सामान्य परिचय :-
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा एक ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसमें सभी के अधिकारों और स्वतंत्रताओ को रेखांकित किया गया है । यह मानव अधिकारों के मूल सिद्धांतो पर पहला अंतरराष्ट्रीय समझौता था। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा एक दस्तावेज है जो स्वतंत्रता और समानता के लिए एक वैश्विक रोड मैप की तरह काम करता है तथा हर व्यक्ति के अधिकारों की हर जगह सुरक्षा करता है ।
यह पहली बार था जब देशो ने स्वतंत्रता और अधिकारों पर सहमति व्यक्त की थी , जो हर व्यक्ति को अपने जीवन को स्वतंत्र रुप से , समान रुप से और गरिमा में जीने के लिए सार्वभौमिक सुरक्षा के लायक थे।
=> मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा ने एक Guide line दी थी पूरी दुनिया को कि How to protect Human being या How to protect the rights of Human beings.
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का इतिहास:-
1945 में UNO बनने के पश्चात संयुक्त राष्ट्र चार्टर के मानव अधिकारों से संबंधित उपबंधो को कार्यान्वित करने के लिए उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने मानवीय अधिकारों के एक अंतर्राष्ट्रीय बिल को तैयार करने का निर्णय लिया तथा संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आर्थिक एवं सामाजिक परिषद को मानव अधिकार से संबंधित दस्तावेज तैयार करने का आदेश दिया गया , 29 जनवरी 1946 को तथा 1947 में HR कमीशन ने एक Drafting ( प्रारुपण ) समिति नियुक्त की ।
इस कमेटी ने एक proposal के द्वारा एक Draft तैयार करवाया । द्वितीय सत्र में इस पर बहस हुई कुछ लोग कह रहे थे इसे बाध्यकारी बनाए जबकि कुछ लोग इसे एक Treaty के रूप में मांग रहे थे ।लेकिन यह घोषणा फिर बाध्यकारी नहीं बनाई गई थी । HR कमीशन इसे फिर से Draft कमेटी को भेजा और Draft कमेटी ने इसे 1948 में आर्थिक , सामाजिक परिषद को भेजा और इसके बाद महासभा को भेजा ।
महासभा ने इसे मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के नाम ज्ञात संकल्प के द्वारा 10 दिसंबर 1948 को अंगीकार किया । इसे बिना किसी नकारात्मक मत से 48 देशों ने इसे स्वीकार किया तथा आठ राज्य अनुपस्थित रहे । घोषणा को 10 दिसंबर को अंगीकार करने के कारण संपूर्ण विश्व इस तारीख को मानव अधिकार दिवस के रूप में मनाता है। द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव ने UDHR की स्थापना को गति दी।
प्रस्तावना :-
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा की उद्देशिका में यह कहा गया है कि घोषणा में वर्णित मानव अधिकार सभी व्यक्तियों और सभी राष्ट्रों के लिए एक सामान्य मानक के रूप में उद् – घोषित है । इन अधिकारों को प्राप्त करवाने में प्रत्येक व्यक्ति और समाज का प्रत्येक अंग निरंतर ध्यान में रखेंगे तथा इन अधिकारों और स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान जागृत करेंगे। इन अधिकारों के पालन करने के लिए वे राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय उपायों को मान्यता देंगे जिससे राज्यों की अधिकारिता के अधीन आने वाले राज्यक्षेत्र के व्यक्तियों को ये अधिकार प्राप्त हो सके । घोषणा में राज्यों को या सरकारों को सिफारिश नहीं की गई है।
