्य की दो बुनियादी अवधारणाओं के संश्लेषण को प्रभावित करने के लिए विकसित हुई, अर्थात एक अभियुक्त का अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जनता के हित का आनंद लेने का अधिकार जिस पर एक व्यक्ति की रिहाई आरोपी व्यक्ति को पेश करने के लिए जमानत पर शर्त है, अदालत में मुकदमे को खड़ा करने के लिए।”
जमानत का अर्थ और परिभाषा:-
जमानत एक कानूनी प्रक्रिया है, जहां किसी व्यक्ति द्वारा कोई जुर्म किया जाता है, उस व्यक्ति को कारावास से छुड़ाने के लिए न्यायालय में कुछ संपत्ति जमा की जाती है। जमानत के बाद आरोपी अपने घर में रह सकता है लेकिन उसे सुनवाई के समय न्यायालय में आना होता है। जमानत के बाद आरोपी देश छोड़कर नहीं जा सकते और जब भी पुलिस को न्यायालय में बुलावा आए तो हाजिरी लगाना भी अनिवार्य होता है।
दंड प्रक्रिया संहिता में जमानत शब्द को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है किंतु इसका तात्पर्य कैदी की हाजिरी सुनिश्चित करने हेतु ऐसी प्रतिभूति से है जिसको देने पर अभियुक्त को अन्वेषण अथवा विचारण की लंबित होने की स्थिति में छोड़ दिया जाता है|
केस:- गोविंद प्रसाद बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1975)क्रि. लॉ. ज.1249 (कलकत्ता)
इस मामले में कहा गया था कि जमानतीय बंधपत्र में यह शर्त अंतर्वलित होती है कि यह बंधपत्र में निर्दिष्ट तिथि तथा समय पर स्वयं को न्यायालय के समक्ष हाजिर करेगा
ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार,- जमानत को “कानूनी हिरासत में किसी व्यक्ति की रिहाई की खरीद के रूप में परिभाषित किया गया है, यह वचन देकर कि वह निर्दिष्ट समय और स्थान पर उपस्थित होगा और उसे न्यायालय के अधिकार क्षेत्र और निर्णय में प्रस्तुत करेगा।
केस:- सुनील तुलचंद शाह v/s भारत संघ
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत की एक सटीक परिभाषा प्रदान की गई थी ‘जिसमें यह माना गया था कि जमानत एक अपराध के संबंध में गिरफ्तार व्यक्ति से मुकदमे के दौरान उसकी उपस्थिति को सुरक्षित करने के उद्देश्य से प्राप्त की गई सुरक्षा है।”
केस:- अधीक्षक और कानूनी मामलों के स्मरण v/s अमिय कुमार रॉय चौधरी
इस मामले में अदालत ने माना कि जमानत के कानून को दो परस्पर विरोधी मांगो अर्थात एक तरफ खतरों से बचाव के लिए समाज की आवश्यकताओं को जोड़ना होगा। अपराध करने के आरोप में किसी व्यक्ति के दुस्साहस के संपर्क में आने से और दूसरी ओर आपराधिक न्याय शास्त्र का मूल सिद्धांत अर्थात-, किसी अभियुक्त के दोषी पाए जाने तक उसके निर्दोष होने का अनुमान।
केस:- वैलेस v/s राज्य
इस मामले में कानून की शब्दावली जमानत को आरोपी व्यक्ति की उपस्थिति की सुरक्षा के रूप में परिभाषित करती है। जिस पर उसे लंबित मुकदमे या जांच के लिए छोड़ दिया जाता है।
केस:- मैककाय बनाम यूनाइटेड स्टेट
इस मामले में, कहा गया था कि जमानत पर विचार यह है कि “किसी व्यक्ति को कानूनी हिरासत से रिहा करने के लिए यह वचन देकर कि वह निर्दिष्ट समय और स्थान पर उपस्थित होगा और उसे प्रस्तुत करेगा, अदालत के अधिकार क्षेत्र और निर्णय के लिए।
द थर्ड न्यू इंटरनेशनल डिक्शनरी ऑफ वेबस्टर के अनुसार,-जमानत वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक व्यक्ति को हिरासत से रिहा किया जाता है “के रूप में परिभाषित करता है रमनाथ अय्यर द्वारा लॉ लैक्सिकॉन, (तीसरा संस्करण)- जमानत को “आरोपी व्यक्ति की उपस्थिति के लिए सुरक्षा के रूप में परिभाषित करता है।
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 जमानत को परिभाषित नहीं करती है। हालांकि, जमानती अपराध और गैर जमानती अपराध को कोड में निर्दिष्ट किया गया है। Sec 2(a) जमानती अपराध को परिभाषित किया गया है “जमानती अपराध का मतलब एक ऐसा अपराध है जिसे पहली अनुसूची में जमानतीय दिखाया गया है या जिसे किसी अन्य कानून द्वारा कुछ समय के लिए जमानतीय बनाया गया है और गैर जमानती अपराध का अर्थ कोई अन्य अपराध है |
संहिता की धारा 486 से 450 तक जमानत के बारे में अपराधिक प्रक्रिया के लिए नियम निर्धारित करता है जमानत संबंधी उपबंध इस धारणा पर आधारित है कि किसी भी व्यक्ति की स्वाधीनता में आयुक्तियुक्त एवं अन्यायपूर्ण हस्तक्षेप न किया जाए| दंड विधि कि यह सामान्य नीति है कि यथासंभव जमानत नामंजूर करने की वजह स्वीकार की जानी चाहिए इसे सामान्य भाषा में “जमानत न की जेल (bail and not Jail) के नाम से संबोधित किया जाता है।
जमानत के विषय में सामान्य सिद्धांत प्रतिपादित किए गए हैं, जो निम्नानुसार हैं –
- यदि अपराध जमानतीय हो, तो जमानत पर रिहाई का अभियुक्त का अधिकार होता है। यह पुलिस अधिकारी या न्यायालय, इनमें से किसी के द्वारा भी स्वीकृति की दी जा सकती है।
- अपराध अजमानतीय प्रकृति का होने की दशा में अभियुक्त को जमानत पर छोड़ना या न छोड़ना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है
- यदि अपराध मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडनीय हो, तो मजिस्ट्रेट अभियुक्त की जमानत मंजूर नहीं करेगा लेकिन महिला, 16 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति या बीमार अथवा शिथिलांग अभियुक्त इसके अपवाद है।
- जमानत के संदर्भ में उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय को व्यापक अधिकारिता प्राप्त है।
