विद्वेषपूर्ण अभियोजन :- विधि प्रत्येक व्यक्ति को अपने हितों की रक्षा करने का अधिकार देती है जिसके लिये वह विधिक कार्यवाही कर सकता है किन्तु विधिक कार्यवाही सद्भावनापूर्वक की जानी चाहिये। यदि कोई व्यक्ति दुर्भावनापूर्वक अनुचित उद्देश्यों की पूर्ति के लिये बिना किसी युक्तियुक्त कारण के किसी व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही करता है तो वह व्यक्ति क्षतिपूर्ति का हकदार हो जाता है।
ऐसी असफल दाण्डिक कार्यवाही जो बिना युक्तियुक्त औचित्य के विद्वेषपूर्ण रीति से किसी निर्दोष व्यक्ति के विरुद्ध की गई हो विद्वेषपूर्ण अभियोजन कही जाती है।
विद्वेषपूर्ण अभियोजन के लिये दायित्व तब उत्पन्न होता है, जबकि कार्यवाही न्यायिक अधिकारी के समक्ष संस्थापित की गयी हो। ऐसा ही डी. एन. बन्धोपाध्याय बनाम भारत संघ के वाद में अभिनिर्धारित किया गया था।
विद्वेषपूर्ण अभियोजन के मामले में क्षतिपूर्ति के लिये वाद लाते समय वादी को निम्नलिखित तथ्य सिद्ध करने होते हैं :-
(1) प्रतिवादी द्वारा अभियोजन ।
(2) उक्त अभियोजन बिना किसी युक्तियुक्त और संभाव्य कारण के संस्थित किया गया था।
(3) प्रतिवादी ने विद्वेषपूर्ण रीति से दुर्भावनापूर्वक कार्यवाही की थी।
(4) वर्तमान वादी के पक्ष में उक्त कार्यवाही समाप्त हुई।
(5) उक्त कार्यवाही के कारण वर्तमान वादी को क्षति कारित हुई।
1.प्रतिवादी द्वारा अभियोजन (Prosecution by the Defendant)
इस आवश्यक संघटक के अन्तर्गत दो तत्वों को सिद्ध किया जाना आवश्यक है:-
(i) यह कि, वादी के विपरीत कोई अभियोजन संस्थित किया गया था, और
(ii) यह कि, वह अभियोजन प्रतिवादी द्वारा संस्थित किया गया था।
केस :-नागेन्द्रनाथ राय बनाम बसन्त राय वैराग्य, I.L.R.(1929)
इस वाद में प्रतिवादी के मकान में चोरी हो गई थी, उसने पुलिस को सूचित किया कि उसको वादी पर सन्देह है इसके बाद वादी पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया, परन्तु बाद में मजिस्ट्रेट द्वारा उन्मोचन पर रिहा कर दिया गया, क्योंकि पुलिस की अन्तिम रिपोर्ट से यह परिलक्षित होता था कि वादी को चोरी के लिये उत्तरदायी बनाने के लिये पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे।
विद्वेषपूर्ण अभियोजन की कार्यवाही में यह धारित किया गया कि यह कार्यवाही चलने योग्य नहीं थी, क्योंकि वादी के प्रतिकूल कोई अभियोजन चलाया ही नहीं गया था, क्योंकि मात्र पुलिस कार्यवाहियाँ अभियोजन का निर्माण नहीं करती।
केस :-कपूर चन्द बनाम जगदीश चन्द्र ,ए. आई. आर. 1974 पी.एंड.एच. 2015
इस वाद में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह धारित किया है कि पंजाब की आयुर्वेदिक एवं यूनानी पद्धति की चिकित्सा परिषद् के समक्ष चलाई गई कार्यवाही अभियोजन थी। इस वाद में अपीलार्थी ने पंजाब की आयुर्वेदिक एवं यूनानी चिकित्सा परिषद् के समक्ष इस अभिकथन के साथ परिवाद दाखिल किया गया था कि प्रत्यर्थी, जो एक हकीम के रूप में अपना व्यवसाय चला रहा था, एक अशिक्षित व्यक्ति है और उसने प्रच्छन्न साधनों का प्रयोग करके हिकमत के झूठा प्रमाण-पत्रों को प्राप्त किया है।
परिषद् ने यह धारित किया था कि प्रत्यर्थी एक प्रतिगृहीत और योग्य हकीम था और उसको इस रूप में व्यवसाय चलाने के लिये प्राधिकृत किया गया था। विद्वेषपूर्ण अभियोजन की कार्यवाही में यह धारित किया गया कि प्रत्यर्थी को नुकसानी का दावा करने का अधिकार है।