केन्सल के अनुसार :-
केन्सल ने उचित ही कहा है कि – घोषणा सभी व्यक्तियों और सभी राष्ट्रों के लिए सामान्य मानक के रूप में हैं और उद्घोषणा इस उद्देश्य से की गई है कि प्रत्येक व्यक्ति और समाज प्रत्येक अंग इसके लिए प्रयास करेगा । इस प्रकार महासभा प्रत्येक व्यक्ति और समाज के प्रत्येक अंग से घोषणा में अभिकथित मानव अधिकारों के संबंध में कुछ करने के लिए सिफारिश करनी हैं।
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के उपबंध :-
(i) अनुच्छेद 1
(ii) सिविल एवं राजनैतिक अधिकार (अनु. 2 से 21)
(iii) आर्थिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार अनुच्छेद (2 से 27)
(iv) सीमाएं या अपवाद घोषणा में वर्णित मानव अधिकारों के [अनुच्छेद 28 से 30]
सार्वभौमिक घोषणा में एक प्रस्तावना है तथा सिविल , राजनैतिक ,आर्थिक , सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों से संबंधित 30 अनुच्छेद है। यह उल्लेखनीय है कि यह घोषणा राष्ट्रों को न संबोधित होकर प्रत्येक व्यक्ति को संबोधित करती है यह संयुक्त राष्ट्र चार्टर की प्रस्तावना में प्रयुक्त शब्दों ” हम संयुक्त राष्ट्र के लोग ” के अनुरुप है।
घोषणा में न केवल सिविल तथा राजनैतिक अधिकारों के संबंध में प्रावधान है बल्कि सामाजिक तथा आर्थिक अधिकारों के संबंध में भी प्रावधान किया गया है। मानव अधिकारों की परिगणना पहली बार की गई । यद्दपि यह कहने में भी संकोच नहीं है कि परिगणना लाटरपैट की 1945 में प्रकाशित पुस्तक “ एन इंटरनेशनल बिल ऑफ दि राईट्स ऑफ मैन ” में की गई परिगणना के आधार में की गई थी।
(i) अनुच्छेद 01 :-
अनुच्छेद 1 के अनुसार सभी मानव व्यक्तियों की अन्तर्निहित स्वतंत्रता तथा गरिमा एवं अधिकारों में समानता की घोषणा करता है।
(ii) सिविल एवं राजनैतिक मानवाधिकार कौन से है ? (अनु. 2 से 21) :-
अनुच्छेद 2 – ” प्रत्येक को जाति , लिंग , रंग , भाषा , धर्म राजनीतिक या अन्य मत राष्ट्रीय या सामाजिक मूल , संपत्ति , जन्म या अन्य प्रास्थिति के भेदभाव के बिना इस घोषणा में वर्णित सभी अधिकारों एवं स्वतंत्रताओ का अधिकारी है ।
अनुच्छेद 3 – ” प्रत्येक व्यक्ति को प्राण , जीवन , स्वतंत्रता तथा सुरक्षा का अधिकार ।
अनुच्छेद 4 – दासता एवं दास व्यापार की निषिद्धि ।
अनुच्छेद 6 – विधि के समक्ष व्यक्ति के रुप में मान्यता का अधिकार।
अनुच्छेद 7 – बिना भेदभाव के विधि के समक्ष समानता और विधि का समान संरक्षण का अधिकार ।
अनुच्छेद 9 – मनमाने ढंग से गिरफ्तारी , निरुद्ध या निर्वासन से स्वतंत्रता ।
अनुच्छेद 19 – अभिमत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार।
अनुच्छेद 21 – लोक मामलों में भाग लेने का अधिकार।
(iii) आर्थिक एवं सामाजिकमानवाधिकार कौन से है ? ( अनुच्छेद 22 से 27 )
अनुच्छेद 22 – सामाजिक सुरक्षा का अधिकार ।
अनुच्छेद 23 – कार्य करने और नियोजन के स्वतंत्र चयन का अधिकार।
अनुच्छेद 24 – अवकाश और विश्राम का अधिकार ।
अनुच्छेद 26 – शिक्षा का अधिकार।