जमानत का उद्देश्य (Purpose of bail):-
जमानत का उद्देश्य संदिग्ध व्यक्ति (suspicious person) को बेगुनाही साबित करने का अवसर देना है। एक आपराधिक मामले में जमानत का प्राथमिक उद्देश्य, अभियुक्त को कारावास से मुक्त करना, विचारण लंबित रखना है और साथ ही अभियुक्त को रचनात्मक रूप से न्यायालय की हिरासत में रखना है, तथा राज्य को उसे रखने के बोझ से मुक्त करना है। सजा से पहले या बाद में यह आश्वस्त करने के लिए कि वह अपने आप को प्रस्तुत करेगा।
दीवानी मामलों में जमानत का उद्देश्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ऋण का भुगतान करना या अन्य नागरिक कर्तव्यों के प्रदर्शन को सुरक्षित करना है, जबकि आपराधिक मामलों में उद्देश्य अदालत के समक्ष प्रिंसिपल की उपस्थिति सुनिश्चित करना है, जब उसकी उपस्थिति की आवश्यकता होती है| किसी अभियुक्त की गिरफ्तारी का मुख्य उद्देश्य मुकद्दमे में उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करना और दोषसिद्धि पर सजा के लिए उपलब्ध होना, सुनिश्चित करना है।
इस प्रकार जमानत को एक तंत्र के रूप में माना जा सकता है जिसके द्वारा राज्य समुदाय पर कैदी की उपस्थिति सुनिश्चित करने के कार्य का अवमूल्यन है। और साथ ही न्याय प्रशासन में समुदाय की भागीदारी भी शामिल है।
भारत में जमानत के प्रकार (Types of bail in India):-
भारत में जमानत के आपराधिक प्रक्रिया संहिता द्वारा नियंत्रित किया जाता है और इसे मोटे तौर पर निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है:-
- जमानतीय अपराधों में जमानत(sec.436)
- गैर-जमानतीय अपराधों में जमानत(sec.437)
- अग्रिम जमानत (sec.438)
- Default Bail(167(2))
- Interim bail
- Bail after coviction
1. जमानतीय अपराधों में जमानत (bail in bailable offence)section-436 :-
जमानती अपराध वे अपराध हैं जिनमें किसी व्यक्ति को अधिकार के रूप में जमानत दी जा सकती है। Crpc की धारा 436 में इन अपराधों के संबंध में जमानत मिल सकती है। इस प्रकार के अपराधों के मामले में आमतौर पर 3 साल से कम की सजा होती है और प्रकृति मे कम जघन्य होते हैं।
जमानत या तो अदालतों या पुलिस/जांच अधिकारी द्वारा दी जा सकती है। जो आरोपी द्वारा या उसके बिना भी विभिन्न जमानत या बांड प्रस्तुत करने के बाद मामले को देख रहे हैं। जमानत बांड की उपस्थिति इस तरह के अपराधों में से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि अदालत या पुलिस अधिकारी जमानत देने से इंकार कर सकते हैं। यदि आरोपी बांड की शर्तों का उल्लंघन करता है
- Bail प्राप्त करना accused का statutory right है।
- जमानत मंजूर करना या न करना पूर्णतः न्यायालयीन विवेक पर निर्भर करता है।
फिर भी न्यायालय ने गुड़ीकांति नरसिंहुलू बनाम लोक अभियोजक आंध्र प्रदेश(1978)। 5 c c 240)
इस संबंध में कतिपय मार्गदर्शक सिद्धांत प्रतिपादित किये गए हैं।-
- मजिस्ट्रेट द्वारा जमानत मंजूर किए जाने अथवा न किए जाने का निर्णय पूर्ण सावधानी बरतते हुए युक्तियुक्ता (reasonable) के आधार पर किया जाना चाहिए।
- जमानत नामंजूर किए जाने पर अभियुक्त को स्वतंत्रता के आधार से वंचित किया जाता है।
- जमानत के आवेदन पर विचार करते समय मजिस्ट्रेट को इस बात पर विचार किया जाना चाहिए की जमानत पर छोड़ दिए जाने पर अभियुक्त साथियों को खतरा उत्पन्न नहीं करेगा या न्यायिक कार्यवाही के संचालन में बाधा उत्पन्न नहीं करेगा।
- अभियुक्त के आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने की संभावना तो नहीं है।
- सामान्यतः अभ्यस्त और घोर अपराधियों की जमानत मंजूर नहीं की जानी चाहिए।
केस:- अभयचन्द्र v/s शेख मोहम्मद अब्दुल्ला (1983) 2 s c c 417)
जमानत नामंजूर करते समय यदि न्यायालय को यह नहीं बताया जाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध अन्य आपराधिक प्रकरण के अन्वेषण की कार्यवाही लंबित है तो जमानत हो जाने के बाद एक दूसरे अपराध के लिए उसकी गिरफ्तारी नहीं की जा सकती क्योंकि यह असंवैधानिक होगी।
केस:- हुसैनआरा खातून v/s बिहार राज्य(AIR 1979 ) sc 1196)
इस मामले में उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश वी. आर. कृष्णाअय्यर ने कहा कि भारतीय जमानत प्रणाली गरीबों के लिए अहितकर क्योंकि वे पैसा न होने के कारण जमानत राशि या प्रतिभू. राशि जमा करने में असमर्थ होने के कारण वर्षों तक जेल में रहते हैं। यहां तक कि अनेक विचारणाधीन बंदी जमानत राशि न दे सकने के कारण उनके अपराध के लिए देय अधिकतम कारावास से अधिक अवधि तक भी कारावासी जीवन बिताने के लिए बाध्य होते हैं।
केस:- मोतीराम v/s मध्य प्रदेश राज्य (AIR 1978 s .c. 1594)
इस वाद में न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर ने यह अभिमत प्रकट किया कि इस संहिता के अधीन अपराधों को जमानतीय तथा अजमानतीय अपराध के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
केस:- बाबू सिंह v/s उत्तर प्रदेश राज्य (AIR 1978 )s.c. 527
इस वाद में कहा गया कि जमानत इनकार करने के परिणाम स्वरुप व्यक्ति की वैयक्तिक स्वाधीनता निर्वधित होती है जिससे अनु. 21 का उल्लंघन होता है अतः केवल विरले मामले में ही जमानत नामंजूर की जानी चाहिए।
