विक्रय का उद्देश्य –
विक्रय का उद्देश्य एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को माल में की सम्पत्ति अन्तरित करना होता है। माल विक्रय विधि क्रेताओं तथा विक्रेताओं के अधिकारों, दायित्वों, दावों तथा आशाओं को संतुलित करने का प्रयास करती है। माल विक्रय अधिनियम, 1930 अंग्रेजी माल विक्रय अधिनियम, 1893 पर आधारित है। माल विक्रय अधिनियम, 1930 की धारा 4 (1) में दी गई ‘विक्रय’ की परिभाषा अंग्रेजी अधिनियम, 1893 को धारा 3(1) के समान है। जहाँ एक ओर संविदा अधिनियम, 1872 में धाराओं के साथ दृष्टान्त दिये गये हैं जिससे विधि सरल तथा स्पष्ट हो जाय, जबकि माल विक्रय अधिनियम में दृष्टान्त नहीं दिये गये,
विक्रय की संविदा (contract of sale)
हमारे जीवन के विभिन्न संव्यवहारों में क्रय-विक्रय अधिक प्रचलित एवं महत्वपूर्ण है। हम अपनी आवश्यकताओं की कई वस्तुयें हमेशा खरीदते और बेचते हैं। सामान्यतः यह संव्यवहार कीमत देकर माल प्राप्त करने के रूप में होता है।
विक्रय की परिभाषा- जब विक्रय की गई वस्तु में निहित सम्पत्ति अथवा स्वत्व उस वस्तु की कीमत का भुगतान किये जाने पर विक्रेता से क्रेता को अन्तरित हो जाती है तो उसे विक्रय कहा जाता है।
उदाहरण-‘क’, ‘ख’ को 100 टीन सरसों का तेल (Mustard Oil) विक्रय करने की संविदा करता है। निर्धारित तिथि को ‘ख’, ‘क’ को तेल की कीमत का भुगतान कर देता है और ‘क’ भी ‘ख’ को तेल के टीनों का परिदान कर देता है। यह विक्रय है।
विक्रय का संव्यवहार पूर्ण होने से पूर्व सामान्यतः विक्रय की संविदा अस्तित्व में आती है। जब संविदा में की शर्त पूरी हो जाती है तो वह विक्रय पूर्ण मान लिया जाता है।
विक्रय की संविदा की परिभाषा (Definition of contract of sale)
माल विक्रय अधिनियम, 1930 की धारा 4 (1) में विक्रय की संविदा की परिभाष इस प्रकार दी गयी है- “”माल के विक्रय की संविदा एक ऐसी संविदा होती है जिसके द्वारा विक्रेता माल में की संपत्ति क्रेता को क़ीमत पर अन्तरित करता है या अन्तरित करने का करार करता है।”
इस प्रकार विक्रय की संविदा के अन्तर्गत दो बातें आती हैं-
1. वस्तु की कीमत प्राप्त कर उसे तत्काल क्रेता को अन्तरित कर देना; अथवा
2. भविष्य में अन्तरित करने का वचन देना।
विक्रय की संविदा के आवश्यक तत्व (essential elements of contract of sale)
(1) दो पक्षकार एक विक्रेता तथा दूसरा क्रेता – यह विक्रय की संविदा का सर्वप्रथम आवश्यक तत्व होता है कि सामान्यतया इसमें दो पक्षकार होते हैं-एक विक्रेता तथा दूसरा क्रेता। विक्रेता तथा क्रेता भित्र- भिन्न व्यक्ति होने चाहिये। यह इस सिद्धान्त पर आधारित है कि कोई व्यक्ति स्वयं अपनी वस्तुयें नहीं खरीद सकता है। उदाहरण –
केस – मेसर्स खेदुत सहकारी गिनिंग एण्ड प्रेसिंग सोसाइटी बनाम गुजरात राज्य (पी.सी.एस. 1983)
इस मामले में सहकारी संघ की उपविधि (bye-laws) के अन्तर्गत संघ के सदस्यों को रुई एकत्र (pool) करने तथा बेचने का अधिकार था। बेचने के पश्चात् संघ मूल्य या कीमत सदस्यों को दे देता था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि संघ द्वारा सदस्यों को रुई को एकत्र करना विक्रय नहीं था, क्योंकि यह सदस्यों का एजेण्ट था और कोई व्यक्ति स्वयं अपनी वस्तुयें नहीं खरीद सकता।