(iv) सीमाएं या अपवाद घोषणा में वर्णित मानव अधिकारों के [अनुच्छेद 28 से 30]
अनुच्छेद 28 – प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का अधिकार है।
अनुच्छेद 29 (1) – प्रावधानित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति का उस समुदाय के प्रति कर्तव्य है , जिसमें उसके व्यक्तित्व का उन्मुक्त और पूर्ण विकास संभव है।
अनुच्छेद 29 (2) – प्रावधान करता है कि अपने अधिकारों एवं स्वतंत्रताओं के उपभोग मे प्रत्येक केवल उन परिसीमाओं के अधीन होगा जो दूसरों के अधिकारों को सुरक्षित करने के प्रयोजन से केवल विधि द्वारा निर्धारित होती है तथा जो प्रजातांत्रिक समाज में नैतिकता, लोक व्यवस्था तथा सामान्य कल्याण के लिए आवश्यक है ।
अनुच्छेद 29(3) – इन अधिकारों एवं स्वतंत्रता का उपभोग किसी भी दशा में संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों एवं सिद्धांतों के विरुद्ध नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 30 – इसमे निर्वचन का एक नियम दिया गया है । जिसके अनुसार इस घोषणा के किसी भी प्रावधान का इस प्रकार निर्वचन नहीं किया जा सकता है जिससे कोई भी राज्य , दल या जीवित व्यक्ति को किसी ऐसे कार्य करने का अधिकार मिले जिसका उद्देश्य घोषणा में वर्णित अधिकारों एवं स्वतंत्रताओं को नष्ट करने का हो ।
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का उद्देश्य क्या है ? :-
इस घोषणा पत्र का उद्देश्य है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति इसे ध्यान में रखते हुए , अध्यापन और शिक्षा के माध्यम से यह प्रयत्न करें कि इन अधिकारों और स्वतंत्रताओं प्रति सम्मान की भावना सभी में जागृत हो तथा प्रत्येक व्यक्ति जागरुक हो ।
इसका उद्देश्य ये है कि अधिकारों की सार्वभौमिक स्वीकृति की ओर आगे बढ़े और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय उपाय किए जाएं। सभी मनुष्य स्वतंत्र पैदा होते हैं तो उनको समान अधिकार मिलना चाहिए , चाहे स्त्री हो या चाहे पुरुष हो सबको समान अधिकार मिलना चाहिए और उनकी गरिमा को संरक्षित रखा जाना चाहिए। इस घोषणा का उद्देश्य यही था कि विश्वयुद्ध जैसी स्थिति दुबारा उत्पन्न न हो और सभी राष्ट्रों के नागरिकों को अधिकार प्राप्त हो।
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का विधिक प्रभाव क्या है :-
सार्वभौमिक घोषणा जिसको आज के समय का मैग्नाकार्टा कहा जाता है । मानव अधिकार के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र की प्रथम मुख्य उपलब्धियों में से एक थी । इसके द्वारा मानव अधिकारों के प्रावधान सामान्य रुप से लिखे गए थे । जब यह घोषणा लाई गई थी तब ये मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा विधिक रूप से बाध्यकारी नहीं थी।
सार्वभौमिक घोषणा एक संधि नहीं है , इसलिए यह सीधे देशों के लिए कानूनी दायित्वो का निर्माण नहीं करती है। हालांकि , यह उन मूलभूत मूल्यों की अभिव्यक्ति है जो अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सभी सदस्यों द्वारा साझा किए जाते हैं और अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार कानून के विकास पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा है घोषणा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए उपलब्धि का सामान्य मानक नियत करता है। यह सभी राष्ट्रों में सभी व्यक्तियों के अंतर्निहित गरिमा और समान तथा अभेद्य (Inalienable) अधिकारों को मान्यता देता है।