2. गैर जमानतीय अपराधों में जमानत (Bail in non-bailable offance)(sec.437):-
Crpc की धारा 437 के तहत अपराधों में, अभियुक्त को अधिकार के रूप में जमानत उपलब्ध नहीं है। यह न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है कि वह आरोपी को जमानत दे या नहीं। इस प्रकार के अपराध प्रकृति में जघन्य होते हैं और आमतौर पर 3 साल से अधिक की सजा होती है।
गैर जमानती अपराधों के मामले में, आरोपी व्यक्ति अदालत में अधिकार के मामले में जमानत की मांग नहीं कर सकता है यह अदालत के पूर्ण विवेक पर निर्भर करता है कि वह जमानत दी जा सकती है या नहीं।
अदालत किसी ऐसे व्यक्ति को जमानत दे सकती है जिसे बिना वारंट के गिरफ्तार किया गया है, जब तक कि उसके पास यह मानने का पर्याप्त कारण आधार ना हो कि वह व्यक्ति मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध का दोषी है और यदि अभियुक्त 16 वर्ष से कम आयु का या महिला या बीमार या सक्षम व्यक्ति है तो उसका अपराध मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध का दोषी होने पर भी उसे जमानत पर छोड़ा जा सकता है |
केस:- राज्य v/s सफूरा जरगर (2021)
हालिया उदाहरण में, 5 महीनों की गर्भवती सफूरा दिल्ली दंगों में यूएपीए के आरोपी जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की छात्रा थी, को मानवीय आधार पर दिल्ली के उच्च न्यायालय द्वारा मानवीय आधार पर उसकी गर्भावस्था के कारण जमानत दी गई थी।
केस:- शहजाद हसन खान v/s इश्तियाक हसन खान (1987)
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि स्वतंत्रता को कानून की एक प्रक्रिया के माध्यम से सुरक्षित किया जाना है, जिससे आरोपी के हितों को ध्यान में रखते हुए प्रशासित किया जाता है।
केस:- प्रभाकर तिवारी v/s यूपी राज्य
इस मामले में s.c. ने कहा कि अभियुक्त के ऊपर बहुत सारे case pending में हैं। तो इस case में public prosecutor ने कहा कि अभियुक्त को जमानत दे दी जाए। तो S.C. ने कहा कि सिर्फ लोक अभियोजक के कहने से bail की application को reject किया तो यह एक soul ग्राउंड नहीं है।
केस:- भजनलाल v/s हरियाणा राज्य
इस केस में न्यायालय ने कहा था कि यदि आरोप और साक्ष्य यह सिद्ध नहीं कर पा रहे हैं कि अपराधी ने कोई अपराध किया है तो इस केस में न्यायालय की जिम्मेदारी होगी कि अपराधी व्यक्ति को जमानत पर रिहा किया जाए।
केस:- धनपाल v/s एम्परर
इस मामले में मामले में न्यायालय ने कहा था कि एक व्यक्ति का धनी व इज्जतदार परिवार से होना जमानत देने के लिए एक उपयुक्त आधार नहीं है।
केस:- मोतीराम बनाम म. प्र. राज्य(AIR 1978 )s.c. 1594)
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जमानत मंजूर की जाने की शर्तें इतनी अधिक दूभर न हो कि अभियुक्त के लिए उनका पालन करना संभव ही न हो|
3. अग्रिम जमानत (anticipatory bail):-
जैसा कि नाम से पता चलता है इस प्रकार की जमानत आमतौर पर अभियुक्त व्यक्ति को तब दी जाती है जब किसी अपराधिक अपराध के लिए आरोपित होने के परिणामस्वरूप गिरफ्तार होने की आशंका होती है। इस प्रकार की जमानत crpc की धारा 154 के प्राथमिकी दर्ज होने से पहले भी लागू की जा सकती है और sec. 438 के तहत दी जाती है।
यह एक गिरफ्तारी पूर्व राहत है जिसके लिए वादी उच्च न्यायालयों या सत्र न्यायालयों में आवेदन कर सकता है भारतीय संविधान के अनु. 21 धारा 438 के तहत जीवन का अधिकार साथ-साथ चलते हैं।
केस:- बदरेश विपिनबाई सेठ बनाम गुजरात राज्य
इस ऐतिहासिक मामले में शीर्ष अदालत ने कहा कि अनु. 21 के प्रावधानों और इसकी उदार व्यवस्था को धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत देते समय, प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए |
अदालतों द्वारा अग्रिम जमानत की अस्वीकृति पुलिस को अपीलकर्ता को गिरफ्तार करने का अधिकार नहीं देती है।
केस:- ओंमकार नाथ अग्रवाल बनाम राज्य
इलाहाबाद H.C. ने कहा कि sec. 438 में आप directly अग्रिम जमानत की application H.C. में डाल सकते हैं कोई मना नहीं करेगा। SC कि यह विवेकापूर्ण शक्ति है कि वो उसमे deal करे या न करे।
केस:- छज्जू राम बनाम हरयाना राज्य
इस मामले में अग्रिम जमानत की अपील पहले सत्र न्यायालय में होगी और उसके बाद उच्च न्यायालय में होगी।
केस:- डी.के. गणेश बाबू v/s पी.टी. मनोकरण (AIR 2007) s.c .1450
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जमानत मूलतः परिरोध से उन्मुक्त होती है, विशेषकर पुलिस अभिरक्षा से मुक्ति।
केस:- मुथ्यु स्वामी राज्य (1980.)कि. लॉ. ज.1021(केरल)
अग्रिम जमानत जारी करने संबंधी शक्ति का प्रयोग केवल अजमानतीय अपराध की दशा में ही किया जा सकता है।
केस:-केंद्रीय जांच ब्यूरो v/s चंद्रास्वामी(1997 )3 s.c.c. 214)
इस वाद में उच्च न्यायालय ने केंद्रीय जांच ब्यूरो को निर्देशित किया प्रत्यार्थी को गिरफ्तार करने के पूर्व वह उसे 3 दिन का टाइमर नोटिस दें तत्पश्चात H.C. ने CBI को पुनः निर्दिष्ट किया कि वह प्रत्यार्थी को दिए गए 3 दिन के पूर्व नोटिस की समाप्ति के बाद भी गिरफ्तारी न करें अपील में H.C. ने कहा कि इस प्रकार के निर्देश न्यायोचित नहीं था न्यायालय ने कहा कि उक्त 3 दिन की अवधि की समाप्ति के बाद केंद्रीय जांच ब्यूरो प्रत्यार्थी को गिरफ्तार करने के लिए स्वतंत्र थी।
केस:-बालचंड जैन v/s स्टेट ऑफ म. प्र.
