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भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता | Independence of Judiciary in hindi

भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता

 परिचय (introduction):-

“हमारे लोकतंत्र का आधार कानून का शासन है और इसका मतलब है कि हमारे पास एक स्वतंत्र न्यायपालिका होनी चाहिए जिससे न्यायधीश राजनीतिक हवाओं से स्वतंत्र निर्णय ले सकते हैं।”

न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के केंद्रीय तत्वों में से एक है यह एक अनूठी विशेषता है जो भारत को अन्य देशों से अलग करती है। केवल एक निष्पक्ष और स्वतंत्र न्यायपालिका ही व्यक्तियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक कवच के रूप में खड़ी हो सकती है। और बिना किसी भय और पक्षपात के न्याय भी कर सकती है। न्यायपालिका संविधान की रक्षक है और इस तरह, उसे केंद्र और राज्यों के कार्यकारी, प्रशासनिक और विधायी कृत्यो को रद्द करना पड़ सकता है। कानून का शासन कायम रहने के लिए, न्यायिक स्वतंत्रता की प्रमुख आवश्यकता है इस प्रकार एक स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली को लोकतंत्र के सुचारू रूप से संचालन के लिए अनिवार्य माना जाता था और दुनिया के सभी प्रमुख लोकतंत्र इस जरूरत पर बार-बार जोर देते हैं।

“न्याय का स्थान एक पवित्र स्थान है, और इसलिए न केवल बेंच, बल्कि पैर की जगह और परिसर और उद्देश्य को बिना किसी घोटाले और भ्रष्टाचार के संरक्षित किया जाना चाहिए- “फ्रांसिस बेकन”

ऐतिहासिक पहलू (Historical Aspect):-   

पहले राजनीतिक, दार्शनिक जिन्होंने स्वतंत्र न्यायपालिका के विचार को प्रतिपादित किया, वह थे फ्रांसीसी दार्शनिक मोटेस्क्यू। वह सरकार की तीनों शाखाओं -विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत में विश्वास करते थे। अमेरिकी संविधान के जनक उनके सिद्धांत से बहुत प्रभावित थे। इसलिए उन्होंने अमेरिकी लोगों में एक स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना की।  उन्हें विश्वास है कि यदि न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कोई बंधन रखा जाता है, तो लोगों के अधिकार और स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएंगे।

यूके में, हालांकि, संसद सर्वोच्च है। वहां की न्यायपालिका को विधायिका से अलग नहीं किया जा सकता है। वास्तव में वहां, हाउस ऑफ लोर्डस, अपील के सर्वोच्च न्यायालय के रूप में कार्य करता है। यधपि यूके में न्यायपालिका स्वतंत्र या सर्वोच्च नहीं रही है। फिर भी इसके न्यायधीश अपने सामने आने वाले मामलों पर बिना किसी भय या पक्ष के निर्णय देते रहे हैं वे अपने निर्णयों में स्वतंत्र और निष्पक्ष रहे हैं। न्यायपालिका की स्वतंत्रता की अवधारणा को इंग्लैंड में विकसित होने में समय लगा और 1701 से पहले न्यायधीश टाउन के प्रसादपर्यन्त पद धारण करते थे और उन्हें संसद की इच्छा द्वारा बर्खास्त भी किया जा सकता था। इस प्रकार, न्यायाधीश कार्यपालिका के अधीन थे। न्यायपालिका की स्वतंत्रता की संकल्पना इंग्लैंड से ली गई है। सन 1616 में न्यायधीश कोक को उनके पद से (किंग बेंच के मुख्य न्यायाधीश) पदच्युत किया गया था।

इस समय न्यायाधीश अपने पद को सम्राट के प्रसादपर्यन्त धारण करते थे और सम्राट के अन्य कर्मचारियों के समान थे। वे सम्राट की इच्छा से पद से हटाए जा सकते थे, इसलिए न्यायधीश कार्यपालिका के अधीन थे। न्यायालय स्वतंत्रता इंग्लैंड में न्यायिक सेटलमेंट एक्ट, 1701 द्वारा संरक्षित थी। आजीवन पद की सुरक्षा की स्थिति ने न्यायालय की स्वतंत्रता को स्थापित किया।

एक स्वतंत्र तथा निष्पक्ष कार्यपालिका ही नागरिकों के अधिकारों की संरक्षिका हो सकती है तथा बिना भय तथा पक्षपात के सबको समान् न्याय प्रदान कर सकती है। संविधान निर्माता न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर प्रतिबद्ध थे इसलिए इसे बनाए रखने के लिए उन्होंने संविधान में अनेक उपबंध कायम किए हैं।