चूंकि कोई व्यक्ति स्वयं अपनी वस्तुएं नहीं खरीद सकता, परन्तु इस नियम के कुछ अपवाद हैं जो निम्नलिखित हैं-
(i) नीलाम विक्रय (Auction sale)- नीलाम विक्रय में विक्रेता बोली लगाने का अधिकार आरक्षित कर सकता है। अतः वह स्वयं अपनी वस्तु खरीद सकता है।
(ii) किसी डिक्री का निष्पादन (Execution of a decree)- जब किसी व्यक्ति की वस्तुएं उसके विरुद्ध किसी डिक्री के निष्पादन में बेची जा रही हैं, तो वह स्वयं उन्हें खरीद सकता है।
(iii) आंशिक स्वामियों के मध्य (Between part owners) – किसी माल का एक आंशिक स्वामी दूसरे आंशिक स्वामी से विक्रय की संविदा कर सकता है। इसी प्रकार, एक साझेदार दूसरे साझेदार के साथ तथा साझेदारी की फर्म साझेदार के साथ विक्रय की संविदा कर सकती है।
संक्षेप में विक्रय के चार आवश्यक तत्व होते हैं-
(1) पक्षकार संविदा करने के लिये सक्षम होने चाहिये,
(2) पारस्परिक सम्मति,
(3) माल में सम्पत्ति का अन्तरण तथा
(4) कीमत।
इन चार तत्वों का उल्लेख उच्चतम न्यायालय ने
केस – कॉफी बोर्ड, कर्नाटक, बंगलौर बनाम कमिश्नर आफ कामर्शियल टैक्सेज ए.आई.आर. 1988 एस .सी.1487
इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने विक्रय के चार आवश्यक तत्वों का वर्णन किया है।
इस वाद के तथ्य निम्नलिखित हैं- कॉफी अधिनियम, 1942 के अन्तर्गत कर्नाटक में कॉफी उत्पादकों की बाध्यता थी कि वह अपने क्षेत्र में जितनी कॉफी का उत्पादन करेंगे, वह उसे बोर्ड को बेचेंगे तथा बोर्ड की बाध्यता थी कि वह उक्त कॉफी निश्चित कीमत पर खरीदेगी। किसान कॉफी का उत्पादन करने के लिये बाध्य नहीं थे तथा बोर्ड कॉफी के गुण आदि के आधार पर क्रय करने से इन्कार कर सकता था।
कॉफी बोर्ड का तर्क था कि अधिनियम द्वारा किसानों के विक्रय करने के अधिकार समाप्त करना ‘अनिवार्य अर्जन’ (Compulsory acquisition) था न कि विक्रय। अतः कॉफी पर क्रय कर नहीं लगाया जा सकता। कर्नाटक उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने अवधारित किया कि विधि द्वारा नियन्त्रित विक्रयों में भी सहमति का तत्व विद्यमान होता है तथा यदि एक बार सहमति का तत्व है तो माल-विक्रय अधिनियम के अन्तर्गत ‘विक्रय होगा’ तथा उस पर क्रय या विक्रय कर लग सकता है।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विक्रय के चारों उपर्युक्त वर्णित आवश्यक तत्व प्रस्तुत संव्यवहार में उपस्थित हैं। न्यायालय ने एक पूर्व वाद, विष्णु एजेन्सीज (प्राइवेट) लि० बनाम कामर्शियल टैक्स आफिसर ए.आई.आर.1978एस.सी.449)का हवाला देते हुये कहा कि यदि कॉफी बोर्ड को देना अनिवार्य भी था तो भी विक्रय ही माना जायेगा। अधिनियम के अन्तर्गत संव्यवहारों में पारस्परिक सम्मति पूर्णतया अनुपस्थित नहीं है। कॉफी उत्पादकों को विकल्प है कि वह कॉफी उत्पाद व्यापार में आये अथवा नहीं। काफी उत्पादन अनिवार्य नहीं है। बोर्ड को भी अधिकार है कि यदि काफी निर्धारित स्तर की नहीं है तो वह उसे लेने से अस्वीकार कर सकता है। अधिनियम के अन्तर्गत कॉफी के मूल्य का भुगतान करने का भी प्रावधान है।