इस मामले में कहा गया है कि अग्रिम जमानत को लगाने का हर व्यक्ति को अधिकार है लेकिन आपको अपना डर SPECIFIED करना जरूरी है।
4. नियमित जमानत( Regular default Bail) sec.167(2):-
यह एक प्रकार की जमानत है जो एक आरोपी को दी जाती है जिसे गिरफ्तार किया गया है और एक समय से अपराध के कमीशन के बाद पुलिस हिरासत में है। (एक अपराध जिसकी पुलिस अदालत की अनुमति से पहले जांच शुरू कर सकती है और आरोपी को बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है) और गैर जमानती अपराध इस प्रकार की जमानत अभियुक्त को मुकदमे में उपस्थित होने के लिए हिरासत से रिहा करने की सुविधा प्रदान करती है। इस प्रकार की जमानत IPC की धारा 437 or 439 के तहत दी जाती है।
5. अंतरिम जमानत (Interim bail) :-
यह एक प्रकार की अस्थाई जमानत है जो बहुत कम समय के लिए दी जाती है। यदि अग्रिम जमानत या सामान्य जमानत के लिए आवेदन अदालत के समक्ष लंबित है। आमतौर पर इस तरह की जमानत तब लागू की जाती है जब अभियुक्त मुकदमे की अवधि के दौरान जेल या हिरासत के समय से बचना चाहता है।
अंतरिम जमानत “कुछ होने से पहले ही” अंतरिम जमानत अंतिम निष्कर्ष (final conclusion) से पहले दी जाती है।
6. दोषसिद्धि के बाद जमानत (Bail after conviction )(sec.389):-
इस प्रकार की जमानत sec.389 में बताई गई प्रक्रिया के अनुसार लागू होती है जब trail खत्म हो चुका हो अभीयुक्त का।
जमानत देने के लिए अधिकृत लोग(people authorised to grant bail):-
दंड प्रक्रिया संहिता जमानत देने की शक्ति प्रदान करती है-
- मजिस्ट्रेट
- पुलिस
दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान के अनुसार निम्नलिखित मामलों में जमानत दी जा सकती है-
- गिरफ्तारी पर जमानती मामलों में जमानत।
- गिरफ्तारी पर गैर जमानती मामलों में जमानत ।
- गिरफ्तारी की आशंका पर गैर जमानती मामलों में जमानत।
जमानत के अन्य उदाहरण:-
1.मजिस्ट्रेट द्वारा गिरफ्तारी पर जमानत:- (bail on arrest by magistrate)( sec.44) of Crpc:-
एक मजिस्ट्रेट को किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की शक्ति होती है। जो उसकी उपस्थिति और स्थानीय अधिकार क्षेत्र में कोई अपराध करता है वह किसी भी निजी व्यक्ति को भी गिरफ्तार करने के लिए अधिकृत कर सकता है। यह मजिस्ट्रेट न्यायिक कार्यकारी मजिस्ट्रेट हो सकता है गिरफ्तारी के बाद वह उसे संहिता के तहत जमानत के प्रावधानों के अनुसार जमानत भी दे सकता है।
2.अगली अपीलीय अदालत में पेश होने के लिए जमानत (bail to appear befor next appellate court) sec.437 (A):-
ट्रायल कोर्ट और अपीलीय न्यायालय ने ट्रायल और अपील के निपटारे से पहले आरोपी को उच्च न्यायालय के समक्ष पेश होने के लिए जमानत के साथ जमानत बांड निष्पादित करने की आवश्यकता है। ऐसा जमानत बांड 6 महीने के लिए लागू होता है।
3. संज्ञान लेने के अधिकार क्षेत्र न रखने वाले न्यायालय द्वारा जमानत(BAIL by court not having jurisdiction to take cognizance) (sec.81)crpc:-
जब अन्य जिले की अदालत द्वारा जारी वारंट पर, एक पुलिस अधिकारी गैर-जमानती अपराध के लिए किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करता है तो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (धारा 437 के प्रावधानों के अधीन) या जिस जिले में गिरफ्तारी की जाती है उसका सत्र न्यायाधीश किसी व्यक्ति को जमानत पर रिहा कर सकता है।
4. पेशी के लिए बांड के निष्पादन पर जमानत (bail on execution of bond for appearance)(sec.88) crpc :-
जब एक पीठासीन अधिकारी किसी ऐसे व्यक्ति को अदालत में उपस्थित पाता है जिसकी उपस्थिति या गिरफ्तारी के लिए, उसे सम्मन या वारंट जारी करने का अधिकार है तो ऐसा अधिकारी ऐसे व्यक्ति से ऐसे न्यायालय में अपनी उपस्थिति के लिए, जमानत के साथ या उसके बिना एक बांड निष्पादित करने की अपेक्षा कर सकता है | कोई न्यायालय जिसमें मामला विचारण के लिए स्थानांतरित किया जा सकता है ।यदि ऐसा व्यक्ति बांड निष्पादित करता है तो उसे रिहा कर दिया जाएगा अन्यथा उसे गिरफ्तार कर हिरासत में भेज दिया जाएगा।
5. दोषी सिद्धि पर शांति बनाए रखने के लिए जमानत पर जमानत:- (sec.106) crpc
जब सत्र न्यायालय या प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के न्यायालय कि राय में किसी व्यक्ति से शांति बनाए रखने के लिए सुरक्षा लेना आवश्यक हो और फिर ऐसे व्यक्ति को सजा सुनाते समय न्यायालय उसे आदेश दे सकता है कि शांति बनाए रखने के लिए जमानत के साथ या बिना, एक बांड निष्पादित करें। यह बांड 3 साल से अधिक के लिए नहीं हो सकता यदि ऐसा ब्यक्ति बॉन्ड निर्धारित करता है तो उसे रिहा कर दिया जाएगा अन्यथा उसे हिरासत में भेज दिया जाएगा।
6.अन्य मामलों में शांति बनाए रखने के लिए जमानत मिलने पर जमानत (धारा107crpc):-
जब एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट को यह जानकारी प्राप्त होती है कि किसी व्यक्ति द्वारा शांति भंग करने या सार्वजनिक शांति भंग करने या कोई गलत कार्य करने की संभावना जो संभवतः शांति भंग करने का कारण हो सकता है बांड 1 वर्ष की अवधि से अधिक के लिए नहीं हो सकता है।
7. देशद्रोही मामलों को फैलाने वाले व्यक्तियों से अच्छे व्यवहार के लिए सुरक्षा प्राप्त करने पर जमानत:- (sec.108) crpc
जब एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट को यह जानकारी मिलती है कि उसके स्थानीय क्षेत्र के भीतर एक व्यक्ति है जो अपने अधिकार क्षेत्र के अंदर या बाहर देशद्रोही मामलों का प्रसार कर रहा है तो magistrate उसे 1 वर्ष की अवधि के लिए उसके अच्छे व्यवहार के लिए बांड निष्पादित करने का आदेश नहीं दिया जाना चाहिए। यदि ऐसा बांड निष्पादित करेगा तो उसे रिहा कर दिया जाएगा अन्यथा हिरासत में भेज दिया जाता है।
8. संदिग्ध व्यक्तियों से अच्छे व्यवहार के लिए जमानत पर जमानत:-(sec.109)crpc
एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट के स्थानीय क्षेत्र में कोई व्यक्ति अपनी उपस्थिति को छुपाने के लिए सावधानी बरत रहा है यह मानने का कारण है कि एक संशय अपराध करने की दृष्टि से ऐसा कर रहा है तो 1 वर्ष का बांड अच्छे व्यवहार के लिए भरवाया जाएगा।9.