यूके में न्यायपालिका अपने संबंधित विधायिकाओं द्वारा पारित कानून को असंवैधानिक घोषित करने के लिए सक्षम नहीं है। लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत में, न्यायपालिका को न्यायिक समीक्षा की शक्ति प्रदान की गई है। वे विधायिका द्वारा पारित कानून को असंवैधानिक मान सकते हैं और उसे रद्द कर सकते हैं भारत में, सर्वोच्च न्यायालय किसी कानून को तभी रद्द करता है जब वह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ:-

न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है कि सरकार के अन्य दो अंग विधायिका और कार्यपालिका, न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप न करके उनके कार्यों में किसी भी प्रकार की बाधा न पहुंचाए ताकि वह अपना कार्य सही ढंग से करे और निष्पक्ष रूप से न्याय कर सके।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का आधार स्तंभ है। इसमें तीन आवश्यक शर्तें  निहित है –

  1. न्यायपालिका को सरकार के अन्य दो अंगो- विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों में किसी प्रकार की बाधा न पहुंचाए ताकि वह ठीक ढंग से न्याय कर सके।
  2. सरकार के अन्य अंग न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप न करें।
  3. न्यायधीश बिना भय या भेदभाव के अपना कार्य कर सके।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता या उत्तरदायित्व का आभाव नहीं है। न्यायपालिका देश की लोकतांत्रिक ,राजनीतिक संरचना का एक हिस्सा है। न्यायपालिका देश के संविधान, लोकतांत्रिक परंपरा और जनता के लिए जवाबदेह है|

संघात्मक सरकार में संघ और राज्यों के मध्य विवादों के समाधान और संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखने का दायित्व कार्यपालिका पर ही होता है। इसके साथ-साथ उस पर मूल अधिकारों के संरक्षण का भी दायित्व होता है। इसके लिए न्यायपालिका का स्वतंत्र एवं निष्पक्ष होना अति आवश्यक है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता कोई नई अवधारणा नहीं है लेकिन इसका अर्थ अभी भी स्पष्ट नहीं है अवधारणा का प्रारंभिक और केंद्रीय बिंदु स्पष्ट रूप से शक्तियों का पृथक्करण है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता की आवश्यकता:-

हर समाज में व्यक्तियों के बीच, समूहों के बीच और व्यक्ति समूह तथा सरकारों के बीच विवाद उठते हैं। इन सभी विवादों को कानून के शासन के सिद्धांत के आधार पर एक स्वतंत्र संस्था द्वारा हल किया जाना चाहिए। कानून के शासन का भाव यह है कि धनी और गरीब स्त्री और पुरुष तथा अगड़े और पिछड़े सभी लोगों पर एक समान कानून लागू हो। न्यायपालिका की प्रमुख भूमिका यह है कि वह कानून के शासन की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करें। न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है, विवादों को कानून के अनुसार हल करती है और यह सुनिश्चित करती है कि लोकतंत्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न चले। इसके लिए जरूरी है कि न्यायपालिका किसी भी राजनीतिक दबाव से मुक्त हो| व्यक्तियों और समाज के हितों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता होती है।

 न्यायपालिका की स्वतंत्रता का उद्देश्य:-

न्यायिक स्वतंत्रता का उद्देश्य निष्पक्ष लोकतंत्र को बनाए रखना। न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अंतर्निहित उद्देश्य यह है कि न्यायाधीशों को किसी अन्य कारक से प्रभावित, कानून के अनुसार उनके समक्ष विवाद का फैसला करने में सक्षम होना चाहिए। इस कारण से न्यायपालिका की स्वतंत्रता प्रत्येक न्यायाधीश की स्वतंत्रता।

स्वतंत्र न्यायपालिका का महत्व या लाभ:-

स्वतंत्र न्यायपालिका का महत्व इन तथ्यों के आधार पर स्पष्ट होता है-

1. नागरिकों की स्वतंत्रता एवं अधिकारों की रक्षा–

स्वतंत्र न्यायपालिका ही नागरिकों की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों की रक्षा करती है। संविधान में नागरिकों को 6 प्रकार के मौलिक अधिकार दिए गए हैं जिन पर यदि कोई प्रतिबंध लगाने का प्रयत्न करता है तो न्यायपालिका उसे दंडित करने का प्रावधान कर सकती है।

2. निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति:-

न्यायपालिका को अपने कार्य के संपादन के लिए स्वतंत्र होना आवश्यक है।उसके कार्यों में व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

3 .लोकतंत्र की सुरक्षा:-

लोकतंत्र के अनिवार्य तत्व स्वतंत्रता और समानता है। अतः नागरिकों को स्वतंत्रता और समानता के अवसर तभी मिलेंगे जब न्यायपालिका निष्पक्षता के साथ अपने कार्य का संपादन करेगी।

4. संविधान की सुरक्षा:-

स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान की रक्षक होती है न्यायपालिका संविधान विरोधी कानूनों को अवैध घोषित करके रद्द कर सकती है।

5. व्यवस्थापिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण:-

स्वतंत्र न्यायपालिका व्यवस्थापिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण रखकर शासन की कार्यकुशलता में वृद्धि कर सकती है