सार्वभौमिक घोषणा न तो अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय है और न ही करार अतः इसके प्रावधान राज्यों पर बाध्यकारी नहीं है । वास्तव में घोषणा को इस आशय से बनाया ही नहीं गया था कि वह राज्यों पर बाध्यकारी हो और न ही कोई विधिक बाध्यता अधिरोपित करती है ।
रूसवेल्ट ने कहा है कि – मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा Morally तो बहुत अच्छा है लेकिन यह बाध्यकारी होने के लिए नहीं बनाया गया था । अन्य शब्दों में विधिक दृष्टि से यह केवल सिद्धांतो की एक घोषणा है अत: विधि में इसके प्रावधान बंधनकारी नहीं होंगे । फिर भी इसका विधिक महत्व है । इसके द्वारा संयुक्त राष्ट्र चार्टर के उद्देश्यों को प्राप्त करने का राज्यों द्वारा प्रयास किया गया है। घोषणा आज इतनी प्रसिद्ध है कि विश्व की हर देश ने इसे स्वीकार कर लिया है और अब ये एक प्रथा बन गई है ।
सार्वभौमिक घोषणा का प्रभाव राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर :-
घोषणा ने सभी राज्यों के व्यक्तियों को गहराई से प्रभावित किया है इसमें सभी व्यक्तियों और सभी राष्ट्रों के लिए उपलब्धि का सामान्य मानक निहित है । यह प्रेरणा का स्रोत रहा है और कई अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार संधियों में इसका हवाला दिया गया है घोषणा ने कई अन्य घोषणाएं तथा अंतर्राष्ट्रीय अभिसीमाओं को प्रभावित किया जो संयुक्त राष्ट्र और विशिष्ट अभिकरणों के तत्वाधान में किए गए ।
इसके प्रावधानों ने विभिन्न राष्ट्रीय संविधानो , राष्ट्रीय विधायनो और अधिकारिता को प्रभावित किया है। घोषणा को बार-बार न्यायिक विनिश्चयों में उद्धत किया गया है। वास्तव में घोषणा में वर्णित अधिकारों को सभी राज्य किसी न किसी रूप में मानते हैं यद्यपि घोषणा राज्यों पर बंधनकारी नहीं है फिर भी यह चार्टर का अधिकृत निर्वचन है । अतः यह सदस्य राज्यों पर उसी प्रकार बंधनकारी है जैसे चार्टर के प्रावधान । अधिकतर राज्यों में अपने-अपने राज्यों की विधि में घोषणा के प्रावधानो को मानव कल्याण के हित में शामिल किया है दुनिया के लगभग हर राज्य में घोषणा को स्वीकार कर लिया है ।
राष्ट्रीय स्तर पर घोषणा का प्रभाव :–
सार्वभौमिक घोषणा के पारित किए जाने के पश्चात अनेक राष्ट्रीय संविधान पर सार्वभौमिक घोषणा के प्रावधानों का प्रभाव पड़ा है। उदाहरण के लिए – अरजीरिया , बुरन्न्डी , कैमेरन्न , कांगो के प्रजातांत्रिक गणतंत्र आदि देशो के लोगों ने अपने संविधानों में सार्वभौमिक घोषणा के सिद्धांतो एवं आदर्शों के प्रति अपना गम्भीर संकल्प व्यक्त किया है ।
कई देशों में न्यायिक और राजनैतिक हस्तियों UDHR को सीधे तौर पर अपनी अदालत संविधानों और कानूनी कोड के प्रभाव का प्रेरणा के रूप में स्वीकार किया है। भारतीय न्यायालयों ने भारतीय संविधान के घोषणापत्र में निहित अधिकांश अनुच्छेद शामिल है। विविध राष्ट्र और जिम्बाब्वे ने घोषणा से संवैधानिक और कानूनी प्रावधान प्राप्त किए हैं । कुछ मामलों में UDHR के विशिष्ट प्रावधानों को राष्ट्रीय कानून में शामिल या अन्यथा प्रतिबिंब किया जाता है।