9.आदतन अपराधियों से लिए अच्छे व्यवहार के लिए जमानत पर जमानत:(sec.110)crpc
यहां मजिस्ट्रेट उसके अच्छे व्यवहार के लिए ऐसी अवधि के लिए 3 वर्ष से अधिक न हो यदि ऐसा व्यक्ति बांड निष्पादित करता है तो उसे हिरासत से रिहा कर दिया जाएगा।
10. सूचना की सत्यता के संबंध में पूछताछ के दौरान जमानत:-(sec.116)crpc
11. जमानत देने के आदेश पर जमानत (sec.117)crpc:-
शांति और सार्वजनिक शांति के लिए खतरा होने के लिए किसी व्यक्ति के खिलाफ जब यह सिद्ध हो जाता है की बॉन्ड निष्पादित करना आवश्यक है तो magistrate बांड निष्पादित करवा सकता है|
12. विकृतचित्त व्यक्ति की जमानत:- (Sec.330)crpc
जब एक आरोपी व्यक्ति विकृत दिमाग का होता है तो जमानती या गैर -जमानतीय अपराध के बावजूद यदि न्यायालय को प्रतीत हो कि वह अपने पागलपन के कारण बचाव कर रहा है तो न्यायालय ऐसे आरोपी को निम्न शर्तो पर रिहा करती है–
- उसकी ठीक से देखभाल की जाएगी।
- उसे खुद को या अन्य व्यक्ति को चोट पहुंचाने से रोका जाएगा।
13.लोक सेवक के वैद्य प्राधिकार की अवमानना के मामलों में जमानत-(Sec.304 and sec.345)crpc
14.अच्छे आचरण की परीविक्षा पर या चेतावनी के बाद जमानत:- (sec.360) of crpc
(अच्छे आचरण पर परिवीक्षा पर रिलीज)
- 21 वर्ष से कम उम्र के अभियुक्त को दंडनीय अपराध का दोषी ठहराया गया
1. केवल जुर्माने के साथ
2. वात्सल्य उससे कम की अवधि के कारावास के साथ
- 21 वर्ष से कम उम्र का अभियुक्त
जिसका कोई पूर्व दोष सिद्ध नहीं हुआ हो एक दंडनीय अपराध का दोषी है
1. मौत के साथ
2. आजीवन कारावास के साथ
15.अपील संदर्भ और पुनरीक्षण की शक्ति का प्रयोग करने के लिए रिकार्ड के दौरान जमानत:-(sec.389crpc)395 397) :-
अपीली अदालत अपील की लंबित अवधि के दौरान आरोपी व्यक्ति को जमानत पर रिहा कर सकती है|
16.संज्ञेय अपराध में गिरफ्तारी की आवश्यकता होने पर जमानत (sec .421 (A))
crpc की धारा 41 के अनुसार संजय मामलों में किसी व्यक्ति को बिना कोर्ट के वारंट के गिरफ्तार करने के लिए पुलिस अधिकृत है।
17.नाम और पते के दावे पर जमानत:-(sec.42 of crpc)
असंज्ञेय अपराध करने के आरोपी व्यक्ति के नाम और पते का दावा करने पर पुलिस अधिकारी आवश्यकता पड़ने पर मजिस्ट्रेट के सामने पेश होने के लिए बॉन्ड भरवा सकते हैं।
18. निजी व्यक्ति द्वारा गिरफ्तार किए जाने पर नाम और पते के दावे पर जमानत (sec.43 of crpc):-
आरोपी द्वारा असली नाम और पता भी बताता है असंज्ञेय अपराध की दशा में तो उस पुलिस अधिकारी द्वारा रिहा किया जा सकता है।
19. जब जमानत के लिए पृष्ठांकन वाले वारंट के तहत गिरफ्तारी की गई:-(sec.71 of crpc)
जब कोई अदालत जमानत के लिए पृष्ठांकन वाला वारंट जारी करती है तो किस अधिकारी को वारंट का निष्पादन किया जाएगा।
20.त्रुटिपूर्ण साक्ष्य पर जमानत (sec.169 crpc) :-
जब जांच करने के बाद थाने के प्रभारी अधिकारी को यह प्रतीत हो कि अभियुक्त को न्यायालय के समक्ष पेश करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं है तो वह इस शर्त के साथ जमानत पर रिहा कर देगा कि जब भी mag.को आवश्यकता हो पेश हो mag. के सामने।
21.साक्ष्य प्राप्त होने पर मजिस्ट्रेट को भेजे जाने वाले मामलों में जमानत (Sec.170):-
जब जांच करने के बाद थाने के प्रभारी अधिकारियों को यह प्रतीत होता है कि आरोपी को अदालत में पेश करने के लिए पर्याप्त सबूत है अर्थात अपराध एक जमानती अपराध है तो वह उसे magistrate के सामने पेश होने की शर्त के साथ जमानत पर रिहा करेगा।
आधार जिन पर जमानत से इनकार किया जा सकता है:-
कई मामलों में जमानत देने और इनकार करने के कारणों और आधारों की अदालतों द्वारा व्यवस्था की गई है।
केस:- महाराष्ट्र राज्य v/s सीताराम पोपट वेताल
इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कई कारकों को ध्यान में रखा जाना बताया –
विचार, जमानत देने से पहले, अर्थात
- आरोप की प्रकृति और दोष सिद्धि के मामले में सजा की गंभीरता और समर्थन साक्ष्य की प्रकृति।
- गवाह के साथ छेड़छाड़ की उचित आशंका या शिकायतकर्ता को धमकी की आशंका।
- आरोप के समर्थन में न्यायालय की प्रथम दृष्टया संतुष्टि |
अदालतों द्वारा केवल तीन शर्तों के तहत जमानत से इनकार करना चाहिए:-
- अपराध के आरोपित व्यक्ति के भागने की संभावना है।
- आरोपी के साथ छेड़छाड़ की संभावना है या साक्ष्य या गवाहों को प्रभावित करना।
- जमानत मिलने पर व्यक्ति के वही अपराध दोहराने की संभावना है।
इन आधारों पर अदालतों द्वारा एसपी वाइटल मामले में दिए गए कार्यों का मूल्यांकन करके विचार किया जाना चाहिए।
भारत में जमानत प्रावधान (bails provisions in India):-