6. कानून/ विधि के शासन को कायम रखता है। जो एक लोकतांत्रिक सरकार के लिए अपरिहार्य है।

7. यह वॉच डॉग के रूप में कार्य करती है और जांच करता है कि क्या कार्यपालिका और विधायिका एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण किए बिना ठीक से काम कर रही है।

8 . केवल स्वतंत्र न्यायपालिका अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा कर सकती है।

9 .स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखती है।

न्यायपालिका संक्रमणकालीन न्याय पहल जैसे सुलह, पुनर्वास और पुनर्निर्माण और मानवाधिकारों के लिए सम्मान सुनिश्चित करने, दंड से मुक्ति का मुकाबला करने, कानून के शासन में विश्वास की भावना पैदा करने से राज्य संस्था की प्रभावशीलता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता:-

एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों की संरक्षिका हो सकती है तथा बिना भय तथा पक्षपात के सब को समान् न्याय प्रदान कर सकती है।- हालांकि भारत में, संविधान में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है लेकिन न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के विभिन्न प्रावधानों के पक्षों में निहित है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता और कानून का शासन संविधान की बुनियादी विशेषताएं हैं और इसे संवैधानिक  संशोधनों द्वारा भी समाप्त नहीं किया जा सकता है जैसा कि-

केस :- एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (AIR 1982) s.c. 140)

इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देखा गया है भारत के संविधान की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि यह भारत में न्यायपालिका को एक सम्मानजनक और महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करता है।भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए विविध उपकरणों को अपनाता है, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की स्वतंत्र स्थिति सुनिश्चित करने के लिए विस्तृत प्रावधान मौजूद है:-

  1. सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को पहले शपथ लेनी होगी कि वह बिना किसी डर, पक्षपात, स्नेह, दुर्भावना के अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से पालन करेंगे और भारत के संविधान और कानूनों की रक्षा करेंगे। इस शपथ में संवैधानिक संप्रभुता के सिद्धांत की मान्यता निहित है।
  2. न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को भी सुनिश्चित करती है।
  3. संविधान न्यायाधीशों के कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान करता है। उन्हें राष्ट्रपति द्वारा मनमाने ढंग से हटाया नहीं जा सकता है। उन्हें महाभियोग द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है।
  4. न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते भारत की संचित निधि पर प्रभारित किया जाता है और इनके वेतन एवं भत्तों की इनके कार्यकाल के दौरान कम नहीं किया जा सकता है सिवाय अनु. 360 (वित्तीय आपातकाल) के तहत।
  5. कार्यपालिका या विधायिका द्वारा न्यायाधीशों की गतिविधियों को छोड़कर उनके निष्कासन के मामले में चर्चा नहीं की जा सकती है।
  6. उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष और उच्च न्यायालयों के लिए 62 वर्ष है।
  7. कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण- अनु. 50 राज्यों को निर्देश देता है कि राज्य लोक- सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने का प्रयास करेगा। न्यायपालिका का कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त रहना उसकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता के लिए अत्यंत आवश्यक है।
  8. न्यायाधीशों की पदाविधि की संरक्षा।
  9. किसी न्यायाधीश के अपने कर्तव्य पालन में किए गए आचरण पर संसद में चर्चा पर प्रतिषेध है।
  10. संविधान का अनु. 129 उच्चतम न्यायालय को और अनु. 215 उच्च न्यायालय को अपने अवमान के लिए किसी भी व्यक्ति को दंड देने की शक्ति प्रदान करता है।
  11. संसद उच्चतम न्यायालय की शक्ति और अधिकारिता को बढ़ा सकती ; किंतु कम नहीं कर सकती।

संवैधानिक उपबंध:-

भारतीय संविधान का भाग 5 का अध्याय 4 एवं भाग 6 का अध्याय 5 संघ की न्यायपालिका अर्थात् उच्चतम न्यायालय एवं राज्यों के उच्च न्यायालयों के बारे में बात करता है।

 भाग 5 का अध्याय 4 (अनु. 124 से अनु. 147) तक है भाग 6 का अध्याय 5 (अनु. 214 से अनु. 231) तक है और भाग 6 का अध्याय 6 अधीनस्थ न्यायालयों की बात करता है जो कि अनु. 233 से अनु. 237 तक है |

उच्चतम न्यायालय की स्थापना और गठन (अनु. 124 ) –

अनु. 124(1)के तहत मूल संविधान में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या एक मुख्य न्यायमूर्ति और संसद विधि द्वारा अधिक संख्या तय नहीं करती तब तक 7 से अनअधिक अन्य न्यायाधीश होंगे तथा सन् 2019 में उच्चतम न्यायालय संशोधन (न्यायाधीश संख्या) अधिनियम 2019 द्वारा इस संख्या को बढ़ाकर 33 कर दिया गया है। इस प्रकार वर्तमान में मुख्य न्यायमूर्ति को मिलाकर कुल न्याय मूर्तियों की संख्या 34 है।