भारत में (In India) :- भारतीय संविधान में भी सार्वभौमिक घोषणा का स्पष्ट प्रभाव है तथा उच्चतम न्यायालय ने इसे स्वीकार किया है।
केस:- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य
इस वाद में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने संविधान के भाग 3 में उल्लिखित मौलिक अधिकारों का हवाला देते हुए कहा था कि ” मैं यह धारित करने में असमर्थ हूं कि इन प्रावधानों से यह दर्शित होता है कि कुछ अधिकार नैसर्गिक या असंक्रमणीय नहीं है। वास्तव में भारत मानवीय अधिकारों की घोषणा का पक्षकार था तथा घोषणा में कुछ मौलिक अधिकारों को असंक्रमणीय कहा गया है ।
केस:- चेयरमैन , रेलवे बोर्ड तथा बनाम अन्य श्रीमती चन्द्रिमा दास
इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंगीकृत प्रसंविदायें तथा घोषणाओं का हस्ताक्षर करने वाले देशों द्वारा आदर किया जाना चाहिए तथा इन घोषणाओं ( उदाहरण – सार्वभौमिक घोषणा तथा महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की समाप्ति पर घोषणा ) तथा प्रसंविदाओं में शब्दों के दिए गये अर्थ को ऐसा लगाया जाना चाहिए जिससे इन अधिकारों के प्रभावकारी कार्यान्वयन में सहायता मिले।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर घोषणा का प्रभाव –
मानवीय अधिकारों के विषय पर इतना अधिक उच्च कोटि का अंतर्राष्ट्रीय विधि का विकास हुआ है जिसका आज तक कोई अन्य विषय मुकाबला नही कर सकता । जनवध से लेकर सूचना , संघ , महिलाओं की प्रस्थिति , शरणार्थी आदि तक जीवन के विभिन्न विस्तृत पहलुओ से मानवीय अधिकारो का विषय संबंधित है।
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का हवाला संयुक्त राष्ट्र द्वारा की गई कार्यवाहियों के औचित्य के लिए दिया जाता है।सार्वभौमिक घोषणा के प्रावधानों ने संयुक्त राष्ट्र के भीतर एवं बाहर अनेक अभिसमयों को प्रोत्साहित किया है तथा ऐसे कई उदाहरण है जहाँ घोषणा के प्रावधानों को मानवीय अधिकारो का अंतर्राष्ट्रीय मानक माना है । सार्वभौमिक घोषणा के प्रावधानों को अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं में अपनाकर अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय या संधि विधि का रूप दिया गया है यह प्रसंविदाओं , ऐच्छिक प्रोटोकॉल तथा सार्वभौमिक घोषणा के साथ मिलकर मानवीय अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय बिल बना है ।
अनेक अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय जो मानवीय अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा से प्रभावित एवं उत्साहित होकर किए गए हैं क्योंकि ये अभिसमय विधिक रुप से बाध्यकारी दायित्व उत्पन्न करते हैं ।
उदाहरण – (1) शरणार्थियों की प्रास्थिति पर अभिसमय 1951 .
(2) महिलाओं के राजनैतिक अधिकारों पर अभिसमय ,1952.
(3) सिविल एवं राजनैतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय , प्रसंविदा , 1966 .