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 ‘जमानत’ शब्द को परिभाषित नहीं करती है हालांकि, न्यायिक व्याख्या के माध्यम से जमानत के अर्थ पर थोड़ी स्पष्टता प्रदान करने का प्रयास किया गया है माननीय मद्रास उच्च न्यायालय के अनुसार,
केस:- नट्टूरासु बनाम राज्य,( 1998) की. एल.जे. 1762),
इस मामले में कहा गया है कि जमानत एक निश्चित अपराध के आरोपी की रिहाई की प्रक्रिया को अदालत में उसकी भविष्य की सुनवाई की उपस्थिति सुनिश्चित करके और उसे न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में रहने के लिए बाध्य करने की प्रक्रिया को दर्शाता है।
केस- निकेश ताराचंद शाह बनाम भारत संघ
किसी भी स्वतंत्र व्यक्ति को जब्त या कैद या उसके अधिकारों या संपत्ति से वंचित नहीं किया जाएगा ।जमानत का अनुदान दोषी साबित होने तक निर्दोषता की धारणा के सिद्धांत के साथ सीधा संबंध है।
– मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनु.11 (1)में निहित अपराधिक कानून का एक मौलिक सिद्धांत है।
– धारा 436 से धारा 450 तक सीआरपीसी, अध्याय 33 जमानत और बांड से संबंधित कानूनों से संबंधित है | इनमें से महत्वपूर्ण सीआरपीसी की धारा 437 और 439 के प्रावधान है, जो मजिस्ट्रेट और सत्र और उच्च न्यायालय द्वारा नियमित जमानत देने का प्रावधान करते है। जो मजिस्ट्रेट और सत्र और उच्च न्यायालय द्वारा नियमित जमानत देने का प्रावधान करते हैं,और crpc की धारा 438 जो अनुदान देने से संबंधित प्रावधानों से संबंधित है या sec.438 को अग्रिम जमानत जो कि सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा दी जाती है।
भारत में न्यायालयों ने श्री गुरुबख्श सिंह सिब्बिया और अन्य बनाम पंजाब राज्य,AIR 1980 sc 1632) और निकेश ताराचंद शाह बनाम भारत संघ(AIR 2017 S.C.C 5500) इन मामलों में एक सिद्धांत दिया कि जमानत एक कानून है और इनकार एक अपवाद है।(grant of Bail is a law and denial is exception)
धारा 2(a) जमानतीय अपराध(bailablel offence) परिभाषा:-
जमानती अपराध से ऐसा अपराध अभिप्रेत है जो प्रथम अनुसूची में जमानतीय के रूप में दिखाया गया है या तत्समय प्रव्रत्त किसी अन्य विधि द्वारा जमानतीय बनाया गया है और “अजमानवीय अपराध” से कोई अन्य अपराध अभिप्रेत है।
जमानत नियम है, और जेल अपवाद है(“Bail is rule jail is Exception”):-
यह एक कानूनी सिद्धांत है जिसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने के एक ऐतिहासिक फैसले में निर्धारित किया था ;
केस :-राजस्थान राज्य बनाम बालचंद उर्फ बलिया (AIR 1977) 2447)
इस मामले में कानूनी सिद्धांत ,न्यायमूर्ति वी कृष्णा अय्यर द्वारा निर्धारित किया गया था जिन्होंने इसे भारत के संविधान द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकारों पर आधारित किया गया था |
एक बार अभियुक्त को न्यायिक हिरासत में भेजे जाने के बाद अभियोजन को जवाब दाखिल करने के लिए तीन दिनों से अधिक का समय नहीं दिया जाना चाहिए ।न्यायालयों को दायर करने से अधिकतम 7 दिनों की अवधि के भीतर नियमित जमानत आवेदन पर फैसला करना चाहिए ।दुख की बात है कि व्यवहार में यह देखा गया है कि आरोपी अपनी जमानत अर्जी के निपटारे के इंतजार में महीना जेलों में बंद रहता है।
“जमानत एक नियम है और जेल एक अपवाद है” कि सिद्धांत का कोई मतलब नहीं होगा यदि अदालत में प्राथमिकता के आधार पर और समय बद्ध तरीकों से जमानत आवेदनों का फैसला नहीं करती है। अफसोस की बात है कि एक आम आदमी के लिए जमानत हासिल करना एक कठिन बात है। एक बार प्राथमिकी दर्ज होने के बाद, एक व्यक्ति और उसके शुभचिंतकों को आरोपी की जमानत के लिए दर-दर भटकना पड़ता है एक आम आदमी का जीवन अदालत और प्रक्रिया के इर्द-गिर्द घूमता है।
जमानत न्याय शास्त्र में सुधार(Reforms in Bail jurisprudence ):-
विधि आयोग ने जमानत न्यायालय के विभिन्न क्षेत्रों में सुधार के लिए सिफारिशें की है ;
- गिरफ्तारी की प्रक्रिया पर चर्चा की गई अपनी पहली सिफारिश में विधि आयोग ने कहा कि मनमाने गिरफ्तारी को रोकने के लिए धारा 41 वें संशोधन दिया जाना चाहिए आयोग का सुझाव है कि गिरफ्तारी करने से पहले धारा 41 में जाँच अधिकारी के लिए केस डायरी और दैनिक डायरी रजिस्टर में कारणों को दर्ज करना अनिवार्य कर देना चाहिए यह कदम मनमाने ढंग से गिरफ्तारयों की प्रथा को रोकने में मददगार साबित होंगे।
- इसमें धारा 50 में संशोधन की सिफारिश की गई ।यह धारा गिरफ्तार करने वाले अधिकारी को गिरफ्तारी के आधार के बारे में लिखित रूप में सूचित करने के लिए कहती है, हालांकि गिरफ्तार व्यक्ति को जिस भाषा में नोटिस दिया जाता है वह जरूरी नहीं है कि गिरफ्तार व्यक्ति के लिए समझना आसान हो, इसलिए आयोग अनुशंसा करता है कि लेखन की भाषा येसी हो जो गिरफ्तार व्यक्ति को आसानी से समझ में आ जाए।