न्यायाधीशों की नियुक्ति (अनु. 124 (2)) –

अनु.124 (2) के अनुसार उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता था। किंतु इस मामले में राष्ट्रपति को कोई वैवेकिक(discretionary)शक्ति नहीं प्राप्त थी। अनु.124 (2)यह प्रावधानित करता था कि राष्ट्रपति न्यायाधीशों की नियुक्ति उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात जिनसे इस प्रयोजन के लिए वह आवश्यक समझे, ही करेगा और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति सर्वदा मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से कर सकता था।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (अनु. 124 (A) ) :-

  1. भारत का मुख्य न्यायमूर्ति (CJI)- अध्यक्ष पदेन
  2. भारत के मुख्य न्यायमूर्ति के ठीक नीचे के उच्चतम न्यायालय में दो अन्य ज्येष्ठ न्यायधीश – सदस्य प्रदेश
  3. संघ का निधि और न्याय का भारसाधक मंत्री- सदस्य
  4. प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायमूर्ति और लोकसभा में विपक्ष के नेता या जहां ऐसा कोई विपक्ष का नेता नहीं है, वहां लोकसभा में सबसे बड़ा एकल विपक्षी दल के नेता से मिलकर बनने वाली समिति द्वारा नाम निर्दिष्ट किए जाने वाले दो व्यक्ति सदस्य होंगे।
  • अनु.125 – न्यायाधीशों के वेतन आदि। 
  • अनु.127 – तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति।

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की योग्यताएं ( अन.124 (3)):-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह किसी उच्च न्यायालय में कम से कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश रह चुका हो अथवा वह एक या अधिक उच्च न्यायालयों में लगातार कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका हो।
  3. वह राष्ट्रपति की दृष्टि में एक पारंगत विधिवेक्ता हो।

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का कार्यकाल (अनु.124) (2):-

उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीश (मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीश) 65 वर्ष की आयु तक अपना पद धारण करते हैं।

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को पद से हटाया जाना ( अनु. 124 (4) –

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पद से हटाना काफी कठिन है अनु 124 (4) के अनुसार,

उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसके पद से तब तक नहीं हटाया जाएगा जब तक साबित कदाचार (misbehaviour) या असमर्थता(incapacity) के आधार पर ऐसे हटाए जाने के लिए संसद के प्रत्येक सदन द्वारा अपनी कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित समावेदन, राष्ट्रपति के समक्ष उसी सत्र में रखे जाने पर राष्ट्रपति ने आदेश नहीं दे दिया है।

अनु. 129 – उच्चतम न्यायालय अभिलेख न्यायालय (court of record) होगा और उसको अपने अवमान के लिए दंड देने की शक्ति सहित ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियां होंगी।

अनु. 131 से 134 तक सर्वोच्च न्यायालय की अधिकारिता की बात की गई।

अनु. 143 उच्चतम न्यायालय से परामर्श करने की राष्ट्रपति की शक्ति।

भाग 6 अध्याय- 5 राज्यों के उच्च न्यायालय:-

अनु. 214- प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय होगा वर्तमान में उच्च न्यायालयों की संख्या 24 है।

अनु. 215- प्रत्येक उच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अपने अवमान के लिए दंड देने की शक्ति सहित ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियां होंगी। 

अनु. 216- H.C. का गठन– प्रत्येक उच्च न्यायालय मुख्य न्यायमूर्ति और ऐसे अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनेगा जिन्हें राष्ट्रपति समय-समय पर नियुक्त करना आवश्यक समझे।

अनु. 217उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति और उसके पद की शर्तें:-

अनु 217( 1)राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा। और वह न्यायाधीश ऊपर या कार्यकारी न्यायाधीश की दशा में अनु. 224 में उपबंधित रूप में धारण करेगा और किसी अन्य दशा में तब तक पद धारण करेगा जब तक वह बासठ (62) वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेता है|

परंतु–           

(क) कोई न्यायधीश राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा।

(ख) किसी न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने की अनु. 124 (4) में उपबंधित रीति से उसके पद से राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है।

अनु. 217 (2) उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए योग्यताएं:-

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. भारत के राज्य क्षेत्र में कम से कम 10 वर्ष तक न्यायिक पद धारण कर चुका है या
  3. किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम 10 वर्ष अधिवक्ता रहा है

अनु. 219- उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा शपथ या प्रतिज्ञान

