हिन्दू विधि की शाखाएं (school of hindu law in hindi)
परिचय (introduction) :-
जो भाष्य तथा निबंध लिखे गए, वे समस्त देश में सामान्य रूप से मान्य नहीं थे। कोई भाष्य एक क्षेत्र में मान्य था तो कोई दूसरे क्षेत्र में। इस प्रकार देश के विभिन्न क्षेत्र के भाष्यो एवं निबंधों से शासित होने के आधार पर हिंदू विधि में विभिन्न शाखाओं की स्थापना हुई।
केस – रूचे पुत्ती बनाम राजेंद्र (एआईआर 1839) 2 MI A 132।
इस मामले में हिंदू प्रिवी काउंसिल ने यह कहा था कि हिंदू विधि में भिन्न-भिन्न शाखाओं का जन्म भिन्न भिन्न प्रदेशों में प्रचलित प्रथाओं के कारण हुआ। स्मृतियों के भाष्यकार मूल कृतियों की व्याख्या करते समय स्थानीय प्रथाओं एवं रूढ़ियों का तिरस्कार नहीं कर सकते थे और उन्होंने इसीलिए स्थानी प्रथाओं को अपने भाष्यों में अधिग्रहण कर लिया है।जो इस प्रकार स्मृतिकारों ने भिन्न-भिन्न प्रदेशों में प्रचलित प्रथाओं तथा स्थानीय परिस्थितियों में विधि के सिद्धांतों को अपनी तरह से मोड़ने का सफल प्रयास किया जिसके परिणाम स्वरूप अनेक शाखाओं का जन्म हुआ।
विधि की शाखाओं की उत्पत्ति के विषय में रामानंद के वाद में प्रिवी काउंसिल ने ठीक ही कहा था कि हिंदू विधि की विभिन्न शाखाओं में विधि के दूरस्थ स्रोत एक ही हैं। जिस प्रणाली से इन शाखाओं का विकास हुआ, वह इस प्रकार प्रतीत होती है। जो कृतियां सार्वजनिक अथवा अति – सामान्य रूप से मान्य हुई, बाद में उन पर भाष्य के एक क्षेत्र में स्वीकार किए जाने और दूसरे क्षेत्र में अस्वीकार किए जाने के कारण परस्पर- विरोधी सिद्धांत वाली शाखाएं उत्पन्न हुई।
हिंदू विधि की शाखाएं:-
हिंदू विधि की शाखाएं मूल रूप से दो प्रकार की हैं:-
1) मिताक्षरा।
2) दायभाग।
दायभाग के सिद्धांत बंगाल में प्रचलित हैं तथा मिताक्षरा के सिद्धांत भारत के अन्य भागों में। मिताक्षरा विज्ञानेश्वर द्वारा लिखित भाष्य है जो 11वीं शताब्दी में की गई याज्ञवल्क्य स्मृति की व्याख्या है। दायभाग किसी संहिता विशेष पर आधारित नहीं है बरन सभी संहिताओं का निबंध होने का दावा करता है। दायभाग जीमूतवाहन की कृति है।
बंगाल के अतिरिक्त समस्त भारत में मिताक्षरा सबसे अधिक मान्य ग्रंथ है। दायभाग बंगाल में ही सर्वोपरि माना जाता है।
केस:-कलेक्टर ऑफ मदुरा बनाम मुट्टू रामलिंगम,(1868)12 M.I.A.397।
इस मामले में प्रिवी काउंसिल ने कहा कि हिन्दू विधि के अति प्राचीन स्रोत (स्मृतियां) समस्त शाखाओं में सामान्य है। जिस ढंग से इन शाखाओं का विकास हुआ वह भी इसी प्रकार का होगा।जो कार्य सामान्यता और सर्वविदित रूप में हुए भी वह कालांतर की व्याख्या ओं के विषय बन गए। टीकाकारों ने प्राचीन व्यवस्थाओं की टीका करते समय विभिन्न दृष्टिकोण अपनाया है। उनका यह दृष्टिकोण एक स्थान में स्वीकार हुआ है तो दूसरे स्थान पर वह अस्वीकृत भी हुआ है; अतएव इन विभिन्नताओं के कारण विधि की विभिन्न शाखाओं का जन्म हुआ।
1.मिताक्षरा( Mitakshara):-