केस :- गया प्रसाद बनाम भारत सिंह (1908)
इस वाद में प्रीवी कौंसिल ने यह इंगित किया था कि यह निर्णय करने के लिये कि क्या परिवादकर्ता ही वास्तविक अभियोजन है, परिवाद दाखिल करने के पूर्व और उसके पश्चात् उसका आचरण परीक्षित किया जाना चाहिये। परिवादकर्ता यदि यह जानता है कि आरोप मिथ्या है परन्तु वह अभियुक्त को दोषसिद्धि दिलाने के लिये मिथ्या साक्ष्यों को उपलब्ध करके यदि पुलिस को भ्रमित करने का प्रयास करता है तो उसे अभियोजन के रूप में माना जा सकता है।
2. युक्तियुक्त और संभाव्य कारण की अनुपस्थिति (absence of reasonable and probable cause)
केस :-फिलिप बनाम हिन्दू मानव धर्म परिपालन सभा AIR 2003 केरल 205
इस मामले में विद्वेषपूर्ण अभियोजन (Malicious Prosecution) का दावा इसलिये खारिज कर दिया गया कि वादी यह सिद्ध करने में असफल रहा कि उक्त अभियोजन युक्तियुक्तक और सम्भाव्य कारण की अनुपस्थिति (absence of reasonable and probable cause) से लाया गया था।
अभियोजन की असली कारण से पक्षों की पहले से चले आ रहे एक झगड़े का कारण था। यहाँ यह बिल्कुल विदित नहीं था कि प्रतिवादी की विद्वेषपूर्ण दुर्भावना थी। अतः प्रतिवादी के विरुद्ध विद्वेषपूर्ण अभियोजन का मामला खारिज कर दिया गया।
3. विद्वेष (Malice)
केस :-अब्दुल मजीद बनाम हरबंश चौबे, ए आई आर 1974 इलाहाबाद 129
इस वाद में वादी को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 412 के अन्तर्गत एक डकैती के मामले में अपहृत एक ‘हँसुली” को अपने कब्जे में रखने के अपराध में अभियोजित किया गया था। प्रतिवादी नम्बर 1, जो पुलिस स्टेशन का स्टेशन अधिकारी था, ने दो अन्य प्रतिवादियों के साथ मिलकर वादी के विरुद्ध इस कहानी का निर्माण कराने में षड़यंत्र किया था, जिसमें यह कहा गया था कि “हँसुली” वादी के घर में मिली थी। वादी को सन्देह का लाभ देकर आरोपों से दोषमुक्त कर दिया गया।
विद्वेषपूर्ण अभियोजन की कार्यवाही में जो वादी (प्रत्यर्थी) द्वारा चलाई गई थी यह पाया गया कि प्रतिवादी वादी को अभियोजित करने के निमित्त दोषपूर्ण और अप्रत्यक्ष प्रयोजन द्वारा प्रेरित था और यही कारण था कि उन लोगों ने उसके विपरीत एक कहानी का निर्माण करके अभियोजित किया था। प्रतिवादी को उत्तरदायी माना गया।
4. कार्यवाहियों वादी के पक्ष में समाप्त होना (Termination of Proceeding in Pavour of the Plaintiff)
केस:- रेनोल्ड्स बनाम केन्नेडी,(1867)
इस वाद में यह धारित किया गया है कि विद्वेषपूर्ण अभियोजन की कार्यवाही के लिये मूल दोषसिद्धि एक बाधा के रूप में कार्य करती है और अपील के स्तर पर दोषसिद्धि का पश्चात्वर्ती उलट दिया जाना प्रभावी नहीं होता। पश्चात्वर्ती निर्णयों के दृष्टिकोण से यह स्थिति सही नहीं लगती।
इस प्रकार, यदि अपील करने पर कार्यवाहियां वादी के पक्ष में समाप्त हो जाती हैं तो यह माना जाएगा कि विद्वेषपूर्ण अभियोजन के निमित्त उसका वाद करण विद्यमान है।
5. क्षति(Damage)
विद्वेषपूर्ण अभियोजन के दावे में वादी निम्न प्रकार की क्षतियों के निमित्त नुकसानी का दावा कर सकता है-
(1) ख्याति की क्षति (Damage to reputation);
(2) शरीर की क्षति (Damage to person);
(3) सम्पत्ति की क्षति (Damage to property);