अनु. 221- न्यायाधीशों के वेतन आदि।

अनु. 222- किसी न्यायाधीश का एक उच्च न्यायालय से दूसरे न्यायालय को अंतरण।

अनु. 225 से 227 तक उच्च न्यायालयों की अधिकारिता।

 भाग 6 का अध्याय 6- अधीनस्थ न्यायालय- जो कि अनु. 233 से अनु. 237 तक है।

अनु. 233(1) जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति:-

किसी राज्य में  जिला न्यायाधीश नियुक्त होने वाले व्यक्तियों की नियुक्ति तथा जिला न्यायाधीश की पदस्थापना और पदोन्नति उस राज्य का राज्यपाल ऐसे राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय से परामर्श करके करेगा।

न्यायपालिका की शक्ति :-

1. संवैधानिक कानून की व्याख्या:-

भारत में व्यवस्थापिका द्वारा बनाए गए नियमों एवं कानून की व्याख्या करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को है।

2. भौतिक अधिकारों की सुरक्षा:-

संविधान के भाग 3 में 6 प्रकार के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का कार्य भी न्यायालय द्वारा किया जाता है।

3. परामर्श संबंधी कार्य:-

न्यायपालिका परामर्श देने का भी कार्य करती है हमारे देश का उच्चतम न्यायालय आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रपति को कानूनी मामलों में परामर्श दे सकता है लेकिन राष्ट्रपति उसके परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

4. संविधान की संरक्षिका:-

लिखित संविधान वाले देशों में न्यायपालिका संविधान की संरक्षक होती है। विधायिका द्वारा पारित ऐसा कानून जो संविधान के विरुद्ध हो, न्यायपालिका द्वारा अवैध घोषित किया जा सकता है।

5. रिटे/लेख जारी करना:-

सामान्य नागरिकों या सरकारी अधिकारियों द्वारा जब अनुचित या अनधिकृत कार्य किया जाता है तो न्यायालय उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए पांच प्रकार की रिटें जारी कर सकता है।

Case laws:

केस :-एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ और अन्य ( ए. आई. आर. 1982)एस. सी. 149.

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि न्यायाधीशों को निडर होना चाहिए और उनको राजनीतिक या आर्थिक शक्ति के सामने सख्त होना चाहिए और उन्हें विधि के शासन के मूल सिद्धांत को बनाए रखना चाहिए।

केस :-सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (1993)4 एस.सी.सी. 441)

इस मामले न्यायालय ने कहा कि लोकतंत्र के प्रभावी ढंग से कार्य करने के लिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता आवश्यक है। न्यायालय ने कहा कि जब एक न्यायपालिका वास्तव में विधायिका और कार्यपालिका दोनों से अलग रहती है तब तक लोगों की सामान्य शक्ति को किसी भी तरह से खतरे में नहीं डाला जा सकता|

केस :-लोकनाथ तोलाराम बनाम बी.एन. रंगमानी (ए.आई. आर. 1975)एस. सी. 279)

न्यायधीश स्थानांतरण’ के मामलों में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान का “आधारभूत ढांचा” है।

केस :-“इंन दा जज केस” (S.P. gupta v/s union of इंडिया (AIR 1982 s.c. 149)

इस मामले में यह माना गया था कि उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति पर निर्णय लेने की अंतिम शक्ति केंद्र सरकार के पास है, ना कि सी.जे. आई. के पास और आगे कहा कि अनुच्छेद -124 और अनुच्छेद -217 के तहत परामर्श शब्द का अर्थ ‘सहमति’ नहीं था और राष्ट्रपति परामर्श मानने के लिए बाध्य नहीं है।

केस :- भारत संघ बनाम सांकल चंद्र,[ए. आई. आर. 1977 )ए.सी. 2328]

इस मामले में अनु. 222 में प्रयुक्त शब्दावली ‘परामर्श’ के निर्वाचन का प्रश्न उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचारार्थ आया। और यही शब्द अनु. 124 में भी प्रयुक्त हुआ है। यह मामला गुजरात न्यायालय के एक न्यायाधीश के दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानांतरण से संबंधित था।

न्यायालय ने निर्णय दिया कि स्थानांतरण में संबंधित न्यायधीश की सहमति की आवश्यकता नहीं है। किंतु यह भी कहा कि राष्ट्रपति इस शक्ति का प्रयोग भारत के मुख्य न्यायमूर्ति के ‘परामर्श’ से करने के लिए बाध्य है न्यायालय ने कहा कि परामर्श प्रभावी होना चाहिए। केवल शिष्टाचार नहीं। किंतु अंत में कहा कि ‘परामर्श’ लेने के लिए बाध्य है, मानने के लिए नहीं ।

केस :- इन दा सेकंड जज केस [एस.सी. एडवोकेट्स ऑन रिकार्ड्स v/s भारत संघ(1993)]

इस मामले में प्रथम जज केस के मामले को कॉलेजियम के निर्माण से उलट दिया गया था जिसमें मुख्य न्यायमूर्ति को न्यायिक नियुक्तियों में प्राथमिक भूमिका दी गई थी।