बोर्ड को काफी परिदान करने का कोई समय निर्धारित नहीं है। इन सब बातों से पारस्परिक सहमति का संकेत मिलता है। उच्च न्यायालय ने यह भी निर्णय दिया था कि बोर्ड द्वारा कॉफी उत्पादक को कीमत का भुगतान करना न तो प्रतिकर था तथा न ही अंशदान था। कीमत का भुगतान एक महत्वपूर्ण तत्व है जिससे पता चलता है कि संव्यवहार में पारस्परिक सहमति थी। उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि उच्च न्यायालय का मत सही है। अतः विक्रय कर अधिकारियों द्वारा कर लगाया जाना उचित था ।
विक्रय की संविदा के आवश्यक तत्व (Essential elements of Contract of Sale)
वैसे तो विक्रय की संविदा कोई भी व्यक्ति कर सकता है, लेकिन विधिक मान्यता की दृष्टि से इस पर कतिपय शर्तें अधिरोपित की गयी हैं, जिन्हें हम संविदा के आवश्यक तत्व भी कह सकते हैं, जो इस प्रकार हैं一
1. पक्षकारों का सक्षम होना (Parties competent to contract)–
विक्रय की विधिमान्य संविदा के लिए पक्षकारों का सक्षम (competent) होना आवश्यक है। संविदा अधिनियम की धारा 11 के अन्तर्गत निम्नांकित व्यक्तियों को संविदा करने के लिए सक्षम माना गया है-
(1) जो वयस्क है, अर्थात् जिसने अठारह वर्ष की आयु पूरी कर ली है, एवं
(2) जो स्वस्थचित्त है अर्थात् जो पागल, जड़ या उन्मत्त नहीं है तथा संविदा की प्रकृति एवं उसके परिणामों को समझने में समर्थ है।
2. स्वतंत्र सहमति होना (Free consent) –
स्वतंत्र सहमति तब कही जाती है जब वह सहमति निम्नांकित से प्रभावित न हो- (1) उत्पीड़न (Coercion), (2) असम्यक् असर (Undue influence), (3) कपट (Fraud), (4) मिथ्या व्यपदेशन (Misrepresentation), एवं (5) भूल (Mistake) ।
3. माल का अन्तरण (Transfer of goods)-
संविदा की तीसरी अनिवार्य शर्त है-
क) विक्रीत माल को क्रेता को तत्काल अन्तरित कर देना, या
ख) भविष्य में अन्तरित कर देने का वचन होना।
4. कीमत का भुगतान (Price of goods)-
माल की कीमत का भुगतान, जिसे ‘प्रतिफल’ (Consideration) भी कहा जाता है, विधिमान्य संविदा की एक अनिवार्य शर्त है। कीमत का भुगतान क्रेता द्वारा विक्रेता को किया जाता है।
विक्रय का करार (Agreement to Sell)
विक्रय को अनुबन्धों के अन्तर्गत सम्मिलित किया जा सकता है। इसका अभिप्राय यह है कि विक्रय का करार मात्र वर्तमान के लिए हो, यह आवश्यक नहीं है कि भावी माल के बारे में भी अनुबंध किया जा सकता है। यदि अनुबंध भावी माल के लिये किये जाते हैं तो वह मात्र करार के रूप में ही लागू किये जा सकते हैं। इसे विक्रय नहीं माना जा सकता है।
अधिनियम की धारा 4 (3) में उल्लिखित किया गया है कि “जब स्वत्व का अन्तरण –
(1) भविष्य में किसी समय होना होता है, या
(2) भविष्य में किसी शर्त के पूरा होने पर होना होता है, तो वह विक्रय का करार कहलाता है।”
विक्रय और विक्रय के करार में अन्तर (Difference between Sale and Agreement to Sell)
विक्रय की संविदा की परिभाषा धारा 4 (1) में दी गई है जिसमें विक्रय तथा विक्रय करने का करार दोनों शामिल हैं, परन्तु इन दोनों के अन्तर को धारा (3) में स्पष्ट किया गया है, जो निम्नलिखित हैं-