- डॉक्टर यू .सी .सरकार ने अपनी पुस्तक”हिंदू लॉ” मैं यह लिखा है कि मिताक्षरा ना केवल एक भाष्य है वरन वह स्मृतियों पर प्रकार का निबंध है जो 11वीं शताब्दी के अंत में अथवा 12 वीं शताब्दी के प्रारंभ में लिखा गया था |
- यह सर्वश्रेष्ठ विधि शास्त्री ,आंध्र प्रदेश का निवासी विज्ञानेश्वर द्वारा लिखित याज्ञवल्क्य स्मृति पर आधारित एक उच्च कोटि का भाष्य है, जो हिंदू विधि की एक शाखा का संस्थापक है।
- यह शाखा बंगाल और असम को छोड़कर लगभग सारे देश के हिंदुओं पर लागू होती है।आज की स्थिति यह है कि यह शाखा बंगाल में भी उन विषयों पर जिनकी दायभाग में विवेचना नहीं की गई है वहां मिताक्षरा को ही मान्यता प्रदान किया जाता है।
- यह जीमूतवाहन से लगभग 300 वर्ष पूर्व की रचना है। जीमूतवाहन ने दायभाग भाष्य की रचना मिताक्षरा मैं प्रतिपादित उत्तराधिकार की निकटस्थता के नियम के विरोध में किया था और उन्होंने इस नियम की परिमितता के संज्ञान में पारलौकिक प्रलाभ के आधार पर उत्तराधिकार का नियम प्रतिपादित किया।
मिताक्षरा विधि की उपशाखाएं:-
मिताक्षरा विधि की शाखा पांच उपशाखाओ में विभाजित हुई हैं। इन उपशाखाओ का जन्म दत्तक ग्रहण तथा दाय के संबंध में परस्पर मतभेद होने के कारण हुआ।
- बनारस शाखा।
- मिथिला शाखा।
- द्रविड़ अथवा मद्रास शाखा।
- महाराष्ट्र अथवा मुंबई शाखा।
- पंजाब शाखा।
(1) बनारस शाखा:-
पंजाब तथा मिथिला को छोड़कर यह शाखा समस्त उत्तरी भारत में व्याप्त हैं जिसमें उड़ीसा और मध्य प्रदेश भी सम्मिलित है।इस शाखा में निम्नलिखित भष्यो को मान्यता प्रदान की जाती है:-
( 1) मिताक्षरा,(2) मित्रमिश्र द्वारा लिखित वीर मित्रोंदय,(3) दस्तक मीमांसा, (4) निर्णय सिंधु, (5) विवाद तांडव, (6) सुबोधिनी, (7) बाल भट्टी।
(2) मिथिला शाखा :-
केस :- सुरेंद्र बनाम हरिप्रसाद (221 आइ .ए.418)।
प्रिवी काउंसिल ने इस बात का समर्थन किया कि यह शाखा तिरहुत तथा उत्तरी बिहार में प्रचलित है। कुछ विषयों को छोड़कर इस शाखा की विधि मिताक्षरा की विधि है।
(3) द्रविड़ अथवा मद्रास शाखा :-
समस्त मद्रास में हिंदू विधि की मद्रास शाखा प्रचलित है। पहले यह शाखा तमिल ,कर्नाटक तथा आंध्र उप शाखाओं में विभाजित थी।इस शाखा में निम्नलिखित कृतियों को मान्यता दी जाती है:- मिताक्षरा, माधवाचार्य द्वारा लिखित पराशरमाधवीय, वीरमित्रोदय, व्यवहार- निर्णय, दत्तक चंद्रिका, दाय-विभाग, माधवी, निर्णय- सिंधु, नारद- राज्य, विवाद -तांडव आदि।
(4) महाराष्ट्र अथवा मुंबई शाखा-
यह शाखा समस्त मुंबई प्रदेश मैं प्रचलित है जिसमें गुजरात, कनारा तथा वे प्रदेश प्रचलित है जहां मराठी बोली जाती है।इस शाखा में निम्नलिखित ग्रंथ है- मिताक्षरा, नीलकंठ -लिखित व्यवहारमयूख, वीरमित्रोंदय, निर्णय सिंधु, पराशरमाधव्य ,विवाद तांडव।
(5) पंजाब शाखा :-
यह शाखा पूर्वी पंजाब वाले प्रदेश में प्रचलित है। इस शाखा में प्रथाओं को प्रमुख स्थान प्रदान किया जाता है। इस शाखा में निम्नलिखित प्रमाण मान्य है :- मिताक्षरा, वीरमित्रोंदय, पंजाबी प्रथाएं।
दायभाग (Dayabhag) :-
- जीमूत वाहन द्वारा रचित ‘दायभाग ‘बंगाल में एक प्रमुख मान्य और प्राधिकृत ग्रंथ माना जाता है।