केस :- इन दा थर्ड जज केस [in re presidential reference case] (1999)

इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 1993 के फैसले की पुष्टि करते हुए एक सर्वसम्मत निर्णय दिया। और यह निर्णय दिया कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में 4 वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह से परामर्श से करके ही राष्ट्रपति को भारत के मुख्य न्यायमूर्ति अपनी सिफारिश भेजेगा।

केस :- ऑल इंडिया जजेस एसोसिएशन बनाम भारत संघ (ए. आई. आर. 1993) s.c. 2493]

इस मामले में बेंच ने कहा कि वे (न्यायाधीश) राज्य के राष्ट्रपति/राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करने वाले राज्य के कर्मचारी नहीं है, जैसा भी मामला हो चाहे।

केस :- इन. सी. रामचंद्रन अय्यर बनाम ए. एन. भट्टाचार्जी (1995)

इस मामले में स्थानीय बार एसोसिएशन ने जज पर इस्तीफा देने का दबाव डाला। s.c. ने माना कि केवल s.c. के मुख्य न्यायाधीश ही दोषी न्यायाधीशों के खिलाफ कार्यवाही का मुख्य प्रस्तावक हो सकते हैं। इस प्रकार इस मामले के बाद, न्यायपालिका की आंतरिक प्रक्रियाओं के माध्यम से ही न्यायाधीशों के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति दी गई थी।

केस :- के वीरास्वामी बनाम भारत संघ [(1991) 3 s.c.c. 855:1991 s.c.c.] (cri)

सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों को बैंच ने माना कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज पर अपराधिक कदाचार के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है और उन्हें दोषी ठहराया जा सकता है।

केस :- सब कमेटी ऑन ज्यूडिशियल v/s भारत संघ और अन्य [1991 AIR )1598]

इस मामले में कहा गया कि अनुच्छेद- 121 एक सामान्य नियम है जिसे संसद में S.C. या H.C.के न्यायधीश के आचरण के बारे में चर्चा को रोकने के लिए बनाया गया है।

केस :- ओम प्रकाश जायसवाल v/s  डी.के. मित्तल [AIR 2000 )s.c. 1136]

एक स्वतंत्र न्यायपालिका की उपलब्धता और ऐसा माहौल जिसमें न्यायधीश समाज में सभ्यता के अस्तित्व के स्रोत में स्वतंत्र और निडर होकर कार्य कर सके। तथा न्यायालय द्वारा जारी रिट का पालन किया जाना चाहिए।

न्यायिक स्वतंत्रता एवं चुनौतियां:-

उच्चतम न्यायालय की स्थिति बहुत मजबूत है और इससे उसकी स्वतंत्रता पर्याप्त रूप से संरक्षित है लेकिन कुछ ऐसे नुकसानदायक प्रवृतियां है जो इसकी स्वतंत्रता को आघात पहुंचा रही हैं:-

  1. सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की प्रति नियुक्ति
  2. न्यायाधीशों की न्यायालय में नियुक्ति और स्थानांतरण में राजनीतिक प्रभाव
  3. वादों का लंबित होना
  4. न्यायाधीशों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप
  5. पदच्युती की प्रक्रिया की प्रभावहीनता
  6. न्यायाधीशों पर हमले

1. सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के प्रति नियुक्ति:-

यह न्यायिक स्वतंत्रता के लिए बड़े खतरे की बात है कि न्यायपालिका के सेवानिवृत्त न्यायाधीश सरकार के अधीन किसी पर नियोजित होने की कोशिश करते रहते हैं। जबकि संविधानिक सभा ने इस प्रवृत्ति को रोकने की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली भारतीय विधि आयोग ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को आयोग एवं समितियों के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किए जाने की वर्तमान प्रथा के संकटों के बारे में संकेत करते हुए इसे शीघ्रतम समाप्त करने की सरकार से सिफारिश की है।

2. न्यायाधीशों की न्यायालय में नियुक्ति और स्थानांतरण में राजनीतिक प्रभाव:-

नियुक्ति प्रक्रिया अनुचित रूप से नियुक्ति अधिकारियों के राजनीतिक या व्यक्तिगत हितों से प्रभावित हो सकती है। इस जोखिम से बचने के लिए, यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि प्रक्रियाएं पारदर्शी, उद्देश्य पूर्ण और गैर भेदभाव पूर्ण हो।

3. वादों का लंबित होना:-

वादों का लंबित होना एक अन्य गंभीर समस्या है 2.5 करोड़ से अधिक वाद न्यायालय के सामने लंबित है तथा लगभग 25,000 वाद अब तक उच्चतम न्यायालय के सामने लंबित है जबकि लोकहित वादों के कारण भारतीय विधान में विस्फोटक वृद्धि हुई है, जिसका कारण विधायिका, कार्यपालिका की असमर्थता, जनसंख्या में वृद्धि और आर्थिक वृद्धि आदि है।