“जहाँ कि माल में की सम्पत्ति विक्रेता से क्रेता को विक्रय की संविदा के अधीन अन्तरित होतीं है, कां संविदा विक्रय कहलाती है, किन्तु जहां कि माल में की सम्पत्ति का अन्तरण किसी आगामी समय में क किसी ऐसी शर्त के अधीन होती है जो तत्पश्चात् पूरी की जानी है, वहां संविदा विक्रय करने का करार कहलाती है।”
विक्रय तथा विक्रय करने के करार में निम्नलिखित अन्तर होते हैं-
विक्रय(Sale) | विक्रय का करार(Agreement to Sell) |
---|---|
1.विक्रय में माल के स्वत्व का अन्तरण तुरन्त विक्रेता से क्रेता को हो जाता है। | 1.विक्रय के करार में माल के स्वत्व का अन्तरण या तो भविष्य में निर्धारित किसी तिथि को होता है या किसी शर्त के पूरा किए जाने पर होता है। |
2.विक्रय में जब माल के स्वत्व का अन्तरण क्रेता को हो जाता है तो वह उस माल का संपूर्ण संसार के लिए स्वामी हो जाता है। यह उसका ‘लोक लक्षी अधिकार’ (Right-in-rem) होता है। | 2.विक्रय के करार में क्रेता माल को विक्रेता से ही पाने का हकदार होता है। यह उसका ‘व्यक्तिलक्षी अधिकार'(Right-in-personam) होता है। |
3.विक्रय में संव्यवहार पूर्ण हो जाने के कारण वाद की प्रत्येक क्षति के लिए क्रेता उत्तरदायी होता है। | 3.विक्रय के करार में माल के स्वत्व का अन्तरण पूरा होने से पूर्व माल को कारित क्षति के लिए विक्रेता जिम्मेदार होता है। |
4.विक्रय की दशा में यदि क्रेता माल की कीमत का भुगतान नहीं करता है तो विक्रेता उसके विरुद्ध न्यायालय में वाद ला सकता है। | 4.विक्रयं के करार में जब माल का कब्जा क्रेता को परिदत्त नहीं किया जाता है तब क्रेता द्वारा विक्रेता का भुगतान नहीं किये जाने पर कीमत विक्रय को संविदा को समाप्त कर सकता है तथा क्रेता के विरुद्ध नुकसानी का वाद ला सकता है। |
5.विक्रय के संव्यवहार में माल यदि किसी तीसरे व्यक्ति के कब्जे में है तो क्रेता उस तीसरे व्यक्ति से भी माल पाने का हकदार होता है। | 5.विक्रय के करार में चूँकि माल का कब्जा अभी विक्रेता के पास ही रहता है, अतः क्रेता विक्रेता के विरुद्ध ही वाद ला सकता है। |
6.विक्रय एक निष्पादित (Executed) संविदा होती है। इसमें कुछ भी करना शेष नहीं रह जाता | 6.विक्रय का करार एक निष्पाद्य (Executory) संविदा होती है। इसमें संविदा की किसी शर्त का पूरा करना शेष रहता है। |
विक्रय का करार कब विक्रय कहलाता है? (When Agreement to sell becomes Sale?)
धारा 4 (4) के प्रावधानों के अनुसार-विक्रय करने का करार तब विक्रय हो जाता है जब वह समय बीत जाता है या वे शर्तें पूरी हो जाती हैं जिनके अध्यधीन माल में को सम्पत्ति अन्तरित होनी है।
उदाहरण (Illustration) – ‘क’, ‘ख’ को 100 टन चीनी 1500 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से बेचने की संविदा करता है। ‘ख’, ‘क’ की चीनी की कीमत का भुगतान कर देता है, फलस्वरूप ‘क’ भी ‘ख’ को चीनी का परिदान कर देता है। विक्रय पूर्ण हो जाता है।
लेकिन यदि ‘क’ यह शर्त रखता है कि चीनी का परिदान तभी किया जायेगा जब ख एक अमुक तिथि को कीमत का भुगतान कर देगा तो यह विक्रय का करार होगा।
संदर्भ- सूची:-
- डॉ. कैलाश रॉय – संविदा – II विशिष्ट संविदाएं (इलाहाबाद लॉ एजेंसी पब्लिकेशंस, 12 संस्करण 2014 पुर्नमुद्रित 2016)-
- संविदा विधि – II – डॉ. एस. के. कपूर