- तीसरी सिफारिश जो रिमांड जमानत पर है ।आयोग मुख्य रूप से सीआरपीसी की दो धाराओं में अंतर्निहत समस्याओं पर चर्चा करता है। यह धारा 101की अंतर्निहित जटिलताओं की समस्याओं को बताता है।
केस:- पंजाब राज्यv/s मेहर सिंह और अन्य:-
इस मामले न्यायालय ने यह पाया कि मजिस्ट्रेट के विशेष आदेश के अभाव में, जांच पूरी न होना किसी आरोपी व्यक्ति को हिरासत में लेने के लिए पर्याप्त कारण नहीं माना जाता है। यह कदम गिरफ्तार करने वाले अधिकारियों द्वारा मनमानी गिरफ्तारी की शक्ति की भी जांच करेगा।
भारतीय जमानत प्रणाली के साथ समस्याएं (problems with the Indian bail system):-
केस :-नरसिम्हुलु बनाम लोक अभियोजक के प्रसिद्ध मामले में,
न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने टिप्पणी की है कि जमानत का विषय धुंधले लोगों का है जो अपराधिक न्याय प्रणाली का है और काफी हद तक बेंच पर टिका है। अन्यथा न्यायिक विवेक कहा जाता है।
- यह अनिवार्य है कि विवेक का प्रयोग सावधानी से किया जाना चाहिए और न्याय और व्यक्तियों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता दोनों के हितों को संतुलित करके लागू किया जाना चाहिए। यह मनमाना, अस्पष्ट और काल्पनिक नहीं होना चाहिए, बल्कि कानूनी और नियमित होना चाहिए।
- विवेक का प्रयोग करने में मनमानी की हालिया प्रवृत्ति न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने में एक गंभीर समस्या है। हाई प्रोफाइल व्यक्तियों से जुड़े मामलों में, मामलों की विशालता पर विचार किए बिना जमानत दी जाती है। यह लोग सब आजाद होते हैं जब इनसे प्रभावित लोग अन्याय का शिकार होते हैं।
- यह भारत सहित अधिकांश न्यायालयों में एक विचलन की तुलना में एक आदर्श बन गया है कि शक्तिशाली, अमीर और प्रभावशाली लोग तुरंत और आसानी से जमानत प्राप्त करते हैं जबकि आम/गरीब जेलों में रहते हैं।
- जमानत प्रणाली में एक और बड़ी समस्या अदालत द्वारा निर्धारित जमानत बांड की राशि है। किसी व्यक्ति की आर्थिक और वित्तीय स्थिति और अदालत द्वारा जमानत की राशि के संबंध में निर्णय लेने से पहले विचार किया जाना चाहिए।
- विधि आयोग की रिपोर्ट में आंकड़ों के विश्लेषण से यह देखा जा सकता है कि विचाराधीन कैदियों में से अधिकांश यानी 70. 6% निरक्षर या अर्ध निरक्षर है जो स्वराज आर्थिक पृष्ठभूमि का सूचक है।
- वे गरीबी और निरक्षरता के दुश्चक्र में फंस गए हैं और साथ ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा के अपने अधिकार का लगातार उल्लंघन कर रहे हैं ऐसा प्रतीत होता है कि अभियुक्त व्यक्ति की आर्थिक स्थिति पूर्व-परीक्षण रिहाई देने के लिए निर्णायक कारक बन गई है।
निष्कर्ष (conclusion):-
जमानत का प्रावधान अपराधिक कानून न्याय शास्त्र के तहत संरक्षित किए जाने वाले हितो को संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने में सावधानी बरतनी चाहिए कि विवेक अपने स्वयं के उद्देश्य को विफल नहीं करता है। व्यक्तियों की स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण है और अदालतों को समानता, अच्छे विवेक और न्याय के मूल्यों को ध्यान में रखते हुए या तो जमानत देनी चाहिए या अस्वीकार करना चाहिए।अनुच्छेद – 21 के तहत संवैधानिक व्यवस्था में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अत्यधिक महत्व है। संविधान में निर्दिष्ट विचारों पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित होना चाहिए।
जमानत का न्यायशास्त्र कुछ मूलभूत और सिद्धांतों का पालन करता है। जमानत देने की प्रथा के पीछे आसन्न दर्शन यह सुनिश्चित करना है कि जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा की जाए। जमानत न्यायशास्त्र विभिन्न सिद्धांतों पर आधारित है। लेकिन अगर कोई प्रावधान हो सकता है जो जमानत को खारिज करने के मामले में अदालत के समक्ष व्यक्तिगत प्रतिनिधित्व के आरोपी की स्वतंत्रता की रक्षा करने की एक बड़ी पहल होगी अभियुक्तों को जमानत देने में देरी खासकर यदि वे निर्दोष हैं न केवल एक व्यक्ति के हित को प्रभावित करते हैं बल्कि इसका व्यापक रूप से समाज के कल्याण पर प्रभाव पड़ता है।
समाज के आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए जमानत प्रक्रियाओं को बिना किसी देरी और औपचारिकताओं को पूरा किया जाना चाहिए, जो अन्यथा उनके मौलिक अधिकारों का घोर उल्लंघन होगा।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता में एक आरोपी को जेल में अनुचित नजरबंदी से बचाने के लिए पर्याप्त प्रावधान है, लेकिन कई आरोपी जो जमानत के हकदार हैं, वह वर्षों से जेल में है। इसलिए किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को सुरक्षित करने के लिए न केवल कानून आवश्यक है, बल्कि उनका सफल कार्यान्वयन भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