(4) आर्थिक , सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय. प्रसंविदा , 1966
(5) महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेद-भाव की समाप्ति पर अभिसमय , 1979 (CEDAW)
(6)The convention on the rights of the child. 1989 etc.अनेक वादों में न्याय के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के प्रावधानों का हवाला दिया है ।
केस:- कोलंबिया बनाम पेरू , 1950
इस मामले को आश्रयवाद के नाम से भी जाना जाता है । इस वाद में UDHR के विधिक महत्व को स्वीकार किया गया था । UDHR मानव अधिकारों के मूल सिद्धांतो पर पहला अंतर्राष्ट्रीय समझौता (agreement) था । दुनिया के लगभग हर राज्य ने घोषणा को स्वीकार कर लिया है । इसने 80 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और संधियों , साथ ही कई क्षेत्रीय सम्मेलनों और घरेलू कानूनों को प्रेरित किया है ।
मानव अधिकार की सार्वभौमिक घोषणा भारत में
सामान्य परिचय :-
भारत ने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा पर हस्ताक्षर किया था तथा भारतीय संविधान को घोषणा ने बहुत अधिक प्रभावित किया है ।
संविधान की उद्देशिका , व्यक्ति की गरिमा शब्दों का प्रयोग करता है जिससे यह परिलक्षित होता है कि व्यक्तियों में अन्तर्निहित मूल्यों को भलि प्रकार से मान्यता प्राप्त है। भारत ने मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के प्रारुपण में सक्रिय भूमिका अदा की थी ।
भारतीय संविधान एवं सार्वभौमिक घोषणा :-
भारतीय संविधान के भाग 3 में मूल अधिकार एवं भाग 4 में राज्य के नीति – निर्देशक तत्व में वर्णित कई अधिकार मानव अधिकार की सार्वभौमिक घोषणा में वर्णित अधिकारों के समान है ।
केस:- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य
इस केस में न्यायालय द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है कि मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के महत्व को भारतीय संविधान में भी स्वीकार किया गया है भाग – 3 के अंतर्गत ।
संसद के द्वारा जो भी नियम बनाए गए है उनके द्वारा भी मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के महत्व को स्वीकार किया गया है।
न्यायालयों द्वारा अपने निर्णयों में भी मानव अधिकारों की घोषणा का प्रभाव मिलता है और इसका प्रवर्तन भी कराया जा सकता है ।
भारतीय संविधान एवं मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में वर्णित अधिकार की तालिका :-
भारतीय संविधान के भाग – 3 में वर्णित अधिकार में कई अधिकार घोषणा में वर्णित अधिकारों के समान है जो निम्न प्रकार से है –
क्र. | अधिकार का नाम | सार्वभौमिक घोषणा | भारतीय संविधान |
1. | प्राण एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार | अनुच्छेद 3 | अनु. 21 |
2. | विधि के समक्ष समानता का अधिकार | अनु. 7 | अनु. 14 |
3. | विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता | अनु. 19 | अनु. 19 (1) (क) |
4. | अन्त: करण एवं धर्म की स्वतंत्रता | अनु. 18 | अनु. 25 (1) |
5. | भेदभाव का प्रतिषेध | अनु. 7 | अनु. 15 (1) |
6. | अवसर की समानता | अनु. 21(2) | अनु. 16 (1) |
7. | अधिकारों के प्रवर्तन हेतु उपचार | अनु. 8 | अनु. 32 |
उक्त तालिका यह दर्शित करती है कि भारतीय संविधान जो सार्वभौमिक घोषणा के कुछ ही समय बाद अंगीकार किया गया था व्यापक रुप से प्रभावित है ।
केस :-केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य[ AIR (1973) sc 1461 ]
इस केस में sc ने बोला है कि मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा विधिक रुप से आबद्धकर लिखित नहीं हो सकती , किंतु यह दर्शित करती है कि कैसे भारतीय संविधान को स्वीकार करते समय मानव अधिकारों की प्रकृति को समझा गया था ।
केस:- किशोस्पंद बनाम हिमाचल प्रदेश[ए. आई. आर. (1991) sc जे. 68 ]
इस केस मे कहा गया है कि भारत में संविधान का निर्वचन घोषणा द्वारा अत्यधिक प्रभावित हुआ है।
केस:- जालीजार्ज वर्गीज बनाम बैंक ऑफ कोचीन [ए. आई. आर. 1980 sc 474 ]
इस केस में sc ने कहा है की घोषणा नियमों का आबद्धकर वर्ग सृजित नहीं कर सकती ।
केस:- चेयरमैन रेलवे बोर्ड एवं अन्य बनाम चंद्रिका दास[ ए. आई. आर. 2000(1) sc ]
इस केस में sc ने कहा है की घोषणा को नैतिक व्यवहार संहिता के रूप में अंतर्रा. मान्यता प्रदान की गई है जिसे की संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा स्वीकार किया गया है ।
केस:- विशाखा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान [ ए. आई. आर . 1997 sc 3011]
यह केस sexual harassment of work place से संबंधित है । sexual harassment से संबंधित भारत में कोई विधि नहीं थी लेकिन इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेजों का सहारा लिया गया। जैसे- CEDAW , 1979 , UDHR , 1948 .