केस:- बिफ्फेन बनाम वेली एण्ड रोमफोर्ड यू० डी० सी०(1915)
इस वाद में वादी को अपने मकान के कुछ कमरों की दीवारों को साफकरने के लिये कहा गया था, किन्तु उसने उस नोटिस का पालन नहीं किया। तब उसे प्रतिवादी द्वारा अभियोजित किया गया वादी को न्यायालय द्वारा जब दोषमुक्त कर दिया गया तो उसने विद्वेषपूर्ण अभियोजन के निमित्त वादी संस्थित किया।
यह धारित किया गया कि विद्वेषपूर्ण अभियोजन के निमित्त कार्यवाही का पर्याप्त आधार नहीं था, क्योंकि अभियोजन की विफलता के परिणामस्वरूप उसकी ख्याति को कोई क्षति नहीं पहुँची थी।
मिथ्या कारावास एवं विद्वेषपूर्ण अभियोजन में अन्तर (Difference between False Imprisonment and Malicious Prosecution) :
एक जैसे प्रतीत होने वाले इन पदों में काफी अन्तर है जो निम्नानुसार है:-
(1) किसी व्यक्ति की शारीरिक स्वतंत्रता पर अवरोध प्रतिवादी या उसके प्रतिनिधियों द्वारा डाला जाना मिथ्या कारावास होता है जबकि विद्वेषपूर्ण अभियोजन में न्यायिक प्रक्रिया की सहायता ली जाती है।
(2) मिथ्या कारावास में सिद्ध करने का भार प्रतिवादी पर होता है जबकि विद्वेषपूर्ण अभियोजन में सिद्ध करने का भार वादी पर होता है।
(3) मिथ्या कारावास में प्रतिवादी की विद्वेषपूर्ण भावना को सिद्ध करना आवश्यक नहीं होता जबकि विद्वेषपूर्ण अभियोजन में विद्वेषपूर्ण भावना सिद्ध करना आवश्यक होता है।
(4) मिथ्या कारावास में क्षति सिद्ध करना आवश्यक नहीं होता है जबकि विद्वेषपूर्ण अभियोजन में क्षति सिद्ध करना आवश्यक है चाहे वह प्रतिष्ठा की क्षति हो, शारीरिक क्षति हो या आर्थिक क्षति हो ।
विद्वेषपूर्ण अभियोजन FAQ
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विद्वेषपूर्ण अभियोजन के मामले में क्षतिपूर्ति के लिये वाद लाते समय वादी को क्या सिद्ध करना होता है ?
(1) प्रतिवादी द्वारा अभियोजन ।
(2) उक्त अभियोजन बिना किसी युक्तियुक्त और संभाव्य कारण के संस्थित किया गया था।
(3) प्रतिवादी ने विद्वेषपूर्ण रीति से दुर्भावनापूर्वक कार्यवाही की थी।
(4) वर्तमान वादी के पक्ष में उक्त कार्यवाही समाप्त हुई।
(5) उक्त कार्यवाही के कारण वर्तमान वादी को क्षति कारित हुई। -
क्षति कितने प्रकार से हो सकती है ?
(1) ख्याति की क्षति
(2) शरीर की क्षति
(3) सम्पत्ति की क्षति -
विद्वेषपूर्ण अभियोजन क्या होता है ?
यदि कोई व्यक्ति दुर्भावनापूर्वक अनुचित उद्देश्यों की पूर्ति के लिये बिना किसी युक्तियुक्त कारण के किसी व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही करता है तो वह विद्वेषपूर्ण अभियोजन कहलाता है |
विद्वेषपूर्ण अभियोजन क्या है MCQ
Results
#1. विद्वेषपूर्ण अभियोजन के मामले में वादी को क्या साबित करना आवश्यक नहीं है ?
#2. विद्वेषपूर्ण अभियोजन का मामला स्थापित करने हेतु विद्वेष होना चाहिए :-
#3. निम्नलिखित में से किसको विद्वेषपूर्ण अभियोजन की कार्यवाही कहा जा सकता है ?
#4. निम्नलिखित में से कौन-सा एक कथन सही है ? द्वेषपूर्ण अभियोजन की कार्रवाई में वादी के द्वारा यह साबित किया जाना आवश्यक नही है कि :
#5. विद्वेषपूर्ण अभियोजन एक अपकृत्य है जो बचाव का आशय रखता है:
संदर्भ-
- अपकृत्य विधि-आर.के. बंगिया
- अपकृत्य विधि- जयनारायण पाण्डेय
- अपकृत्य विधि- एम एन शुक्ला
- अपकृत्य विधि -भीमसेन खेत्रपाल
- अपकृत्य विधि- MCQ BOOK