4. न्यायधीशों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप:-

वर्तमान समय में कुछ तात्कालिक घटना हुई है जिसमें कुछ उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के जजों के ऊपर अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए हैं। इसने न्यायालय की स्वतंत्रता को आघात पहुंचाया है तथा आम लोगों के विश्वास को तोड़ने का प्रयास किया है।

कुछ आरोप कर्नाटक उच्चतम न्यायालय के जजों के विरुद्ध सेक्स स्कैंडल के लिप्त होने के लिए लगाए गए हैं तथा पंजाब पब्लिक सर्विस कमीशन घोटाले में जजों का शामिल होना, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगदीश भल्ला के विरुद्ध भ्रष्टाचार का आरोप आदि कुछ उदाहरण है जो इस जो यह दर्शित करते हैं कि  H.C.और S.C. एक ऐसे वातावरण से गुजर रहे हैं जिससे उचित सुधार की अत्यंत आवश्यकता है।

5. पदच्युती की प्रक्रिया की प्रभावहींनता :-

अनु- 124(4)और (5 ) भी न्यायालय की स्वतंत्रता के विरुद्ध है क्योंकि यह पदच्युति की प्रक्रिया को अत्यंत जटिल बना देता है, जिससे भ्रष्ट न्यायाधीश किसी भी प्रकार के अभियोग से नहीं डरते हैं। न्यायाधीश रामास्वामी के विरुद्ध उन्हें हटाने का प्रस्ताव लोकसभा में अपेक्षित विशेष बहुमत से पारित नहीं किया जा सका क्योंकि कांग्रेस दल ने मतदान में भाग नहीं लिया था यह एक उदाहरण है जो यह दिखाता है कि ‘यहां सविधान में कोई ऐसा व्यवहारिक प्रावधान नहीं है जिससे दोषी को सजा मिल सके।

6. न्यायाधीशों पर हमले (attacks on judges):-

न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए न्यायाधीशों पर धमकी और हमले चिंता का विषय है। झारखंड में हाल ही में एक जज की हत्या, जजों की सुरक्षा पर प्रकाश डालती है निष्पक्ष तरीके से निर्णय देने के लिए न्यायाधीशों की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए।

प्रसंगिक निर्णय जहां भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता को चुनौती दी गई है:-

इस दुनिया में कोई भी परफेक्ट नहीं है, तो न्यायपालिका पूरी तरह से स्वतंत्र कैसे हो सकती है भारत में भी, न्यायिक स्वतंत्रता को विभिन्न अदालती फैसलों में चुनौती दी गई है।हालांकि, इससे पहले इसे सही ठहराने के लिए, भारत में संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के प्रावधानों का उल्लेख किया है लेकिन न्यायाधीशों का चयन करते समय अंतिम अनुमोदन, भारत के राष्ट्रपति के परामर्श से होता है इनमें से कुछ कोर्ट निर्णय है।

राफेल सौदा मामला (2015):-

इस मामले में, जब मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया जहां वादियो ने सौदे में अनियमितता का आरोप लगाया। कोर्ट ने भ्रष्टाचार के आरोपों को इस आधार पर खारिज कर दिया कि इसमें न्यायिक समीक्षा की गुंजाइश कम है। कोर्ट का यह फैसला विवादास्पद साबित हुआ क्योंकि सरकार ने कहा कि फैसले में कुछ तथात्मक त्रुटियां थी। इसमें नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट और संसदीय लेखा समिति की रिपोर्ट को सरकार द्वारा न्यायालय को प्रस्तुत की गई थी और उन्हें गलत करार दिया गया था कोर्ट ने मेरिट के आधार पर याचिकाओं की समीक्षा करने का फैसला किया, इसलिए विषय को बंद कर दिया।

भीमा कोरेगांव मामला:-

2018, में भीमा कोरेगांव युद्ध की द्विशताब्दी वर्षगांठ का जश्न हिंसा के कारण बाधित हो गया, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई और कई व्यक्ति घायल हो गए पुलिस ने जांच की और कई कार्यकर्ताओं को यह दावा करते हुए गिरफ्तार किया कि उनके द्वारा भड़काऊ भाषण दिए गए थे जो अंततः हिंसा का कारण बने। वादियों ने आरोप लगाया कि मुंबई पुलिस उनके खिलाफ फैसले में पक्षपाती है। तब मामला s.c. गया जिसने 2 अनुपात के बहुमत से खारिज कर दिया। जबकि भारत के दो न्यायाधीश, मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति खानमिलकर मुंबई पुलिस द्वारा की जांच से संतुष्ट थे जबकि न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ नहीं थे उन्होंने आरोप लगाया कि गिरफ्तारी राजनीतिक असंतोष को लंबित करके की गई थी।