केस:- गोरकनाथ बनाम स्टेट ऑफ पंजाब [ ए. आई. आर. ,1967 sc 1643 ]
इस केस में न्यायाधीपति सुब्बाराव ने मानव अधिकारों को नैसर्गिक और अप्रतिदेय अधिकार माना है।
केस:- नाटेबाम वाद
इस वाद में मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के विधिक महत्व को स्वीकार किया गया था ।
Art. 29 – Limitation या सीमा , सार्वभौमिक घोषणा से संबंधित वाद
केस:- रंजीत देशी बनाम महाराष्ट्र राज्य [ ए. आई . आर .1965 sc]
इस वाद में न्यायालय के द्वारा नैतिकता को बताया गया था ।
केस:- रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य [ए. आई. आर. 1950]
इस वाद में न्यायालय ने कहा कि लोक व्यवस्था (public order) शब्द को परिभाषित करना मुश्किल है किसी विशेष समय और स्थान के हिसाब से ।
केस:- एक्सप्रेस न्यूज़पेपर्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1958)
इस केस में नैतिकता (Morality) शब्द को परिभाषित किया गया था।
निष्कर्ष :-
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को द्वितीय विश्व युद्ध की भयावहता के कारण हुए मानव अधिकारों के हनन के कारण इस घोषणा को लाया गया था। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को उन सभी मौलिक अधिकारों को शामिल करने के लिए लिखा गया था जिनके लिए मानव संपन्न है। कानूनी रुप से बाध्यकारी नहीं होने के बावजूद इस घोषणा के तीस अनुच्छेद वैश्विक स्तर पर मानव अधिकारों के महत्वपूर्ण सुधार का विषय रहे हैं । इस घोषणा के कारण सदस्य राज्यों ने व्यक्तियों के मानव अधिकारों की रक्षा की है । UDHR ने हर जगह लोगों के अधिकारों को आगे बढ़ाने के लिए एक आवश्यक उपकरण के रूप में कार्य किया है ।
यह घोषणा कोई विधिक बाध्यताएं अधिरोपित नही करती तथा यह घोषणा मानव , स्वतंत्रता , गरिमा और समानता की बात करती है । घोषणा में सभी व्यक्तियों के लिए और सभी राष्ट्रों के लिए उपलब्धि का सामान्य मानक निहित है।
संदर्भ सूची:-
- डॉ एस .के .कपूर – मानव अधिकार
- एच .ओ .अग्रवाल – मानव अधिकार
- मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा –https://www.un.org/en/about-us/universal-declaration-of-human-rights
- मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा –https://en.wikipedia.org/wiki/Universal_Declaration_of_Human_Rights
- मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा-https://www.ohchr.org/en/universal-declaration-of-human-rights
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा पर आर्टिकल Neha Vishwakarma के द्वारा लिखा गया है जो की LL.M. Ist
सेमेस्टर डॉ. हरी सिंह गौर सेंट्रल यूनिवर्सिटी सागर की छात्रा है |
मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR) FAQ
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मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (UDHR) क्या है ?
यह मानव अधिकारों के मूल सिद्धांतो पर पहला अंतरराष्ट्रीय समझौता था। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा एक दस्तावेज है जो स्वतंत्रता और समानता के लिए एक वैश्विक रोड मैप की तरह काम करता है तथा हर व्यक्ति के अधिकारों की हर जगह सुरक्षा करता है ।
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मानवाधिकारों की घोषणा कब और किस संगठन द्वारा की गई है?
संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने 10 दिसंबर 1948 को|
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मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (udhr) की कानूनी प्रकृति क्या है?
भारतीय संविधान में भी सार्वभौमिक घोषणा का स्पष्ट प्रभाव है तथा उच्चतम न्यायालय ने इसे स्वीकार किया है।