जमानत यह सुनिश्चित करने के लिए एक महत्वपूर्ण जांच और संतुलन है कि दोषी साबित होने तक किसी भी निर्दोष व्यक्ति को दंडित नहीं किया जाता है। लेकिन देश की आपराधिक कानून व्यवस्था में जमानत की जटिल व्यवस्था अकसर इसकी सराहना करने में विफल रहती है। जमानत देना या इनकार करना उन कारकों पर निर्भर करता है जो मामले की योग्यता से दूर से जुड़े हैं| जमानत सुधारों पर विधि आयोग की 268 भी रिपोर्ट में की गई सिफारिशें महत्वपूर्ण है और उन्हें लागू किया जाना चाहिए ताकि हमारी अपराधिक कानून प्रणाली में जमानत की एक निष्पक्ष और पारदर्शी प्रणाली विकसित हो सके।
Case laws:-
केस:- रुकमणी महतो v/s झारखंड राज्य (2017) 15 s.c.c 574)
इस मामले में ,माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम जमानत के दुरुपयोग के एक ऐसे उदाहरण को मान्यता दी है इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने सुपीरियर कोर्ट की अंतरिम गिरफ्तारी पूर्व जमानत के आधार पर नियमित जमानत देकर अधीनस्थ न्यायालय की प्रथा को खारिज कर दिया।
केस:- निरंजन सिंह बनाम प्रभाकर राजाराम खरोटे और गुरूबख्श सिंह v/s पंजाब राज्य,( 1980)
इस मामले में माननीय, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों पर भरोसा करते हुए माननीय उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया, उन्हें धारा 439 crpc के तहत जमानत नहीं दी जा सकती है।
केस:- पंजाब राज्य बनाम दविंदर पाल सिंह भुल्लर (2011) 14 s.c.c 770)
इस मामले में,माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 482 crpc के तहत उच्च न्यायालय की शक्ति का सहारा नहीं लिया जा सकता है। जब पीड़ित पक्ष की शिकायत को दूर करने के लिए कानून के तहत स्पष्ट प्रावधान हो या जहां कोई वैकल्पिक उपाय उपलब्ध हो।
केस:- सावित्री गोयका v/s कुसुमलता दमानी, (2007 14 s.c.c 373)
इस मामले में माननीय न्यायालय ने धारा 482 के अनुसार अनुरोध की धारा 438 और 439 के अनुसार परिवर्तित करने की प्रक्रिया को दृढ़ता से अस्वीकार कर दिया।
केस:- राजस्थान राज्य v/s रविशंकर श्रीवास्तव(2011 )s.c.c 632)
इस मामले में,कहा गया है कि धारा 482 Crpc के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए अभियोजन गिरफ्तारी,जांच ,आदि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता एक ऐसा अधिकार है जिसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है।
केस:- राजस्थान राज्य v/s बालचंद
इस मामले में,न्यायमूर्ति क्रष्ण अय्यर ने भारत में असमान जमानत योजना का मुद्दा पहली बार उठाया इस मामले पर पुनर्विचार का प्रस्ताव रखा।
केस:- मोतीराम और अन्य v/s म. प्र.
न्यायमूर्ति अय्यर के ऐतिहासिक फैसले ने यह निर्धारित किया कि न्यायाधीश जेल के बजाय जमानत के लिए अधिक इच्छुक होंगे। न्यायालय ने व्यक्तिगत अधिकारों सार्वजनिक व्यवस्था के बीच संतुलन की आवश्यकता को संबोधित किया।
केस:- अर्नेश कुमार v/s बिहार राज्य
इस मामले में गिरफ्तारी के शक्ति के संबंध में यह माना गया कि ऐसे सभी मामले जिनमें अपराध के लिए,
कारावास की सजा 7 साल तक हो सकती है चाहे जुर्माने के साथ या बिना, पुलिस अधिकारी के मनमाने ढंग से आरोपी को हिरासत में नहीं लेंगे मजिस्ट्रेट आकस्मिक और यांत्रिक हिरासत की अनुमति नहीं देंगे।
केस:- मेनका गांधी v/s यूनियन
इस मामले में,जस्टिस कृष्णा अय्यर ने एक बार फिर भारत में मौजूद अन्य पूर्ण जमानत योजना के खिलाफ आवाज उठाई।संहिता में जमानत की परिभाषा नहीं थी, हालांकि अपराधों को जमानती और गैर जमानती के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
केस:- हुसैनारा खातून v/s होम सेक्रेट्री ऑफ़ बिहार राज्य
इस मामले में, न्यायालय ने यह अनुपात स्थापित किया कि यदि व्यक्ति उस सजा से अधिक अवधि के लिए जेल में है जिसके लिए वह उत्तरदाई है तो उसे रिहा कर दिया जाना चाहिए।
केस:- ए. आर. अंतुले v/s आर.एंड. नायक
इस केस में अनुच्छेद – 21 के अंदर त्वरित विचारण निहित है एक मौलिक अधिकार के रूप में और हुसैनारा खातून के केस में यही बात बोली गई है कि त्वरित विचारण तो s.c.ने थोड़ा सा दायरा बढ़ा दिया और कहा कि अभियुक्त व्यक्ति अपनी शर्ते पूरी कर रहा है तो अनुच्छेद 21 त्वरित विचारण का एक मुद्दा लेके वो जमानत पाने आ सकता है।
संदर्भ:-
- https://districts.ecourts.gov.in/sites/default
- https://blog.ipleaders.in/
- R.V. Kelkar’s Criminal Procedure
- CODE OF CRIMINAL PROCEDURE- S. N. Mishra