- यह विधि बंगाल तथा असम के कुछ हिस्सों में लागू होती हैं। ‘दाय’ का अर्थ होता है ‘उत्तराधिकार’ तथा ‘भाग’ का अर्थ है ‘बटवारा’।
- दायभाग किसी स्मृति विशेष पर टीका का नहीं है बल्कि सभी स्मृतियों का निबंध है। यह विधि जीमूत वाहन के ग्रंथ दायभाग पर आधारित है।
- इस शाखा की प्रमुख प्रामाणिक कृतियां हैं:- (1)दायभाग , (2)रघुनंदन द्वारा लिखित दायतत्व ,(3) श्रीकृष्ण तरकालंकार द्वारा लिखित दायक्रमसंग्रह,( 4) वीरमित्रोंदय,( 5) दत्तक-चंद्रिका।
हिंदू विधि की मिताक्षरा और दायभाग शाखाओं में अंतर:-
मिताक्षरा | दायभाग | |
1 संयुक्त संपत्ति के बारे में | मिताक्षरा शाखा में पुत्र का पिता की पैतृक संपत्ति में जन्म से ही अधिकार होता है। पुत्र पिता के साथ सह स्वामी होता है। संपत्ति के हस्तांतरण करने का पिता का अधिकार उसके पुत्र के अधिकार के कारण नियंत्रित होता है। एक के मरने के बाद संयुक्त परिवार का दूसरा उसके अंश को उत्तरजीविता से प्राप्त करता है।
हिंदू उत्तराधिकार( संशोधन) अधिनियम 2005 के द्वारा मिताक्षरा सहदायिक की पुत्री को सहदयिक की हैसियत प्रदान की गई है और उत्तरजीविता का सिद्धांत पूर्णरूपेण समाप्त कर दिया गया। | दायभाग शाखा में पुत्र का पिता की संपत्ति में अधिकार पिता की मृत्यु के पश्चात उत्पन्न होता है। पिता का अपने जीवन काल में संपत्ति पर परम अधिकार होता है, पुत्र का उससे से कोई संबंध नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति का अंश उसकी मृत्यु पर दाय के रूप में उसके दयादों को प्राप्त होता है । उत्तरजीविता का नियम यहां लागू नहीं होता। |
2. हस्तांतरण के संबंध में | संयुक्त परिवार के सदस्य संयुक्त संपत्ति में अपने अंश को तब तक हस्तांतरित नहीं कर सकते जब तक वह अविभक्त है। | संयुक्त परिवार का कोई भी सदस्य अविभक्त संपत्ति में अपने अंश को हस्तांतरित कर सकता है। |
3. उत्तराधिकार के संबंध में | उत्तराधिकार का सिद्धांत रक्त संबंध है लेकिन बंधु की अपेक्षा गोत्र गोत्रज को अधिक महत्व दिया जाता है। | उत्तराधिकार का सिद्धांत आध्यात्मिक प्रलभ अथवा पिंड दान देने के आधार पर निर्धारित किया जाता है। |
4. दाय के संबंध में | दाय का सिद्धांत रक्त पर आधारित है। | दाय पारलौकिक लाभ प्राप्त कराने के सिद्धांत पर आधारित हैं, अर्थात दाय वे प्राप्त कर सकते हैं जो मृतक को पिंड दान दे सके। |
5. फैक्टम वैलट का सिद्धांत | यह सिद्धांत मिताक्षरा पद्धति में सीमित रूप में माना गया है। | फैक्टम वैलेट का सिद्धांत दायभाग में पूर्ण रूप से माना गया है। |
6. | सजातियों की अपेक्षा निकट संबंधी को उत्तराधिकार के मामले में अधिक महत्व दिया जाता है। | दायभाग समस्त संहिता का एक सार संग्रह है। |
7. | मिताक्षरा एक टीका है। | दायभाग संशोधित पद्धति है। |
संदर्भ :-
- हिन्दू विधि – यू .पी . डी . केसरी- हिन्दू विधि की शाखाएं
- हिन्दू विधि की शाखाएं- livelaw.in
- हिन्दू विधि की शाखाएं- wikipedia
- हिन्दू विधि की शाखाएं
इसे भी पढ़े :- दांपत्य अधिकारों का पुनर्स्थापन क्या है? | Restitution of conjugal rights in hindi