सी.बी.आई. आलोक वर्मा मामला :-

इस मामले में फैसले में देरी हुई। सरकार ने C.B.I. निदेशक आलोक वर्मा को उनकी सारी शक्तियों से वंचित कर दिया था, इसके लिए दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना आधि. के तहत एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति से मंजूरी की जरूरत थी। C.B.I. पर S.C. ने भ्रष्टाचार के आरोपों के विवरण की जांच की बहाली का आदेश तब दिया गया जब श्री वर्मा के कार्यकाल में केवल 3 सप्ताह शेष थे। इसलिए इस ने एक बार फिर आलोचना उठाई।

आधार अधिनियम एक धन विधेयक मामले के रूप में:-

इस मामले में मुद्दा यह था कि क्या 2016 में आधार आधिनियम को धन विधेयक के रूप में पारित किया गया था। अदालत ने माना कि यह बहुमत के साथ फिर से एक धन विधेयक था धन विधेयक का उपयोग अनुच्छे 110 के अनुसार केवल केंद्र सरकार द्वारा खर्च और धन प्राप्त करने से संबंधित सेवाओं पर किया जा सकता है इसलिए इस फैसले की आलोचना की न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने फैसले से असहमति जताते हुए इसे भारतीय संविधान के साथ धोखाधड़ी करार दिया।

सुझाव (Law suggestion are):-

  1. भारत में न्यायाधीशों को दिए जाने वाला वेतन अन्य देशों की तुलना में कम है, जो एक मजबूत कारण है कि न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद भी नौकरियों की तलाश करते हैं।
  2. एक ऐसा कानून लागू करने की आवश्यकता है जो यह सुनिश्चित करें कि न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद भी नौकरी न मिले। इससे न्यायालयों के कामकाज में थोड़ा अनुशासन और विश्वसनीयता सुनिश्चित होगी।
  3. कार्यपालिका और विधायिका से न्यायपालिका का पृथक्करण।
  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण में पारदर्शिता होना चाहिए। (न्यायाधीश बनने वाला कोई भी नहीं) एक वकील के रूप में अनुभव के बिना।
  2. न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि।
  3. न्यायाधीशों के कार्यकाल की अवधि 65 वर्ष की आयु से बढ़कर और ज्यादा होनी चाहिए।

निष्कर्ष (conclusion):-

भारत के संविधान ने बिना किसी डर या पक्षपात, स्नेह, या दुर्भावना के अपने सर्वोपरि प्रावधानों को लागू करने के लिए एक लोकतांत्रिक गणराज्य का निर्माण किया है जहां तक न्यायपालिका की संस्था का संबंध है, न्यायपालिका की स्वतंत्रता एक प्रमुख स्थान रखती है।

न्यायालयों ने हमेशा न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने की कोशिश की है और हमेशा कहा है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारत के संविधान की एक बुनियादी विशेषता है। अदालतों ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारत के संविधान के सुचारू संचालन और विधि के शासन पर आधारित एक लोकतांत्रिक समाज की प्राप्ति के लिए पूर्व -आवश्यकता है।

निष्पक्ष न्याय के उद्देश्य से न्यायपालिका की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है। न्यायिक कार्यवाहीओं में विधायिका या कार्यपालिका का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए ताकि यह उचित रूप से, उचित प्रतीत होने वाला निर्णय पारित कर सके न्यायधीश लोगों को निष्पक्ष न्याय दिलाने का अभूतपूर्व कार्य करते हैं। 

न्यायपालिका की स्वतंत्रता एक अंतिम उपाय संस्था के रूप में जनता का विश्वास सुनिश्चित करती है। जहां किसी भी विरोध या प्रभाव के बावजूद न्याय दिया जाएगा।

प्रत्येक व्यक्तिगत न्यायाधीश की स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार की रक्षा करती है कि उनका मामला पूरी तरह से कानून साक्ष्य और तथ्यों के आधार पर बिना किसी अनुचित प्रभाव के तय किया जाए । न्याय के निष्पक्ष, सुसंगत और तटस्थ प्रशासन के लिए एक अच्छी तरह से काम करने वाली, कुशल और स्वतंत्र न्यायपालिका एक आवश्यक आवश्यकता है न्यायिक स्वतंत्रता, उचित प्रक्रिया के अधिकार, विधि के शासन और लोकतंत्र का एक अनिवार्य तत्व है एक कहावत है कि “शक्ति सत्ता भ्रष्ट करती है, और पूर्ण शक्ति बिल्कुल भ्रष्ट करती है।” (“power tends to corrupt, and absolute power corrupts absolutely.”)- Lord Action”

References:-

  1. भारत का संविधान – जे .एन .पाण्डेय
  2. न्यायिक प्रक्रिया – डॉ .जी .पी .त्रिपाठी
  3. http://legalserviceindia.com
  4. http://www.lilmh.com|paper|independence.of.judiciary.in.india