भागीदारी तथा सह स्वामित्व के मध्य अन्तर
केस – चंपारन केन कंसर्न बनाम बिहार राज्य, ए.आई.आर॰1965 एस॰सी॰1737
इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने भागीदारी तथा सह स्वामित्व में निम्नलिखित अन्तर बताया है-
भागीदारी तथा सह स्वामित्व के मध्य अन्तर –
भागीदारी | सह स्वामित्व |
---|---|
(1) भागीदारी सदैव करार द्वारा ही उत्पन्न होती है | सह स्वामित्व आवश्यक रूप से करार द्वारा उत्पन्न नहीं होता है। सह-स्वामित्व अन्य तरह से भी उत्पन्न हो सकता है। |
(2) एक भागीदार अन्य भागीदारों की सहमति के बिना अपना हित किसी अजनबी के हाथ अन्तरित नहीं कर सकता हैअर्थात् अजनबी अन्तरिती अन्य भागीदारों की सहमति के बिना भागीदार नहीं बन सकता दूसरी ओर | एक सह-स्वामी अन्य सह-स्वामियों की सहमति के बिना अपना हित अन्तरित कर सकता है अर्थात् अन्तरिती को सह-स्वामी बना सकता है। |
(3) भागीदारों में, एक भागीदार अन्य भागीदारों का अभिकर्ता होता है | एक सह-स्वामी अन्य सह-स्वामियों का अभिकर्ता नहीं होता है। |
(4) भागीदारों में आवश्यक रूप से लाभ या हानि होती है | सह-स्वामित्व में आवश्यक रूप से लाभ या हानि नहीं होती है। |
(5) भागीदार तथा सह स्वामित्व में एक अन्तर उपचार सम्बन्धी होता है। भागीदारी के मामले में उपचार विघटन तथा लेखा के लिए वाद किया जा सकता है। | सह- स्वामित्व के मामले में संयुक्त सम्पत्ति के बँटवारे के लिए वाद किया जा सकता है। |
उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि जहाँ स्वामियों द्वारा नियुक्त सामान्य प्रबन्धक सह-स्वामियों के मध्य लाभों का विभाजन करता है, उसके तथा सह-स्वामियों के मध्य भागीदारी उत्पन्न होती है। इसी प्रकार यदि दो व्यक्ति संयुक्त रूप से एक चाय की दुकान खरीदते है तथा उसे एक तीसरे व्यक्ति को किराये पर देते हैं तथा किराये को अनुपात में परस्पर बाँट लेते हैं, वह उक्त चाय की दुकान के भागीदार नहीं वरन् सह स्वामी होंगे केवल लाभों का विभाजन करने से सह स्वामी भागीदार नहीं हो सकते| भागीदारी के लिए एक कारबार का होना आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त, यह आवश्यक है कि कारवार सभी भागीदारों या उनमें से किसी एक द्वारा सबके लिए चलाया जाय। दूसरे शब्दों में पारस्परिक एजेन्सी का तत्व होना आवश्यक होता है। भागीदारी में एक भागीदार अन्य भागीदारों का अभिकर्ता होता है।
भागीदारी के लिए निम्नलिखित आवश्यक तत्व उपस्थित होने चाहिये-
(क) करार
(ख) कारवार,
(ग) लाभों का विभाजन तथा
(घ) पारस्परिक एजेन्सी।
इसके अतिरिक्त बहुत कुछ पक्षकारों के आशय पर निर्भर करता है ।
भारतीय दण्ड संहिता के लिए महत्वपूर्ण पुस्तकें –
- भारतीय दंड संहिता,1860 – प्रो सूर्य नारायण मिश्र
- भारतीय दंड संहिता, 1860 – डॉ. बसंती लाल
- भारतीय दण्ड संहिता ( DIGLOT) [ENGLISH/HINDI] [BARE ACT]